एक कृषि वाले राज्य में, राजनीतिक दलों पर किसानों का गुस्सा
भोपाल जिले के 34 वर्षीय किसान ह्रदयेश गौड़ से सवाल करते हैं, "मोदीजी ने कहा था कि वह हमारी आय को दोगुना कर देंगे ... कहां हैं अच्छे दिन?" भाजपा का यह परंपरागत गढ़ 2 लाख रुपये तक के सभी ऋणों को माफ करने के अपने वादे को पूरा नहीं करने के लिए कांग्रेस से भी नाराज है।
कोडिया गांव( भोपाल) शहर से 30 किलोमीटर पश्चिम में, भोपाल जिले के कोडिया गांव में एक कम रोशनी वाले डेयरी की दुकान के पास इकट्ठा हुए आधा दर्जन किसानों के बीच गर्म बहस छिड़ गई थी। वहां जमा हुए किसानों में से एक, 40 वर्षीय विक्रम गोर ने कहा, "भारतीय जनता पार्टी का कुछ वोट अबकी बार कटेगा। हमारे क्षेत्र में किसान नाराज हैं।”
दो तहसीलों (हुज़ूर और बैरसिया में विभाजित ) 19 लाख मतदाताओं के साथ भोपाल 12 मई, 2019 को भारत के मौजूदा आम चुनावों में मतदान कर रहा है। 2009 के आम चुनावों में 51 फीसदी और 2014 में 63 फीसदी वोटों के साथ, जीतते हुए यह निर्वाचन क्षेत्र भाजपा का एक मजबूत गढ़ रहा है।
यह एक ऐसा राज्य है, जिसके कृषि क्षेत्र में आठ वर्षों में सबसे तेज वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई है 2015 से10.9 फीसदी, लेकिन, यहां के हमारे दौरे में हमने किसानों को भाजपा से नाखुश पाया। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि किसान रोष ने 2018 में पार्टी को राज्य विधानसभा से बाहर कर दिया था, जो 15 सालों से सत्ता में थी।
34 वर्षीय किसान ह्रदयेश गौड़ पूछते हैं, "मोदीजी ने कहा कि वह हमारी आय को दोगुना कर देंगे, लेकिन अपने बाद के वर्षों में सत्ता में रहते हुए उन्होंने गेहूं के लिए मिलने वाले बोनस को भी रोक दिया।" प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक नारे का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, " कहां हैं अच्छे दिन?" गौड़ इस बात का जिक्र कर रहे थे कि 2014 में सत्ता में आने के बाद, मोदी सरकार ने राज्यों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर बोनस देने से रोक दिया था, जिसमें तर्क दिया गया था कि इसने बाजार को प्रभावित किया है, खेती के पैटर्न को प्रभावित किया है और सब्सिडी का बोझ बढ़ाया।
कोडिया में किसान इस बात से नाखुश थे कि चल रहे चुनावी उन्माद में, केंद्र और राज्य सरकारें किसानों की समस्याओं को भूल गईं हैं- जैसे कि सभी प्रमुख फसलों के लिए एक एमएसपी हासिल करना, और खराब सिंचाई बुनियादी ढांचे, बढ़ते कृषि ऋण और सूखे से निपटने के उपायों को लाना। लेकिन, कांग्रेस, जो चार महीने से राज्य में सत्ता में है, कोडिया के मतदाताओं को प्रभावित करने में कामयाब नहीं रही है।
