अहमदाबाद की सड़कों पर दिख रहा है नोबेल पुरस्कार विजेता की ओर से बेरोजगारी की चेतावनी का चेहरा
( 25 वर्षीय अशिक्षित कंस्ट्रक्शन मजदूर राजेश परमार (पीले रंग की कमीज में) गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में 50 श्रम बाजारों में से लगभग 2,000 अन्य लोगों के साथ काम करने का इंतजार कर रहे है। लगभग सात साल पहले वह एक स्थिर नौकरी की तलाश में, दाहोद से 200 किलोमीटर दूर पूरब की ओर यहां आए थे। नोटबंदी तक, उन्होंने आम तौर पर प्रति दिन 400 रुपये की मजदूरी ली और प्रति माह लगभग 12,000 रुपये कमाए। अब, वह प्रति दिन 200 रुपये स्वीकार कर लेते हैं।)
अहमदाबाद: " हमें नहीं पता कि यह दुख कब खत्म होगा।" यह दूसरा हफ्ता था जब उसके भाई और कॉलेज छोड़ चुके राजेंद्र (33) और देवेंद्र चुनारा (34) को कोई काम मिला था। उनके झुके हुए कंधे, थकी हुई आंखें और चिंचित चेहरे उनकी हताशा बयान कर रहे थे।
हर दिन सुबह 8 बजे, निर्माण स्थलों, लोडिंग, प्लंबिंग, इलेक्ट्रिकल संबंधित काम मिलने की उम्मीद में वे लगभग 2,000 दिहाड़ी मजदूर के साथ खड़े होते हैं। कभी सड़क के किनारे समूहों में औक कभी जब वे थक जाते हैं, तो वे डिवाइडर पर बैठ जाते हैं।
अखबार नगर सर्कल में ( भारत के 13 वें सबसे अमीर राज्य में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत के 5 सबसे अधिक आबादी वाले 50 श्रम केंद्रों में से एक ) वे मजदूरी देने वाले श्रम ठेकेदारों की प्रतीक्षा करते हैं। श्रमिकों ने इंडियास्पेंड को बताया कि लगभग आधे स्थानीय लोग हैं, बाकी उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे गरीब राज्यों से हैं।
"हमें नहीं पता कि यह दुख कब खत्म होगा।" यह दूसरा हफ्ता था जब उसके भाई और कॉलेज छोड़ चुके राजेंद्र (33) और देवेंद्र चुनारा (34) को कोई काम मिला था। नोटबंदी से पहले वे 10,000 से 15,000 रुपये प्रति माह तक कमा लेते थे, जो अब घट कर 3,000 से 5,000 रुपये प्रति माह हो गया है।
नवंबर 2016 को नोटबंदी कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री देवारा रातों-रात भारत की 86 फीसदी मुद्रा को अमान्य कर दिया गया था। इससे पहले, चुनार भाई आज की तुलना में दोगुना कमाते थे। नोटबंदी से पहले वे 10,000 से 15,000 रुपये प्रति माह तक कमा लेते थे, जो अब घट कर 3,000 से 5,000 रुपये प्रति माह हो गया है। नोटबंदी से पहले, भाइयों ने महीने में 25 दिन तक काम किया। अब, उनको पांच से 10 दिनों के लिए काम मिलता है। दो भाइयों के अगल-बगल खड़े अन्य श्रमिकों ने भी कुछ ऐसी ही बात बताई। जैसा कि नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुगमैन ने भारत को बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की चेतावनी दी और एक लीक सरकारी रिपोर्ट से पता चला है कि पिछले छह सालों से 2018 तक पुरुष श्रमबल की संख्या 1.8 करोड़ कम हो गई है। इन भाईयों ने कहा कि वे 10 वर्षों में अपने "सबसे बुरे समय" का सामना कर रहे हैं और उन्होंने कभी इतनी बेरोजगारी नहीं देखी थी। मजदूरों के लिए नौकरियों की कमी का मुख्य कारण ‘नोटबंदी’ है, जिसने गुजरात के बड़े पैमाने पर नकदी-चालित निर्माण क्षेत्र (10 फीसदी की दर पर अपनी अर्थव्यवस्था में दूसरा सबसे बड़ा योगदानकर्ता) को गंभीर रूप से प्रभावित किया। यह क्षेत्र केवल कृषि (22 फीसदी) के पीछे है, जैसा कि गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ हाउसिंग एंड इस्टेट डेवलपर्स के चेयरपर्सन आशीष पटेल कहते हैं।
11 आलेखों की श्रृंखला में ये यह चौथी रिपोर्ट है (आप यहां पहली रिपोर्ट,यहां दूसरी और यहां तीसरी रिपोर्ट पढ़ सकते हैं) जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार पर नजर रखने के लिए देशव्यापी श्रम केंद्रों से (ऐसे स्थान जहां अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक अनुबंध की नौकरी की तलाश में जुटते हैं ) रिपोर्ट किया जा रहा है।
