आपका जहरीला भोजन, हमारी न खत्म होते लालच का परिणाम
कैप्शन- साल 2013 में पटना के अस्पताल में ईलाज कराती एक बच्ची, स्कूल में विषाक्त भोजन खाने से बीमार हुई बच्ची
स्रोत- रायटर्स/ अदनान अबीदी
जुलाई 2013 की उस घटना को अखिलानंद मिश्रा कभी नहीं भूल सकेंगे, जब उन्हें उनका बेटा आशीष कुमार लगातार उल्टियां करते हुए मिला था। आशीष की ऐसी हालत स्कूल का विषाक्त भोजन खाने से हुई थी। जो कि मध्यान्ह भोजन योजना के तहत देश भर के सरकारी स्कूल में दिया जाता है। उस घटना के बारे में पेशे से दुकानदर 42 साल के अखिलानंद मिश्रा ने इंडियास्पेंड को दिए साक्षात्कर में कहा कि मैं अपने बेटे को लेकर सरकारी अस्पताल भागता हुआ पहुंचा, लेकिन वहां कोई जगह नहीं थी, उसके बाद मैं उसे लेकर निजी अस्पताल पहुंचा, पर वहां भी वहीं हालत थी। उस समय तक प्रशासन भी सतर्क हो चुका था, एक बार फिर मुझे अपने बेटे को सरकारी अस्पताल जाने को कहा गया, लेकिन मेरा बेटा इस भागमभाग में रास्ते में ही दम तोड़ चुका था।
आशीष उन 23 अभागे बच्चों में से एक था, जिन्होंने बिहार के धर्मसती गांडावान गांव के स्कूल में मिड-डे मील खाने से अपनी जान गंवाई थी। यह सभी विषाक्त भोजन खाने से मौत का शिकार हुए थे, जिसको जहरीले कीटनाशक और जैविक खाद के पास रखा गया था। यही नही खाने का तेल खाली कीटनाशक वाले कंटेनर में खुला रख दिया गया था। अखिलानंद मिश्रा के बेटे जैसे ही हादसे का शिकार करीब 25 साल पहले रजनी बाराइलिया, उसके छोटे भाई और उनके मॉ-बाप भी हुई थी। हालांकि उस हादसे में उनकी जान तो बच गई थी, लेकिन वह विकलांगता के शिकार हो गए । रजनी के साथ यह हादसा कोलकाता के बेहाला इलाके में हुई थी, जब उन्होंने वहां स्थानीय किराना दुकान से सरसों का तेल खरीदा था। जिसमें भारी मात्रा में जहरीला ट्राईआर्थोक्रेसिल फॉस्फेट मिला हुआ था। वह उस तेल को पिछले 15 दिनों से इस्तेमाल कर रहे थे, जिसके बाद उन्हें उसका असर होना महसूस हुआ।
रजनी उस समय जब केवल 13 साल की थी, उस घटना को याद करते हुए बताती हैं कि उन्हें सबसे पहले दस्त की शिकायत हुई, उसके बाद उन्हे धीरे-धीरे यह अहसास हुआ कि उनके पैरों में कोई हरकत नहीं हो रही है। रजनी के अनुसार मुझे अपने शरीर में पैर होने का अहसास ही नहीं हो रहा था। कुछ हफ्ते बाद हमें यह पता चला कि यह केवल हमारे परिवार के साथ ही नहीं हो रहा था, बल्कि उस क्षेत्र के सैकड़ों लोगों के साथ ऐसा ही हो रहा था। हम सभी तेल में मिलावट के शिकार हो गए थे।
बेहाला की घटना से रजनी और उसके परिवार के लोग हमेशा के लिए बैशाखी पर निर्भर हो गए। यह घटना भारत में अभी तक की सबसे बड़ी खाने की मिलावट के मामले के रूप के सामने आई। इसी तरह ठीक तीन दिन पहले तमिलनाडु के तंजावुर जिल में एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में 58 छात्र कैंटीन का नाश्ता करने से बीमार हो गए थे। इस मामले पर कॉलेज के डीन पी.जी.शंकरनारायण ने अभी हम कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। खाने का सैंपल टेस्ट के लिए भेजा गया है और फिलहाल छात्रों की स्थिति स्थिर है। तंजावुर के छात्र इस मामले में भाग्यशाली थे कि वह खाने में मिलावट के बावजूद किसी बड़े हादसे का शिकार नहीं हुए। जानबूझ कर की गई मिलावट या फिर लापरवाही का घटनाओं से साबित हो रहा है कि मानव का लालच इन हादसों का सबसे प्रमुख कारण है।
