मानसा (पंजाब), देहरादून (उत्तराखंड), गांदरबल (कश्मीर) और चित्रकूट (उत्तर प्रदेश) से: किरण देवी उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के एक बाहरी इलाके में रहती हैं। वह अक्टूबर, 2020 से घरेलू सहायिका का काम करती हैं।

दो बच्चों की मां 29 वर्षीय किरण बताती हैं, "मेरे पति को काम नहीं मिल रहा था और हमारे पास कोई बचत नहीं थी, इसलिए मुझे काम शुरू करना पड़ा। हमारे पास जो बचत थी, वह भोजन, राशन और बच्चों की ऑनलाइन कक्षाओं के लिए इंटरनेट रिचार्ज पर खर्च हुईं क्योंकि कोरोना महामारी के कारण विद्यालय बंद थे। मैंने अपने पति से पूछा कि क्या मैं काम कर सकती हूं और उन्होंने मुझे इसकी अनुमति दे दी। मैं जिन दो घरों में काम करती हूं, उनमें से प्रत्येक से मैं 2,500 रुपये कमा लेती हूं।"

किरण के पति 36 साल के खुशीराम एक दिहाड़ी मजदूर हैं। उन्हें मार्च, 2020 में कोरोना आने के एक साल बाद फरवरी, 2021 में ही काम मिल सका। इसके पहले तक किरण का परिवार किरण की आय से ही चल रहा था।

सितंबर, 2020 में किरण को एक गैर लाभकारी संस्था के कार्यालय में साफ-सफाई का काम मिल रहा था, जहां उनका वेतन 7500 रूपये तय किया गया था। लेकिन किरण के पति ने उनसे यह काम करने से मना कर दिया।

किरण बताती हैं, "मैं वह काम करना चाहती थी लेकिन मेरे पति ने कहा कि पहले वाला ही काम बेहतर है, क्योंकि उसमें मैं सुबह और शाम अपना सिर्फ दो-दो घंटा ही देती हूं। इससे बाकी का समय मुझे अपने घर की साफ-सफाई और खाना बनाने के लिए मिल जाता है।"

भारत के नवीनतम श्रम बल 2020-21 के आंकड़ों से पता चलता है कि देश में महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी 32.5% है, जो कि पिछले चार साल में सबसे अधिक है। इसमें भी अधिकतर महिलाएं ग्रामीण क्षेत्र से संबंधित हैं, जैसा कि हमने जुलाई 2022 में इंडियास्पेंड की 'वीमेन एट वर्क 3.0' सीरीज के पहले भाग में रिपोर्ट किया था।

परिवार के मुख्य अर्जक (जो कि अक्सर एक पुरुष होता है) के वेतन में कमी या नौकरी छूटने के कारण घरेलू आय में कमी आई, जिसका मतलब यह भी था कि जो महिलाएं पहले घर से बाहर काम नहीं करती थीं, उन्हें भी ऐसा करने का मौका मिला। लेकिन जैसा कि हमारी रिपोर्टिंग से पता चलता है और विशेषज्ञ भी पुष्टि करते हैं कि इस वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा खराब गुणवत्ता और कम वेतन वाली नौकरियों से आया।

किरण देवी भी इसकी एक उदाहरण हैं। उनकी तरह ही कई महिलाओं ने उन नौकरियों को चुना, जो उनके घर के पास है और उन्हें अपने काम के इतर अपना घर संभालने, खाना बनाने और बुजुर्गों व बच्चों की देखभाल करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है।

'वीमेन एट वर्क 3.0' सीरीज के इस तीसरे भाग में हम ग्रामीण भारत में महिलाओं द्वारा की जाने वाली नौकरियों के प्रकार और उन परिस्थितियों का पता लगाने की कोशिश करेंगे, जिससे वे संकट के समय अपने परिवार को संभालने में सफल रहती हैं।

अवैतनिक देखभाल का बोझ

'व्हाट वर्क्स टू एडवांस वीमेन एंज गर्ल्स इन द इकॉनमी' के एक रिसर्च के अनुसार शादी के बाद शिक्षित होते हुए भी अधिकतर महिलाओं को घर की जिम्मेदारी दे दी जाती है। यही कारण है कि श्रम बल क्षेत्र में महिलाओं की श्रम शक्ति की भागीदारी बहुत कम, नगण्य या लगभग अनुपस्थित होती है।

'टाइम यूज़ सर्वे' के मुताबिक महिलाएं घर के कामों में प्रतिदिन औसतन 301 मिनट बिताती हैं, जबकि पुरूषों के लिए यह आकंड़ा लगभग एक तिहाई कम होकर सिर्फ़ 98 मिनट हो जाता है। 2011-12 के 68वें नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएसओ) के अनुसार ग्रामीण भारत की 60% महिलाओं ने कहा कि उनके पास घर के काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि उनके अलावा घर का कोई सदस्य ऐसा नहीं है जो घर की ठीक से देखभाल कर सके।