यह क्षेत्र, जो देश के निरक्षर, अर्ध-शिक्षित और योग्य-लेकिन-बेरोजगार लोगों के बड़े पैमाने पर अवशोषित करता है, भारत के 92 फीसदी कर्मचारियों को रोजगार देता है, जैसा कि 2016 के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अध्ययन से पता चलता है। इस अध्ययन में सरकारी डेटा का उपयोग किया गया है।
अनौपचारिक श्रमिकों के जीवन और आशाओं को ध्यान में रखते हुए, यह श्रृंखला नोटबंदी और जीएसटी के बाद नौकरी के नुकसान के बारे में चल रहे राष्ट्रीय विवादों को एक कथित परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है। अखिल भारतीय निर्माता संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार, चार साल से 2018 तक नौकरियों की संख्या में एक-तिहाई गिरावट आई है। सर्वेक्षण में ने देश भर में अपनी 300,000 सदस्य इकाइयों में से 34,700 को शामिल किया गया है। केवल 2018 में, 1.1 करोड़ नौकरियां खो गईं, ज्यादातर असंगठित ग्रामीण क्षेत्र में, जैसा कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों से पता चलता है।
नवंबर 2016 में, जब नोटबंदी की घोषणा की गई थी, सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, गुजरात की बेरोजगारी दर 2.2 फीसदी थी, जो दिसंबर 2016 में 5 फीसदी थी, फरवरी 2018 में 9.5 फीसदी और अक्टूबर 2018 तक 7.4 फीसदी थी। फरवरी 2019 तक, बेरोजगारी दर गुजरात 5.5 फीसदी थी।
कोई आधिकारिक टिप्पणी नहीं थी, लेकिन राज्य सरकार इस बात को स्वीकार नहीं करती है कि इससे या तो गुजरात की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई या इसने नौकरी के बाजार को प्रभावित किया, जैसा कि विषय की संवेदनशीलता को देखते हुए श्रम विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया। परिणामस्वरूप, बेरोजगार श्रमिकों के लिए अब कोई विशेष समर्थन नहीं है।
कामकाजी जीवन के प्रमुख समय में, बिना काम केचुनार परिवार के जीवन में कठिन समय एक दशक पहले आया था, जब एक पारिवारिक वित्तीय संकट ( अपने पिता के छोटे खेत की विफलता के कारण ) के कारण राजेंद्र को दूसरे वर्ष के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग और देवेंद्र को बी. कॉम के दूसरे वर्ष में कॉलेज छोड़ कर गुजरात की अनौपचारिक श्रम शक्ति में शामिल होना पड़ा था।
उनकी पत्नियों के पास नौकरी नहीं है। उनके बच्चे प्राइमरी स्कूल में पढ़ते हैं, और वे दो व्यस्त सड़कों के बीच स्थित हलचल बाजार चौक से थोड़ी दूरी पर वडाज में किराए के मकान में रहते हैं।
गुजरात के अनौपचारिक क्षेत्र के लगभग 70 फीसदी श्रमिक 40 वर्ष से कम उम्र के हैं, जैसा कि निर्माण और अन्य असंगठित क्षेत्रों में मजदूरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन, ‘मजदूर आदर्श मंच’ के सचिव रमेश श्रीवास्तव कहते हैं।
चुनार के भाइयों ने कहा कि किराये और स्कूल की ट्यूशन जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करने वाले, "70 फीसदी से अधिक" दिहाड़ी मजदूर साहूकारों से ऋण लेने के लिए मजबूर हैं, जो मोटी ब्याज लेते हैं- करीब 10 फीसदी से लेकर 20 फीसदी प्रति माह तक।
हमने शहर के घाटलोदिया, साबरमती, चंदलोदिया, शाहपुर, नारोल, नेहरू नगर, सरखेज, वासना और मेमनगर में मजदूरों के समूहों के भी कुछ ऐसे ही अनुभव देखे। गुजरात के असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी की वर्तमान स्थिति पर सबसे ज्यादा दोष नोटबंदी को दिया गया है।
उन्होंने कहा कि हालांकि, पहले की तरह ज्यादा काम नहीं है, लेकिन नौकरियों के लिए इंतजार करने वाले लोग ज्यादा हैं। सरकार यह भी पता लगाने की कोशिश नहीं करती है कि कितने लोग अस्थायी नौकरियों की तलाश में हैं।
डिप्टी लेबर कमिश्नर श्रुतिबेन मोदी ने कहा, "असंगठित क्षेत्र में श्रमबल इतना बड़ा है कि किसी भी सर्वेक्षण के माध्यम से संख्याओं को प्राप्त करना संभव नहीं है। सरकार विभिन्न बोर्डों और कल्याण योजनाओं के तहत अधिक से अधिक को पंजीकृत होने की कोशिश कर रही है।” उन्होंने कहा कि राज्य के कार्यबल का अनुमानित 83 फीसदी असंगठित क्षेत्र से है, जो राष्ट्रीय औसत से नौ प्रतिशत कम है।
