नई दिल्ली: मालती* (बदला हुआ नाम) के पति नशे के आदी हैं। मालती के तीन बच्चे हैं। बच्चों की पढ़ाई जारी रखने के लिए मालती के पास लोगों के घरों में काम करने, बर्तन-कपड़े धोने और झाडू-पोछा लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

यह एक कठिन काम है। मालती को भोर में उठना पड़ता है। वह अपने घर का काम खत्म करती हैं और फिर कई घरों पर जाकर साफ-सफाई का काम करने के बाद शाम 5 बजे घर वापस लौटती हैं। इसके बाद मालती को अपने घर के लिए रात का खाना भी बनाना पड़ता हैं।

साल 2020 की शुरुआत में मालती के एक पड़ोसी ने उन्हें महिलाओं के एक ड्राइविंग स्कूल के बारे में बताया, जहां ड्राइविंग सीखने की फीस पर सब्सिडी (छूट) मिलता था। वहां पर छह महीने का कोर्स पूरा करने के बाद ड्राइविंग लाइसेंस भी मिल जाता है। इसके बाद यह संस्था नौकरी दिलाने में भी मदद करती है, जिसमें शुरुआती वेतन कम से कम 10,500 रुपये होता है। यह मालती के मासिक आय 6,000 रुपये से कहीं अधिक था।

12 मार्च 2020 के दिन मालती पूर्वी दिल्ली स्थित जगतपुरी के आजाद फाउंडेशन कार्यालय में जाती हैं और ड्राइविंग सीखने के लिए अपना रजिस्ट्रेशन कराती हैं।

इसके 12 दिन बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी। बाकी लोगों की तरह मालती के दिमाग में भी कई सवाल घूमने लगे। वह काम पर कैसे जाएंगी? क्या उन्हें अपना बकाया पैसा मिलेगा? यह लॉकडाउन कब तक चलेगा? ड्राइविंग कोर्स का क्या होगा?

इन सवालों के जवाब जल्दी ही मिल गए। मालती के पास ना काम था और ना ही बचत। यहां तक कि जब लॉकडाउन में ढील दी गई, तब भी कई सोसाइटी में बाहरी श्रमिकों के प्रवेश पर रोक लगा हुआ था। आज़ाद फाउंडेशन ने मालती को बुनियादी राशन दिया। जब मालती ने अपने कुछ पूर्व नियोक्ताओं को फोन किया, तो उन्होंने उसे 500 से 1000 रुपये प्रति माह की छोटी रकम देने की पेशकश की। लॉकडाउन के बाद मालती ड्राइवर बनने के सपने को भी भूल गई थीं।

महामारी के दो साल बाद मालती अब काम पर वापस लौट चुकी हैं। उनके सिर पर ढेर सारा कर्ज है, जो उन्होंने लॉकडाउन और बेरोजगारी के दौर में लिए थे। अब मालती के पास ड्राइविंग सीखने के लिए भी समय नहीं है, जबकि वह जानती हैं कि इससे उन्हें बेहतर वेतन वाली नौकरी मिल सकती है।


वह कहती हैं, "एक बार जब मैं पर्याप्त बचत कर लूंगी तो मैं ड्राइविंग सीखने के लिए वापस जाऊंगी। लेकिन अभी मैं बस अपनी रसोई को चलाने के लिए काम कर रही हूं।"

निजी शोध संस्था 'सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी' (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार जनवरी और अप्रैल 2021 के बीच महिलाओं की श्रमबल क्षेत्र में भागीदारी 9% तक आ गई। सीएमआईई के प्रबंध निदेशक और सीईओ महेश व्यास ने कहा, "2017 और 2022 के बीच 2.1 करोड़ महिलाओं को नौकरी छोड़नी पड़ी और इनमें से ज्यादातर को अब काम की तलाश नहीं है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि जब नौकरियां कम होती हैं, तब महिलाएं भी विकल्प के अभाव में नौकरी ढूंढना बंद कर देती हैं।"

