आरबीआई कहती है नोट की कमी नहीं, दिल्ली के आसपास नोटबंदी की वजह से लोगों के पास काम नहीं
दिल्ली से सटे नोएडा फेज II के बस स्टैंड के पास ये वे लोग हैं, जिन्हें हर रोज काम की तलाश रहती है। इनमें से ज्यादातर दर्जी का काम करते हैं। गारमेंट्स उद्योग में काम करने वाले 70 लाख श्रमिकों में से लगभग 80 फीसदी अस्थायी रुप से काम करते हैं और उन्हें नकद में ही भुगतान किया जाता है। लेकिन अभी नकद की कमी है।
हर सुबह, करीब 8.30 बजे दिल्ली से 30 किलोमीटर दूर नोएडा फेज II के मुख्य बस डिपो पर हजारों श्रमिक आते हैं। ये पास के ही होजरी कॉम्प्लेक्स के बाहर लाइन में खड़े रहते हैं। वहीं हाथ में खाने का डब्बा पकड़े ये लोग अपने लिए काम की तलाश करते हैं।
लेकिन आजकल प्राय: सभी कारखानों के गेट पर ‘आवश्यकता नही है’ का बोर्ड लगा हुआ है। परिसर में निर्यात के भरोसे अपना कारोबार करने वाले 200 छोटे वस्त्र इकाइयों के लिए आवश्यकता अनुसार कामगारों की सूची लगाई जाती है। दर्जी, कारीगर, कपड़े इस्त्री करने वाले, मरम्मत करने वाले लोगों को यहां काम मिलता है। ये बोर्ड अब खाली हैं, क्योंकि नोटबंदी की जबरदस्त मार इन फैक्टरियों पर पड़ी है।
फोटो कैप्शन – नोटबंदी की मार इन फैक्टरियों पर पड़ी है। विमुद्रीकरण के बाद फैक्टरियों की बोर्ड पर ‘आवश्यकता नहीं है’ का बोर्ड लगा हुआ है।
राष्ट्रीय असंगठित क्षेत्र उद्यम आयोग के अनुसार हिंदुस्तान की श्रमशक्ति का 92 फीसदीअसंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले इन पुरुषों और महिलाओं से पूरा होता है। ये देश के सकल घरेलू उत्पाद में आधे का योगदान करते हैं। इन कैजुअल श्रमिकों के पास न को काम की कोई सुरक्षा होती है और न ही वे श्रम नियमों के लाभ का आनंद उठाते हैं। इनमें से 79 फीसदी आधिकारिक तौर पर गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं।
70 लाख श्रमिकों के साथ, वस्त्र और परिधान उद्योग भारत में दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है। पहले स्थान पर कृषि है। वस्त्र और परिधान उद्योग में काम करने वाले करीब 80 फीसदी श्रमिक अस्थायी रुप से काम करते हैं। इन श्रमिकों को ज्यादातर नकद में ही भुगतान किया जाता है, जिसकी फिलहाल देश में भारी कमी हो रही है। हालांकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर उर्जित पटेल ने 7 दिसंबर, 2016 को कहा है कि देश भर में मुद्रा कमी नहीं है।
Printed more currency notes post demonetisation than in the last 3 years; Public need not worry about availability: RBI
— News18 (@CNNnews18) December 7, 2016
35 वर्ष की चंचला देवी दक्षिणी बिहार में ग्रामीण नालंदा से आई हैं। इनके लिए एक दिन काम न मिलने का मतलब है 350 रुपए का नुकसान। चंचला दर्जी का काम करती हैं और काम के लिए रोजाना घंटा भर पैदल चल कर यहां तक पहुंचती हैं। लेकिन यहां किसी भी दरवाजे पर उन्हें काम नहीं मिला है। पहली शिफ्ट शुरु हो गई है और 9.30 बजे गेट बंद कर दिया गया है। लेकिन वह खाली हाथ घर लौटना नहीं चाहती हैं। वह कहती हैं, “मैंने सुना है डी ब्लॉक में उन्हें काम करने वाले की जरुरत है। मेरे चार बच्चे हैं। मेरे पति चेकर का काम करते हैं। उन्हें महीने भर से पैसे नहीं दिए गए हैं। मुझे तो काम करना ही होगा।”
