नोएडा: "मैं सुबह 5 बजे उठकर बच्चों के लिए खाना तैयार कर 7:30 बजे तक भंगेल लेबर चौक के लिए निकल जाती हूँ। करीब 8 बजे तक पहुँचती हूँ और 11 बजे तक काम मिलने का इंतज़ार करती हूँ," ग्रेटर नोएडा के कुलेसरा में किराये के मकान में रहकर दिहाड़ी मज़दूरी करने वाली 27 वर्षीय शैरूण खातुन ने अपनी दिनचर्या का ब्यौरा देते हुए इंडियास्पेंड को बताया।

शैरूण को महीने में करीब 10-15 दिन ही काम मिल पता है और वह महीने में करीब 4 हजार से 6 हजार रूपये ही कमा पाती हैं।

"इसी कमाई से अपना और दोनों बच्चों का पेट पालती हूँ। कभी-कभी ख़ाली पेट भी सोना पड़ता है।"

शैरूण की ही तरह देश में 9.6 करोड़ महिलाएं हैं जो असंगठित क्षेत्र में रोजगार कर रही हैं। इन अस्थाई महिला श्रमिकों को कई समस्याओं जैसे कम वेतन, घरेलु और सामाजिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है, साथ ही इन्हें श्रम कानून और सरकारी योजनाओं की जानकारी भी बहुत कम होती है।

महिला मज़दूरों के लिए श्रम कानून

महिला श्रमिकों के हितों के लिए कई श्रम क़ानून बनाए गए हैं। लेकिन अधिकतर महिला श्रमिकों को इन कानूनों की कोई जानकारी नहीं है।

समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 के अनुसार समान कार्य हेतु बिना किसी भेदभाव के पुरुष और महिला कामगारों को समान पारिश्रमिक का भुगतान किए जाने तथा भर्ती के उपरांत पदोन्नतियों, प्रशिक्षण अथवा स्थानांतरण जैसी सेवा की किसी शर्त में महिला कर्मचारी के विरूद्ध भेदभाव की रोकथाम का प्रावधान किया गया है।

हालांकि महिला मजदूरों के मामले में इस नियम का पालन होते बहुत ही कम देखा जाता है।

बिहार के सहरसा से नोएडा आयी, 36 वर्षीय सकीना अपनी गुजर बसर के लिए मजदूरी करती हैं। प्रतिदिन दिहाड़ी के रूप में सकीना को 300 रुपये मिलते हैं, जबकि पुरुष मजदूरों को उनके बराबर काम करने के बाद 400 रुपये मिलते हैं।

शहनाज़ (42) गौतमबुद्ध नगर ज़िले के कुलेसरा गाँव की मूल निवासी हैं। शहनाज़ खेतों में निराई और गोड़ाई का काम करती हैं। अपनी परेशानियों का ज़िक्र करते हुए वह कहती हैं, "हमारे पास अपने खेत नहीं हैं दूसरों के खेतों में काम करके ही गुज़ारा होता है। हमें 8 घंटे काम के बदले 250-300 रुपये ही मिलते हैं। पूरे दिन धूप में ही काम करना पड़ता है।"

इस विषय में महिला कामगार समिति की अध्यक्ष लता सिंह बताती हैं, "गौतमबुद्ध नगर जिले में महिला मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। समान काम समान वेतन का कानून लागू होने के बाद भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है। दिहाड़ी मजदूरों में भी महिलाएं पुरुषों के बराबर ही मेहनत करती हैं।"

लता सिंह गौतमबुद्ध नगर जिले में महिला मजदूरों की स्थिति जानने के लिए साल 1995 में बनी एक समिति की सदस्य भी थीं। "केवल एक या दो मीटिंग के बाद समिति निष्क्रिय हो गई। ऐसा नहीं है कि प्रशासन को स्थिति की जानकारी नहीं, जो कानून हैं भी उन्हें लागू करवाने के प्रति प्रशासन का रवैया चिंताजनक है," वह आगे बताती हैं।

समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 के उपबंधों का उल्लंघन करने वाले नियोजकों के विरुद्ध न्यायालयों में शिकायतें दायर के लिए इस अधिनियम के अंतर्गत चार सामाजिक कल्याण संगठनों को मान्यता प्रदान की गई है – 1: महिला विकास अध्ययन केन्द्र, नई दिल्ली; 2: स्वनियोजित महिला संघ, अहमदाबाद; 3: श्रमजीवी महिला मंच (भारत), चेन्नई; और 4: सामाजिक अध्ययन न्यास संस्थान, नई दिल्ली।

