“कई योजनाओं को समाप्त कर देना चाहिए, एनवाईएवाई फंड के लिए समीक्षा होनी चाहिए!”
परिभाषा में निरंतर बदलाव और जीडीपी आकलन पद्धति का संशोधन डेटा की गुणवत्ता पर संदेह पैदा करते हैं, जैसा कि ‘मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ में डेवलप्मेंट इकोनोमिक्स और इकोनोमिक्स के प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी कहते हैं। वह कहते हैं, भारत को एक ऐसी प्रक्रिया अपनानी चाहिए, जहां कोई हस्तक्षेप न हो और जो विश्वसनीयता को बढ़ाए।
बेंगलुरु: मार्च 2019 के अंत में, कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, राहुल गांधी ने घोषणा की कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो एक महत्वाकांक्षी न्यूनतम आय योजना (एनवाईएवाई) लागू करेंगें। यह योजना देश के सबसे गरीब 20 फीसदी लोगों के लिए होगी। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, राहुल गांधी ने कहा है, '' हम देश से गरीबी मिटा देंगे। ''
यह योजना प्रति वर्ष 72,000 रुपये या ‘सबसे गरीब 5 करोड़ भारतीय परिवारों को 6,000 रुपये की एक समान राशि’ प्रदान करने का वादा करती है और इसकी 3.6 लाख करोड़ रुपये की बड़ी लागत होगी- यानी भारत में आज की तारीख के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1-.8 फीसदी, " जैसा कि ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ में कांग्रेस पार्टी के डेटा एनालिटिक्स विभाग के चेयरपर्सन प्रवीण चक्रवर्ती ने लिखा है।
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में फोर्ड फाउंडेशन इंटरनेशनल के इकोनोमिक्स के प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी एनवाईएवाई के गठन के लिए परामर्श देने वाले अर्थशास्त्रियों में से एक थे। उन्होंने इंडियास्पेंड को एक साक्षात्कार में बताया कि वित्तीय व्यवहार्यता एक बड़ा मुद्दा है और सुझाव दिया कि कई मौजूदा योजनाओं की समीक्षा होनी चाहिए और कई योजनाओं को बंद कर देना चाहिए।
58 वर्षीय बनर्जी ने, एक रिसर्च संगठन ‘अब्दुल लतीफ जमील पोवर्टी एक्शन लैब’ या जे-पाल के सह-संस्थापक हैं, और इसके निदेशकों में से एक है। वह ‘अमेरिकन एकेडमी ऑफ आर्ट्स एंड साइंसेज ’ और ‘द इकोनोमेट्रिक सोसाइटी’ के फेलो रहे हैं, साथ ही ‘गुगेनहेम फेलो’ और ‘अल्फ्रेड पी. स्लोन फेलो’ भी रहे हैं। ‘सोशल साइंस एंड इकोनोमिक्स’ के लिए उन्हें 2009 का ‘इन्फोसिस पुरस्कार’ मिला, और 2011 में विदेश नीति पत्रिका के शीर्ष 100 वैश्विक विचारकों में से एक का नाम दिया गया। वह एस्थर डुफ्लो के साथ ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ के सह-लेखक थे, जिसने ‘गोल्डमैन सचिन बिजनेस बुक ऑफ द ईयर’ पुरस्कार जीता। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासचिव के विकास एजेंडा पर प्रख्यात व्यक्तियों के उच्च-स्तरीय पैनल में कार्य किया।
इंडियास्पेंड के साथ एक साक्षात्कार में, बनर्जी ने एनवाईएवाई की वित्तीय व्यवहार्यता, भारत के लिए संपत्ति कर तैयार करने की आवश्यकता, और सरकारी आंकड़ों की गुणवत्ता और इसके अनुमान में हस्तक्षेप के बारे में बात की।
जनवरी 2019 में, 2016-17 ( जिस वर्ष नोटबंदी हुआ- नवंबर 2016 में), के लिए जीडीपी की संशोधित दर 8.2 फीसदी है। वर्तमान सरकार के तहत अर्थव्यवस्था का आपका आकलन क्या है और पहले से आप इसकी तुलना कैसे करते हैं?
