कभी बाढ़ से परेशान, कभी सूखे की मार, लेकिन महाराष्ट्र में ये चुनावी मुद्दे नहीं - जानकार
मुंबई: गांवों में पीने का पानी खरीदते किसान और शहरों में अपने घर तक वापस जाने के लिए सड़कों पर भरे पानी में चल कर जाते लोग। कुछ दिन पहले तक महाराष्ट्र में ये तस्वीर आम थी। जिस वक्त राज्य के गांव सूखे का सामना कर रहे थे, उसी दौरान शहर बाढ़ के पानी में डूबे हुए थे। मौसम से जुड़ी ये घटनाएं महाराष्ट्र में इतनी आम हो गई हैं कि अब लोगों को इसकी आदत हो गई है। जानकारों का कहना है कि ये घटनाएं इतनी आम हो गई हैं कि सूखे और बाढ़ के संकट से निपटने में सरकार के फ़ेल होने के बावजूद ये कोई "चुनावी मुद्दा" नहीं है।
राज्य में लगभग 9 करोड़ लोग 21 अक्टूबर, 2019 को वोट डालकर नई सरकार चुनेंगें। चुनाव का नतीजा 24 अक्टूबर को आएगा।
राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि एक अच्छे मॉनसून वाले साल में, सूखा और बाढ़ महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में मुद्दों की फ़ेहरिस्त से ग़ायब हैं। (महाराष्ट्र में इस बार बारिश, लम्बे वक्त के औसत से 32% ज़्यादा हुई है।) जबकि फ़सलों का घटता उत्पादन और बढ़ती बेरोज़गारी प्रमुख राजनैतिक मुद्दे हैं, जो मौसम के इस बदलाव की ही देन हैं।
पिछले पांच साल में तीन बार महाराष्ट्र को सूखा प्रभावित घोषित किया गया है। राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 12% (State GVA) है और यह बार-बार सूखे और बाढ़ की वजह से घट रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में, महाराष्ट्र से किसान आत्महत्याओं के सबसे ज्यादा मामलों (3,030 or 39%) की सूचना मिली थी। हम बता दें कि एनसीआरबी ने किसान आत्महत्यों के आंकड़े आख़िरी बार 2015 में ही जारी किए थे।
इस बार मानसून में, अकेले मुंबई में मूसलाधार बारिश की पांच घटनाएं (24 घंटे में 244.5 मिमी से ऊपर वर्षा) दर्ज की गईं। राज्य के कई हिस्सों में भारी बारिश हुई, जिसके कारण दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई। बाढ़ की चपेट में आने से 377 लोगों की जान चली गई।
जलवायु विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि भविष्य में अनिश्चित और देर से बारिश, बाढ़ और ओलावृष्टि जैसी घटनाएं होती रहेंगी। लेकिन फिर भी, राजनैतिक पार्टियां और सरकारें असली समस्या का हल निकालने की बजाय सिर्फ़ ख़ानापूर्ति (जैसे कि कर्ज माफ करना पानी के टैंकर खरीदने के लिए किसानों को ट्रांस्फर करना) कर देती हैं। जानकारों का कहना है कि, समस्या के असली कारणों पर काम नहीं किया जा रहा है, जैसे कि जोखिम मूल्यांकन योजना, शुरुआती चेतावनी प्रणाली या जलवायु-प्रूफ इन्फ़्रास्ट्रक्चर स्थापित करना है।
महाराष्ट्र चुनाव 2009 और 2014
2009 में, कांग्रेस और उसके सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 288 सदस्यीय विधानसभा में क्रमशः 82 (28%) और 62 (22%) सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया था।
लगभग 70,000 करोड़ रुपये के सिंचाई घोटालों की वजह से 2014 में कांग्रेस-एनसीपी चुनाव हार गई क्योंकि वे महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त जिलों में पानी उपलब्ध कराने में नाकाम रहे थे। 2014 में, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 122 (42%) सीटें जीतीं और उसके सहयोगी शिवसेना ने 63 सीटें (22%) जीतीं थी। कांग्रेस ने 42 (15%) और एनसीपी ने 41 (14%) सीटों पर जीत हासिल की।
014 के विधानसभा चुनावों में काम करने वाले अन्य कारक थे: 'मोदी लहर', जो राज्य चुनावों (2014 के आम चुनावों के बाद) के दौरान भी 'कांग्रेस मुक्त भारत' और 'ऊपर नरेंद्र, नीचे देवेंद्र' जैसे नारों के साथ बीजेपी को सत्ता में ले आई। जैसा कि इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2014 में बताया था कि बीजेपी, मतदाताओं के सपनों और महत्वाकांक्षाओं को भुनाने में सक्षम रही।