आम आदमी का बढ़ता लालच
उत्तर प्रदेश में फूड सेफ्टी और ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन विभाग के डिप्टी कमिश्नर विजय बहादुर यह बयां करते है कि कैसे ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच के चक्कर में इस तरह के हादसे हो रहे हैं। उन्होंने 8 जनवरी 2015 को मेरठ में 23000 लीटर गैर खाद्य तेल को जब्त किया। जबकि ट्रेडर के साथ सरसों के तेल का लाइसेंस था। बहादुर के अनुसार खाद्य तेलों में गैर खाद्य तेल की मिलावट की सबसे बड़ी वजह इसका सस्ता होना है। सरसों तेल की लागत की तुलना में गैर खाद्य तेल की लागत एक चौथाई होती है। जिसकी वजह से गैर खाद्य तेलों में खुशबू और पीले रंग का कृत्रिम इस्तेमाल कर उसे सरसों के तेल के रूप में बेचा जाता है। उनके अनुसार ट्रेडर न केवल गैर कानूनी काम कर रहे हैं, बल्कि वह निर्लजता की सारी हदें भी पार कर रहे हैं। वह भी केवल मुनाफा कमाने के लालच में वह ऐसा कर रहे हैं। उन्हें लोगों की सेहत और इंसानियत का कोई ख्याल नहीं है। न केवल वह धड़ल्ले से मिलावटी तेल का इस्तेमाल कर रहे हैं, बल्कि सैंपल जांच की कार्रवाई का भीव विरोध किया जा रहा है। राज्य प्रशासन न बहादुर की टीम के पुलिस बल भी मुहैया कराया है। दो दिनों के अंदर उनकी टीम ने 28 क्विंटल से ज्यादा टूटे चावल, 30 क्विंटल से ज्यादा चावल की भूसी और सिंथेटिक रंग जब्त किए हैं।
ट्रेडर इनका इस्तेमाल मसालों में मिलावट के रूप में करते हैं। बहादुर का कहना है कि मिलावट के काम में प्रतिष्ठित ब्रांड भी शामिल है। उनकी टीम प्रमुख मसाला ब्रांड महाराजा के प्रतिनिधि को मिलावट करते हुए पकड़ा है। ट्रेडर में कानून का डर नहीं है। उनका जोर इस बात पर है कि कैसे वह कानून को दरकिनार करें और अथॉरिटी के आखों में धूल झूकें। इसके तहत एक तरीका यह है कि मिलावटी तेल को प्रचलित ब्रांड के नाम से बेचा जाय। ऐसे में अगर कोई एक ब्रांड पकड़ भी लिया जाता है, तो ऐसे दूसरे मिलावट के साथ ब्रांड के नाम पर बिक्री करते रहें। उनके लिए एक साथ सभी ब्रांड में मिलावट कर बेचना कोई बड़ी बात नहीं रहती है।
हमारे खाने में जहर
पूरे देश में इस तरह की गतिविधियां चल रही है। मिलावटी सामान बिकना एक सामान्य सी बात प्रतीत होने लगी है। रिसर्च में यह बाते सामने आईं है कि कैसे पूरे देश में खाद्य पदार्थों में प्रदूषित चीजों को मिलाया जा रहा है। सबसे ज्यादा दूध में मिलावट की जा रही है। साल 2011 में पूरे देश में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सैंपल लिए गए 1791 मामलों में से 68.4 फीसदी में फूड सेफ्टी स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया स्टैण्डर्ड को मिलावट मिले हैं।
चार्ट-1 सामान्य तौर पर इस्तेमाल होने वाले भोजन में मिलावट का स्तर
Source: FSSAI, Consumer Guidance Society of India, research
अध्ययन के अनुसार 548 सैंपल में मलाई रहित दूध पाउडर और 103 में डिटर्जेंट की मिलावट की गई है। इसके बाद सबसे आसान तरीका मिलावट का दूध में पानी मिलाना है। शहरों में जहां 68 फीसदी मामलों में मिलावट है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह 31 फीसदी है। बिहार, छत्तीसगढ़, दमन और दीव, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और मिजोरम से लिए गए सभी सैंपल सब स्टैण्डर्ड थे।