गौड़ ने कहा, "कांग्रेस बेहतर नहीं है। किसानों ने राज्य चुनाव में उनके लिए मतदान किया, क्योंकि उन्होंने 2 लाख रुपये तक के कृषि ऋणों के लिए ऋण माफी का वादा किया था। मेरे ऊपर 2 लाख रुपये का कर्ज भी है, लेकिन केवल 35,000 रुपये की छूट मिली है।” बैंक उसे तब तक के लिए एक स्पष्ट प्रमाण पत्र देने से इनकार कर रहा है, जब तक कि वह सरकार से माफ किए गए ऋण के पैसे को प्राप्त नहीं कर लेता।
दिल्ली स्थित एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा मार्च 2019 के सर्वेक्षण के अनुसार, भारत के लगभग 41 फीसदी ग्रामीण मतदाता अपने खेतों की सिंचाई को लेकर, 39 फीसदी ऋण उपलब्धता के बारे में और 39 फीसदी कृषि उत्पादों के लिए उच्च मूल्य प्राप्ति के बारे में चिंतित हैं।
कोडिया में अधिकांश सार्वजनिक नलकूप और नल सूख गए थे। लगभग 500-फुट गहरे केवल 15-20 निजी कुछ एक में पानी है और जिन परिवारों के पास यह स्वामित्व था, वे गांव के बाकी हिस्सों से पानी साझा कर रहे थे। नलकूपों के माध्यम से पानी की निकासी पर प्रतिबंध है, लेकिन कोडिया के लोगों के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है।
गौड़ ने कहा, "अगर आप सुबह लगभग 6 बजे गांव में घूमेंगे तो आप विभिन्न घरों के सामने विभिन्न गलियों में महिलाओं और बच्चों की कतारें देख सकेंगे, जो बाल्टी भरने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे होंगे।"
2019 में सूखे का सामना करने वाले मध्यप्रदेश में 52 जिलों में से भोपाल भी है। राज्य के अधिकांश हिस्सों ने लगातार दो वर्षों में 20-50 फीसदी कम वर्षा का अनुभव किया है। चल रहे सूखे में, जिसने भारत के 42 फीसदी भूमि क्षेत्र को जकड़ लिया है, मध्य प्रदेश सबसे ज्यादा प्रभावितों इलाकों में से है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 3 अप्रैल,2019 की रिपोर्ट में बताया है। इससे कृषि संकट और बड़ा हो गया है, जिस संकट में राज्य पहले से ही उलझा हुआ है।
36 सूखाग्रस्त जिलों में 4,000 गांवों को पानी उपलब्ध कराने वाली लगभग 40 नदियां सूख चुकी हैं और छोटी जल प्रबंधन प्रणाली पूरी तरह से बाधित है।
राज्य के पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, इन नदियों के जलग्रहण क्षेत्र का 21.29 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र ( राज्य के कुल क्षेत्रफल का -69 फीसदी ) लगभग 2.19 मिलियन किमी की दूरी पर स्थित है, जैसा कि आईएएनएस ने 16 मार्च, 2019 की रिपोर्ट में बताया है।
इस सूखे के प्राथमिक कारणों में से एक अपर्याप्त और अनियमित वर्षा है।
भोपाल में वर्ष 2017 के बाद से न केवल बारिश में कमी आई है, बल्कि यह 20 वर्षों से 2018 तक और भी अनिश्चित हो गई है। दक्षिण-पश्चिम मानसून के महीनों-जून से सितंबर तक-लगातार भारी बारिश की घटनाओं के साथ लंबे समय तक शुष्क दौर का अनुभव होता है, जैसा कि एनओएएच से पता चलता है। यह एक अनुप्रयोग है, जो उपग्रह डेटा का उपयोग करके वर्षा और सतह पर बदल रहे पानी की स्थिति को का ट्रैक रखता है।
Source:NOAH, an application that tracks rainfall and surface water changes using satellite data.
