अस्पतालों में दवाइयों की कीमतों में 1,737% तक की वृद्धि
नई दिल्ली: 1 मार्च, 2018 को नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) के प्रमुख भूपेन्द्र सिंह को नेशनल ऑथोरिटी फॉर केमिकल वेपन्स कन्वेंशन में स्थानांतरित कर दिया गया था। इस कारण समर्थक कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया था। उन्होंने आरोप लगाया कि हस्तांतरण के पीछे ‘दवा उद्योग और अस्पताल लॉबी’ ( मुख्य रूप से बड़ी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों और कॉर्पोरेट अस्पतालो ) का हाथ है।
एनपीपीए दवाओं की कीमतें निर्धारित करने और दवा की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार एक सरकारी एजेंसी है। 2016 से सिंह इसका संचालन कर रहे थे और उनकी निगरानी के तहत पिछले वर्ष कार्डियक स्टंट की कीमत 80 फीसदी तक घटा दी गई थी।
एक हफ्ते पहले एनपीपीए ने एक विश्लेषण प्रकाशित किया था कि कैसे निजी अस्पताल कम कीमतों पर थोक में दवाएं और चिकित्सा उपकरणों खरीदते हैं और अधिकतम खुदरा मूल्य से ज्यादा पर मरीजों को बेचते हैं, जिससे 1,737 फीसदी तक का मुनाफा अर्जित किया जाता है।
एनपीपीए ने मरीजों के रिश्तेदारों द्वारा ज्यादा बिल लेने के आरोपों पर चार ‘प्रतिष्ठित निजी अस्पतालों’ का विश्लेषण किया है। मरीजों के परिवारों ने विरोध जताया था कि अंतिम बिल प्रारंभिक अनुमान का तीन गुना है, ऐसा एनपीपीए ने बताया है।
यह पाया गया कि बिल का सबसे बड़ा घटक दवा, उपकरण और निदान (56 फीसदी) थे। यह प्रक्रियाओं और कमरे के किराए (23 फीसदी) की लागत से भी ज्यादा है जो ‘अधिक सामने’ हैं। दवाओं और निदान की कीमत मरीज के प्रवेश से पहले प्रचारित प्रचार पैकेज में नहीं थे।
विश्लेषण महत्वपूर्ण है, क्योंकि ग्रामीण इलाकों में 58 फीसदी परिवार और शहरी क्षेत्रों में 68 फीसदी निजी अस्पताल चुनते हैं, जैसा कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 71 वें दौर के 'भारत में स्वास्थ्य' रिपोर्ट में बताया गया है। कम से कम 15 फीसदी गरीब परिवारों ने अस्पताल में भर्ती होने के लिए संपत्ति बेच दी या महंगा ऋण लिया है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जुलाई 2017 की रिपोर्ट में बताया है। एक निजी अस्पताल में भर्ती होने की औसत लागत (20,098) एक सार्वजनिक अस्पताल (9,152 रुपये) के मुकाबले दोगुनी थी।
स्वास्थ्य सेवा लागतों की वजह से कम से कम 52.5 मिलियन भारतीय हर साल गरीबी की बढ़ जाते हैं, जैसा कि FactChecker ने दिसंबर, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
15 दिनों तक अस्पताल में भर्ती के लिए 16 लाख रुपये
गुड़गांव के फोर्टिस हेल्थकेयर ने डेंगू से पीड़ित के सात साल की बच्ची आद्या सिंह के परिवार से 15 दिन के प्रवास और इलाज के लिए 16 लाख रुपये (24,576 डॉलर) लिए। इस घटना के बाद ही एनपीपीए ने विश्लेषण आयोजित किया। अस्पताल ने कथित तौर पर परिवार को 616 सिरिंजों और 1500 जीवाणुहीन दस्ताने के लिए बिल भेजा था, जैसा कि ‘इकोनोमिक टाइम्स’ ने 25 नवंबर, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
सिंह और अन्य तीन मरीज जिनके बिल की जांच की गई, उनकी इलाज के दौरान मृत्यु हुई थी। उनके परिवारों पर कुल 69 लाख रुपये (105,984 डॉलर) लेने का आरोप लगाया गया था ( प्रत्येक का 17 लाख रुपये (26,112 डॉलर) से अधिक का औसत )। भारत में औसत प्रति व्यक्ति आय 2013 में 616 डॉलर थी, जैसा कि गैलप सर्वेक्षण के आधार पर ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ ने दिसंबर 2013 की रिपोर्ट में बताया है।
ज्यादा लाभ के लिए गैर-जरूरी दवाएं देने का चलन
सभी मामलों में, नियत दवाओं या मूल्य नियंत्रण के तहत जरूरी दवाएं मात्र 4.1 फीसदी थीं, जबकि गैर जरूरी दवाएं कुल बिल का 25.6 फीसदी थीं।
अस्पताल बिल का ब्रेक-अप
एनपीपीए में कहा गया है कि "यह स्पष्ट है कि उच्च मार्जिन का दावा करने के लिए, डॉक्टर-अस्पताल सूचित दवाओं की बजाय गैर-सूचित ब्रांडेड दवाओं को निर्धारित करते हैं।"इसमें बताया गया है कि कीमत नियंत्रण से बचने के लिए, उत्पादक अक्सर गैर-सूचित दवाओं के रूप में ‘नई दवाओं’ देते हैं, जिससे आवश्यक दवाओं की एक राष्ट्रीय सूची बनाने के उद्देश्य को कम किया जा सके।