आंकड़ों या संख्याओं ने विश्वसनीयता खो दी है। मेरे पास उन्हें जांचने का कोई तरीका नहीं है और मैं इस बारे में बहस करने वाला नहीं हूं। लगातार संशोधित डेटा की यही त्रासदी है।
परिभाषा और संशोधन में परिवर्तन हैं, लेकिन यह हमेशा किसी भी तरह लगता है कि किसी विशेष वर्ष में वृद्धि हुई। इस प्रक्रिया को रोकने की जरूरत है। कोई भी संख्या सही नहीं है, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप से इस प्रक्रिया को लगातार मोड़ना नुकसानदेह है। यह डेटा की गुणवत्ता के बारे में संदेह पैदा करता है।
आप एक पत्र के 108 हस्ताक्षरकर्ताओं में से एक थे, जिन्होंने वर्तमान सरकार द्वारा डेटा छिपाव और डेटा अनुमान में हस्तक्षेप को लाल-झंडी दिखा दी । क्या आपने पहले इस प्रकृति के सरकारी हस्तक्षेप को देखा है, और मामले को सुलझाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
विशेषज्ञों की एक समिति होनी चाहिए, जो एक स्थिर कार्यप्रणाली का प्रस्ताव करने की विश्वसनीयता रखते हैं और जो कि एक साल के लिए बैक-कास्ट हो सकते हैं और उन वर्षों के लिए लगातार जीडीपी श्रृंखला का पुनर्निर्माण कर सकते हैं।
चीन में भी डेटा हेरफेर के बारे में समान बाते कही जा रही हैं, विशेष रूप से प्रांतीय स्तर पर, और वहां ढेर सारे लोग डेटा को लेकर संदिग्ध हैं। मेरा मानना है कि कुछ चीनी सरकारी अधिकारियों ने भी सुझाव दिया है कि वे जब गैर-सरकारी संख्याओं को देखते हैं तो वे अधिक खुले हुए प्रतीत होते हैं।
भारत में, लंबे समय से इस बात पर चर्चा हुई है कि जीडीपी डेटा को एक विशेष तरीके से क्यों एकत्र किया जाता है या सरकार राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में अधिक निवेश क्यों नहीं करती है। और यह बड़ा सच है कि लोग पहले की तुलना में राजनीतिक उद्देश्यों पर सवाल उठा रहे हैं, लेकिन डेटा संग्रह एजेंसियों ने जो विचार दिया है, वह नया नहीं है। इससे पहले, डेटा(संशोधित) की रिलीज इतनी बार नहीं हुई थी और अगर सरकार के नंबरों का स्पष्ट विरोध था, तो सरकार के पास विशेषज्ञों का एक समूह था जो उद्देश्य पूरा करने के लिए वहां थे। तो, यह कुछ प्रक्रिया-संचालित था।
वर्तमान में, नीति आयोग जब चाहे तब, एक के बाद एक नंबर लेकर आता है। जब मैं वित्तीय दुनिया के लोगों से बात करता हूं, तो वे कहते हैं कि वे अब सरकारी आंकड़ों पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। हमें भारत और विदेश के विशेषज्ञों को लाने के लिए धन और प्रयास का निवेश करना चाहिए और एक ऐसी प्रक्रिया स्थापित करनी चाहिए जो बिना किसी बाधा के हो और अगले एक दशक तक बिना किसी अड़चन के उस पर टिके रहे।
हाल ही में, बेरोजगारी के संदर्भ में, आपने लिखा "कुछ करने की आवश्यकता होगी, और यह संभवतः एक न्यूनतम आय गारंटी का आकार लेगा"। कांग्रेस ने एनवाईएवाई का प्रस्ताव रखा है और भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने छोटे और सीमांत किसानों को आय सहायता प्रदान करने के लिए पीएम-किसान (बजट 2019 में घोषित) को लागू करना शुरू कर दिया है। दोनों की वित्तीय व्यवहार्यता, विशेष रूप से एनवाईएवाई के बारे में सवाल किए गए हैं। आपकी टिप्पणी क्या है?
