भारत की घरेलू महिला कामगार आज भी कोरोना महामारी से उबर नहीं पाई
हमारे देश में 1.7 करोड़ से अधिक महिलाएं ऐसी हैं जो घर से काम करती हैं। इन महिलाओं को अपने काम के लिए सामाजिक सुरक्षा या राष्ट्रीय बीमा का लाभ नहीं मिलता है।
नई दिल्ली/मुंबई: मुंबई की शबनम शेख और नई दिल्ली की रूपा देवी एक-दूसरे के वजूद से अनजान हैं। दोनों के बीच 1,400 किलोमीटर से ज्यादा दूरी का फासला है। शेख का काम फटी जींस पर पैबंद लगाना है, जबकि देवी रोजी-रोटी के लिए नकली माला बनाने का काम करती हैं।
ये दोनों ही घर से काम करने वाली अनौपचारिक कर्मचारी हैं, जो पैसे कमाने के लिए या तो अपने घर में या फिर नियोक्ता के कार्यालय के बाहर काम करती हैं। भारत की श्रम श्रृंखला में यह दोनों लगभग सबसे निचले पायदान पर आती हैं। शेख और देवी की एक दिन की कमाई 100 रुपये से भी कम है। सामाजिक असुरक्षा और इतनी कम आय मिलने के कारण इन घरेलू कामगारों के लिए रोजी-रोटी कमाना पहले ही बहुत मुश्किल काम था। उस पर दो साल से चली आ रही कोविड-19 महामारी ने इनकी स्थिति को और भी बिगाड़ दिया है।
महामारी के इस दौर में देशव्यापी लॉकडाउन और बार-बार आवाजाही पर लगने वाले प्रतिबंध का सीधा असर आपूर्ति श्रृंखला पर पड़ा। इससे मजदूरों की जरूरत भी खत्म होती चली गई। विशेषज्ञ और शोध बताते हैं कि इस दौरान लोगों के रोज़गार छिन गए और निश्चित आय भी नहीं रही। कुछ ऐसा ही शेख और देवी के साथ भी हुआ। एक साल से अधिक समय से शबनम बेरोज़गार हैं। वहीं देवी को कई महीनों तक कठिन हालातों से जूझना पड़ा क्योंकि ठेकेदारों ने उनकी मजदूरी समय से दी ही नहीं।
इंडियास्पेंड ने इन दोनों महिलाओं से कई महीनों तक बात की। इसके साथ ही घरेलू कामगारों का समर्थन करने वाले संगठनों से भी चर्चा की। घरेलू कामगारों पर महामारी के लंबे प्रभाव को दस्तावेज के रूप में तैयार करने के लिए इनसे बातचीत करना ज़रूरी था। इससे यह भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन महिलाओं ने अनियमित आय पाने के बाद भी स्थिति को कैसे संभाला और लंबे समय से चली आ रही रोज़गार संबंधी चुनौतियों का सामना कैसे किया।
रोज़गार पाने के लिए घर की चारदीवारी से बाहर निकलना पड़ता है। लेकिन, हमारे देश में लाखों महिलाओं के लिए सामाजिक बाधाएं और बाहर जा कर काम करने की पाबंदियां नौकरी के विकल्पों को सीमित कर देती हैं। ऐसी परिस्थिति में वह अपने घर से ही कम कर सकती हैं।
देवी कहती हैं, "2020 में लॉकडाउन के बाद से हमारे पास महीनों-महीनों तक कोई काम नहीं था। धीरे-धीरे ऑर्डर कम आने लगे और आय भी कम होती चली गई। उस समय हमारे पास काम था या नहीं था लेकिन खर्चे तो बढ़ते ही रहे।"
देवी और उनके पड़ोस की अन्य महिला कामगारों को राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन सेवा (स्वरोजगार महिला संघ) के स्थानीय स्वयंसेवक मदद करते हैं। वह उन्हें समझाते हैं कि सही समय पर मजदूरी पाने के लिए ठेकेदारों के साथ किस तरह बातचीत करें। वह उन्हें यह भी बताते हैं कि लगातार काम कैसे पाया जा सकता है।