जून, 2022 में भारत सरकार ने आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के आंकड़े पेश किए। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु ने समाचार पत्र मिंट के लिए इस पीएलएफएस डेटा का विश्लेषण किया और पाया कि देश की अर्थव्यवस्था में श्रमिकों की कुल संख्या में 2019-2020 के मुकाबले 2.62 करोड़ लोगों की वृद्धि हुई है, इसमें 1.53 करोड़ महिलाएं और 1.08 करोड़ पुरुष हैं। एक व्यक्ति को श्रमबल का हिस्सा तब माना जाता है, जब वह या तो काम कर रहा होता है या काम की तलाश में होता है।

यह वृद्धि ग्रामीण महिलाओं की श्रम शक्ति में भागीदारी से प्रेरित है, जो कि 2019-20 में 32.2% से बढ़कर 2020-21 में 35.8% हो गया। पीएलएफएस के डाटा के अनुसार, महिलाओं की श्रम शक्ति में भागीदारी चार वर्षों के अपने उच्चतम स्तर पर है। ऐसा लॉकडाउन और मार्च 2021 में आई दूसरी घातक लहर के बाद हुआ, जो इन आंकड़ों को और भी चौंकाने वाला बनाता है।


हालांकि सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार जनवरी और अप्रैल, 2021 के बीच 18.4% शहरी और 11.5% ग्रामीण महिलाएं ऐसी थीं, जो काम करना चाहती थीं लेकिन उन्हें रोजगार नहीं मिला। शहरी और ग्रामीण पुरुषों के लिए यही आंकड़े क्रमशः 6.6% और 5.8% थे। 2020-21 के पीएलएफएस के आंकड़े कहते हैं कि सर्वे से सात दिन पहले तक शहरी क्षेत्रों की 12.2% और ग्रामीण क्षेत्रों की 4.8% महिलाओं को एक सप्ताह में एक घंटे का रोजगार भी नहीं मिला था। शहरी और ग्रामीण पुरुषों के लिए यही आंकड़ा क्रमशः 9.4% और 7.2% था।

सीएमआईई के व्यास ने बताया कि सीएमआईई और पीएलएफएस के डेटा के बीच में यह अंतर दोनों संस्थानों द्वारा तय किए गए रोजगार की अलग-अलग परिभाषाओं के कारण है। वह कहते हैं, "सीएमआईई किसी व्यक्ति को तभी रोजगार में लगा हुआ मानता है जब सीएमआईई के साक्षात्कार के दिन भी उसे काम मिला हो, वहीं पीएलएफएस उन लोगों को भी रोजगार में लगा हुआ मानता है जिन्होंने पिछले सात दिनों में एक घंटे का भी काम किया हो।"

इनिशिएटिव फॉर व्हाट वर्क्स टू एडवांस वीमेन एंड गर्ल्स इन द इकॉनमी (IWWAGE) में प्रमुख अर्थशास्त्री सोना मित्रा ने कहा, "महिलाओं की श्रमबल भागीदारी में वृद्धि काफी हद तक ग्रामीण महिलाओं के कारण है। कृषि एक ऐसा क्षेत्र था, जहां से महिलाएं बाहर जा रही थीं, लेकिन पिछले साल और इस साल भी इस क्षेत्र में महिलाओं के श्रम बल में कोई बड़ी गिरावट नहीं आई है। दूसरी ओर गैर-कृषि क्षेत्रों में ग्रामीण महिलाओं की संख्या में मामूली वृद्धि हुई है। वहीं खुद के उद्यमों, जैसे- पापड़ और अचार निर्माण जैसे छोटे व्यवसायों में भी महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है।"


निकोर एसोसिएट्स की प्रमुख अर्थशास्त्री मिताली निकोर इस बात से सहमति व्यक्त करती हैं। वह कहती हैं, "स्व-रोजगार और घरेलू उद्यमों में बड़े पैमाने पर महिलाओं की श्रमबल भागीदारी में वृद्धि हुई है।"

पीएलएफएस के आंकड़ों से पता चलता है कि रोजगार पाने वालों में ग्रामीण भारत में 64.8% महिलाएं स्वरोजगार वाली थीं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या सिर्फ 38.4% थी।