कोरोना महामारी के दौरान जब घर के पुरूषों का रोजगार छिन गया तब महिलाओं पर घर का खर्च चलाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी आ गई। उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले की निवासी 33 वर्षीय गीता कुशवाहा ने बताया कि पहले लॉकडाउन के बाद जब घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध थोड़े कम हुए तब उन्होंने एक निर्माण स्थल पर काम करना शुरू कर दिया। दो बच्चों की मां कुशवाहा ने बताया, "हमने अपने रिश्तेदारों से लगभग 10,000 रुपये उधार लिए थे। इसके अलावा घर चलाने के लिए मैंने अपने एक जोड़ी झुमके भी बेच दिए थे।"

गीता के पति तेल और जड़ी-बूटियों की दुकान चलाते थे, जो लॉकडाउन के दौरान लंबे समय तक बंद रही। उन्होंने ही गीता को काम करने के लिए कहा। गीता कहती हैं, "मैं भी इस बात के लिए राजी हो गई क्योंकि हमें पैसे की जरूरत थी। मैं सुबह चार बजे उठती, घर के सारे काम निपटाती और फिर नौ बजे काम पर चली जाती। मेरी वापसी शाम को 5.30 बजे तक होती थी, इसके बाद मैं फिर से घर के काम पर लग जाती थीं। मेरे बच्चे अभी बहुत छोटे थे, इसलिए वे घर के कामों में भी मेरी मदद नहीं कर सकते थे। वहीं मेरे पति ने अपने जीवन में कभी भी घरेलू काम नहीं किया था।"

अर्थशास्त्री अश्विनी देशपांडे ने अपने एक शोध में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की डेटा की मदद लेते हुए निष्कर्ष निकाला कि कोरोना ने थोड़े समय के लिए ही सही श्रम की असमानता के स्वरूप को बदल दिया है। अप्रैल 2020 तक कोरोना लॉकडाउन के कारण देश भर में व्यापक रूप से लोगों की नौकरियां गईं। अप्रैल 2020 में पुरुषों ने घरेलू कामों पर अधिक समय बिताया। लेकिन अगस्त में जब पुरुषों को फिर से नौकरियां वापस मिलने लगीं, तब उनके घर के देखभाल के काम में लगने वाला समय कम होता गया। हालांकि अभी भी यह पूर्व-महामारी के स्तर से ऊपर है।

कर्ज के बोझ में फंसे, अब कम वेतन पर काम करने को मजबूर

पंजाब की मानसा जिले की 37 साल की गुरजीत बताती हैं, "मैं किसी खेत या निर्माण स्थल पर काम करना चाहती थीं, लेकिन इस क्षेत्र में पुरुषों को प्राथमिकता दी जाती है। चूंकि मेरे पास पैसे नहीं थे और मेरा परिवार भूखमरी की कगार पर था, इसलिए मैंने दो घरों में गोबर उठाने के काम को स्वीकार कर लिया।"

गुरजीत ने एक घर से 8000 रूपये का उधार लिया, जो 2023 में ब्याज सहित 12,230 रूपये हो जाएगा। कोरोना के दूसरे लहर में जब गुरजीत के पति बीमार हुए तब गुरजीत ने एक बार फिर से दोनों घरों से 500-500 रूपये का उधार लिया। अगर वह समय से इस पैसे को नहीं दे पाती हैं तो उन्हें हर महीने 2% ब्याज की दर से उधार चुकाने होंगे।

गुरजीत को एक घर से वेतन के रूप में 500 रूपया महीना मिलता है लेकिन प्रत्येक घर हर महीने 250 रूपये कर्ज वापसी के रूप में ले लेते हैं।

कर्ज लेने के कारण गुरजीत का वेतन 500 रुपये प्रतिमाह से घटकर 250 रुपये प्रतिमाह हो गया है।

कोरोना के कारण घर पर आए आर्थिक संकट से गुरजीत को बंधुआ मजदूरी करने पर मजबूर होना पड़ा। कर्ज के कारण बंधुआ मजदूरी में बहुत कम या ना के बराबर वेतन मिलता है।

अनुच्छेद 21 के तहत भारत में बंधुआ मजदूरी प्रतिबंधित है। वहीं अनुच्छेद 23 के तहत मानव तस्करी और जबरन श्रम पर भी प्रतिबंध है। भारत सरकार ने इस प्रथा को प्रतिबंधित करने के लिए एक विशेष कानून, बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 भी पारित किया है।

गुरजीत कहती हैं, "मैं ऐसी कई महिलाओं को जानती हूं, जो मनरेगा के कहत काम करती हैं और उन्हें हर रोज लगभग 200 रुपये मिलता है। वहीं मैं यहां दिन भर गोबर में सनी रहती हूं और मुझे लगभग ना के बराबर पैसे मिलते हैं। मैं इन सबसे छुटकारा पाकर मनरेगा में काम करना चाहती हूं, लेकिन कर्ज के कारण मैं यहां काम करने पर मजबूर हूं।"

पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला के सेवानिवृत्त प्रोफेसर जियान सिंह के 2016-17 के एक जमीनी अध्ययन के मुताबिक राज्य में 93.7% महिला खेतिहर मजदूर कर्ज में हैं और प्रत्येक पर औसतन 57,537 रुपये का कर्ज है।

कोरोना लॉकडाउन ने इस स्थिति को और बिगाड़ा ही है। गुरजीत की एक पड़ोसी हरप्रीत कहती हैं, "लॉकडाउन के दौरान हमारे आस-पास के लगभग सभी घरों ने कर्ज लिया। जो पहले से ही कर्ज में थे, उन्हें भी घर चलाने के लिए नया कर्ज लेना पड़ा। अगस्त, 2020 में मुझे भी अपने मालिक से 15000 रुपये का कर्ज लेना पड़ा, जहां मैं गोबर उठाने का काम करती हूं। इससे पहले मेरे पति एक कपड़े की फ़ैक्ट्री में काम करते थे, जो लॉकडाउन के कारण बंद चल रही थी। इसलिए मुझे भी नौकरी शुरू करना पड़ा।" दो साल के बाद अभी भी गुरजीत पर 5000 रुपये का कर्ज है।

जियान सिंह कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान जब छोटे उद्योगों ने कर्मचारियों को निकालना शुरू किया तब घर चलाने का दबाव परिवार की महिलाओं पर आ गया। यह पैटर्न सिर्फ़ किसी एक जिले या राज्य तक सीमित नहीं था। भारत के ग्रामीण क्षेत्र की अधिकांश महिलाओं को पास के घरों या कार्यस्थल पर काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस दौरान बहुत सी महिलाएं कर्ज के जाल में फंसी और उन्हें बंधुआ मजदूरी भी करना पड़ा।"

कोरोना लॉकडाउन में पति की नौकरी जाने के बाद हरप्रीत सिंह को 15000 उधार लेने पड़े और उन्हें उधार देने वाले के घर गोबर साफ करने का काम करना पड़ा।

इस मामले में अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए स्थितियां विशेष रूप से खराब हुईं। उदाहरण के लिए इंडियास्पेंड ने मानसा जिले में गोबर साफ करने वाली जिन पांच महिलाओं से मुलाकात की, वे सब दलित थीं और ऊंची जाति के जमींदारों के घरों में काम करती थीं।

गुरजीत कहती हैं, "जब मेरे पति कोरोना पॉजिटिव हुए, तब मैं एक दिन गोबर साफ करने नहीं जा सकी। शाम को मेरे मलिक आए और उन्होंने मुझे खूब गालियां दीं। उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ सफाई करने के लिए पैदा हुई हूं फिर भी मैं उससे बच रही हूं। मजबूरन, मुझे शाम को उनके घर की सफाई के लिए जाना पड़ा।"

महिला कार्यबल का भविष्य

हमारी रिपोर्टिंग से पता चला है कि बंधुआ मजदूरी के मामले में महिलाओं द्वारा लिए गए निर्णय ना सिर्फ उन्हें बल्कि उनकी भविष्य की पीढ़ियों पर भी प्रभाव डालेंगे।

जब 20 वर्षीय झुमेर की मां महामारी के दौरान बीमार पड़ीं, तो उन्हें उन दो घरों से कर्ज लेना पड़ा, जहां वह काम करती थीं। हालांकि फिर भी झूमेर की मां बच नहीं सकीं।

झुमेर मानसा में अपने पिता और दो छोटे भाइयों के साथ रहती हैं। झुमेर ने बताया, "मैं अपनी मां को बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकीं। शायद अगर हम अस्पताल जाते, तो वह बच जातीं।"

अपनी मां की मृत्यु के बाद झुमेर को गोहा-कुरा (गोबर इकट्ठा करने वालों के लिए स्थानीय शब्द) का काम करने पर मजबूर होना पड़ा, क्योंकि उनके परिवार पर कर्ज है।

श्रम बल की भागीदारी में महिलाओं की संख्या में हुई वृद्धि का प्रभाव मिला-जुला है। भविष्य में अधिक लड़कियों को उनकी मां की तरह कम आय वाले काम करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

कश्मीर के गांदरबल जिले की आयशा बेगम 2500 रुपये प्रतिमाह की वेतन पर अपने एक पड़ोसी के घर पर शॉल बुनने का काम करती हैं। उनके साथ उनकी नौ वर्षीय बेटी शबनम भी उनके साथ जाती है ताकि वह भी यह काम सीख सके। पहले लॉकडाउन के बाद आयशा के पति जिस कपड़े की दुकान पर काम करते थे, वह बंद हो गई और 36 वर्षीय आयशा को अपने पड़ोसी के वहां नौकरी करनी पड़ी।

आयशा ने भावुक होते हुए बताया, "एक दिन मेरी बेटी चिकन खाना चाहती थी, लेकिन मैंने उसे समझाया कि पैसे की कमी के कारण रोज चिकन खाना संभव नहीं है। उसी समय उसने कहा कि वह भी शॉल बुनेगी ताकि हम अधिक कमा सकें और प्रतिदिन चिकन खा सकें।"