Rainfall Data For Bhopal District Over Five Years to 2017 | ||||||||||||||||||||||||
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Year | January | February | March | April | May | June | July | August | September | October | November | December | ||||||||||||
Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | Rainfall | %DEP | |
2014 | 58.5 | 396 | 47.9 | 584 | 3.5 | -46 | 3.3 | 32 | 7.6 | -22 | 23.2 | -79 | 427.1 | 26 | 165.9 | -53 | 109 | -43 | 12.4 | -63 | 0 | -100 | 22.3 | 135 |
2015 | 40.1 | 240 | 0 | -100 | 45.5 | 600 | 1.6 | -36 | 13.1 | 35 | 166.7 | 49 | 473.8 | 40 | 315.2 | -11 | 42.6 | -78 | 3.2 | -91 | 0 | -100 | 0 | -100 |
2016 | 21 | 78 | 0.4 | -94 | 5.4 | -17 | 0 | -100 | 9 | -7 | 150.1 | 34 | 660.5 | 95 | 531.3 | 49 | 122.2 | -36 | 76.9 | 128 | 0 | -100 | 0 | -100 |
2017 | 3.4 | -71 | 2.8 | -60 | 1 | -85 | 0 | -100 | 17.6 | 81 | 102.9 | -8 | 334.5 | -1 | 126.2 | -65 | 217.4 | 13 | 0 | -100 | 0 | -100 | 0.2 | -98 |
2018 | 0 | -100 | 13.3 | 90 | 1.5 | -77 | 3.7 | 48 | 0.5 | -95 | 113.5 | 2 | 352.9 | 4 | 264.5 | -26 | 75.3 | -61 | 12.9 | -62 | 0 | -100 | 0 | -100 |
Source: India Meteorology Department
केवल भोपाल ही नहीं, मध्य प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों में 1951 से 2013 तक 62 वर्षों में मॉनसून वर्षा में भारी गिरावट आई है। अहमदाबाद के ‘इंडियन इंसट्टयूट ऑफ मैनेजमेंट’ द्वारा किए गए 2016 के एक अध्ययन अनुसार इसका कारण जलवायु परिवर्तन है।
राज्य में मानसून के महीनों के दौरान 90 फीसदी वर्षा होती है, जब जलाशयों और भूमिगत एक्वीफर्स को रिचार्ज किया जाता है। इस पानी का उपयोग सर्दियों की फसलों की सिंचाई के लिए किया जाता है। लेकिन भारी बारिश की बढ़ती घटनाओं के कारण, पानी जमीन में फैलने के बजाय बह जाता है।
मध्य भारत में, 50 वर्षों से 2000 तक, भारी वर्षा के साथ दिनों की आवृत्ति (कम से कम 100 मिमी / दिन) प्रति वर्ष 45 से बढ़ कर 65 दिन हुई है, जबकि इस अवधि के दौरान चरम वर्षा की घटनाओं की आवृत्ति (कम से कम 150 मिमी वर्षा / दिन) प्रति वर्ष 9 से 18 दिनों तक, यानी दोगुनी हो गई है, जैसा कि भोपाल स्थित ‘इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट’ द्वारा 2013 के एक अध्ययन से पता चलता है।
कृषि संकट और बिगड़ामध्य प्रदेश के पूर्वी हिस्से में, क्षेत्र का लगभग 90 फीसदी हिस्सा बारिश पर निर्भर होने के साथ, पिछले 15 वर्षों में अनियमित बारिश के कारण फसल की पैदावार में 60 फीसदी तक की कमी आई है, जैसा कि आईआईएफएम ने वर्षा उत्पादकता को फसल उत्पादकता से जोड़ते हुए कहा है।