लेकिन हिमांशु बताते हैं कि पीएलएफएस के आंकड़े कोरोना से उपजे आर्थिक संकट के पहले के दौर की तरह ही हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि 1999 और 2004-05 के बीच कृषि संकट के दौरान 6 करोड़ श्रमिकों की वृद्धि हुई थी।

वह कहते हैं, "परिवारों को इस बात का अंदाजा है कि उन्हें जीविकोपार्जन के लिए कम से कम कितनी आय की जरूरत है। जब यह आय कम होता है तो वे महिलाओं और बुजुर्गों सहित संभावित कमाई करने वाले परिवार के सभी लोगों को श्रमबल में धकेल देते हैं।"

हिमांशु ने कहा कि खेती और अनौपचारिक क्षेत्रों में हुई रोजगार की संख्या में वृद्धि बताता है कि भारत में रोजगार का संकट है। वह दार्शनिक अंदाज में कहते हैं, "बेरोजगारी एक ऐसी विलासिता है, जिसे बहुत कम लोग ही वहन कर सकते हैं।"

क्या हम किसी पुरानी कहानी को दोहराते हुए देख रहे हैं?

हालांकि यह अभी शुरुआती दिन हैं और हम पीएलएफएस के डाटा से कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं। लेकिन कोरोना के ढाई साल बाद यह डाटा महिलाओं की श्रमबल में भागीदारी की एक बहुत ही अलग कहानी पेश करने का संकेत देता है।

कोरोना के आने से पहले भारत के श्रमबल में महिलाओं का अनुपात लगातार गिर रहा था। 2004 से 2020 के बीच दो दशकों के भीतर अनुमानित 4.6 करोड़ महिलाएं श्रम मानचित्र से बाहर हुई थीं। जस्टजॉब्स नेटवर्क की अध्यक्ष और कार्यकारी निदेशक सबीना दीवान ने कहा, "महिलाओं की संख्या में यह गिरावट दशकों से है और कोविड ने निश्चित रूप से उस प्रवृत्ति को तेज किया है।"

पीएलएफएस के निष्कर्ष के मुताबिक महिला कार्यबल की भागीदारी पिछले चार वर्षों में अपने उच्चतम स्तर पर है। लेकिन यह डाटा पूरी कहानी नहीं बयान करती है। महामारी के बाद के शुरुआती महीनों में महिलाओं पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

ग्रामीण भारत में महिलाओं की श्रमबल संख्या में हुई वृद्धि यह संकेत देती है कि लॉकडाउन और उसके बाद के परिणामस्वरूप परिवारों पर आर्थिक संकट का स्तर इतना बढ़ा है कि महिलाएं काम करने को मजबूर हुई हैं। इसमें उनको भुगतान भी मानक से बहुत कम मिल रहा है।

अशोका विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री अश्विनी देशपांडे और जितेंद्र सिंह 2021 के अपने एक रिसर्च पेपर में लिखते हैं कि ऐतिहासिक रूप से महिलाओं की श्रमबल में भागीदारी हमेशा तरल रही है क्योंकि वे छोटी अवधि के लिए कई बार श्रमबल से बाहर निकलती हैं और फिर प्रवेश कर जाती हैं। वे लिखते हैं कि स्थायी लाभकारी रोजगार की अनुपलब्धता होने पर महिलाओं की भागीदारी श्रमबल क्षेत्र में कम हो जाती है और जब बेरोजगारी का दर उच्च होता है तो महिलाओं को पुरुष श्रमिकों द्वारा रोजगार से विस्थापित होने का खतरा भी होता है।

यह कहानी तब और दिलचस्प हो जाती है जब आप अप्रैल 2020 के बाद से नौकरियों में वापसी का लैंगिक विश्लेषण करते हैं। यदि आप सीएमआईई के आंकड़ों को देखेंगे, तो आपको पता चलेगा कि अक्टूबर और नवंबर 2020 में पुरुषों की नौकरी वापस मिलने की दर तेज हो गई।

