झज्जर, हरियाणा: "ऐसे कई परिवार है जो लड़के के लिए कोशिश करते रहते हैं और इसी कोशिश में उनकी तीन, चार, पांच, बेटियाँ हो जाती हैं पर वो फिर भी एक लड़के की आस में बच्चे पैदा करते रहते है," धनदलान गाँव की प्रधान सुनीता देवी ने बताया. यह गाँव हरियाणा के झज्जर ज़िले में आता है. "आज भी एक लड़का होना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि वो घर चलाता है और उसे बोझ नहीं माना जाता।"

कई दशकों से लिंग अनुपात के मामले में हरियाणा देश के सबसे खराब राज्यों में से एक रहा है-- सरकार के सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) के आंकड़ों के मुताबिक 2011 में यहां हर हज़ार लड़कों पर 833 लड़कियों का जन्म हुआ।

हालांकि पिछले लगभग एक दशक में हरियाणा में जन्म के समय के लिंग अनुपात में काफी सुधार आया है. इंडियास्पेंड के साथ साझा किये गए राज्य-स्तरीय सीआरएस के आंकड़ों के अनुसार अगस्त 2019 तक हरियाणा में 1000 लड़कों के अनुपात में 920 लड़कियों का जन्म हुआ.

द गार्डियन की मार्च 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, हरियाणा में खराब लिंग अनुपात की वजह से जिन गाँवों में बच्चियाँ नहीं थीं, वहां बहुओं को पैसे देकर ख़रीदा गया क्योंकि पुरुषों से शादी करने के लिए महिलाएं नहीं थी और राज्य के बाहर की महिलाओं से जबरन शादी की गयी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार,1000 लड़कों पर 952 लड़कियाँ पैदा होना, जन्म के समय का स्वस्थ लिंग अनुपात है.

हरियाणा की ये उपलब्धि अपने आप में तो काफी अच्छी है ही साथ ही देश के औसत से भी बेहतर है.

सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हालिया सीआरएस के आंकड़ोंके अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर जन्म के समय लिंग अनुपात 2011 में 1000 लड़कों पर 909 लड़कियों का था, जो कि 2016 में घटकर 877 रह गया।

अधिकारियों के अनुसार हरियाणा ने कई सख्त कदम उठाकर अपना जन्म के समय पर लिंग अनुपात सुधारा है। जिसमें लिंग सूचक गर्भपात कराने के मामलों की रोकथाम, माता-पिता और परिवारों से बातचीत, गर्भवती महिलाओं को दर्ज कर उन पर नज़र रखना और लोगों का लड़कियों के प्रति नज़रिया बदलने के लिए कई जागरुकता अभियान चलाना शामिल हैं।

हालांकि लिंग अनुपात से जुड़े आंकड़ों पर पूरी तरह से विश्वास नहीं किया जा सकता। सरकार की ही दो अलग-अलग रिपोर्ट में लिंग अनुपात के दो अलग-अलग आंकड़े मिलते हैं।

2019 के हरियाणा विधानसभा चुनावों के दौरान हमने झज्जर ज़िले में जाकर पड़ताल की कि राज्य ने अपने खराब लिंग अनुपात को कैसे सुधारा। हमने पाया कि कन्या भ्रूण-हत्या पर कड़ी पाबंदी कारगर साबित हुई है। लेकिन जानकारों के अनुसार कड़ी पाबंदी की भी अपनी सीमा होती है। लिंग अनुपात में हुए सुधार को लंबे समय तक बरकरार रखने के लिए लोगों की सोच में बदलाव ज़रूरी है। बिना सोच बदले कोई भी समाजिक बदलाव लंबे समय तक नहीं रह सकता।

आंकड़ों में ख़ामियाँ

सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों का इस्तेमाल कर हरियाणा सरकार जन्म के समय के लिंग अनुपात में सुधार का दावा कर रही है इस सिस्टम के ज़रिये भारत सरकार देश में होने वाले हर जन्म और मृत्यु को दर्ज करती है, साथ ही इनका शहरी-ग्रामीण और लिंग के अनुसार विभाजन भी कर देती है। दूसरी और सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) के आंकड़े सीआरएस और सैम्पल सर्वे का मिलान है।