गुजरात के श्रम अधिकारों के लिए काम करने वाली एक गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन की मिनबेन जाधव ने कहा कि इस औद्योगिक शहर के सभी प्रमुख श्रम केंद्रों में रोजाना इंतजार कर रहे दैनिक श्रमिकों की संख्या 100,000 के आसपास है।
कुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक प्रति दिन लगभग 800 रुपये कमाते हैं, जबकि अकुशल (अखबार नगर सर्कल में भीड़ का सबसे बड़ा खंड ) कहा जाता है कि अगर वे एक दिन में 400 रुपये पाते हैं तो वे भाग्यशाली हैं; यह आमतौर पर पहले मिलने वाली राशि का आधा है।
अखबार नगर सर्कल में पूरे दिन इंतजार करने के बाद, राजेंद्र और देवेंद्र को कोई काम नहीं मिला। लगभग हारे हुए, उन्होंने अपने टिफिन बॉक्स पैक किए और घर की ओर चल पड़े। अपने कामकाजी जीवन के प्रमुख समय में, उनके पास कोई काम नहीं था और काम मिलने की कोई संभावना नहीं थी।
“ जीवन और भी कठिन हो गया है! ”गुजरात के निर्माण क्षेत्र पर नोटबंदी से पहले आर्थिक मंदी का प्रभाव देखा जा रहा था, और नोटबंदी के बाद यहां सब कुछ ठहर सा गया, जिसके कारण बेरोजगारी और श्रम का नुकसान हुआ, जैसा कि , ग्लोबल प्रोपर्टी कंसलटेंसी फर्म नाइट फ्रैंक एलएलपी के अहमदाबाद शाखा प्रबंधक बलबीर सिंह खालसा कहते हैं।
खालसा ने कहा कि रियल एस्टेट रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट (रेरा) अधिनियम 2016 और जून 2017 में जीएसटी के आगमन की व्यापक रूप से आलोचना की गई, जो एक अराजक कार्यान्वयन था और आगे इससे बाजार प्रभावित हुआ। अहमदाबाद में हर साल 25,000 और 30,000 के बीच नए फ्लैट बेचे जाते थे, जो कि नोटबंदी से पहले दुनिया भर में 2008 के मंदी के प्रभाव के कारण 15,000-16,000 तक पहुंच गया था। पिछले दो वर्षों में( नोटबंदी, रेरा और जीएसटी के बाद) प्रति वर्ष 2,000-4,000 से अधिक यूनिट नहीं बनाई गईं। इस मंदी ने श्रमिक पिरामिड के निचले भाग में निर्माण श्रमिकों के जीवन को विशेष रूप से कठिन बना दिया है।
अखबार नगर सर्कल में, 25 वर्षीय चमकीले पीले रंग की शर्ट पहने हुए अशिक्षित निर्माण मजदूर, राजेश परमार, बीमार और थके हुए लग रहे थे। वह हालांकि बुखार से उबर चुके थे। लगभग सात साल पहले, वह एक स्थिर नौकरी की तलाश में, 200 किलोमीटर पूर्व में दाहोद से अहमदाबाद आए थे। नोटबंदी तक, उन्होंने आम तौर पर प्रति दिन 400 रुपये का शुल्क लिया, प्रति माह लगभग 12,000 रुपये कमाए, और महीने में कम से कम 25 दिनों तक निर्माण कार्य किया। अब, वह प्रति दिन 200 रुपये भी स्वीकार कर लेते हैं।
एक महीने में आठ से 12 दिनों के काम के लिए 4,000 रुपये से 6,000 रुपये की मासिक आय पर, वह झुग्गी-झोपड़ी जैसे इलाके में 2,000 रुपये का किराया चुकाते हैं, जहां कोई पानी का साधन या शौचालय नहीं है। वह और अन्य मजदूर प्रत्येक दिन पानी लाने के लिए 2 किमी से अधिक की यात्रा करते हैं। उनकी पत्नी भी अशिक्षित हैं और दिहाड़ी मजदूर हैं, जो हर महीने लगभग 4,000 रुपये कमाती हैं। अखबार नगर सर्कल तक आने के लिए वे 2 किमी साइकल चलाते हैं। कभी-कभी वे पैदल चलते हैं, जबकि उनके तीन छोटे बच्चे काम करने के लिए सायकल पर सवार होते हैं।
परमार कहते हैं, "जीवन हमारे लिए बहुत कठिन था, और ऐसे समय में जब हमारे पास ज्यादा काम नहीं है, यह और भी कठिन हो गया है।"‘मजदूर पालन मंच ’ के श्रीवास्तव ने अनुमान लगाया कि गुजरात में वर्तमान में 12 लाख मजदूर हैं, भले ही बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स कल्याण बोर्ड के पास नवीनतम उपलब्ध आधिकारिक डेटा (2017) 532,895 आंकड़ा बताता है। वह बताते हैं कि निर्माण श्रमिकों में एक चौथाई महिलाएं हैं।
60 वर्षीय अशिक्षित लीलाबेन मकवाना अहमदाबाद के अखबार नगर सर्कल पर बैठी हैं। वह अन्य मजदूरों के साथ सड़क के डिवाइडर पर बैठती है। कहती हैं, "नोटबंदी के बाद स्थिति और खराब हो गई है।" मकवाना को अब महीने में छह से 10 दिन काम मिलता है, जबकि नोटबंदी से पहले उन्हें करीब 20 दिन काम मिलता था । अब उनकी मजदूरी प्रति दिन आधी हो कर 200 रुपये तक गिर गई है।