निकोर द्वारा किए गए सीएमआई के डाटा विश्लेषण के अनुसार, 2020 के अंत तक भारत में पुरुषों का श्रमबल सिर्फ 2% तक कम हुआ, वहीं महिलाओं का श्रमबल तब 13% तक कम हुआ था।67% बेरोजगार पुरुष सक्रिय रूप से रोजगार की तलाश में थे, जबकि महिलाओं के लिए यह आंकड़ा सिर्फ 37% था। निकोर ने कहा, "देश में पर्याप्त नौकरियां नहीं थीं, जो अच्छी मजदूरी का भुगतान कर सकती थीं। महिलाओं ने अच्छे काम की तलाश और विकल्पों के अभाव में यह लड़ाई छोड़ दी।"


हालांकि मई 2022 तक सक्रिय रूप से काम की तलाश करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 41% हो गया। निकोर इसको समझाते हुए कहती हैं, "वास्तव में जो ये आंकड़े दिख रहे हैं, वह किसी भी तरह का काम करने के लिए एक हताशा और मजबूरी को दर्शाते हैं, फिर चाहे वेतन कितना भी कम हो या हालात कितने भी भयानक हों।"

IWWAGE की मित्रा ने कहा कि वह अभी भी 2020-2021 की पीएलएफएस डाटा का अध्ययन कर रही हैं। एक साल पहले हम सब जानते हैं कि लोगों की कमाई में कमी आई थी और उनका अनुमान है कि इस बार भी यही कहानी दुहारायी जाएगी। इसका मतलब यही है कि भले ही महिलाओं की श्रमबल में भागीदारी बढ़ी है, लेकिन इसका मतलब है कि उन्हें बहुत कम भुगतान हो रहा है।"

अस्तित्व के लिए संघर्ष

कोरोना महामारी से पहले कोलकाता के बड़ा बाजार की लक्ष्मी दास के पास एक ठीक-ठाक नौकरी थी। 12 साल की बेटी की अकेली मां अपने 8,000 रुपये प्रति माह के वेतन से अपना घर चला रही थीं।

मार्च 2020 के लॉकडाउन के दौरान वह दुकान बंद हो गई, जहां लक्ष्मी काम करती थीं। उन्होंने सोचा कि यह थोड़े समय के लिए बंद रहेगा, उसके बाद उन्हें जल्द ही काम मिल जाएगा। हालांकि जब लॉकडाउन में ढील दी गई तो वह बीमार पड़ गईं और उन्हें एक आपातकालीन एपेंडिसाइटिस की सर्जरी करानी पड़ी। उनके पास बचत के रूप में कुछ भी नहीं था। यहां तक की उनके पास सर्जरी कराने के लिए भी पैसे नहीं थे। इसलिए उन्होंने एक साहूकार से उधार के रूप में पहली बार कुछ रूपए लिए। बाद में भी उन्हें कई बार उस साहूकार से उधार लेना पड़ा।

लक्ष्मी बताती हैं, "मैं किसी भी तरह के काम की तलाश में पूरा बड़ा बाजार घूम चुकी हूं। हालांकि कोई भी मुझे 3,500 रुपये/महीने से ज्यादा की तनख्वाह देने के लिए तैयार नहीं है, जो कि मेरे पिछले वेतन की तुलना में आधे से भी कम है। दुकानदार जानते हैं कि लोगों के पास काम नहीं है, इसलिए वह इस तरह की तनख्वाह देने की बात कर रहे हैं। लेकिन मैं अकेली हूं और मेरे सिर पर काफी कर्ज है। अगर मैं उस वेतन पर काम करूंगी तो अपना घर कैसे चलाऊंगी?"

लक्ष्मी की तरह की ही कहानियां पूरे देश में हैं।

दिल्ली के कालकाजी में युविका* (बदला हुआ नाम) एक खिलौना फैक्ट्री में खिलौनों की पैकेजिंग का काम करती थीं। उनके लिए 6,000 रुपये प्रति माह का वेतन बहुत अच्छा नहीं था लेकिन कारखाना उनके घर से बस 15 मिनट की पैदल दूरी पर था। इसके कारण समय और परिवहन लागत दोनों की बचत होती थी। यही कारण है कि वह इस नौकरी को कर पाने में सक्षम थीं।

मार्च 2020 में उनके पति की किडनी की समस्या के कारण मृत्यु हो गई। कुछ ही हफ्तों बाद लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई और युविका बिना किसी नौकरी के अपने घर में ही फंस कर रह गईं।

चार महीने बाद जैसे ही बाजार खुलने लगे, उन्हें पता चला कि उसकी नौकरी अभी भी उपलब्ध है। हालांकि उसमें भी एक शर्त था। व्यापार बंद था और मालिक अब उसे नियमित मासिक वेतन देने का जोखिम नहीं उठा सकता था।

ऐसे में क्या वह ऐसे काम को स्वीकार करेगी, जहां किसी काम के लिए उसे साप्ताहिक या हर दिन का वेतन दिया जाए?