एजेंसी ने पाया कि थोक मूल्यों पर दवाइयों की खरीद के बावजूद, अस्पतालों ने फार्मा कंपनियों को ‘उच्च लाभ मार्जिन’ हासिल करने के लिए उच्च कीमतों को मुद्रित करने के लिए मजबूर किया, जिससे मरीजों के जेब पर बड़ा असर पड़ा।
निदान, उपकरण की कीमतों में भी वृद्धि हुई
अस्पतालों ने नैदानिक सेवाओं और उपकरणों की कीमतों में भी वृद्धि की है, जो एनपीपीए के दायरे में नहीं आते हैं। निदान सेवाओं का कुल बिल का 15 फीसदी हिस्सा था, लेकिन एनपीपीए ने पाया कि अन्य स्वतंत्र रूप से संचालित निजी केंद्र के मुकाबले अस्पतालों ने ज्यादा चार्ज लगाया है।
तीन मामलों में, ‘उपकरणों’ ( सीरिंज, कैथेटर्स और कैनुलास ) के लिए लाभ मार्जिन ‘अत्यधिक और स्पष्ट रूप से एक असफल बाजार प्रणाली में अनैतिक मुनाफाखोरी का मामला था, ‘ जैसा कि एनपीपीए ने बताया है।
बेचने और क्रय मूल्य में अस्पताल मार्जिन
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Hospital Margins In Selling And Purchasing Price | |||
---|---|---|---|
Category | Price At Which Hospitals Purchased (Rs) | Price Printed As MRP (Rs) | Difference (In %) |
Scheduled Drugs | |||
Propofol | 40.9 | 187.2 | 357 |
Tazira Lyo | 100.9 | 446 | 342 |
Non-Scheduled Drugs | |||
Adrenor | 14.7 | 189.9 | 1192 |
Dotamin | 28.3 | 287.5 | 914 |
Consumables | |||
Three way stop-cap bivalve | 5.7 | 106 | 1737 |
Bed-wet wipes | 33 | 350 | 959 |
Medical Devices | |||
IV infusion set | 5.2 | 115 | 1271 |
Disposable syringe without needle | 13.6 | 200 | 1208 |
Source: National Pharmaceutical Pricing Authority
एनपीपीए ने बताया कि लाभ अस्पतालों को मिलता है न कि निर्माताओं को।
उदाहरण के लिए, तीन मुंही वाल्व की कीमत अस्पताल के लिए 5.77 रुपये थी लेकिन मरीज से 106 रुपये का शुल्क लिया गया, यानी 1,737 फीसदी की वृद्धि। इसी तरह, अनुसूचित दवाओं में, वर्फेन ( शल्य चिकित्सा के बाद दर्द से राहत के लिए वर्णित ) अस्पतालों द्वारा 56.44 रुपये में खरीदा गया था लेकिन मरीजों से 220 रुपये का शुल्क लिया गया था, यानी 290 फीसदी की वृद्धि हुई। एनपीपीए ने निष्कर्ष निकाला है, "अधिकतम मूल्य और संबंधित एमआरपी का उल्लंघन केवल कुछ ही मामलों में पाया जाता है जो एनपीपीए द्वारा आगे बकाया जायेगा।"
स्टेंट कीमतों में कटौती, लेकिन बिल अभी भी उच्च
एनपीपीए द्वारा विश्लेषण किए गए चार मामले अधिक चार्ज करने तक ही सीमित नहीं है। फरवरी 2017 में, एनपीपीए ने आवश्यक दवाइयों की राष्ट्रीय सूची में स्टेंट सहित कोरोनरी स्टेंटों की कीमतों में कमी की थी। इसने स्टेंट की कीमतें लगभग 80 फीसदी से घटाकर नियमित स्टेंट के लिए 7,260 रुपये ( 111 डॉलर) और उन्नत ड्रग स्टेंट 29,600 रुपए ( 454 डॉलर ) की गई है।
हालांकि, घटी हुई स्टेंट कीमतों से अस्पतालों के बिल में कमी नहीं हुई है, जैसा कि विभिन्न रिपोर्टों में उल्लेख किया गया है। अस्पतालों ने कम मुनाफे की भरपाई के लिए डॉक्टरों के शुल्क और प्रयोगशाला शुल्क की कीमतें बढ़ा दी हैं। स्टेंट कीमत कैपिंग के बाद महीने के दौरान, एनपीपीए को अस्पतालों द्वारा अधिक चार्ज लेने या अधिभार का 40 से अधिक शिकायतें मिलीं, जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस ने 16 मई, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ में काम करने वाले स्वास्थ्य अर्थशास्त्री शक्तिवेल सेल्वराज कहते हैं, "कीमतों के कैपिंग के बावजूद, दवा बाजार का केवल 17 फीसदी विनियमित है, ज्यादातर अभी भी अनियमित है।" ध्यान से देखा जाए तो यह मांग-आपूर्ति बेमेल को दर्शाता है।
स्वास्थ्य अर्थशास्त्री अमीर उल्हा खान ने इंडिया स्पेंड को बताया, "मौजूदा परिस्थितियों में, सरकारी नीतियों के चलते नए अस्पतालों को स्थापित करने की गति कम है और ऐसे में अस्पतालों में संख्या कम हो गई है। परिणामस्वरुप, मौजूदा अस्पतालों में मूल्य निर्धारित करने का एकाधिकार है। निजी अस्पतालों में बहुत कम या कोई विनियमन नहीं है । क्लिनिकल एस्टाब्लिशमेंट एक्ट 2010 ( जो अस्पतालों को विनियमित कर सकते हैं ) को मंजूरी जरूर दे दी गई है लेकिन कुछ राज्यों में ही लागू किया गया है। "
(यदवार प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। )
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 9 मार्च 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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