बाकी राज्यों की तरह, भोपाल में किसानों के लिए ( जहां शुद्ध बुवाई क्षेत्र का 42 फीसदी बारिश पर निर्भर है ) विरल वर्षा का मतलब उत्पादन और आय की हानि है। गौड़ ने कहा, "मुझे आमतौर पर एक एकड़ से 15-16 क्विंटल गेहूं मिलता है, लेकिन आखिरी चक्र में, पानी की कमी के कारण मुझे केवल 6-7 क्विंटल (56 फीसदी नीचे) मिला है। 2018 में बहुत कम बारिश हुई थी और नवंबर में जब हमने गेहूं की बुवाई शुरू की थी, तब तक बोरवेल में बहुत कम पानी था। गेहूं की फसल की बुवाई के बाद हम केवल एक बार सिंचाई कर सकते थे।" गेहूं के एक चक्र में कम से कम तीन बार सिंचाई की जरूरत होती है।
आमतौर पर मप्र में किसान केवल दो फसलें खरीफ (मानसून की फसल) और रबी (सर्दियों की फसल) बोते हैं। लेकिन कुछ प्री-मॉनसून फ़सल भी लगाते हैं। कोडिया में लगभग 10-15 फीसदी किसान प्री-मानसून सब्जियों की खेती करते थे लेकिन सूखे ने इसे असंभव सा बना दिया है, जैसा कि हमें बताया गया । यहां के किसान सिंचाई के लिए नहरों की भी मांग करते रहे हैं।
गौड़ कहते हैं, "यहां के प्रशासन ने सूखे के प्रबंधन के लिए अभी तक कुछ नहीं किया है। न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार ने हमें ध्यान दिया है। एक किसान सफल नहीं हो सकता है, अगर वह केवल भूमिगत पानी पर निर्भर है।”
यदि बोरवेल विफल हो जाता है, तो एक किसान को इसकी मरम्मत के लिए 2 लाख रुपये की आवश्यकता होती है और इसलिए वह एक और ऋण लेता है और इससे खेती की लागत फिर से बढ़ जाती है, जबकि फसलों की कीमत बाजार में कम मिलती है।
लगभग 46 फीसदी परिवारों के साथ एक खंडित कृषि अर्थव्यवस्था राज्य के विकास के लिए एक चुनौती बन गई है, जो अपनी आय के 30 फीसदी के लिए कृषि पर निर्भर है। 20 मार्च, 2018 को लोकसभा में पेश किए गए सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2016 में मप्र में 1,321 किसानों ने आत्महत्या की, जो कि 2013 से अब तक सबसे ज्यादा है। हालांकि दो वर्षों से 2016 तक देश में कृषि आत्महत्याओं में 10 फीसदी की कमी आई है, लेकिन मध्य प्रदेश ने 21 फीसदी की छलांग लगाई है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 30 नवंबर, 2018 की रिपोर्ट में बताया है।
पिछले दशक में, राज्य ने कृषि को लेकर कई तरह के विरोध भी देखे हैं। आखिरी बड़ा आंदोलन, 2017 में भोपाल के उत्तर-पश्चिम में 300 किलोमीटर दूर स्थित जिला मंदसौर में, छह किसानों के मारे जाने के बाद हिंसक हो गया था, क्योंकि पुलिस ने उन पर गोलीबारी की थी। किसानों की मुख्य मांग एक उच्च एमएसपी थी। यह एक ऐसी मांग है, जो अब देशव्यापी है।
एमएसपी: खेत संकट की जड़59 साल के अनमोल मेवाहा ने पूछा,"हमारा एमएसपी क्यों सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है?""इस कर्ज़ से ही किसान मरता है।"
उत्पादन की लागत बढ़ने के साथ, खेती अब एक लाभदायक उद्यम नहीं है। सरकार ने कोदिया के मुख्य फसल, गेहूं के लिए एमएसपी -1,840 रुपये प्रति क्विंटल और सोयाबीन के लिए 3,399 रुपये / क्विंटल- की घोषणा की है। मेवाड़ा ने शिकायत की कि, "लेकिन हमें शायद ही कभी एमएसपी पर अपनी उपज बेचने के लिए मिलता है।"