हताश युविका ने काम के लिए हां कह दिया।

ऐसी परिस्थिति में वह अपने वेतन के लिए एक महीने का इंतजार नहीं कर सकती थी। उन्होंने बताया कि उन्हें एक सप्ताह काम करने के 700 रूपए मिलते थे। यह औसतन 2,800 रुपये प्रति माह था, जो पहले की तुलना में काफी कम है, जब सब्जियां और एलपीजी सिलेंडर भी सस्ते हुआ करते थे।

उम्मीद की किरण

पीएलएफएस के निष्कर्ष इस बात की पुष्टि करते हैं कि घर के कार्य का लैंगिक बोझ महिलाओं को नौकरी-रोजगार से दूर रखने का सबसे बड़ा कारण होता है। हिंदुस्तान टाइम्स के एक विश्लेषण के अनुसार बच्चों के पालन-पोषण सहित अन्य घरेलू काम 43% महिलाओं को रोजगार से बाहर रखने का काम करते हैं। वहीं इन कारणों से सिर्फ 1.5% पुरुष ही रोजगार से दूर रहते हैं। 72.3% पुरुष और 33.2% महिलाओं ने कहा कि वे पढ़ रहे थे और इसलिए नौकरी नहीं कर सके।

जैसा कि हमारी पहली सीरीज़ में यह दिखाया गया है कि उच्च स्तर की शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाएं वास्तव में सबसे तेजी से नौकरी छोड़ती हैं। इसका कारण यह है कि जब उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं को उनकी अपेक्षा के अनुरूप वेतन वाली नौकरी नहीं मिलती है, तो वे घर पर रहना पसंद करती हैं। साथ ही वह घरेलू काम, बच्चों की परवरिश, माता-पिता की देखभाल आदि में भी हाथ बंटाती हैं। इस बात की जानकारी हमें फ़रजाना अफ़रीदी और अन्य लोगों के द्वारा लिखे गए IWWAGE के रिपोर्ट में दिखता है, जिसमें उन्होंने महिलाओं की श्रम आपूर्ति निर्धारित करने वाले कारकों पर चर्चा की है।

थोड़े ही समय के लिए लेकिन महामारी ने इस बात का प्रमाण दिया है कि लिंग आधारित मानदंड उतने अंतर्निहित नहीं हैं, जितना हम विश्वास करना चाहते हैं।

लॉकडाउन हटने के पहले कुछ हफ्तों के बाद अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अश्विनी देशपांडे ने दस्तावेजों के सहारे यह बताया कि कैसे पुरुषों ने घर के काम पर अधिक समय बिताने के लिए कदम बढ़ाया। हालांकि दिसंबर 2020 तक इस तरह का चलन समाप्त हो गया और पुरुष पूर्व-महामारी के स्तर से भी कम घरेलू काम कर रहे थे।

घरों में लैंगिक भूमिकाओं को काफ़ी गहराई से बांटा गया है। महिलाओं के 'वास्तविक' काम का मतलब उनके परिवार की देखभाल करना ही है। ऐसा समझा जाता है कि बच्चों की परवरिश, बुजुर्गों और अस्वस्थों की देखभाल, खाना बनाना, सफाई करना, पानी लाना, जलाऊ लकड़ी लाना और पशुओं की देखभाल करना महिलाओं का काम है। ऐसे कार्यों का कोई वित्तीय पारिश्रमिक नहीं होता है, कोई अवकाश नहीं मिलता है। ऐसे कार्यों के लिए कोई श्रम नियम भी नहीं है। इसके बावजूद महिलाएं ऐसे थका देने वाली अथक कामों को करती हैं और वे अक्सर खुद को 'बेरोजगार' भी मानती हैं।