हरियाणा का लिंग अनुपात एसआरएस के आंकड़ों के मुकाबले सीआरएस के आंकड़ों में बेहतर दिखता है। एसआरएस के अनुसार 2015 से 2017 के बीच हरियाणा का जन्म के समय लिंग अनुपात 1000 लड़कों पर 833 लड़कियों का था। जबकि सीआरएस के अनुसार 2017 में हरियाणा में 1000 लड़कों पर 914 लड़कियों का जन्म हुआ।

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेस, मुंबई के फर्टिलिटी स्टडीज़ विभाग के अध्यक्ष डी.ए. नागदेवे ने इंडियास्पेंड को बताया, “सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़े सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों से ज्यादा विश्वसनीय हैं। सीआरएस के आंकड़ों में ख़ामी संभव है, इसमें ज्यादा ग़लतियाँ होती हैं, और इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती है।”

हालांकि हरियाणा सरकार के डॉक्टरों का कहना है कि सीआरएस, यानी जिस सिस्टम का वो इस्तेमाल करते हैं, वो ज्यादा बेहतर है साथ ही उन्होंने आंकड़ों में ख़ामियों के लिए “अवैध संस्थानों” में हुए जन्मों को ज़िम्मेदार ठहराया।

झज्जर सिविल अस्पताल की मेडिकल अफ़सर ममता वर्मा ने बताया, “सीआरएस में जन्म दर्ज न होने की आशंका ना के बराबर होती है क्योंकि जन्म दर्ज कराने की ज़िम्मेदारी निजी व सरकारी अस्पतालों की खुद की होती है। एएनएम गाँव के 100 प्रतिशत जन्म दर्ज करती हैं। पर जो प्रसव अवैध संस्थानों में होते हैं वहां रजिस्ट्रेशन के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया जाता और ऐसे जन्म सीआरएस के आंकड़ों में नहीं आ पाते।”

बेटी बचाव, बेटी पढ़ाओ सचिवालय के नोडल अधिकारी जी.एल. सिंघल ने कहा कि सीआरएस के आंकड़ों में सिर्फ छोटी-मोटी ग़लतियाँ होती हैं। ”ऐसे कभीकभार होने वाले मामलों में दोषी पाए जाने पर उसके खिलाफ तुरंत कड़ी कार्रवाई की जाती है।”

इंडियास्पेंड निजी तौर पर यह पता नहीं लगा पाया कि सीआरएस के आंकड़ों में ये ग़लतियाँ कैसे पकड़ी जाती हैं और कैसे सुधारी जाती हैं।

सख्त कार्रवाई

झज्जर सिविल अस्पताल के चीफ़ मेडिकल अफ़सर आर. एस. पूनिया ने बताया, “हमारे गाँव कन्या भ्रूण हत्या के लिए कुख्यात थे। जब हमने बेटी बचाव पर काम शुरू किया तो हमें भरोसा था कि हम ये छवि बदल देंगे। हमने लड़कियों को बचाने, उन्हें पढ़ाने और सक्षम बनाने पर ध्यान दिया।”

झज्जर समेत हरियाणा के सभी ज़िलों ने पीसीपीएपडीटी कानून को सख्ती से लागू किया। पीसीपीएनडीटी यानि लिंग चयन प्रतिषेध अधिनियम कानून जो लिंग सूचक गर्भपात पर पाबंदी लगाता है। भारत में लिंग सूचक गर्भपात, लिंग अनुपात के गिरने का एक बड़ा कारण है।

भारतीय बाज़ार में मेडिकल टेक्नोलॉजी के बढ़ने के साथ ही भारत का लिंग अनुपात घटता गया। अगस्त 2018 में नेशनल सेंटर फ़ॉर बायोटेक्नॉलॉजी इन्फ़र्मेशन की पत्रिका में छपे एक शोध में कहा गया कि भारत में लिंग जांच का सालाना बाज़ार अनुमानित तौर पर 100 मिलियन डॉलर का है।

भारत का लिंग अनुपात साल 1901 में 1000 लड़कों पर 972 लड़कियाँ था, जो कि 1991 में घटकर 927 हो गया। घटते लिंग अनुपात के चलते पीसीपीएनडीटी एक्ट 1994 को लागू किया गया। यह कानून गर्भ-धारण के पहले या बाद में लिंग चुनाव के तरीकों पर पाबंदी लगाता है, सामान्य गर्भ जांच की तकनीकों का लिंग जांच और गर्भपात के लिए हो रहे गलत इस्तेमाल को रोकता है और अल्ट्रासाउंड मशीन या कोई भी अन्य उपकरण जिससे भ्रूण की लिंग जांच हो सके, उसकी बिक्री और वितरण पर पाबंदी लगता है।

