ओडिशा के सबसे गरीब जिले सोशल ऑडिट से हो रहे हैं लाभान्वित
मुंबई: सोशल ऑडिटिंग ने ओडिशा के छह सबसे पिछड़े जिलों में गरीबों के लिए कल्याणकारी उपायों की पहुंच और गुणवत्ता में सुधार करने में मदद की है। यह जानकारी एक अध्ययन के निष्कर्ष में सामने आई है। एक सोशल ऑडिट, सरकारी निकायों और कार्यान्वयनकर्ताओं के बीच चर्चा के माध्यम से नीति योजनाओं के मूल्यांकन को सक्षम करती है।
ओडिशा के छह सबसे गरीब और सबसे कम विकसित जिलों- कोरापुट, बलांगीर, नुआपाड़ा, नबरंगपुर, मलकानगिरी और कालाहांडी में-जनवरी और मार्च 2018 के बीच चार कल्याणकारी योजनाओं का सोशल ऑडिट किया गया। इसके बाद दिसंबर 2018 और फरवरी 2019 के बीच दूसरा सोशल ऑडिट किया गया।
इन जिलों में 24 ब्लॉकों की 240 ग्राम पंचायतों के आंगनवाड़ी केंद्रों को कवर करने वाले दो सोशल ऑडिट के बीच कल्याणकारी योजनाओं की पहुंच और वितरण में महत्वपूर्ण बदलाव देखे गए।
अध्ययन के अनुसार, बाल मृत्यु दर को कम करने के लिए, दुनिया का सबसे बड़ा एकीकृत बचपन कार्यक्रम, एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) योजना के तहत राशन पाने वाले लाभार्थियों की संख्या में 61 फीसदी की वृद्धि हुई थी। इसने उन गर्भवती महिलाओं के अनुपात में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है, जिन्हें मातृत्व लाभ योजना, ममता के तहत अपना लाभ नहीं मिलता है।
एक गैर-सरकारी संगठन, सोसाइटी फॉर प्रमोटिंग रूरल एजुकेशन एंड डेवलपमेंट (एसपीआरईएडी) द्वारा आयोजित अध्ययन में चार योजनाओं को कवर किया गया है-आईसीडीएस और ममता के अलावा, इसमें मिड-डे मील योजना भी शामिल है,जो भारत में 12 लाख स्कूलों में अनुमानित 12 करोड़ बच्चों के लिए एक मुफ्त मिड डे मील प्रदान करता है और लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी शामिल है जो कि सब्सिडी वाले खाद्यान्न के साथ आधिकारिक गरीबी रेखा से नीचे के 6.52 करोड़ परिवारों को लाभ प्रदान करता है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जनवरी 2016 की रिपोर्ट में बताया था।
नेशनल फूड सिक्युरिटी एक्ट (एनएफएसए) के तहत चार योजनाएं में घरों, गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं के साथ-साथ 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को अधिकार प्रदान करने का लक्ष्य रखती हैं। भारत में बच्चे वर्तमान में देश की आबादी का 40 फीसदी हिस्सा हैं। 2019-20 के बजट में, केंद्र सरकार ने बच्चों के लिए 90,594 करोड़ ($ 12.5 बिलियन) का आवंटन किया। यह पिछले साल से कुल बजट के 3.25 फीसदी से 0.01 प्रतिशत-अंक की वृद्धि है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने फरवरी 2019 की रिपोर्ट में बताया है।
ऑडिट को एसपीआरईएडी (एसपीआरईएडी ) द्वारा डिजाइन और कार्यान्वित किया गया और अजीम प्रेमजी फिलन्थ्रापिक इनिश्यटिव द्वारा समर्थित था।
इस प्रक्रिया के अंत में, निष्कर्षों को, निर्वाचित ग्राम नेताओं के बीच नियमित बैठकों पल्ली सभा में साझा किया गया। सोशल ऑडिट के अंतिम दिन, समुदाय और सेवा प्रदाताओं की उपस्थिति में सरपंच की अध्यक्षता में ग्राम सभा (ग्राम परिषद) में निष्कर्ष प्रस्तुत किए गए। सभा में, सेवाओं को कैसे बेहतर बनाया जाए, इस पर भी निर्णय लिया जाता है।