शेख और देवी की तरह कई और कामगार महिलाओं ने कोविड के समय आई कठिन परिस्थितियों का डटकर सामना किया। देवी अब कपड़े के गोदाम में पूर्णकालिक नौकरी करने पर विचार कर रही हैं। शेख ने कागज के फोल्डर बनाना और गोंद से चिपका कर लिफाफे बनाने जैसे अलग-अलग काम शुरू कर दिए हैं। हालांकि इस काम से उन्हें एक मामूली राशि ही मिल पाती है, लेकिन इससे उसके परिवार की कुछ तो मदद हो ही जाती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले दो वर्षों में महिला घरेलू कामगारों ने वैकल्पिक या कुछ अन्य काम का विकल्प चुनकर लचीलापन दिखाया है। लेकिन उनकी माली हालत सुधरने में अभी समय लगेगा।
धीमा आर्थिक सुधार
ग्लोबल रिसर्च पॉलिसी एक्शन नेटवर्क, वुमेन इन इनफॉर्मल इम्प्लॉयमेंटः ग्लोबलाइजिंग और ऑर्गेनाइजिंग या WIEGO के आकड़ों के मुताबिक, भारत में 2017-18 के बीच लगभग 4.185 करोड़ घरेलू कामगार थे। यह संख्या कुल रोजगार का लगभग 9% है। इसमें से महिला कामगारों की संख्या 1.719 करोड़ है।
WIEGO (डब्लूआईईजीओ) ने अप्रैल 2022 में कोविड-19 महामारी से प्रभावित घरेलू कामगारों पर एक रिपोर्ट पेश की। यह रिपोर्ट मुख्य रूप से दिल्ली पर केंद्रित थी। रिपोर्ट में यह पाया गया कि अनौपचारिक कामगारों के बीच भी घरेलू कामगार इस महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। इस रिपोर्ट में तीन अन्य अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करने वाले कामगारों को शामिल किया गया था। ये घरेलू कामगार, रेहड़ी लगाने वाले और कूड़ा बीनने वाले थे।
WIEGO की रिपोर्ट से पता चलता है कि गुजरात के अहमदाबाद और तमिलनाडु के तिरुपुर जैसे शहरों में भी घरेलू कामगारों को पिछले दो वर्षों में इसी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।
WIEGO की भारतीय प्रतिनिधि शालिनी सिन्हा ने कहा, "वैश्विक या स्थानीय स्तर के बाज़ार जिनके लिए घरेलू कामगार उत्पाद तैयार करते हैं, वे प्रभावित हुए हैं।" उन्होंने कहा कि लाखों महिलाएं घरेलू कामगार के रूप में रोजगार में लगी हुई हैं। वे आगे कहती हैं, "लेकिन, वह जो कर रही हैं, उसके लिए उन्हें किसी भी प्रकार का समर्थन नहीं मिलता है। ऐसा लगता है जैसे उन्हें अपने आप को खुद ही संभालने के लिए छोड़ दिया गया हो।"
वह यह भी कहती हैं कि महामारी के दो साल बाद इन घरेलू कामगारों के लिए काम ना मिलना और धीमी गति से होता सुधार, सबसे अधिक चिंता का विषय था। वे आगे कहती है, "घरेलू कामगार महिलाओं का अपने परिवार के लिए आर्थिक योगदान बहुत महत्वपूर्ण होता है। ऐसे में काम की कमी का सीधा असर इन महिलाओं के रहन-सहन और स्वास्थ्य पर पड़ता है।"
घरेलू कामगार दो तरह के होते हैं। पहले वह जो स्व-नियोजित होते हैं। इनका अपना रोजगार होता है और बाजार तक सीधी पहुंच होती है। दूसरे तरह के कामगार अनुबंधित होते हैं। इन्हें प्रति इकाई के हिसाब से वेतन दिया जाता है और इन्हे बिचौलिए नियोजित करते हैं। शेख और देवी की तरह दूसरी श्रेणी के कामगारों को आर्थिक रूप से अधिक कमजोर माना जाता है। क्योंकि, ठेकेदार अक्सर एक काम कई लोगों के बीच बांट देता है जिससे कम मज़दूरी देकर ज़्यादा से ज़्यादा लाभ कमाया जा सके।