60 वर्षीय अशिक्षित लीलाबेन मकवाना ऐसी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।मकवाना के पति की 10 साल पहले मृत्यु हो गई थी। वह एक पुरानी साड़ी पहने, वह थके हुए मजदूरों के साथ सड़क के डिवाइडर पर बैठी थी। नौकरियों की कमी और घटती आय के साथ उनको मलाल इस बात से भी था कि उसके बेटे (37) और बेटी (35) की शादी नहीं हुई थी।
मकवाना का बेटा एक निजी गैरेज में एक श्रमिक के रूप में प्रति माह 7,000 रुपये कमाता है, जबकि उसकी बेटी एक घर में नौकरानी है, प्रति माह 5,000 रुपये और 7,000 रुपये के बीच कमाती है। मकवाना प्रति माह 2,500 से 5,000 रुपये तक कमाती हैं।
मकबाना ने कहा, "नोटबंदी के बाद स्थिति और खराब हो गई है।अब एक महीने में लगभग छह से 10 दिन काम मिलता है, जो नोटबंदी के पहले करीब 20 दिन मिलता था।”
मकवाना की रोजाना की मजदूरी लगभग आधी हो गई है, करीब 200 रुपये प्रत्येक दिन।लीलाबेन मकवाना की तरह, 45 वर्षीय हंसाबेन सुमेरा ने कहा, “नोटबंदी ने गुजरात में गंभीर रूप से बेरोजगारी संकट पैदा किया । पीले और सफेद रंग की प्रिंट वाली साड़ी पहने वह बहुत ही खूबसूरत लग रही थी।उसने भी 10 साल पहले अपने पति को खो दिया था और निर्माण क्षेत्र में काम की तलाश के लिए अखबार नगर लेबर हब में आती हैं।
नोटबंदी से पहले सुमेरा करीब 20 से 25 दिन काम कर 10,000 रुपये महीना तक कम लेती थी। उसकी कमाई अब एक महीने में 5,000 रुपये से भी कम हो गई है, और वह आठ से 12 दिनों में काम पाती है। उनकी छोटी बेटी, एक घरेलू कामगार, हर महीने 3,000 रुपये कमाती है।
लीलाबेन मकवाना ने कहा, "मुझे नहीं पता कि हालात कब सुधरेंगे।" रियल एस्टेट उद्योग को 2019 में बदलाव की उम्मीद है।
‘ इस साल हालात सुधरेंगे ! ’
नाइट फ्रैंक के खालसा को उम्मीद है कि 2019 की दिवाली तक गुजरात के रियल एस्टेट उद्योग में मंदी सुधरेगी।
इसके अलावा, गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ हाउसिंग एंड एस्टेट डेवलपर्स के पटेल ने कहा, एक रियल-एस्टेट मंदी का कारण बनने वाले अन्य मुद्दों को हल किया जा रहा है, जिसमें जीएसटी विनियम, रेरा कानून, गुजरात व्यापक विकास नियंत्रण विनियम से संबंधित नियम (भवन निर्माण की अनुमति, फिक्सिंग से संबंधित) एक इमारत की ऊंचाई, फीस, आदि) और ऑनलाइन विकास अनुमति प्रणाली (परियोजना प्रश्नों के लिए एक डिजिटल अनुप्रयोग) शामिल है।
पटेल ने कहा, "हालात फिर से सुधर रहे हैं, और मुझे उम्मीद है कि अगले आम चुनाव के बाद वे पूरी तरह से पटरी पर लौट आएंगे।" " चुनावों के दौरान, बहुत सारा खर्च होता है, और यह आम तौर पर अर्थव्यवस्था को बढ़ाता है। "
इस बीच, बीओसीडब्ल्यू बोर्ड ने कहा कि वह पंजीकृत श्रमिकों के लिए मौजूदा कल्याण योजनाओं को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है, जिसमें 300,000 रुपये की मृत्यु मुआवजा और 150,000 रुपये की स्थायी विकलांगता मुआवजा शामिल है। बीओसीडब्ल्यू कल्याण बोर्ड के सदस्य सचिव बीएम प्रजापति ने कहा, “हमने इन दोनों आंकड़ों को बढ़ाकर 400,000 रुपये (क्रमशः) करने के लिए राज्य सरकार को प्रस्ताव भेजा है।”
11 आलेखों की श्रृंखला में ये यह चौथी रिपोर्ट है। यहां आप इंदौर , जयपुर और केरल की पिछली रिपोर्ट पढ़ सकते हैं।
(मिश्रा स्वतंत्र पत्रकार हैं और अहमदाबाद में रहते हैं । वे 101Reporters.com के सदस्य हैं, जो अखिल भारतीय स्तर के पत्रकारों का नेटवर्क है।) यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 21 मार्च 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। हमसे respond@indiaspend.org पर संपर्क किया जा सकता है। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार रखते हैं।