असम सरकार की सोशल ऑडिट के पूर्व निदेशक के. अनुराधा , जिन्होंने ओडिशा कार्यक्रम का ऑडिट भी किया कहती हैं, "सोशल ऑडिटिंग, ग्राम सभा के साथ प्रभावित लोगों के लिए एक मंच बनाती है, जो उनकी शिकायतों को सुनते हैं और नीतिगत निर्णयों में योगदान करते हैं। लाभार्थी अपने अधिकारों के बारे में अधिक जागरूक हो जाते हैं और यह कार्यक्रमों में विश्वसनीयता लाता है।"
उन्होंने कहा कि ऑडिटिंग प्रक्रिया के सफल होने के लिए न्यूनतम आवश्यकताएं हैं, "गांव, उप-राज्य, राज्य और राष्ट्र में उपयुक्त स्तरों पर प्रासंगिक जानकारी तक मुफ्त पहुंच होनी चाहिए। नागरिकों को एक सुलभ और सुरक्षित फोरम में निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेना चाहिए, ताकि तय समय सीमा के साथ भविष्य की कार्रवाइयों पर सहमति हो सके।"
सोशल ऑडिट प्रक्रिया में समावेश भी एक चुनौती है। अनुराधा ने कहा, “बच्चों, स्तनपान कराने वाली माताओं और गरीब और कमजोर समूहों का ग्राम सभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना चाहिए। सामाजिक ऑडिट के सभी पहलुओं को प्रभावित करने वाले निहित स्वार्थी समूहों को रोकना है- भर्ती से लेकर कार्रवाई तक-एक बड़ी चुनौती है।"
भोजन योजनाओं के कवरेज में सुधार
बाल मृत्यु दर को कम करने के लिए दुनिया का सबसे बड़ा एकीकृत बचपन कार्यक्रम आईसीडीएस का लक्ष्य 2000 के दशक की शुरुआत में उलट गया था, जब यह पता चला कि, गांवों की 90 फीसदी कवरेज के बावजूद 0-2 वर्ष की आयु की केवल 6 फीसदी लड़कियों और 3-5 वर्ष की आयु के 14 फीसदी लोगों को पूरक पोषण मिला, जैसा कि मार्च 2019 में इंडियास्पेंड ने बताया है। इस योजना में सुबह के नाश्ते, गर्म पका हुआ भोजन, घरेलू राशन लेने और 6 साल से कम उम्र के बच्चों की स्वास्थ्य जांच का वादा किया गया था।
2018 में पहली सोशल ऑडिट से पता चला कि 24फीसदी लाभार्थियों को छटुआ (भुना हुआ गेहूं, बंगाल चना, मूंगफली और चीनी का मिश्रण) और 12 अंडे के एक पैकेट का पूरा राशन मिला। यह 15 प्रतिशत अंकों की वृद्धि के साथ दूसरे ऑडिट में 39 फीसदी तक बढ़ गया है। यह बालंगीर और मलकानगिरी जिलों में सबसे अधिक था, जिसमें क्रमशः 63 फीसदी और 61 फीसदी ने अपना पूर्ण राशन प्राप्त किया। ऑडिट के प्रतिभागी अब पिछले चार की तुलना में प्रति माह औसतन आठ अंडे ले जा सकते हैं।
कुल 85 फीसदी लाभार्थियों ने सभी कार्य दिवसों में सेंटर में गर्म भोजन तैयार किए जाने की सूचना दी, जो पिछले सोशल ऑडिट पर पांच प्रतिशत-बिंदु सुधार दिखाता है। साक्षात्कार लिए गए बच्चों में से आधे (54 फीसदी) ने कहा कि उन्हें आंगनवाड़ी केंद्रों में गर्म भोजन प्राप्त हुआ है, जबकि 6 फीसदी ने कहा कि उन्हें कभी गर्म भोजन नहीं मिला है।
रिपोर्ट के अनुसार सुबह का नाश्ता ‘चिंता का मुख्य विषय’ बना हुआ है। 29 फीसदी ने इसे कभी प्राप्त न करने की सूचना दी है। रिपोर्ट के अनुसार, लाभार्थी के घर और आंगनवाड़ी केंद्रों (ग्रामीण चाइल्डकेयर केंद्रों) के बीच की दूरी, अनियमित पर्यवेक्षण और लाभार्थियों के बीच अधिकार के बारे में जागरूकता की कमी के कारण ऐसा हो सकता है। अन्य कारण सामाजिक विभाजन जैसे कि जाति भी हो सकते हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने मार्च 2019 में बताया था।
इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर
रिपोर्ट में कहा गया है कि, आंगनवाड़ी केंद्रों के लिए इमारतों और सीमा की दीवारों में औसतन 15 फीसदी की वृद्धि के साथ इन्फ्रास्ट्रक्चर, आईसीडीएस कार्यक्रम के भीतर पर्याप्त सुधार का क्षेत्र था। हालांकि, यह प्रगति पूरे क्षेत्रों में एक समान नहीं थी। नुआपाड़ा ने भवन के बिना आंगनवाड़ी केंद्रों की संख्या में 1 प्रतिशत की वृद्धि दिखाई। एक चौथाई से अधिक केंद्र अभी भी अपने स्वयं के भवन के बिना चल रहे हैं, 37 फीसदी में भंडारण स्थान नहीं है, 45 फीसदी में कोई रसोई स्थान नहीं है और 78 फीसदी में बच्चों के लिए कार्यशील शौचालय नहीं हैं।
नीचे दिए गए टेबल में बच्चों के लिए वजन मशीन से लैस नहीं होने वाले आंगनवाड़ी केंद्रों की संख्या में कमी पर प्रकाश डाला गया है। औसतन, 85 फीसदी केंद्रों में बच्चों के लिए एक कार्यात्मक वजन मशीन और 64 फीसदी में वयस्कों के लिए है। कल्याणकारी उपायों के स्वास्थ्य लाभों का आकलन करने के लिए मशीन एक महत्वपूर्ण उपकरण है।
इसके बावजूद, सर्वेक्षण किए गए आधे बच्चों (50 फीसदी) और आधे से कम माताओं (47 फीसदी) का महीने में एक बार उनके वजन की निगरानी की जा रही थी और 60 फीसदी आंगनवाड़ी केंद्रों में विकास चार्ट प्रदर्शित किया गया था। यह आईसीडीएस का एक महत्वपूर्ण संभावित लाभ है, जिसकी पर्याप्त निगरानी नहीं की जाती है, जैसा कि 2015 के एक अध्ययन में कहा गया है। पूरक पोषण प्राप्त करने वाली लड़कियां अपने साथियों की तुलना में अधिक लंबी हो गईं, यह इंगित किया था।
अनुराधा ने कहा, "ग्रामसभा के पुन: संचालन के लिए निरंतर प्रयास लोगों में अपनी शिकायतों के लिए विश्वास और एक मंच लाते हैं, जिससे उपकरण को बेहतर बनाने की योजनाओं की संभावना बढ़ जाती है।"
मिड-डे मील में कोई कमी नहीं
मिड-डे मील योजना दुनिया का सबसे बड़ा स्कूल भोजन कार्यक्रम और पहुंच है, जैसा कि हमने कहा, भारत में 12 लाख स्कूलों में अनुमानित 12 करोड़ बच्चे हैं। यह केंद्रीय प्रायोजित योजना है जो 1995 में सरकारी प्राथमिक स्कूलों में छात्रों को मुफ्त खाद्यान्न प्रदान करके नामांकन में सुधार और उपस्थिति और प्रतिधारण बढ़ाने के लिए बनाई गई है। इंडियास्पेंड ने जनवरी 2019 में बताया कि पहली बार भारत में स्कूल से बाहर बच्चों की संख्या 3 फीसदी से नीचे गिरी है और कुल स्कूल नामांकन 97.2 फीसदी हो गया है।
माताओं ने पहले सोशल ऑडिट के बाद अपने बच्चे के भोजन की खपत में उल्लेखनीय वृद्धि की सूचना दी। दूसरे दौर तक, 16 फीसदी ने कहा कि उन्हें सामाजिक ऑडिटिंग प्रक्रिया के कारण भोजन योजनाओं का बेहतर ज्ञान है। 92 फीसदी स्कूली बच्चों के विचार थे कि इस योजना में कोई कमी नहीं हुई थी।
कार्यक्रम ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान खींचा था,जब बिहार के छपरा जिले में स्कूल में भोजन पकने के बाद खाने से 23 बच्चों की मौत हो गई थी, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अप्रैल 2012 की रिपोर्ट में बताया था।
अध्ययन में बताया गया है कि, 27 फीसदी स्कूलों में अभी भी अपने परिसर के भीतर या आसपास पीने के साफ पानी की सुविधा नहीं है। यह 2011 में इंडियास्पेंड द्वारा बताए गए स्तरों पर केवल 6-प्रतिशत-बिंदु सुधार है।