शेख को लगता है कि पर्याप्त काम नहीं होने के कारण वह परिवार के खर्चों में योगदान करने में असमर्थ है। खासकर अपने दो स्कूल जाने वाले बच्चों की शिक्षा पर होने वाले खर्च में वह कोई सहयोग नहीं दे पाती हैं। वह कहती हैं, "मेरे पति अकेले कमाने वाले हैं। मैं अक्सर सोचती हूं, अगर मेरा काम नहीं रुकता तो मैं अपनी थोड़ी सी कमाई से भी परिवार की मदद कर सकती थी।"
महामारी के लिंग आधारित प्रभावों पर नजर दौड़ाएं तो सबसे ज़्यादा नुकसान घरेलू महिला कामगारों को उठाना पड़ा है। लेकिन, उनके आर्थिक सुधार की संभावनाएं कहीं पीछे खड़ी नजर आती हैं। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक वो महिलाएं ही थी जिन्होंने इस दौरान सबसे ज़्यादा नौकरियों को खोया और फिर से नौकरी पर वापस जाने वालों में वह सबसे पीछे रहीं।
क्रेया विश्वविद्यालय के लीड में STREE' (सल्यूशंस फॉर ट्रांसफॉर्मेटिव रूरल इंटरप्राइजेज एंड एंपावरमेंट) परियोजना की प्रमुख मृदुल्या नरसिम्हन कहती है कि घरेलू महिला कामगार को "दोगुना नुकसान" हुआ है। अपनी बात समझाते हुए वह कहती हैं कि महामारी आने से पहले ही महिलाओं को कम मज़दूरी मिलती थी। उनमें औपचारिक प्रशिक्षण की कमी और शारीरिक बाध्यता जैसी आधारभूत समस्याएं मौजूद थी। वह कहती हैं, "महामारी के आते ही बाज़ार में काफी बदलाव आए। इनके पास कोई भंडार तो था नहीं। क्योंकि, वे जिन उद्योगों के लिए उत्पादन करते थे, उनका मार्जिन बहुत कम होता था।"
कामगारों का लचीलापन और दृढ़ शक्ति
'स्त्री' की प्रमुख नरसिम्हन कहती हैं, "महामारी में तमाम चुनौतियों का सामना करने के बाद भी घरेलू कामगारों के बीच कुछ सुखद उम्मीदें दिखाई दीं। अपने अस्तित्व के लिए, अचानक आए बदलाव में खुद को ढाल लेना और धैर्य बनाए रखना इनमें प्रमुख था। इस बदलाव के कारण ही परिधान बनाने वाले कामगारों ने मास्क और अन्य जरूरी चीजें बनाना शुरू कर दिया।"
विशेषज्ञ कहते हैं कि स्वनियोजित कामगारों को चुनौतियों का सामना खुद ही करना पड़ा। वहीं किसी संघ या समूह से जुड़े कामगार महामारी के बाद बाज़ार से ज़्यादा तेजी से और ज़्यादा बेहतर तरीके से जुड़ पाए।
उदाहरण के लिए, जो लोग महिलाओं द्वारा चलाई जा रही कंपनी सेवा "रुआब" से जुड़े थे उन्होंने मास्क बनाना सीखकर खुद को आगे बढ़ाने के लिए तैयार कर लिया।
पिछले दो वर्षों में कई लोगों ने खुद को प्रशिक्षित करने के लिए नई तकनीक की ओर रुख किया है। रूआब के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अनोहिता ने कहा कि मार्च 2020 में उन्हें महसूस हुआ कि इस दौरान बिक्री में कमी हो सकती है क्योंकि ज्यादातर लोग लक्जरी या महंगे हाथ से बने उत्पाद खरीदने से बचेंगे। वह कहते हैं, "लोगों ने कॉटन मास्क मांगना शुरू कर दिया था। लेकिन, हमारी महिला कामगारों को मास्क बनाना नहीं आता था। तब हमने तय किया कि हमें कॉटन मास्क के उत्पादन पर ध्यान देना चाहिए और महिला कामगारों को इसके लिए प्रशिक्षित करना चाहिए।"