शहरों के आधार पर दूध के लिए सैंपल से अलग-अलग तरह के मिलावट के मामले सामने आए हैं। साल 2014 हैदराबाद में कैफे, छोटे होटल, सार्वजनिक और शैक्षणिक संस्थानों को आपूर्ति होने वाले दूध के 50 सैंपल का अध्ययन किया गया। जिसमें से 22 फीसदी मामलों में सुक्रोज और 80 फीसदी मामले में पाउडर की मिलावट पाई गई। इसी तरह 60 फीसदी मामलों में यूरिया, 26 फीसदी मामलों में न्यूट्रलाइजर और 82 फीसदी मामलों में नमक की मिलावट थी। इसी तरह 32 फीसदी में फार्मेलिन, 44 फीसदी में डिटर्जेंट और 32 फीसदी में हाइड्रोडर पर ऑक्साइड की मिलावट थी।
सरसों के तेल औऱ दूसरे खाद्य तेलों में अर्जीमोन मेक्सिकाना का बीज मिलाया जाता है। जो कि एक जहरीले पौधे मैक्सिकन पॉपी का होता है। सरसों के तेल में अर्जीमोन की मिलावट से ड्रॉप्सी का शिकार लोग हो जाते हैं। जिसके कारण एल्बुमिन की कमी होता है। जिसका शिकार साल 1877 में महामारी के रूप में लोग हुए थे।
आर्जिमोन की मिलावट से सिर में दर्द, डायरिया, त्वचा पर धब्बे होने, बेहोशी, ग्लूकोमा और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत होती है। फूडसेफ्टीहेल्पलाइन डॉट कॉम के फाउंडर डॉ सौरभ अरोड़ा ने इंडियास्पेंड को दिए गए ई-मेल साक्ष्तकार में कहा कि इससे अगर स्थिति ज्यादा बिगड़ती है, तो हृदय पक्षाघात हो सकता है। भ्रष्ट ट्रेडर आर्जिमोन जो कि आसानी से मिल जाता है, उसकी मिलावट वह सरसों के तेल में करते हैं। ऐसे में हाल के दौर में ड्रॉप्सी के मामले सामने आना कोई आश्चर्य नहीं है। इस का सबसे भयानक मामला साल 1999 में दिल्ली में सामने आया था। जिसमें 3000 हजार लोग अस्पताल में भर्ती हुए थे, जिसमें से 60 लोग मौत का शिकार हुए थे। हादसे का शिकार होने वाले ज्यादातर लोग गरीब परिवार से आते थे। इन लोगों ने स्थानीय दुकानदारों से खाना पकाने का तेल खरीदा था। इसी तरह का मामला साल 2012 में गुजरात के पंचमहल जिले के ढोलखाखारा गांव में सामने आया था।
पिछले साल कंज्यूमर गाइडेंस सोसायटी ऑफ इंडिया ने घोषित किया कि मुंबई में बिक रहे 64 फीसदी खाने के तेल में मिलावट है। सोसायटी ने तिल के तेल, नारियल, मूंगफली तेल, सरसों तेल, सूरजमूखी तेल, कपासबीज के तेल और सोयाबीन तेल के 291 सैंपल का अध्ययन किया।
इसी तरह साल 2013 में बड़ौदा में 40 सैंपल का अध्ययन किया गया, जिसमें दाल, अनाज, सब्जी, कंद , जड़ों में आर्सेनिक की मात्रा मानक स्तर से कहीं ज्यादा था। इसके अलावा अनाज, फल और दही में कैडिमयम की मात्रा भी सामान्य स्तर से ज्यादा है। आर्सेनिक की मिलावट स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डालता है। इसी तरह कैडमियम भी खतरनाक असर डालता है। जिसकी वजह से सांस की बीमारी से लेकर कैंसर आदि होने का खतरा रहता है। सब्जियों में मिलावट की एक प्रमुख वजह उसकी सिंचाई में इस्तेमाल होने वाला प्रदूषित पानी है। हालांकि यह जानबूझ कर नहीं की गई मिलावट है, लेकिन यह भी भारी मात्रा में नुकसानदेह होता है। मिलावटी भोजन में सब स्टैण्डर्ड भोजन को भी शामिल किया जाता है। ऐसा इसलिए है कि इस तरह के भोजन में दोयम दर्जे का कच्चा माल इस्तेमाल किया जाता है या फिर उसकी प्रोसेसिंग या पैकेजिंग मानकों के अनुरूप नहीं होती है। मिलावटी भोजन में गैर ब्रांडेड भोजन या उसमें किसी पदार्थ की कमी होना भी शामिल होता है।