वित्तीय व्यवहार्यता एक मुद्दा है। हमारे सामने एक दीर्घकालिक समस्या है। मुझे लगता है कि हम अर्थव्यवस्था पर पर्याप्त कर नहीं लगा रहे हैं। यदि एनवाईएवाई लागू किया जाता है तो यह तात्कालिकता को जोड़ देगा, लेकिन इसके बिना भी हमें वित्तीय हस्तक्षेप की एक श्रृंखला की आवश्यकता है। एनवाईएवाई पर चर्चा होने से पहले से मैं यह कह रहा हूं। मुझे लगता है कि हम ‘अंडर-टैक्सड’ हैं।
हमें अपनी ब्याज दरों को नीचे लाने की जरूरत है और अपने बजट में संतुलन की कुछ झलक देनी चाहिए। इसमें सब्सिडी में कटौती और करों में वृद्धि, या उच्च मुद्रास्फीति पर वापस जाने का जोखिम शामिल है। हमारे पास जो ब्याज की दरें हैं, उनका हम वहन नहीं कर सकते हैं जीडीपी में सरकारी ऋण की हमारी हिस्सेदारी 2014 से बढ़ रही है, और अंत में साख पर चोट होगी। हम ऐसी समस्याओं में नहीं पड़ना चाहते। तो हमारे पास एनवाईएवाई है या नहीं, उससे पहले हमें इस समस्या ( पर्याप्त कर नहीं लगाने) का समाधान करना होगा।
कांग्रेस पार्टी के डेटा एनालिटिक्स विभाग के चेयरपर्सन प्रवीण चक्रवर्ती ने एक इंटरव्यू में उल्लेख किया कि एनवाईएवाई लागू होने पर 11 मुख्य योजनाओं को छोड़कर लगभग 939 योजनाओं को वित्तीय युक्तिकरण के लिए समीक्षा करनी होगी। पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री, मनमोहन सिंह ने कहा कि एनवाईएवाई को फंड करने के लिए मध्यम वर्ग को किसी भी नए करों की आवश्यकता नहीं होगी, और इस योजना के चरम पर सकल घरेलू उत्पाद का 1.2 फीसदी से 1.5 फीसदी की आवश्यकता होगी। क्या आप सहमत हैं?
मुझे नहीं लगता कि सिर्फ छोटी स्कीमों में कटौती करने से पर्याप्त धन होगा। लेकिन मैं इस बात से सहमत हूं कि योजनाओं की समीक्षा की जानी चाहिए और कई योजनाओं को बंद कर देना चाहिए। वहां पैसा है जिसका सदुपयोग किया जा सकता है। कर और व्यय दोनों का युक्तिकरण महत्वपूर्ण हैं। मैं सभी अमीरों पर अधिक करों के पक्ष में हूं । धनवान लोगों पर कितना कर लगाया जा सकता है, इस पर कुछ विचार करने की आवश्यकता है।
क्या आपने उन योजनाओं का आकलन किया है, जो ‘एनएवाईएवाई’ को सुविधाजनक बनाने के लिए बंद की जा सकती हैं?
‘एनवाईएवाई’ के बारे में सोचने का सही तरीका यह है कि यह किसी विशेष भले के लिए धन के बजाय धन हस्तांतरण को संभव बनाने के लिए बुनियादी ढांचा बनाने का शुरुआती कदम है। उर्वरक सब्सिडी या मुफ्त बिजली की तुलना में लोगों को नकद देना बेहतर है।
हालांकि पहला कदम लोगों को यह विश्वास दिलाना है कि सब्सिडी वितरण तंत्र काम करता है। यह ‘एनवाईएवाई’ कर सकता है। जब तक कि यह अच्छी तरह से स्थापित न हो इससे पहले प्रमुख सब्सिडी योजनाओं को हटाया नहीं जा सकता है। कम समय के लिए निश्चित रूप से कुछ राजकोषीय दबाव होगा।
एनवाईएवाई के लिए आपने कांग्रेस को परामर्श दिया गया था। आपने किस प्रकार के इनपुट प्रदान किए? 2011-12 के बाद से गरीबी के आंकड़े एकत्र नहीं किए गए, ऐसे में गरीबों तक पहुंचने में सरकार क्या करेगी?