"क्या आपको यह लेख पसंद आया ?" Indiaspend.com एक गैर लाभकारी संस्था है, और हम अपने इस जनहित पत्रकारिता प्रयासों की सफलता के लिए आप जैसे पाठकों पर निर्भर करते हैं। कृपया अपना अनुदान दें :( 25 वर्षीय अशिक्षित कंस्ट्रक्शन मजदूर राजेश परमार (पीले रंग की कमीज में) गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में 50 श्रम बाजारों में से लगभग 2,000 अन्य लोगों के साथ काम करने का इंतजार कर रहे है। लगभग सात साल पहले वह एक स्थिर नौकरी की तलाश में, दाहोद से 200 किलोमीटर दूर पूरब की ओर यहां आए थे। नोटबंदी तक, उन्होंने आम तौर पर प्रति दिन 400 रुपये की मजदूरी ली और प्रति माह लगभग 12,000 रुपये कमाए। अब, वह प्रति दिन 200 रुपये स्वीकार कर लेते हैं।)
अहमदाबाद: " हमें नहीं पता कि यह दुख कब खत्म होगा।" यह दूसरा हफ्ता था जब उसके भाई और कॉलेज छोड़ चुके राजेंद्र (33) और देवेंद्र चुनारा (34) को कोई काम मिला था। उनके झुके हुए कंधे, थकी हुई आंखें और चिंचित चेहरे उनकी हताशा बयान कर रहे थे।
हर दिन सुबह 8 बजे, निर्माण स्थलों, लोडिंग, प्लंबिंग, इलेक्ट्रिकल संबंधित काम मिलने की उम्मीद में वे लगभग 2,000 दिहाड़ी मजदूर के साथ खड़े होते हैं। कभी सड़क के किनारे समूहों में औक कभी जब वे थक जाते हैं, तो वे डिवाइडर पर बैठ जाते हैं।
अखबार नगर सर्कल में ( भारत के 13 वें सबसे अमीर राज्य में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत के 5 सबसे अधिक आबादी वाले 50 श्रम केंद्रों में से एक ) वे मजदूरी देने वाले श्रम ठेकेदारों की प्रतीक्षा करते हैं। श्रमिकों ने इंडियास्पेंड को बताया कि लगभग आधे स्थानीय लोग हैं, बाकी उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे गरीब राज्यों से हैं।
"हमें नहीं पता कि यह दुख कब खत्म होगा।" यह दूसरा हफ्ता था जब उसके भाई और कॉलेज छोड़ चुके राजेंद्र (33) और देवेंद्र चुनारा (34) को कोई काम मिला था। नोटबंदी से पहले वे 10,000 से 15,000 रुपये प्रति माह तक कमा लेते थे, जो अब घट कर 3,000 से 5,000 रुपये प्रति माह हो गया है।
नवंबर 2016 को नोटबंदी कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री देवारा रातों-रात भारत की 86 फीसदी मुद्रा को अमान्य कर दिया गया था। इससे पहले, चुनार भाई आज की तुलना में दोगुना कमाते थे। नोटबंदी से पहले वे 10,000 से 15,000 रुपये प्रति माह तक कमा लेते थे, जो अब घट कर 3,000 से 5,000 रुपये प्रति माह हो गया है। नोटबंदी से पहले, भाइयों ने महीने में 25 दिन तक काम किया। अब, उनको पांच से 10 दिनों के लिए काम मिलता है। दो भाइयों के अगल-बगल खड़े अन्य श्रमिकों ने भी कुछ ऐसी ही बात बताई। जैसा कि नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुगमैन ने भारत को बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की चेतावनी दी और एक लीक सरकारी रिपोर्ट से पता चला है कि पिछले छह सालों से 2018 तक पुरुष श्रमबल की संख्या 1.8 करोड़ कम हो गई है। इन भाईयों ने कहा कि वे 10 वर्षों में अपने "सबसे बुरे समय" का सामना कर रहे हैं और उन्होंने कभी इतनी बेरोजगारी नहीं देखी थी। मजदूरों के लिए नौकरियों की कमी का मुख्य कारण ‘नोटबंदी’ है, जिसने गुजरात के बड़े पैमाने पर नकदी-चालित निर्माण क्षेत्र (10 फीसदी की दर पर अपनी अर्थव्यवस्था में दूसरा सबसे बड़ा योगदानकर्ता) को गंभीर रूप से प्रभावित किया। यह क्षेत्र केवल कृषि (22 फीसदी) के पीछे है, जैसा कि गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ हाउसिंग एंड इस्टेट डेवलपर्स के चेयरपर्सन आशीष पटेल कहते हैं।
11 आलेखों की श्रृंखला में ये यह चौथी रिपोर्ट है (आप यहां पहली रिपोर्ट,यहां दूसरी और यहां तीसरी रिपोर्ट पढ़ सकते हैं) जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार पर नजर रखने के लिए देशव्यापी श्रम केंद्रों से (ऐसे स्थान जहां अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक अनुबंध की नौकरी की तलाश में जुटते हैं ) रिपोर्ट किया जा रहा है।