साल 2013 में बरेली, देहरादून और इज्जतनगर में जांचकत्ताओं ने अंडों की जांच की, जिसमें उन्होंने पाया कि 5 फीसदी अंडों में शालमोनेला बैक्टीरिया पाया गया है। इसी तरह साल 2011 में कोट्टयम में 1.33 फीसदी वाणिज्यिक रूप से इस्तेमाल होने वाली मुर्गियों के अंडों में, 2 फीसदी पालतू और 51.33 फीसदी बत्तख के अंडे में शालमोनेला बैक्टीरिया पाया गया। बत्तख के अंडे कोट्ययम में काफी लोकप्रिय हैं। सबसे अहम अध्ययन जो सामने आया कि 72,200 सैंपल में से 18 फीसदी यानी 13571 मामलों ही फूड सेफ्टी अथॉरिटी के मानकों पर खरे उतर पाए। जिसका परीक्षण साल 2012-13 में किया गया था। वहीं पकड़े गए 10235 मिलावट के मामलों में से केवल 3845 मामलों में ही लोगों पर आऱोप तय हो पाया।
चार्ट-2 एफएसएसएआई एक्ट के तहत वित्त वर्ष 2012-13 में पकड़े गए मिलावटे मामले और उन पर हुई कार्रवाई
Source: Tribune India
भारत की क्या जरूरत- ज्यादा से ज्यादा मामले पकड़े जाए उन पर कार्रवाई हो
मिलावट के मामलों में ऐसे लोगों को पकड़ना होता है, जो कि शक के दायरे में नहीं होते हैं, ऐसे में उन पर कार्रवाई करना एक चुनौती है। चूंकि स्वास्थ्य एक राज्य सूची का विषय है, ऐसे में कानून को लागू करने की जिम्मेदारी राज्य फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की है। ऐसे में फूड सेफ्टी को लेकर राज्यों में पर्याप्त सुविधाएं भी नही है। जिसका असर भी रोकथाम पर पड़ता है। साल 2014 में मध्य में अथॉरिटी ने 6 महीने लगातार पूरे राष्ट्र में फूड सैपंल लेने और उनकी जांच का अभियान शुरू करने की घोषणा की है। जो कि जनवरी 2015 से शुरू हो गया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के कंज्यूमर पॉलिसी विशेषज्ञ बेजॉन मिश्रा का कहना है कि भारत को ज्यादा सर्वेक्षण की जरूरत नहीं है। भारत को ज्यादा से ज्यादा मामले पकड़ने और उन पर कार्रवाई करने की जरूरत है। यहां तक की कोर्ट की कार्ऱवाई के पहले ही उन पर भारी पेनॉल्टी लगाने की जरूरत है। मिश्रा जागो ग्राहक जागो अभियान के प्रमुख अगुआ हैं। साथ ही वह फूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया में साल 2006-2013 के दौरान वह सदस्य भी रहे हैं। वह ग्राहकों के हितों का प्रतिनिधत्व करते हैं। उन्होंने कहा कि यह बहुत बुरा अनुभव था। मिश्रा का कहना है कि मैं साफ तौर पर कह सकता हूं कि फूड अथॉरिटी ने ग्राहकों के हितों का ध्यान नहीं रखा है। यह केवल नाम मात्र की अथॉरिटी है, जिसमें कुछ सरकारी अधिकारियों को केवल पुरस्कार मिलता है। जो कि किसी के भी प्रति जवाबदेह नहीं है।
मिश्रा से यह सवाल पूछा गया कि क्या ग्राहक के पास ऐसा कोई मौका है, जब उसे कोई ट्रेडर मिलावटी सामान लगातार दे रहा है। इस पर उनका कहना है कि साल 1986 में केंद्र सरकार ने प्रीवेंशन ऑफ फूड एडल्टरेशन कानून में संशोधन किया था। जिसके तहत सभी नागरिक को यह अधिकार मिला कि वह खुद भी उत्पादों की जांच कर सकता है। लेकिन यह अधिकार मिलने के बावजूद जागरूकता की कमी के कारण सफल नहीं हो पाया। ऐसे में ग्राहक अभी भी फूड रेगुलेटर की दया पर ही निर्भऱ है। ऐसे में यह बहस बेमानी है, जिसमें 1.3 अरब ग्राहकों को सशक्त करने की बात कही जाती है। खाद्य सुरक्षा जैसी दिखती है या फिर जिसे हम जानते है वह केवल उतनी नहीं है, बहुत कुछ होना बाकी है।
ऐसे में क्या खाना सुरक्षित है?