जब व्यस्त समय पड़ा सुस्त
वस्त्र और परिधान उद्योग के लिए जनवरी से नवंबर का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह ऐसा समय होता है, जब चंचला जैसी कारीगरों को लेने के लिए सड़कों तक गाड़ी भेजी जाती हैं। इन तीन महीनों में ये छोटे-छोटे परिधान निर्यातक पश्चिम के देशों में होने वाले बसंत उत्सव के लिए कपड़े तैयार करते हैं।
लेकिन यह वर्ष कुछ अलग है। विमुद्रकरण से नकद की कमी हुई है। इससे लघु उद्योग इकाइयों के लिए परेशानी खड़ी हो गई है। हम बता दें कि लघु उद्योग के क्षेत्र में रेडीमेड कपड़ों की इकाइयों का 78 फीसदी योगदान है। रेडीमेड कपड़ों की इकाइयों में श्रम शक्ति का करीब 80 फीसदी कैजुअल या दिहाड़ी श्रमिक के रुप में रखा जाता है। इनका पूरा भुगतान नकद में ही होता है।
चंचला की तरह श्रमिकों को हर पंद्रह दिनों पर भुगतान किया जाता है। इनको भुगतान या तो दिहाड़ी (350 रुपए) के आधार पर मिलता या फिर कपड़े के प्रति पीस के हिसाब से। 8 नवंबर के बाद के पखवाड़े में भुगतान के दो चक्र गुजर चुके हैं और इकाइयां और कार्यकर्ता नकदी की कमी से उबरने में तब कामयाब हुए, जब पुराने नोटों का उपयोग किया गया। लेकिन अब चिंता यह है कि श्रमिकों के भुगतान के लिए कारखाने कहां से नकद लाएंगे?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में उमराला का रहने वाला 25 वर्षीय नंदन बताता है, “10 नवंबर के बाद से मुझे काम नहीं मिला है। मुझे हर रोज पैसे का नुकसान हो रहा है। काम तलाशने की बजाए मुझे हर रोज बैंकों की कतार में खड़ा रहना पड़ रहा है।”
इकाइयों का आकार घटने से रोजगार में कमी
नंदन होजरी कॉम्प्लेक्स में सबसे अधिक भरोसे वाले इकाइयों में से एक में काम करता था। पिछले ही हफ्ते कारखाने ने अपने दो असेंबली लाइन बंद की हैं। गौर हो कि आमतौर पर प्रत्येक 'लाइन' में 25 से 45 श्रमिकों को रोजगार प्राप्त होता था।
लघु उद्योग इकाइयों के मालिकों का कहना है कि काम कम करने के अलावा कोई चारा नहीं है। क्योंकि व्यापार की मौसमी और अप्रत्याशित प्रकृति और इसकी अर्थव्यवस्था में स्थायी स्टाफ और श्रम के भुगतान के लिए औपचारिक तरीके की गुंजाइश नहीं है।
छोटे से मध्य उद्यमी, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते हैं, कहते हैं कि औसत नवंबर-दिसंबर में उनके पास कम से कम 1,500 कामगार होते हैं। इनमें से 75 फीसदी अस्थायी होते हैं। नोटबंदी के बाद इन्हें कामगारों की संख्या घटा कर 500 करनी पड़ी है।
फोटो कैप्शन - वस्त्र और परिधान उद्योग के लिए जनवरी से नवंबर का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह ऐसा समय होता है, जब चंचला जैसी कारीगरों को लेने के लिए सड़कों तक गाड़ी भेजी जाती हैं। यह साल अलग है। नोटबंदी के कारण श्रमिकों को काम मिलने में मुश्किलें हो रही हैं।
वह कहते हैं, “हम इंतजार कर रहे हैं। लेकिन अगर नकद की कमी ऐसी ही बनी रहेगी तो हमें संख्या और कम करनी पड़ेगी। इस क्षेत्र के दूसरे लोग भी यही कह रहे हैं।” दुकानों पर खाली सिलाई मशीनें पड़ी हुई हैं। कपड़ो का ढेर लगा हुआ है।