यह क्षेत्र, जो देश के निरक्षर, अर्ध-शिक्षित और योग्य-लेकिन-बेरोजगार लोगों के बड़े पैमाने पर अवशोषित करता है, भारत के 92 फीसदी कर्मचारियों को रोजगार देता है, जैसा कि 2016 के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अध्ययन से पता चलता है। इस अध्ययन में सरकारी डेटा का उपयोग किया गया है।
अनौपचारिक श्रमिकों के जीवन और आशाओं को ध्यान में रखते हुए, यह श्रृंखला नोटबंदी और जीएसटी के बाद नौकरी के नुकसान के बारे में चल रहे राष्ट्रीय विवादों को एक कथित परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है। अखिल भारतीय निर्माता संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार, चार साल से 2018 तक नौकरियों की संख्या में एक-तिहाई गिरावट आई है। सर्वेक्षण में ने देश भर में अपनी 300,000 सदस्य इकाइयों में से 34,700 को शामिल किया गया है। केवल 2018 में, 1.1 करोड़ नौकरियां खो गईं, ज्यादातर असंगठित ग्रामीण क्षेत्र में, जैसा कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों से पता चलता है।
नवंबर 2016 में, जब नोटबंदी की घोषणा की गई थी, सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, गुजरात की बेरोजगारी दर 2.2 फीसदी थी, जो दिसंबर 2016 में 5 फीसदी थी, फरवरी 2018 में 9.5 फीसदी और अक्टूबर 2018 तक 7.4 फीसदी थी। फरवरी 2019 तक, बेरोजगारी दर गुजरात 5.5 फीसदी थी।
कोई आधिकारिक टिप्पणी नहीं थी, लेकिन राज्य सरकार इस बात को स्वीकार नहीं करती है कि इससे या तो गुजरात की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई या इसने नौकरी के बाजार को प्रभावित किया, जैसा कि विषय की संवेदनशीलता को देखते हुए श्रम विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया। परिणामस्वरूप, बेरोजगार श्रमिकों के लिए अब कोई विशेष समर्थन नहीं है।
कामकाजी जीवन के प्रमुख समय में, बिना काम केचुनार परिवार के जीवन में कठिन समय एक दशक पहले आया था, जब एक पारिवारिक वित्तीय संकट ( अपने पिता के छोटे खेत की विफलता के कारण ) के कारण राजेंद्र को दूसरे वर्ष के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग और देवेंद्र को बी. कॉम के दूसरे वर्ष में कॉलेज छोड़ कर गुजरात की अनौपचारिक श्रम शक्ति में शामिल होना पड़ा था।
उनकी पत्नियों के पास नौकरी नहीं है। उनके बच्चे प्राइमरी स्कूल में पढ़ते हैं, और वे दो व्यस्त सड़कों के बीच स्थित हलचल बाजार चौक से थोड़ी दूरी पर वडाज में किराए के मकान में रहते हैं।
गुजरात के अनौपचारिक क्षेत्र के लगभग 70 फीसदी श्रमिक 40 वर्ष से कम उम्र के हैं, जैसा कि निर्माण और अन्य असंगठित क्षेत्रों में मजदूरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले गैर लाभकारी संगठन, ‘मजदूर आदर्श मंच’ के सचिव रमेश श्रीवास्तव कहते हैं।
चुनार के भाइयों ने कहा कि किराये और स्कूल की ट्यूशन जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करने वाले, "70 फीसदी से अधिक" दिहाड़ी मजदूर साहूकारों से ऋण लेने के लिए मजबूर हैं, जो मोटी ब्याज लेते हैं- करीब 10 फीसदी से लेकर 20 फीसदी प्रति माह तक।
हमने शहर के घाटलोदिया, साबरमती, चंदलोदिया, शाहपुर, नारोल, नेहरू नगर, सरखेज, वासना और मेमनगर में मजदूरों के समूहों के भी कुछ ऐसे ही अनुभव देखे। गुजरात के असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी की वर्तमान स्थिति पर सबसे ज्यादा दोष नोटबंदी को दिया गया है।
उन्होंने कहा कि हालांकि, पहले की तरह ज्यादा काम नहीं है, लेकिन नौकरियों के लिए इंतजार करने वाले लोग ज्यादा हैं। सरकार यह भी पता लगाने की कोशिश नहीं करती है कि कितने लोग अस्थायी नौकरियों की तलाश में हैं।
डिप्टी लेबर कमिश्नर श्रुतिबेन मोदी ने कहा, "असंगठित क्षेत्र में श्रमबल इतना बड़ा है कि किसी भी सर्वेक्षण के माध्यम से संख्याओं को प्राप्त करना संभव नहीं है। सरकार विभिन्न बोर्डों और कल्याण योजनाओं के तहत अधिक से अधिक को पंजीकृत होने की कोशिश कर रही है।” उन्होंने कहा कि राज्य के कार्यबल का अनुमानित 83 फीसदी असंगठित क्षेत्र से है, जो राष्ट्रीय औसत से नौ प्रतिशत कम है।