अध्ययन के अनुसार, छह जिलों के कम से कम 15 फीसदी स्कूलों में अलग-अलग किचन शेड नहीं हैं। 41 फीसदी में अलग स्टोर रूम की कमी है, और 35 फीसदी में पर्याप्त खाद्य कंटेनर नहीं हैं। बिना रसोई वाले स्कूलों की सूची में बालगिर (21 फीसदी) टॉप पर है, जिसके बाद कालाहांडी (19 फीसदी), कोरापुट (16 फीसदी), नबरंगपुर (14 फीसदी), नुआपाड़ा (11 फीसदी) और मलकानगिरि (6 फीसदी) का स्थान है।
मातृत्व योजना के बारे में बेहतर जागरूकता
2011 में ओडिशा सरकार द्वारा शुरू की गई ‘ममता योजना’ 19 वर्ष से अधिक की गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं को 5,000 रुपये का सशर्त नकद हस्तांतरण है। यह आंशिक मजदूरी मुआवजा अब 31 लाख लाभार्थियों तक पहुंचता है। यह चार किश्तों के रूप में प्रदान किया जाता है, जो 12 महीनों की अवधि (गर्भावस्था के छह महीने से लेकर शिशु के नौ महीने तक) तक फैला हुआ होता है।
ममता के लिए पहचानी गई 7,165 पात्र महिलाओं में से 2,652 (37 फीसदी) को एक भी किश्त नहीं मिली। मलकानगिरी में, प्राप्ति की दर 44 फीसदी था। लेकिन यह अभी भी पहले पहले सोशल ऑडिट के बाद आंकड़ों पर एक सुधार है। पहले ऑडिट में 58 फीसदी की तुलना में, अब 38 फीसदी ने किश्तों के वितरण में देरी की सूचना दी। आधे विलंब के कारण से अनजान थे।
ऑडिट के दूसरे दौर में पहले ऑडिट के बाद से स्तनपान कराने वाली माताओं की संख्या में 52.5 फीसदी से 86.6 फीसदी तक की वृद्धि देखी गई। साथ ही, 33 फीसदी लाभार्थियों ने सोशल ऑडिट के कारण कार्यक्रम का बेहतर ज्ञान होने का दावा किया।
पिछले ऑडिट में साक्षात्कार के दौरान, बलांगीर में मिश्रित जाति के एक गांव के एक नेता ने कहा, "ग्राम सभा से पहले उन्हें ममता योजना से समय पर पैसा नहीं मिल रहा था, उन्हें बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। लेकिन 20 जनवरी, (2018) को ग्राम सभा के बाद, उन्हें बिना किसी देरी के तुरंत पैसा मिल रहा है।"
कम अनाज वितरण से असंतुष्ट
लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली उन पात्र परिवारों को खाद्यान्न वितरण के लिए एक मानदंड का उपयोग करती है, जो राशन कार्ड के लिए पंजीकरण करने में सक्षम हैं। केंद्र प्रत्येक राज्य में अनाज को केंद्रीय डिपो में स्थानांतरित करता है और उसके बाद, राज्य सरकारें राशन की दुकानों को आवंटित खाद्यान्न वितरित करती हैं।
सोशल ऑडिट के दूसरे दौर के दौरान, 99 फीसदी परिवारों ने वितरित अनाज की गुणवत्ता से संतुष्ट होने की सूचना दी, पहले ऑडिट में यह आंकड़े 98 फीसदी थे।इसी तरह, 94 फीसदी खाद्य अनाज के वजन से संतुष्ट थे, पहले दौर में यह आंकड़े 89 फीसदी था।
रिपोर्ट में कहा गया है कि परिवारों के भीतर बहिष्कार एक मुद्दा है (जिन परिवारों के पास राशन कार्ड है, लेकिन घर के सभी सदस्यों को सूचीबद्ध नहीं किया गया है)। आडिट में पाया गया कि, इन घरों में लगभग 36,000 लोग टीपीडीएस (टार्गेटेड पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम) से बाहर थे, जो 21.69 फीसदी का‘अंतर-घरेलू बहिष्करण’ राशि है।
(मैनचेस्टर विश्वविद्यालय से ग्रैजुएट हैबरसन, इंडियास्पेंड में इंटर्न हैं। सालवे रिसर्च मैनेजर हैं।)
यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 27 अगस्त 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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