मध्य प्रदेश गेहूं के राष्ट्रीय उत्पादन में 19 फीसदी का योगदान देता है और उत्तर प्रदेश के बाद गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। यह सोयाबीन का सबसे बड़ा उत्पादक भी है, जो राष्ट्रीय उत्पादन में 31 फीसदी का योगदान देता है।
गौड़ कहते हैं, "ऐसा लगता है मानो हम उस चीज के लिए दंडित किए जाते हैं जो हम करने वाले हैं ... अधिक उत्पादन का दंड है यह।"
फिर भी राज्य कृषि संकट में क्यों पड़ा है? समस्या को समझने के लिए, मेवाड़ा ने इंडियास्पेंड को एक पूरी फसल चक्र के लिए दोनों फसलों की लागत और बाजार दर का चार्ट बनाने में मदद की।
उन्होंने समझाया-“गेहूं को पकने के लिए तीन महीने की आवश्यकता होती है और 2,000 रुपये प्रति हेक्टेयर के लाभ का मतलब है कि चार लोगों के अपने परिवार पर खर्च करने के लिए प्रति माह महज 600 रुपये की कमाई। एक दशक पहले उसे जो मिलता था, उससे यह 50 फीसदी कम है। उन्होंने कहा, "पिछले 9-10 वर्षों में इनपुट लागत दोगुनी हो गई है, जिससे हमारा लाभ कम हो गया है, क्योंकि सरकार ने उसी अनुपात में एमएसपी नहीं बढ़ाया है।"
मेवाड़ा की गणना के अनुसार, सोयाबीन किसानों को उपज के लिए कम बाजार दरों के कारण प्रति हेक्टेयर 30 फीसदी नुकसान होता है- "एक खेत मजदूर, जो प्रति दिन 200 रुपये कमाता है, किसानों से अधिक पैसा कमाता है। यहां तो अनाज़ बेच लो, फिर कर्ज़ चढ़ा लो और पैसा खत्म।"
"मौजूदा एमएसपी को लागू क्यों नहीं किया गया? "एमपी के किसानों की कहानी भारत के किसानों की कहानी है, जो रिकॉर्ड कटाई के दौर में हैं। 2017 में भारत में खाद्यान्न की पैदावार पहले की तुलना में अधिक हो गई, और सरकार का कृषि बजट 2017-18 के चार वर्षों में 111 फीसदी बढ़ गया, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जनवरी 2018 में बताया था। फिर भी कीमतों में गिरावट आई है। पिछले वर्ष से 2017 तक में अवैतनिक कृषि ऋण 20 फीसदी बढ़ गया है, और 60 करोड़ भारतीय, जो खेती पर निर्भर हैं, उनका जीवन संघर्ष से भर गया है।
मप्र में एक कृषि पर निर्भर घर की औसत मासिक आय 6,210 रुपये है, जो राष्ट्रीय औसत 6,426 रुपये (जुलाई 2012-जून 2013) से पीछे है, जैसा कि ‘द मिंट’ ने जून 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
राज्य के कृषि विभाग के पूर्व निदेशक जीएस कौशल ने इंडियास्पेंड को बताया, “ किसानों को उनकी फसल के लिए एमएसपी प्रदान करने के लिए, राज्य को बाजार अधिनियम में मौजूदा विनियमन को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है। एमपी का मंडी अधिनियम स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि उपज गुणवत्ता परीक्षण से गुजरती है, तो इसे एमएसपी से नीचे नहीं खरीदा जा सकता है। सरकार इसे लागू क्यों नहीं करती है?"
कौशल कहते हैं कि कृषि में लगे परिवार अपनी क्रय शक्ति खो रहे हैं और दोषपूर्ण सरकारी नीतियां संकट को बढ़ा रही हैं। उनका सवाल है, "सरकार को देश में उपलब्ध कृषि वस्तुओं के रियायती आयात को बढ़ावा क्यों देना चाहिए?"