देश में महिला दिहाड़ी मज़दूरों की स्थिति जानने के लिए हमने स्वनियोजित महिला संघ, अहमदाबाद और महिला विकास अध्ययन केन्द्र, नई दिल्ली को सवालों की सूची ईमेल की है। उनका जवाब प्राप्त होते ही रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा।

शैरूण बिहार के सहरसा ज़िले की मूल निवासी हैं। पति से अलग के बाद अपने दो बच्चों 5 वर्ष की रुखसार और 3 वर्ष के जलाल के साथ 2020 में नोएडा आ गई थीं। पति ने दो और शादियाँ कर ली हैं।

बच्चों की देखभाल में आने वाली समस्याओं के सवाल पर वह कहती हैं, "मई में मुझे बहुत कम काम मिला तो किराया जमा करने में देरी हो गई। मैं बच्चों के लिए खाना बनाकर काम पर चली गई तो मकान मालिक ने कमरे में ताला लगा दिया। घर के अंदर रखा खाना रात तक बासी हो गया लेकिन उसने दरवाज़ा नहीं खोला। बच्चे दिन भर भूखे रहे। बग़ल के कमरे में रहने वाली आंटी ने बच्चों को खाना खिलाया। मैंने किसी तरह से उसे पैसे दिए तब उसने कमरे का दरवाज़ा खोला।"

शैरूण अनपढ़ हैं, लेकिन बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं। हालांकि आर्थिक तंगी और सरकारी स्कूल के अभाव में उनके बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। आधार कार्ड पति ने फाड़ दिया था, तबसे दुबारा नहीं बन सका। अभी तक उनका बैंक खाता भी नहीं खुला है। श्रम क़ानून, सरकारी योजनाओं के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है।

कार्यस्थल पर अलग शौचालय और पेशाबघर की भी सुविधा नहीं

कॉन्ट्रैक्ट लेबर (विनियमन एवं उन्मूलन) एक्ट, 1970 के अध्याय 5 और इंटर स्टेट माइग्रेट वर्कमेन (इंटर स्टेट प्रवासी कर्मकार) सेंट्रल रूल्स, 1980 के नियम 42 महिला मज़दूरों के लिए अलग शौचालय और पेशाबघर का प्रावधान करता है। लेकिन बेहद कम जगहों पर महिला दिहाड़ी मज़दूरों के लिए यह व्यवस्था की जाती है।

सकीना नोएडा के सेक्टर 136 में चारों ओर निर्माणाधीन भवनों से घिरे 5-6 कमरों के समूह में से एक में अपने पति और तीन बच्चों के साथ रहती हैं। "मैं सड़क पर ही किसी ठेले, गाड़ी या अन्य वस्तु की आड़ लेकर नहाती हूँ। हमारा कमरा इतना छोटा है कि पूरा परिवार सो भी नहीं सकता है। छत टीन शेड की है, सूरज की तपिश सुबह 8 से लेकर रात 8 बजे तक अंदर रहने नहीं देती। हम यहाँ पर आते समय राशन, निर्वाचन और आधार कार्ड लेकर आये थे। राशन नहीं मिला तो वापस भिजवा दिया है। सरकार से कोई भी मदद नहीं मिलती है।"

वह कार्यस्थल की चुनौतियों का ज़िक्र करते हुए आगे कहती हैं, "हम ज़्यादातर भवन निर्माण का काम करते हैं। कार्यस्थल पर पीने के पानी और शौचालय तक का भी पर्याप्त इंतज़ाम नहीं रहता है। काम के घंटे कहने को 8 होते हैं। समय पूरा होने के बाद भी सामानों को व्यवस्थित भी करना होता है जो काम की श्रेणी में नहीं आता है।"

उत्तर प्रदेश भवन एवं सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड की वेबसाइट के अनुसार सरकार ने भवन एवं निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों के लिए 28 योजनाओं को लागू किया है। इनमें से 5 ( शिशु हितलाभ योजना, बालिका आशीर्वाद योजना, मातृत्व हितलाभ योजना, पुत्री विवाह अनुदान योजना, मातृत्व शिशु एवं बालिका मदद योजना) महिलाओं को केन्द्र में रखकर तैयार की गयी हैं। इसके अलावा शौचालय और आवास निर्माण की भी योजना को लागू किया गया है।

वर्तमान सरकार ने बड़े पैमाने पर शौचालय और आवास निर्माण करवाने के दावे किये हैं और अकसर इसे उपलब्धि के रूप में भी प्रस्तुत करती है। हालांकि, निर्माण मजदूरों के लिए सरकार की यह योजनाएं भी दावों तक ही सीमित हैं। आंकड़ों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2022-23 में अब तक शौचालय सहायता योजना के तहत प्राप्त 1,964 और आवास सहायता योजना के 289 आवेदनों में से केवल एक को स्वीकृत किया गया है।