मुझे लगता है कि लक्ष्य में सबसे कठिन वे समूह होंगे, जो नीचे के 20 फीसदी से थोड़ा आगे हैं। सबसे गरीब 20 फीसदी की पहचान करना अपेक्षाकृत आसान है और यदि वे (सरकार) समावेशी होने के लिए तैयार हैं, भले ही वह 22-25 फीसदी तक शामिल हो, लक्ष्यीकरण बहुत बुरा नहीं होना चाहिए।
अपने अध्ययन में हम पाते हैं कि गांवों के भीतर भी सबसे गरीब कौन है, इस संबंध में सहमति है। इसलिए सामाजिक-आर्थिक और जाति की जनगणना के अद्यतन संस्करण और कुछ स्थानीय समुदाय समीक्षा तंत्रों को लक्ष्यीकरण प्रक्रिया के साथ जोड़ना संभव होना चाहिए। यह सही नहीं हो सकता है, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए योजना को एक तरह से चलाया जाना चाहिए कि संबंधित बुनियादी ढांचा काम करता है और लोगों को यादृच्छिक कारणों से बाहर नहीं किया जाता है।
मुझे इस योजना के लिए लाभार्थियों का आकलन करने से संबंधित मामलों पर सलाह दी गई थी कि सटीक संख्या या डेटा उपलब्ध नहीं हैं।
भारत में आर्थिक असमानता अधिक है। नौ सबसे अमीर भारतीयों के पास अब नीचे के 50 फीसदी के बराबर धन है। लगभग 50 फीसीदी आबादी कृषि पर निर्भर है जो सकल घरेलू उत्पाद का 14 फीसदी योगदान देता है। ग्रामीण संकट एक प्रमुख मुद्दा है। उपाय क्या हैं? क्या कृषि से लोगों को बाहर निकालना एकमात्र व्यवहार्य विकल्प है?
हमारे पास हर किसी को कृषि से बाहर निकालने के लिए शहरी बुनियादी ढांचा नहीं है। यह सच हो सकता है कि लगभग 50 फीसदी कृषि पर निर्भर हैं, लेकिन कृषि से उनकी आय का हिस्सा वास्तव में 50 फीसदी से कम है। कृषि में कई लोगों के पास अपनी आय के पूरक के लिए अन्य नौकरियां हैं, जिसमें अक्सर शहरों में अस्थायी प्रवास होता है।
सरकारों द्वारा की जाने वाली चीजों में से एक यह है कि प्रवासियों के रहने के लिए कम लागत वाली जगहें बनाई जाएं, ताकि शहरी क्षेत्रों में काम करना अधिक व्यवहार्य हो। लेकिन यह अल्पावधि में होने की संभावना नहीं है। मेरी सलाह यह है कि हम नकद हस्तांतरण की ओर बढ़ेंगे, क्योंकि इनमें से कई जीवन केवल मामूली रूप से व्यवहार्य हैं, विशेष रूप से युवा, अधिक शिक्षित पीढ़ी के लिए जो समान नौकरियां नहीं करना चाहते हैं या उनके माता-पिता के समान जीवन शैली है। हमारे पास यह राजनीतिक समस्या है, जिसे हल करने की आवश्यकता है।
मार्च 2019 के पेपर में, आपने (थॉमस पिकेटी और अमोरी गेथिन के साथ) बताया है कि “मतदाता सांप्रदायिक हितों और सांस्कृतिक प्राथमिकताओं की तुलना में सीधे आर्थिक हितों से कम संचालित लगते है।” दुनिया भर में, हमने लोकलुभावन नेताओं में वृद्धि देखी है। क्या यह चलन भारत के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है कि धार्मिक विभाजन और मजबूत जाति-आधारित दरार की दृढ़ता ‘मतदाताओं की पसंद को निर्धारित’ करती है, जबकि जाति पर नियंत्रण में शिक्षा, आय और व्यवसाय छोटी भूमिका निभाते हैं।