गुजरात के श्रम अधिकारों के लिए काम करने वाली एक गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन की मिनबेन जाधव ने कहा कि इस औद्योगिक शहर के सभी प्रमुख श्रम केंद्रों में रोजाना इंतजार कर रहे दैनिक श्रमिकों की संख्या 100,000 के आसपास है।
कुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक प्रति दिन लगभग 800 रुपये कमाते हैं, जबकि अकुशल (अखबार नगर सर्कल में भीड़ का सबसे बड़ा खंड ) कहा जाता है कि अगर वे एक दिन में 400 रुपये पाते हैं तो वे भाग्यशाली हैं; यह आमतौर पर पहले मिलने वाली राशि का आधा है।
अखबार नगर सर्कल में पूरे दिन इंतजार करने के बाद, राजेंद्र और देवेंद्र को कोई काम नहीं मिला। लगभग हारे हुए, उन्होंने अपने टिफिन बॉक्स पैक किए और घर की ओर चल पड़े। अपने कामकाजी जीवन के प्रमुख समय में, उनके पास कोई काम नहीं था और काम मिलने की कोई संभावना नहीं थी।
“ जीवन और भी कठिन हो गया है! ”गुजरात के निर्माण क्षेत्र पर नोटबंदी से पहले आर्थिक मंदी का प्रभाव देखा जा रहा था, और नोटबंदी के बाद यहां सब कुछ ठहर सा गया, जिसके कारण बेरोजगारी और श्रम का नुकसान हुआ, जैसा कि , ग्लोबल प्रोपर्टी कंसलटेंसी फर्म नाइट फ्रैंक एलएलपी के अहमदाबाद शाखा प्रबंधक बलबीर सिंह खालसा कहते हैं।
खालसा ने कहा कि रियल एस्टेट रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट (रेरा) अधिनियम 2016 और जून 2017 में जीएसटी के आगमन की व्यापक रूप से आलोचना की गई, जो एक अराजक कार्यान्वयन था और आगे इससे बाजार प्रभावित हुआ। अहमदाबाद में हर साल 25,000 और 30,000 के बीच नए फ्लैट बेचे जाते थे, जो कि नोटबंदी से पहले दुनिया भर में 2008 के मंदी के प्रभाव के कारण 15,000-16,000 तक पहुंच गया था। पिछले दो वर्षों में( नोटबंदी, रेरा और जीएसटी के बाद) प्रति वर्ष 2,000-4,000 से अधिक यूनिट नहीं बनाई गईं। इस मंदी ने श्रमिक पिरामिड के निचले भाग में निर्माण श्रमिकों के जीवन को विशेष रूप से कठिन बना दिया है।
अखबार नगर सर्कल में, 25 वर्षीय चमकीले पीले रंग की शर्ट पहने हुए अशिक्षित निर्माण मजदूर, राजेश परमार, बीमार और थके हुए लग रहे थे। वह हालांकि बुखार से उबर चुके थे। लगभग सात साल पहले, वह एक स्थिर नौकरी की तलाश में, 200 किलोमीटर पूर्व में दाहोद से अहमदाबाद आए थे। नोटबंदी तक, उन्होंने आम तौर पर प्रति दिन 400 रुपये का शुल्क लिया, प्रति माह लगभग 12,000 रुपये कमाए, और महीने में कम से कम 25 दिनों तक निर्माण कार्य किया। अब, वह प्रति दिन 200 रुपये भी स्वीकार कर लेते हैं।
एक महीने में आठ से 12 दिनों के काम के लिए 4,000 रुपये से 6,000 रुपये की मासिक आय पर, वह झुग्गी-झोपड़ी जैसे इलाके में 2,000 रुपये का किराया चुकाते हैं, जहां कोई पानी का साधन या शौचालय नहीं है। वह और अन्य मजदूर प्रत्येक दिन पानी लाने के लिए 2 किमी से अधिक की यात्रा करते हैं। उनकी पत्नी भी अशिक्षित हैं और दिहाड़ी मजदूर हैं, जो हर महीने लगभग 4,000 रुपये कमाती हैं। अखबार नगर सर्कल तक आने के लिए वे 2 किमी साइकल चलाते हैं। कभी-कभी वे पैदल चलते हैं, जबकि उनके तीन छोटे बच्चे काम करने के लिए सायकल पर सवार होते हैं।
परमार कहते हैं, "जीवन हमारे लिए बहुत कठिन था, और ऐसे समय में जब हमारे पास ज्यादा काम नहीं है, यह और भी कठिन हो गया है।"‘मजदूर पालन मंच ’ के श्रीवास्तव ने अनुमान लगाया कि गुजरात में वर्तमान में 12 लाख मजदूर हैं, भले ही बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स कल्याण बोर्ड के पास नवीनतम उपलब्ध आधिकारिक डेटा (2017) 532,895 आंकड़ा बताता है। वह बताते हैं कि निर्माण श्रमिकों में एक चौथाई महिलाएं हैं।