आज इस बदलाव का परिणाम राष्ट्रीय राजधानी स्थित उनके प्रधान कार्यालय में साफ दिखाई देता है। अप्रैल की चिलचिलाती सुबह में कार्यालय की ऊपरी मंजिल पर लगातार काम होते देखा जा सकता था। यहां घर पर काम का आर्डर ले जा कर पूरा करने के लिए घरेलू कामगार महिलाओं को प्रशिक्षित किया जा रहा था। वे सिलाई और कढ़ाई के काम में लगी हुई थीं।
रूआब से जुड़ी घरेलू कामगार महिला शालू उपाध्याय याद करते हुए बताती हैं कि उन्होंने किस तरह मास्क बनाना सीखा। कपड़े की एक थैली जिसे वह सिल रही थीं, दिखाते हुए कहती हैं, "पिछले साल महामारी की दूसरी लहर के दौरान मेरे पति की नौकरी चली गई थी। तब रूआब से मिले काम से ही मुझे घर चलाने में मदद मिली। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं मास्क बनाना सीखूंगी और वो भी वीडियो के जरिए।"
महामारी के दौरान यह पहला मौका था जब उपाध्याय जैसे कामगारों ने वीडियो से ट्रेनिंग ली। वह कहती हैं कि साल 2019 तक वह अपने मोबाइल फोन का इस्तेमाल केवल बात करने के लिए करती थीं। रुआब के कामगार बताते हैं कि वे अब काम के सिलसिले में व्हाट्सएप पर मैसेज भेजने के लिए ऑडियो फीचर का भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करते हैं। इससे उन्हें लंबे मैसेज टाइप करने नहीं पड़ते।
घरेलू कामगारों का प्रतिनिधित्व करने वाले समूहों के क्षेत्रीय नेटवर्क ,होम नेट साउथ एशिया (HNSA) ने भारत सहित सात दक्षिण एशियाई देशों में फरवरी 2020 और अगस्त 2021 के बीच एक अध्ययन किया। अध्ययन में देखा गया कि पिछले दो वर्षों में कई घरेलू कामगार "वैकल्पिक और अन्य काम" करने को मजबूर हो गए।
होम नेट साउथ एशिया की क्षेत्रीय समन्वयक नव्या डिसूजा बताती हैं कि ऑर्गेनाइज्ड कामगार ऐसे नेटवर्क के समर्थन से खुद को कार्य कुशल बनाने में सक्षम रहे हैं। वह कहती हैं कि नेटवर्क के जरिए सिलाई के काम में लगे लोगों को कढ़ाई और भोजन से जुड़े व्यवसाय में भी लगाया गया। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी थे जिनके पास कोई भी काम नहीं बचा था। यह लोग घरों में काम करने लगे।
वे आगे कहती हैं, "यह कठिन परिस्थितियों में डट कर खड़े रहने के कुछ उदाहरण हैं। इससे उनकी क्षमताओं और साधनों भी का विस्तार हुआ है। अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यही एकमात्र तरीका था।"
अगर दीर्घकालिक प्रभाव की बात करें तो लिया गया कर्ज सबसे गंभीर मसला होगा। पिछले 2 साल में कई परिवारों ने अपने रिश्तेदारों या ऋण दाताओं से कर्ज लिया है। ऐसे में हमें यह सोचने की जरूरत है कि इन कामगारों की दृढ़शक्ति या उनके द्वारा अपनाए गए बदलाव की कीमत कितनी है।"
घरेलू कामगार योजना की जरूरत