लिंग सूचक गर्भपात हरियाणा के अमीर घरों और ऊंची जातियों में ज्यादा कराया जाता है। झज्जर सिविल अस्पताल की डॉक्टर और अबॉर्शन रोकथाम टीम की सदस्य, डॉक्टर ममता वर्मा ने बताया, “कोई भी रजिस्टर्ड रेडियोलॉजिस्ट लिंग जाँच का कम से कम एक लाख रुपए लेता है। पिछड़ी जाति का कोई भी ग़रीब व्यक्ति इतने पैसे नहीं दे पता है।”

महिला एवं बाल विकास विभाग, हरियाणा, की सितम्बर 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, “हरियाणा में सामान्य जातियों में सबसे ज़्यादा आबादी जाटों की है। जिससे ऊँची जातियों में बेटे की पसंद साफ़ सामने आती है।”

हरियाणा सरकार का दावा है कि 2015 से की जा रही छापे मारी और अंडरकवर कार्रवाई की वजह से लिंग सूचक गर्भपात की संख्या में काफ़ी कमी आयी है।

बेटी बचाओ योजना के डॉक्टर सिंघल ने बताया, “अभी तक हम PNDT एक्ट के उल्लंघन के तहत 390 और मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नन्सी यानी MTP एक्ट (जो गर्भपात के नियम तय करता है) के तहत 230 एफ़आईआर (अपराध होने पर पुलिस द्वारा दर्ज की जाने वाली पहली रिपोर्ट) दर्ज करा चुके हैं। ये FIR दाइयों, चिकित्सा सहायकों और झोला छाप डॉक्टरों के ख़िलाफ़ दर्ज की जा चुकी हैं।”

उन्होंने बताया कि हरियाणा पुलिस सिर्फ़ हरियाणा में ही नहीं बल्कि आसपास के राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में भी छापे मारती है। दरअसल, कई लोग हरियाणा से सटे दूसरे राज्यों के इलाक़ों में जाकर लिंग जाँच करवाते हैं।

“अबॉर्शन किट की आसानी से उपलब्धता लिंग सूचक अबोर्शोंस को और बढ़ावा दे रही है। हम इन अबॉर्शन किट्स की बिक्री पर नज़र रखते हैं और अगर कोई भी गर्भवती महिला इनका इस्तेमाल करती है तो हमारी आशा और ANM को पता चल जाता है,” सिंघल ने बताया।

अबॉर्शन पर इतनी सख़्त रोक का एक असर ये भी हुआ है कि महिलाएँ बिना लिंग जाँच कराए, अनचाहे गर्भ-धारण के लिए भी गर्भपात नहीं करवा पा रही हैं। “250 रुपए की अबॉर्शन की गोलियाँ 15000 रूपए तक में बिक रहीं हैं। ये गोलियाँ ख़रीद रही महिलाओं को शक की नज़र से देखा जाता है और डॉक्टर भी ये गोली देने में हिचकिचा रहे हैं। हरियाणा में मेडिकल स्टोर्स पर ये गोलियाँ अब उपलब्ध नहीं हैं, उन्हें लगता है कि ये गोलियां मांगने वाला कहीं स्वास्थ्य विभाग का ऐजेंट तो नहीं है”, झाज्जर की मेडिकल अफ़सर, वर्मा ने बताया।

ग्रास रूट मॉनिटरिंग

सिंघल ने बताया, ”साल 1994 में पीसीपीएनडीटी कानून पास होने के बाद भी हरियाणा के आंकड़ों में कोई सुधार नहीं दिख रहा था।” उन्होंने बताया कि 2001 में एक सामाजिक कार्यकर्ता और मुंबई स्थित गैर सरकारी संस्थान सेंटर फ़ोर एंक्वरी इंटू हेल्थ एंड ऐलायड टीम्ज़ (सेहत) के सदस्य सबु जॉर्ज ने पीसीपीएनडीटी कानून के खराब अमल के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की। इस याचिका की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार को कानून का कड़ाई से पालन करने के निर्देश दिये थे।