कौशल ने कहा कि न केवल कृषि बाजार को नीतिगत बदलाव की जरूरत है, बल्कि सरकार को भंडारण सुविधाओं को बढ़ाने और विभिन्न फसलों के लिए एमएसपी को संशोधित करने के लिए खेती की लागत का फिर से सर्वेक्षण करने की जरूरत है।
भाजपा और कांग्रेस की प्रमुख योजनाएं किसानों को प्रभावित करने में विफलतीन राज्यों में ( एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ ) विधानसभा चुनावों में पराजित होने के बाद केंद्र की भाजपा सरकार ने अपने आखिरी बजट में, हर साल 6,000 रुपये की राशि के साथ 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसानों को भुगतान करने के लिए एक योजना शुरू की है।
विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान कांग्रेस द्वारा दी गई ऋण माफी का मुकाबला करने के लिए इस कदम को देखा गया था। लेकिन, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही कोडिया के किसानों को प्रभावित करने में विफल रहे हैं।
57 वर्षीय ओम प्रकाश एक किसान हैं, जो अपने परिवार के दैनिक खर्चों के भुगतान के लिए एक छोटी सी किराना दुकान भी चलाते हैं। उन्होंने कहा, "मोदीजी हमें प्रति वर्ष 6,000 रुपये का भुगतान कर रहे हैं, लेकिन यह मेरे परिवार के पांच लोगों के लिए कपड़े खरीदने के लिए पर्याप्त नहीं है। क्या वह अपने खर्चों को समझने के लिए कभी किसी किसान के घर नहीं गए? मैं इस बार भाजपा को वोट नहीं देने जा रहा हूं।"
“मोदीजी हमें 6,000 रुपये प्रति वर्ष का भुगतान कर रहे हैं। यह राशि मेरे पांच सदस्यों के परिवार के लिए कपड़े नहीं खरीद सकती। क्या वह कभी किसी किसान के घर नहीं गए? ” ओमप्रकाश (सफेद शर्ट), जैसे मध्य प्रदेश के भोपाल के कोडिया गांव के अधिकांश किसानों की तरह ही परेशान हैं जिन्हें लगता है कि चुनावी उन्माद में सभी किसान मुद्दे भूल गए हैं।
उनके पड़ोसी, और एक किसान, बद्री प्रसाद ने उनकी बात का विरोध किया। उन्होंने कहा, "यह सच है कि भाजपा ने बहुत कुछ नहीं किया है, लेकिन राज्य में सबसे अच्छी पहल शिवराज सिंह चौहान के 15 साल के लंबे कार्यकाल के दौरान हुई है।"
यह सिंह की सरकार ही थी, जिसने किसानों को सहकारी समितियों पर अपना गेहूं बेचने की अनुमति दी थी, जो कृषि बाजारों की तुलना में करीब है। प्रसाद ने कहा कि इससे पहले किसानों को अपना गेहूं बेचने के लिए बाजारों में लंबी कतारों में लगना पड़ता था।
जिन किसानों से हमने बात की, वे सत्ता में आने के 10 दिनों के भीतर 2 लाख रुपये तक के कृषि ऋणों को माफ करने के कांग्रेस शासन के वादे के कार्यान्वयन से खुश नहीं थे। प्रसाद ने पूछा, "छह महीने हो गए हैं, छोटे ऋण, 30,000 रुपये से 40,000 रुपये तक के कर्ज माफ किए गए हैं, लेकिन बड़े ऋणों का क्या? यह बेहतर है कि मोदी को एक और मौका दिया जाए।"
कहा जाता है कि कांग्रेस सरकार के कृषि ऋण माफी से 34 लाख किसानों को लाभ हुआ है, जिन्होंने 31 मार्च, 2018 तक राष्ट्रीय और सहकारी बैंकों से 2 लाख रुपये तक का ऋण लिया था।
58 साल के मोहन लाल ने कहा, '' मैं अपनी आखिरी सांस तक कांग्रेस को वोट नहीं दूंगा। जब दिग्विजय सिंह (वर्तमान चुनावों में भोपाल से कांग्रेस के उम्मीदवार) मुख्यमंत्री थे, उन्होंने मेरी जमीन में से सात एकड़ जमीन ली और इसे एक योजना के तहत अनुसूचित जाति में वितरित किया। मेरे पास केवल एक एकड़ बचा है। ” मोहन ने बताया कि भाजपा सरकार ने उज्ज्वला योजना के तहत हर घर को रसोई गैस का कनेक्शन दिया था। लेकिन उनकी 50 वर्षीय पत्नी मिट्टी के चूल्हे में ही खाना बनाती है, “गैस महंगे होने पर हम इसका इस्तेमाल सिर्फ खास मौकों पर करते हैं।”
(त्रिपाठी प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं।) यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 11 मई, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। हमसे respond@indiaspend.org पर संपर्क किया जा सकता है। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार रखते हैं।
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