वह आगे कहते हैं, “ उत्पादकता पर इसका असर सबसे ज्यादा पड़ा है। असेंबली लाइन का एक भी लिंक गिरता है तो इसका प्रभाव पूरी प्रक्रिया पर पड़ेगा।”
छंटनी की बात पूरे परिसर में तेजी से फैली है। उत्सुक श्रमिक काम के अवसर के संबंध में बातचीत करते हैं। मोतिहारी, बिहार से आए जावेद दर्जी का काम करते हैं। उनका कहना है कि, “फैक्ट्रियां बंद हो रही है। सुना है काला धन पकड़ रहे हैं। लेकिन अमीर लोग नहीं होंगे तो हमें नौकरी देने वाला कौन होगा।”
जावेद किसी भी तरह अपना काम बचा पाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन बैंकों में लंबी कतार में खड़े रहने के कारण चार दिन की दिहाड़ी गवां चुके हैं।
मौसमी रोजगार की तलाश
नंदन और जावेद की तरह, इस परिसर में अधिकांश श्रमिक प्रवासी हैं जो या तो अकुशल है या आंशिक रूप से कुशल हैं। इनमें से ज्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार के गरीब जिलों से आते हैं। अधिकांश पुरुष हैं जो अपना परिवार छोड़ कर आते हैं। ये परिसर से नजदीक के ग्रामीण इलाकों में रहते हैं।
नयागंव, भंगेल, हल्द्वानी, नंगला,चरणदास, याकुबपूर – यह परिसर से आसपास कुछ शहरी गांव हैं, जहां छोटे-छोटे कमरों में तीन-चार श्रमिक रहते हैं। चूंकि काम मौसमी है इसलिए इन्हें शहर में रहने की जरुरत नहीं होती।
लंबे समय से श्रम कार्यकर्ता वस्त्र उद्योग में अनौपचारिक ढंग से श्रामिकों की आकस्मिक आधार पर काम मिलने को दोषपूर्ण मानते रहे हैं।
लेकिन छोटे नियोक्ताओं का बार-बार यही कहना है कि मांग की स्थिति में उतार-चढ़ाव के साथ मौसमी उद्योग में ऐसे ही काम किया जा सकता है। एक फैक्ट्री के मालिक कहते हैं, “ये प्रवासी मजदूर मौसमी रोजगार की तलाश करते हैं और खाली महीनों में अपने गांव वापस चले जाते हैं। स्थायी रोजगार में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है और ये नकद ही चाहते हैं। वे बैंकों में वेतन या ईएसआई (कर्मचारी राज्य बीमा) या पीएफ (भविष्य निधि) कटौती नहीं चाहते हैं।”
वह आगे कहते हैं कि यदि नियोक्ता अपनी लागत को स्थायी स्टाफ की लागत से जोड़ते हैं तो उन्हें अपनी कीमतें बढ़ानी होगी और फिर दुनिया के बाजार में प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाएंगे। ऐसे श्रमिकों की पसंद होती है कि इस कार्यक्षेत्र में काम करने के तरीकों में उनके मन-माफिक व्यवस्था बनी रहे, बाजार में सबसे अच्छा भुगतान करने वाली इकाइयों की वे तलाश कर सकें और उनके पास किसी भी समय ओवरटाइम की संभावना हो।
आने वाला महीना निश्चित रूप से इस उद्योग के लिए महत्वपूर्ण होगा और अगर नकदी की कमी जारी रहती है तो चंचला और जावेद की तरह श्रमिकों के घर लौटने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा।
(नायर इंडियास्पेंड में सलाहकार संपादक हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 8 दिसंबर 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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