सिंघल ने बताया, “निर्देश के बाद भी पीएनडीटी कानून का पालन साल 2001 से 2011 के बीच जन्म के समय के लिंग अनुपात में कोई बदलाव नहीं ला सका। लेकिन 2015 में पानीपत में बेटी बचाव बेटी पढ़ाओ योजना के लागू होने के बाद स्थिति में बदलाव आना शुरू हो गया”। बेटी बचाव बेटी पढ़ाओ योजना का उद्देश्य, कन्या भ्रूण हत्या को रोकना, जन्म के समय लिंग अनुपात में सुधार लाना और महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देना है।

पूनिया ने बताया कि ज़मीनी स्तर पर काम करने वाली स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने पहलवान साक्क्षी मलिक और फोगाट बहनों जैसी ‘गोल्डन गर्ल्स’ का उदाहरण देकर परिवारों को यह संदेश देना शुरू किया कि लड़कियाँ लड़कों से कम नहीं।

इसके साथ ही इन कार्यकर्ताओं ने गाँवों की गर्भवती महिलाओं का पता लगाकर उनके माता पिता और परिवारों को जागरूक करना शुरू किया।

पिछले आठ सालों से झज्जर में कार्यरत एएनएम शर्मिला देवी बताती हैं, “जैसे ही गाँव में किसी की शादी होती है तो हम जाकर पति-पत्नी का नाम दर्ज करते हैं फिर उसके बाद से उन पर नज़र रखते हैं।” गर्भावस्था की पहली तिमाही से ही एएनएम महिलाओं को पंजीकृत कर लेती हैं और उसके बाद गर्भवती महिलाओं की हर महीने की डॉक्टरी जांच का ध्यान रखती हैं।

हालांकि हरियाणा में जितना सुधार लिंग अनुपात के आंकड़ों में आया है उतना सुधार गर्भावस्था के दौरान नियमित डॉक्टरी जांच कराने वाली महिलाओं के आंकड़ों में नहीं आया। जो कि यह दिखाता है कि राज्य का सारा ध्यान केवल लिंग-सूचक गर्भपातों को रोकने पर ही केंद्रित है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 में उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार हरियाणा में आधे से भी कम, मात्र 41.8% गर्भवती महिलाएं, गर्भावस्था के दौरान, कम से कम चार बार डॉक्टरी जांच के लिए गईं।

देवी इंडियास्पेंड से बात करते हुए आगे बताती हैं, “हम इस बात का भी पता लगाते हैं कि गर्भवती महिला के ससुराल और उसके परिवार की बेटियों के बारे में क्या राय है। अगर कोई ऐसी महिला गर्भवती है जिसको पहले बेटी पैदा हुई हो, तो इन महिलाओं पर हम ज्यादा ध्यान रखते हैं ताकि वे लिंग जांच न करा सकें”।

एएनएम, ज़मीनी स्तर पर काम करने वाली पंजीकृत समाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानि आशा कार्यकर्ताओं के साथ हर महीने बैठक करती हैं। अगर किसी इलाके का लिंग अनुपात कम है, तो एएनएम व आशा दोनों साथ मिलकर उस इलाके की गर्भवती महिलाओं से बात करते हैं, खासकर उन महिलाओं से जिनके यहां बेटी पैदा हो चुकी है मगर फिर भी वो बेटे की चाहत में अड़ी हैं।

जनवरी 2019 से सितंबर 2019 की नौ महीनों की अवधि के दौरान झज्जर के डीघल गाँव में 568 लड़कों पर 545 लड़कियाँ पैदा हुईं जिनके चलते गाँव का लिंग अनुपात प्रति 1000 लड़कों पर 960 लड़कियों तक पहुंच गया, जो कि गांव के इतिहास में सबसे ज्यादा है, डीघल के मेडिकल अफ़सर इंचार्ज विनीत (विनीत, सिर्फ पहला नाम ही इस्तेमाल करते हैं) ने बताया।