कई अकादमिक अध्ययन और इंडियास्पेंड की अपनी साल भर की जांच इस समस्या से जुड़ी कारणों के एक जटिल नेटवर्क की ओर इशारा करती हैं। महिलाओं में गतिशीलता की कमी थी तो जबकि सरकारों और इस समस्या का निदान ढूंढ रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक निरंतर अभियान चलाया। इसके तहत साइकिल, मुफ्त मध्याह्न भोजन, शौचालय जैसी सुविधाओं को लड़कियों और महिलाओं तक पहुंचाने का काम किया गया। इस कारण से लड़कियों के लिए स्कूल जाना अधिक स्वीकार्य हो गया था। हालांकि रोजगार की बात आते ही यह उत्साह फीका पड़ जाता था। शैक्षणिक डिग्री नौकरियों में नहीं बदल रही थीं और भारत की सबसे शिक्षित महिलाएं दूसरों की तुलना में तेजी से कार्यस्थल छोड़ रही थीं।

बाधाओं को पार करने के दौरान आने वाली मुश्किलें

परंपरागत रूप से महिलाओं के लिए कौशल कार्यक्रम काफ़ी सीमित है। वे अचार या पापड़ बनाने, कढ़ाई और सौंदर्य के काम से आगे नहीं सोचती हैं।

सुरभि यादव ने कहा, "इस काम में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इन कामों में पैसे नहीं हैं।" यादव के पास आईआईटी, दिल्ली और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले से डिग्री है। 2020 में उन्होंने हिमाचल प्रदेश के पालमपुर के पास एक गैर-लाभकारी संस्था 'साझे सपने' की स्थापना की।

यादव की संस्था ग्रामीण महिलाओं को आधुनिक कार्यस्थल के लिए जरुरी कौशलों को सिखाती है। उदाहरण के लिए वहां कोडिंग और प्रबंधन की शिक्षा दी जाती है। संस्था में पांच प्रमुख क्षेत्रों में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया है, इसमें एजेंसी, कौशल, वेतन, संतुष्टि और सपोर्ट शामिल है।

महिलाओं के कौशल प्रशिक्षण में भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। "2011-12 में केवल 9% युवा महिलाओं ने बताया कि उन्होंने औपचारिक या अनौपचारिक किसी भी तरह का प्रशिक्षण प्राप्त किया है। इसके कारण नौकरी बाजार में महिलाएं सफलता प्राप्त करने में काफी पीछे छूट जाती हैं।" इस बात का पता अप्रैल 2021 में IWWAGE और क्रेया यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित 'वर्किंग ऑर नॉट: व्हाट डिसाइड्स वीमेन्स लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन इन इंडिया' से चलता है।

केंद्र सरकार का प्रमुख कार्यक्रम प्रधान मंत्री कौशल विकास योजना लगभग 1.1 करोड़ युवाओं को कौशल प्रदान करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य के साथ 2016 में शुरू हुआ था लेकिन यह "बुरी तरह विफल" रहा।

जुलाई 2019 तक केवल आधा लक्ष्य पूरा हो सका था, जबकि इसे 2020 में पूरा होना था। केवल 13 लाख लोगों को इस योजना के तहत नौकरी या रोजगार मिल सका। यह परियोजना यह भी कहती है कि एक व्यापक आबादी को बेहतर गुणवत्ता प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए शिक्षा, कौशल और व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में सुधार के साथ-साथ महिला श्रम शक्ति भागीदारी दरों में भी काफी सुधार हो सकता है।

रोजगार से जुड़े क्षेत्रों में महिलाओं की कम भागीदारी को रोकने में सरकारी नीतियों की बड़ी भूमिका होती है। उदाहरण के लिए मित्रा ने कहा, "यदि शोध से पता चलता है कि महिलाएं घर के काम पर भारी मात्रा में समय बिता रही हैं, तो सब्सिडी या प्रोत्साहन के माध्यम से बाल देखभाल सुविधाओं को अनिवार्य करने वाली नीति इसमें मदद कर सकती है। सरकार घरेलू बुनियादी ढांचे को भी सुनिश्चित कर सकती है। पाइप से पानी, बिजली, स्वच्छ ईंधन तक पहुंच जैसी योजनाओं से घर के कामों में लगने वाले समय में भी कमी आएगी।"