जब हम यह समझना सीख सकेंगे कि कौन सी चीजों पर संदेह करना चाहिए, वहीं से जागरूकता बढ़ेगा
फूड सेफ्टी एंड स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया के अनुसार रोज मर्रा में इस्तेमाल होने वाले भोज्य पदार्थों में ज्यादा मिलावट की आशंका रहती है। जैसे कि दूध से बने उत्पाद खोया, घी, मिठाई, दालों में अरहर और राजमा, सरसों का तेल, मूंगफली का तेल, पोल्ट्री और मांग, फल और सब्जियों में मिलावट का ज्यादा खतरा रहता है। जो उत्पाद खुले में मिलते हैं, उनमें मिलावट कहीं ज्यादा आसान है। राष्ट्रीय ब्रांड जो कि पैकिंग में मिलते हैं वह कहीं ज्यादा सुरक्षित होते हैं। ऐसा इसलिए है कि ब्रांडेड कंपनियों की प्रतिष्ठा दांव पर होती है। बहादुर के अनुसार पैक्ड और लेबल रहित उत्पादों को हमेशा खरीदना चाहिए, जो कि साफ औऱ सुरक्षित होते हैं। साथ ही पैकेट के लेवल पर लिखे घोषणापत्र को जरूर पड़ना चाहिए।
चंडीगढ़ पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन और रिसर्च में डिपार्टमेंट ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन के अमरजीत सिंह ग्राहकों में भोज्य उत्पाद खरीदने के प्रति जागरूकता के एक अध्ययन का हिस्सा रहे हैं। उनका कहना है कि हमने पाया है कि 97 फीसदी मामलों में ग्राहक जरूरी बातों का ध्यान खरीदारी के समय नहीं रखता है। ग्राहक को फल और सब्जियों के ताजेपन पर जरूर निगाह रखनी चाहिए। इसके बाद वह कैसे भोज्य पदार्थ कैसे काटे जाते हैं, उन्हें कैसे पकाया जाता है, कैसे साफ किया जाता है, इन सब पहलुओं पर ग्राहकों को जरूर नजर रखनी चाहिए। ग्राहकों को कैन औऱ बोतले में बंद उत्पादों की सील और उसकी एक्सपॉयरी तिथि खरीदारी के समय जरूर देखनी चाहिए। इसके अलावा गुणवत्ता मार्क जैसे एफपीओ, आईएसआई और एगमार्क का भी ध्यान देना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि आईडी में किसी तरह की छेड़-छाड़ नहीं की गई हो। यह भी देखना चाहिए कि अंडा ठोस या टूटा हुआ न हो।
मानव शरीर पर मिलावट से होने वाले असर के प्रमुख लक्षण बुखार, उल्टी होना, डायरिया, पेट में दर्द होना, पक्षाघाच, स्नायु में असहजता होना है। इसमें लापरवाही से मौत भी हो सकती है। लंबे समय से मिलावटी उत्पाद खाने से कैंसर, हार्मोंस में असंतुलन, किडनी फेल होने, लीवर खराब होना या फिर विकाक में रूकावट जैसे मामले भी हो सकते हैं।
ऐसे में हमेशा सजग रहिए औऱ संदेह कीजिए, जिससे की मिलावट के खतरे से आप बच सके। साल 2014 में रिसर्च पैसेफिक फॉर टेट्रापैक ने खाद्य सुरक्षा पर एक सर्वेक्षण देश के विभिन्न शहरों में किया। जिसमें यह पाया गया कि 70 फीसदी मां गंभीर बीमारियों जांडिंस, कॉलरा और टाइफॉयड आदि से सीधे खाद्य सुरक्षा से नहीं संबंध रखती हैं। ऐसे में जैसे ही आपको बीमारी के लक्षण दिखें , तो तुरंत उसका इलाज कराना चाहिए, नहीं तो इसके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं।