होम नेट साउथ एशिया ने पिछले साल प्रकाशित अपने एक दस्तावेज में कहा था कि नीति-निर्माता घरेलू कामगारों को हमेशा अनदेखी करते हैं। उनकी नीतियों में कामगारों के लिए या तो कुछ होता ही नहीं है और अगर कुछ होता है तो उन्हें बहुत कम आंका जाता है। अधिकांश श्रम कानूनों में भी उनके लिए कुछ नहीं है। देखा जाए तो हमारे देश में घरेलू कामगारों के लिए कोई व्यापक नीति ही नहीं है।
इंडियास्पेंड ने इस संदर्भ में जिन विशेषज्ञों से संपर्क किया, वे सभी घरेलू कामगारों के लिए एक विशेष नीति बनाने पर एकमत थे। उनका कहना था कि कोविड-19 महामारी और पिछले दो साल से चले आ रहे इसके लंबे प्रभाव ने एक बार फिर, घरेलू कामगारों की सुरक्षा के लिए एक विशेष राष्ट्रीय नीति बनाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है।
'स्त्री' संस्था की प्रमुख नरसिम्हन कहती हैं कि घरेलू कामगारों के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाना आज बहुत जरूरी हो गया है। एक ऐसी नीति जो इस बात को मान्यता दें कि यह क्षेत्र, महिलाओं और देश के आर्थिक विकास में योगदान देता है।
होम नेट साउथ एशिया ने WIEGO जैसे समूहों के परामर्श से घरेलू कामगारों के लिए के लिए एक राष्ट्रीय नीति का प्रारूप तैयार किया है। इस नीति का मुख्य उद्देश्य घरेलू कामगारों को 'श्रमिक' के रूप में पहचान दिलाना है। जिसका अर्थ है कि घरेलू कामगारों को भी काम करने की स्थिति और सामाजिक सुरक्षा के लिए श्रम कानून के दायरे में रखा जाए। साथ ही कामगारों के मुद्दों को सुलझाने के लिए नियोक्ता/ठेकेदार, सरकार और कामगारों के बीच एक त्रिपक्षीय तंत्र का निर्माण और प्रबंधन भी किया जाए।
घरेलू कामगारों के साथ काम करने वाले संगठनों के अनुसार, घर से रोजगार चलाने वालों के सामने आने वाली चुनौतियाँ लंबे समय से श्रम कानून के दायरे से बाहर रखी गई हैं। भारत को इस मामले में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है, जिसमें नीतिगत हस्तक्षेप और घरेलू कामगारों के लिए विशेष योजनाएं भी शामिल हो। साथ ही सरकार इस क्षेत्र में काम कर रहे संगठन और श्रम कानून से जुड़े समूह के साथ मिल कर काम करे जिससे घरेलू महिला कामगारों से जुड़ी समस्याओं का समाधान निकाला जा सके।
नई दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) में अर्थशास्त्री और प्रोफेसर लेखा चक्रवर्ती ने कहा कि फिलहाल के आजीविका संकट को दूर करने के लिए एक निश्चित नकद राशि इन्हें दी जानी चाहिए। भले ही यह राशि सिर्फ एक बार दी जाए। घरेलू कामगार महिलाओं पर घरेलू और कार्यक्षेत्र के दबाव को कम करने, उन्हें बेहतर सुविधाएं देने और उचित बाज़ार मुहैया कराने के बारे में सुझाव देते हुए वे कहती हैं, "जब हम दीर्घकालिक नीतिगत हस्तक्षेप की बात करते हैं, तो एक अनुकूल वातावरण बनाना महत्वपूर्ण है।" वह आगे कहती हैं, "बात जब घरेलू कामगारों से जुड़ी समस्याओं की हो तो उसके लिए कोई जादुई शीघ्र समाधान उपलब्ध नहीं है।"
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