60 वर्षीय अशिक्षित लीलाबेन मकवाना अहमदाबाद के अखबार नगर सर्कल पर बैठी हैं। वह अन्य मजदूरों के साथ सड़क के डिवाइडर पर बैठती है। कहती हैं, "नोटबंदी के बाद स्थिति और खराब हो गई है।" मकवाना को अब महीने में छह से 10 दिन काम मिलता है, जबकि नोटबंदी से पहले उन्हें करीब 20 दिन काम मिलता था । अब उनकी मजदूरी प्रति दिन आधी हो कर 200 रुपये तक गिर गई है।
60 वर्षीय अशिक्षित लीलाबेन मकवाना ऐसी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।मकवाना के पति की 10 साल पहले मृत्यु हो गई थी। वह एक पुरानी साड़ी पहने, वह थके हुए मजदूरों के साथ सड़क के डिवाइडर पर बैठी थी। नौकरियों की कमी और घटती आय के साथ उनको मलाल इस बात से भी था कि उसके बेटे (37) और बेटी (35) की शादी नहीं हुई थी।
मकवाना का बेटा एक निजी गैरेज में एक श्रमिक के रूप में प्रति माह 7,000 रुपये कमाता है, जबकि उसकी बेटी एक घर में नौकरानी है, प्रति माह 5,000 रुपये और 7,000 रुपये के बीच कमाती है। मकवाना प्रति माह 2,500 से 5,000 रुपये तक कमाती हैं।
मकबाना ने कहा, "नोटबंदी के बाद स्थिति और खराब हो गई है।अब एक महीने में लगभग छह से 10 दिन काम मिलता है, जो नोटबंदी के पहले करीब 20 दिन मिलता था।”
मकवाना की रोजाना की मजदूरी लगभग आधी हो गई है, करीब 200 रुपये प्रत्येक दिन।लीलाबेन मकवाना की तरह, 45 वर्षीय हंसाबेन सुमेरा ने कहा, “नोटबंदी ने गुजरात में गंभीर रूप से बेरोजगारी संकट पैदा किया । पीले और सफेद रंग की प्रिंट वाली साड़ी पहने वह बहुत ही खूबसूरत लग रही थी।उसने भी 10 साल पहले अपने पति को खो दिया था और निर्माण क्षेत्र में काम की तलाश के लिए अखबार नगर लेबर हब में आती हैं।
नोटबंदी से पहले सुमेरा करीब 20 से 25 दिन काम कर 10,000 रुपये महीना तक कम लेती थी। उसकी कमाई अब एक महीने में 5,000 रुपये से भी कम हो गई है, और वह आठ से 12 दिनों में काम पाती है। उनकी छोटी बेटी, एक घरेलू कामगार, हर महीने 3,000 रुपये कमाती है।
लीलाबेन मकवाना ने कहा, "मुझे नहीं पता कि हालात कब सुधरेंगे।" रियल एस्टेट उद्योग को 2019 में बदलाव की उम्मीद है।
‘ इस साल हालात सुधरेंगे ! ’
नाइट फ्रैंक के खालसा को उम्मीद है कि 2019 की दिवाली तक गुजरात के रियल एस्टेट उद्योग में मंदी सुधरेगी।
इसके अलावा, गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ हाउसिंग एंड एस्टेट डेवलपर्स के पटेल ने कहा, एक रियल-एस्टेट मंदी का कारण बनने वाले अन्य मुद्दों को हल किया जा रहा है, जिसमें जीएसटी विनियम, रेरा कानून, गुजरात व्यापक विकास नियंत्रण विनियम से संबंधित नियम (भवन निर्माण की अनुमति, फिक्सिंग से संबंधित) एक इमारत की ऊंचाई, फीस, आदि) और ऑनलाइन विकास अनुमति प्रणाली (परियोजना प्रश्नों के लिए एक डिजिटल अनुप्रयोग) शामिल है।
पटेल ने कहा, "हालात फिर से सुधर रहे हैं, और मुझे उम्मीद है कि अगले आम चुनाव के बाद वे पूरी तरह से पटरी पर लौट आएंगे।" " चुनावों के दौरान, बहुत सारा खर्च होता है, और यह आम तौर पर अर्थव्यवस्था को बढ़ाता है। "
इस बीच, बीओसीडब्ल्यू बोर्ड ने कहा कि वह पंजीकृत श्रमिकों के लिए मौजूदा कल्याण योजनाओं को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है, जिसमें 300,000 रुपये की मृत्यु मुआवजा और 150,000 रुपये की स्थायी विकलांगता मुआवजा शामिल है। बीओसीडब्ल्यू कल्याण बोर्ड के सदस्य सचिव बीएम प्रजापति ने कहा, “हमने इन दोनों आंकड़ों को बढ़ाकर 400,000 रुपये (क्रमशः) करने के लिए राज्य सरकार को प्रस्ताव भेजा है।”
11 आलेखों की श्रृंखला में ये यह चौथी रिपोर्ट है। यहां आप इंदौर , जयपुर और केरल की पिछली रिपोर्ट पढ़ सकते हैं।
(मिश्रा स्वतंत्र पत्रकार हैं और अहमदाबाद में रहते हैं । वे 101Reporters.com के सदस्य हैं, जो अखिल भारतीय स्तर के पत्रकारों का नेटवर्क है।) यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 21 मार्च 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। हमसे respond@indiaspend.org पर संपर्क किया जा सकता है। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार रखते हैं।
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