आर्थिक हितों के आधार पर अधिक राजनीति होनी चाहिए, क्योंकि वे पहलू हैं जो हम सामाजिक विभाजन पैदा किए बिना वितरित कर सकते हैं। यदि मतदाताओं का मानना है कि राज्य आर्थिक लाभ के मामले में कुछ भी अच्छा नहीं दे सकता है, तो वे सांप्रदायिक दावों के प्रति उत्तरदायी होंगे। यदि लोग केवल सांप्रदायिक मुद्दों के बारे में परवाह करना शुरू करते हैं, तो पार्टियों को इसे बढ़ावा देने का प्रोत्साहन है और फिर हम पूरी तरह से खंडित राजनीति में समाप्त हो जाएंगे।
आर्थिक हितों का लाभ यह है कि उन्हें अक्सर हल किया जा सकता है, जबकि सांप्रदायिक मामलों में यह कहने के अलावा कोई और हल नहीं दिखता कि “हम उनको चोट पहुंचाएंगे, जो भयावह हैं।”
भाजपा सरकार द्वारा घोषित आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का मानदंड अधिकांश परिवारों को अर्हता प्राप्त करने की अनुमति देता है। आप इस आरक्षण नीति का आकलन कैसे करते हैं और उन राजनीतिक और आर्थिक प्रभावों के बारे में क्या जानते हैं जिन्हें आप जानते हैं?
इस नीति से कुछ भी नहीं होगा। 8 लाख रुपये से कम वार्षिक आय वाले उच्च जाति के लोग आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं और उन्हें पहले से ही 10 फीसदी से अधिक नौकरियां मिल रही हैं। राजनीतिक इशारे के अलावा, इसका कोई परिणाम नहीं होगा।
पिछले 10 वर्षों में बट्टे खाते में डाले गए कॉर्पोरेट बुरे ऋणों की कुल राशि का लगभग चार-पांचवां (5.5 लाख करोड़ रु या 79.51 बिलियन डॉलर) अप्रैल 2014 के बाद पांच वर्षों के दौरान था, जैसा कि ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में अप्रैल 2019 की रिपोर्ट का उल्लेख किया गया है। दिसंबर 2018 को समाप्त होने वाले नौ महीनों के दौरान लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये थे। कृषि ऋण माफी को लोकलुभावन वादों के रूप में बहुत आलोचना मिली है, जबकि इस तरह के कॉरपोरेट राइट-ऑफ नहीं लगते हैं। आप गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों की समस्या और अर्थव्यवस्था पर राइट-ऑफ़ और इसके निहितार्थ की व्याख्या कैसे करते हैं?
जनता इसे विषम रूप से देखती है क्योंकि एक में चुपचाप होता है जबकि दूसरा में नहीं । मीडिया को कॉरपोरेट्स के लिए ऐसे राइट-ऑफ पर स्पॉटलाइट डालना होगा। निश्चित रूप से अब ऐसा कोई विकल्प नहीं है, जो यह बताए कि बैंकिंग प्रणाली कर्ज के बोझ तले दब गई है और वह देने में असमर्थ है।
मुद्दा यह है कि गलत करने वाले दूर चले जाते हैं। कॉर्पोरेट हित कानून की परतों द्वारा संरक्षित हैं, जो उनके पक्ष में हैं। गरीब किसान जमीन को गिरवी रख देता है और कर्ज चुकाने में असमर्थ होने पर उसे खो देता है। किसान असुरक्षित हैं, जबकि कॉरपोरेट को जवाबदेह ठहराना कठिन है।
जानकारी: प्रवीण चक्रवर्ती, डेटा एनालिटिक्स विभाग के अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस पार्टी में शामिल होने से पहले इंडियास्पेंड के एक संस्थापक ट्रस्टी रहे।
( पलियथ विश्लेषक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं। )
यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 15 मई 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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