आजाद फाउंडेशन का मिशन गैर-पारंपरिक क्षेत्रों में महिलाओं को कौशल सिखाना है, ताकि वह अधिक से अधिक वेतन हासिल कर सकें। आजाद फाउंडेशन की राष्ट्रीय प्रमुख डोलन गांगुली 2008 से 3,000 महिला ड्राइवरों को प्रशिक्षित कर चुकी हैं। उन्होंने कहा, "महिला ड्राइवरों को भी स्वीकृति मिलती है लेकिन परिवारों को यह आश्वस्त करना काफ़ी मुश्किल है कि ड्राइविंग सम्मानजनक काम है।" गांगुली ने कहा कि महिलाओं के द्वारा टैक्सी चलाए जाने के कारण उन पर घरेलू हिंसा बढ़ता है और उनके लिए इस काम को जारी रखना मुश्किल हो जाता है।

जब लॉकडाउन की घोषणा की गई तो घरों, संगठनों और होटलों में फाउंडेशन द्वारा रखी गई कई महिला ड्राइवरों को सरसरी तौर पर बर्खास्त कर दिया गया। तब फाउंडेशन ने कक्षाएं स्थगित कर सूखे राशन किट बांटना शुरू किया।

जिन लोगों ने तब गाड़ी चलाना सीखने के लिए अपने आप को पंजीकृत किया था, अब उनके पास कोर्स पूरा करने के लिए समय नहीं है क्योंकि उनके पास अब और भी कई काम हैं। गांगुली ने कहा, "हमारे कई शिक्षार्थी सिंगल मदर हैं और मुश्किल पृष्ठभूमि से आती हैं। लगभग सभी ने अत्यधिक ब्याज दरों पर (महामारी के दौरान) ऋण लिया था और अब उन्हें वापस भुगतान करना होगा।"


हालांकि कुछ कहानियों का सुखद अंत होता है। 42 साल की, शकीला बानो जयपुर के बाहरी इलाके में रहती हैं। उनके दो बच्चे हैं, जो स्कूल जाते हैं। उनके परिवार में उनका भाई भी हैं। शकीला एक साक्षर विधवा हैं। उन्होंने कहा कि 13 साल पहले अपने पति की मृत्यु के बाद उन्होंने लोगों के घरों में काम करना शुरू कर दिया। फिर उसके पड़ोसी ने उनसे पूछा कि क्या वह गाड़ी चलाना सीखना चाहती हैं?

शकीला ने कहा कि ड्राइविंग सीखना आसान नहीं था। सीखने की प्रक्रिया धीमी थी और छह महीने के ट्रेनिंग को पूरा करने में उन्हें नौ महीने लग गए।

जब कोविड आया तो उनके पास एक नौकरी थी। वह एक विज्ञापन कंपनी के लिए विज्ञापन होर्डिंग ढोने वाला एक वाहन चला रही थीं। इसके लिए उन्हें लगभग 9,000 रुपये प्रति माह मिलते थे। लेकिन लॉकडाउन के दौरान और उसके चार महीने बाद तक उनके पास कोई काम नहीं था।

फिर कंपनी ने उनको फोन किया और उनसे पूछा कि क्या वह काम पर वापस लौटना चाहेंगी? हालांकि उसमें भी कंपनी की कई शर्तें थीं। कारोबार ठप था और वह महीने में 10 से 15 दिन के काम को 300 रुपये की दैनिक दर से कर सकती थीं।

उन्होंने कहा, "अब मैं कम से कम यह सुनिश्चित कर सकती हूं कि मेरे बच्चों को खाना मिले। ड्राइविंग करना हमेशा से मेरा शौक रहा है। कंपनी के लिए सब कुछ सही नहीं चल रहा था, जिसे मैं समझ सकती हूं। हालांकि जल्द ही यह समय भी बीत जाएगा।"

(* हमने इस कहानी के लिए साक्षात्कार की गई महिलाओं के नाम उनके कहने पर बदल दिए हैं।)