“मैंने गाँवों में लोगों की धारणाएं बदलती देखी हैं” शर्मिला देवी कहती हैं, ”पहले सबको सिर्फ बेटा चाहिए होता था क्योंकि वो वंश को आगे ले जाता है, लेकिन अब लोग बेटियों के पैदा होने पर भी जश्न मनाते हैं। आर्थिक रूप से सक्षम लोग तो अब लड़कियों के पैदा होने के दसवें दिन जश्न मनाते हैं।”

उतार-चढ़ाव

साल 2005 में हरियाणा के 21 में से 15 जिलों में जन्म के समय पर लिंग अनुपात 1000 लड़कों पर 850 लड़कियों से भी नीचे था।

हरियाणा में लिंग अनुपात सुधारने के लिए जितना ध्यान सख़्ती और सज़ा पर दिया जा रहा है उतना व्यावहारिक बदलाव लाने पर नहीं दिया जा रहा है। इसका उदाहरण है झाज्जर का लगातार बदलता लिंग अनुपात, झाज्जर उन जिलो में शामिल है जहाँ 2012 से 2018 के बीच सबसे ज़्यादा सुधार देखा गया।

CRS के आँकड़ों के अनुसार झज्जर का जन्म के समय पर लिंग अनुपात 2012 में 1,000 लड़कों पर 781 लड़कियों का था जो कि 2014 में सुधर कर 884 हो गाया, 2017 में 920, और 2018 में फिर घटकर 875 पर आ गाया, जिसके बाद 2019 (दिसम्बर 2018- अगस्त 2019) में बढ़कर 901 हो गया।

हरियाणा के सभी 22 जिलों के लिंग अनुपात में यही रुख देखा गया है। (आँकड़े सिर्फ़ 21 जिलों के उपलब्ध हैं, चरखी दादरी ज़िले के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं)

Source: Women and Child Development Department, Haryana Note: Data for 2019 are for December 2018 to August 2019.

सोच में बदलाव-- असली चुनौती

सामाजिक कार्यकर्ता, सबु जॉर्ज का कहना है, “आँकड़ों को बेहतर बनाए रखने के लिए राजनैतिक और प्रशासनिक इरादा ज़रूरी है, साथ ही ज़रूरी है कि राज्य सरकार क़ानूनों को ठीक से लागू करे। अगर ऐसा किया जाता है तो समय के साथ आँकड़े स्थिर हो जाएँगे और 2021 की जनगणना में ये बदलाव नज़र आना चाहिए।”

प्रशासन और सरकारी डॉक्टरों का भी मानना है की सोच में बदलाव लाना एक बड़ी चुनौती है। “व्यावहारिक बदलाव अभी काफ़ी कम है, ये एक कड़वा सच है, क़ानून का इस्तेमाल हर जगह नहीं किया जा सकता,” सिंघल ने बताया।

उन्होंने ने उदाहरण दे कर समझाया कि एक ज़िले में जहाँ के आँकड़े सुधर रहे थे और काफ़ी अच्छे थे, वहाँ सरकार ने एक नया चीफ़ सर्जन तैनात किया जिसने क़ानून लागू करने में बहुत ज़्यादा सख़्ती नहीं बरती। इसका असर ये हुआ कि इस इलाक़े के आँकड़े एक साल के अंदर ही ख़राब होने लग गए। “लोग क़ानून से तभी डरेंगे जब इसे सख़्ती से लागू किया जाएगा।”

लिंग अनुपात में आए सुधार को बरक़रार रखना काफ़ी मुश्किल है क्योंकि लोगों को आज भी बेटे की चाहत है। धानदलन गाँव की प्रधान सुनीता देवी ने बताया, “लोगों को आज भी बेटी पैदा होने के साथ ही डर लगता है क्योंकि बेटी बोझ मानी जाती है, उसका ध्यान रखना पड़ता है कोई ऊँच-नीच हो सकती है, शादी में दहेज़ देना पड़ता है, इसके बाद भी बुढ़ापे में साथ नहीं राह पाती।”

आंकड़ों से उत्साहित पूनिया का कहते हैं, “हमारी कोशिशों की वजह से झज्जर हरियाणा के टॉप 10 जिलों में आता है, ये हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है, अब हमारी सबसे बड़ी चुनौती है इन आँकड़ों को बरक़रार रखना,” ।

(साधिका इंडियास्पेंड के साथ प्रिंसीपल कॉरेस्पोंडेंट और सना रिपोर्टिंग फ़ेलो हैं )