बंगलुरू के फोर्टिस हॉस्पिटल में इंटरनस मेडिसिन सलाहकार शालिनी जोशी ने इंडियास्पेंड से बताया कि ऐसा प्रचलन है कि कोई व्यक्ति अगर अपनी यात्रा के दौरान विषाक्त भोजन खाने का शिकार हो जाता है, तो वह पहले ईलाज के लिए अस्पताल नहीं जाता है, बल्कि वह पहले अपने घर वापस लौटता है। अगर डायरिया गंभीर हो जाता है, तो उसकसे भारी मात्रा में पानी की कमी हो जाती है। उन्होंने कहा कि एक ऐसे ही व्यक्ति को आईसीयू में भर्ती कराना पड़ा था। जहां पाया गया कि उसकी किडनी पर गंभीर असर पड़ा है। जिसकी वजह से उसे कुछ समय के डायलेसिस पर रखना पड़ा। ऐसे में कच्चा भोजन जैसे सलाग और फल का घर के बाहर हमेशा इस्तेमाल से बचना चाहिए। पका हुआ भोजन ही सुरक्षित होता है।
हादसे से कुछ प्रतिक्रियाएं
भारत में हर रोज करीब 12 करोड़ बच्चे मिड-डे मील का हिस्सा बनते हैं। जो कि केवल राज्य शिक्षा विभाग की दया पर निर्भऱ है। ऐसे में सारन जैसे हादसों से कुछ कार्रवाई की उम्मीद जगती है। इंडियास्पेंड को दिए गए एक इंटरव्यू में त्रिपुरा शिक्षा विभाग में मिड-डे मील स्कीम की वरिष्ठ सलाहकार सुशांता बिस्वॉस का कहना है कि जब कोई हादसा होता है, तो हमें तुरंत कार्रवाई की जरूरत है। बिस्वास के अनुसार नोआपारा में केवल पांच बच्चे मिड-डे मील खाने से बीमार हुए थे, लेकिन हमने तुरंत सभी 42 बच्चों को जांच के लिए अस्पताल पहुंचाया। हमने पूरी रात बच्चों को अस्पताल में रखा, और पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद ही उन्हें डिसचार्ज कराया। ऐसे में मामलों में आप छोटी सी लापरवाही भी नहीं कर सकते हैं। जांच में पाया गया कि गंदे रसोईघर और उसके लिए सामान व्यक्तिगत स्तर पर खऱीदे गए थे। उस समय से नोआपारा का रसोईघर बंद कर दिया गया। वहीं राज्य प्रशासन ने दूसरे रसोईघर की और सख्ती से जांच शुरू कर दी। बिस्वास के अनुसार चालू वित्त वर्ष में हमने 280 स्कूल प्रमुख को लापरवाही के मामले में सजा दी है।
कुछ फायदे से अच्छा है कि कोई फायदा न लिया जाय
कोलकाता के रजनी और उसके जैसे सैकड़ों परिवार के लोग अपंगता के शिकार हो गए। पक्षाघात होने की वजह से बाराइले परिवार दो साल अस्पताल में जूझता रहा। जिसकी वजह से उनके हाथों में कूछ गति होनी शुरू हो गई है। शरीर में कुछ मजबूती आई है, रजनी अब फिर से स्कूल जा रही है। बाद में उसने नौकरी भी पाने की कोशिश की लेकिन वह इसमें असफल रही। राज्य सरकार सभी परिवारों को हर महीने केवल 300 रूपये का मुआवजा देती है। रजनी का कहना है कि मै इससे नाराज नहीं छली हुई महसूस करती हूं। मुझे जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है कि डॉक्टरों ने हमारा इलाज क्यों नहीं किया। बिहार में अखिलानंद मिश्रा अपने बेटे की मौत से उबर नहीं पाए हैं और बेहद नाराज है, उन्हें न्याय का इंतजार है। उन्होंने कहा कि मुझे अपराधी की केवल मौत चाहिए, उससे कुछ भी कम नहीं चाहिए। प्रशासन ने हमसे वादा किया था कि वह फॉस्टट्रैक अदालत में मामले की सुनवाई करेंगे। लेकिन अभी तक 18 महीने बीत चुके हैं, लेकिन किसी को भी सजा नहीं मिली है।
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