सूखे और बाढ़ के दोहरे मुद्दे
जैसा कि हमने ऊपर बताया कि पिछले कुछ साल में राज्य ने भारी बारिश, बाढ़ और सूखे जैसी चरम जलवायु परिस्थितियों का सामना किया है। इससे लोगों की आजीविका पर तो असर पड़ा ही है साथ ही राज्य की अर्थव्यवस्था भी इससे अछूती नहीं रही है।राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक सुहास पलिशकर ने एक इंटरव्यू में
इंडियास्पेंड को बताया, “राज्य के चुनाव के दौरान, इस महत्वपूर्ण मुद्दे के केंद्र में आने की संभावना कम है। समय के साथ, जिस तरह से राज्य की नीतियों पर काम किया जा रहा है, राज्य प्राकृतिक आपदाओं के लिए मानव निर्मित आपदाओं में तब्दील होने का इंतजार कर रहा है। हालांकि, यह सभी पार्टियों के लिए आम है और विशेष रुप से मध्य और उच्च वर्ग, इन आपदाओं के प्रभाव से बेखबर है। ”
2019 के दक्षिण-पश्चिम मॉनसून के दौरान महाराष्ट्र के कई हिस्सों में भारी बारिश और बाढ़ का मंज़र देखा गया। मुंबई, पुणे और महाराष्ट्र के पश्चिमी क्षेत्रों जैसे कोल्हापुर और सांगली में 2019 में गंभीर बाढ़ देखी गई, जिसका असर अर्थव्यवस्था पर लम्बे वक्त के लिए पड़ना लाज़िमी है।
जानकारों ने इंडियास्पेंड को बताया कि खराब जल निकासी, बढ़ती शहरी आबादी और ज़मीन के इस्तेमाल के प्रारूप को बदलना शहरों में बाढ़ के खतरे को बढ़ाते हैं। यहां तक कि ग्रामीण इलाकों में भारी बारिश और बाढ़ का भी सामना करना पड़ा है।
23 अगस्त, 2019 को द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 के मॉनसून के दौरान महाराष्ट्र में बाढ़ के कारण 4 लाख हेक्टेयर से अधिक फसलें खराब हो गई थीं। रिपोर्ट में कहा गया है कि, गन्ना, कपास, चावल, सोयाबीन, अरहर की दाल, मूंगफली की फ़सलें सबसे बुरी तरह प्रभावित हुई हैं।
कोल्हापुर, सांगली और सतारा जिलों में बाढ़ के कारण डेयरी क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है। यहां गाय, बैल और भैंस सहित 7,847 मवेशी और 1,065 बकरियां, भेड़ और 160 बछड़े और गधे या तो मारे गए या लापता हो गए।
महाबलेश्वर में अप्रैल 2019 में ओले गिरने और तेज हवाओं ने शहतूत की 60% फसल को नष्ट कर दिया। इसी तरह अप्रैल और मई 2018 में बेमौसम बारिश और ओले गिरने से राज्य भर में लगभग 6,835 हेक्टेयर की फ़सल प्रभावित हुई थी।
पुणे स्थित गैर सरकारी संगठन और रिसर्च सेंटर, वाटरशेड ऑर्गेनाइजेशन ट्रस्ट (डब्ल्यूओटीआर) के सीनियर रिसर्चर और और संचार के प्रमुख अर्जुन श्रीनिधि ने इंडियास्पेंड को बताया, "हमारे अवलोकन और अन्य प्रकाशनों में बताया गया है कि चरम जलवायु घटनाएं बढ़ गई है।" क्षेत्र के आसपास के गांवों में डब्लूओटीआर के मौसम स्टेशन हैं, जो मौसम और जलवायु परिवर्तन पर नज़र रखने के साथ भारत के मौसम विभाग की मदद भी करता है।
श्रीनिधि ने बताया कि, कम समय में अत्यधिक बारिश होने लगी है, जिसकी वजह से सूखा और पानी का भारी मात्रा में बह जाने की घटनाएं हुई हैं। उन्होंने कहा कि पानी का बहाव धीमा होना चाहिए ताकि उसके जमीन में रिसने के लिए पर्याप्त समय हो।
दिल्ली के थिंक-टैंक, काउंसिल ऑन एनर्जी इन्वायरमेंट एंड वॉटर के सीनियर रिसर्च एसोसिएट, हैम ढोलकिया ने इंडियास्पेंड को बताया "भारी बारिश, जो हम देख रहे हैं, वो इसलिए है क्योंकि जलवायु परिवर्तन हमारे मौसम के पैटर्न को प्रभावित कर रहा है। विज्ञान अभी तक उस बिंदु तक नहीं पहुंचा है कि जलवायु परिवर्तन के लिए किसी एक घटना की पहचान करे या उसका सम्बंध बताए। लेकिन हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ही इस तरह की घटनाएं बार-बार हो रही हैं।"
प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन पर गांवों के गरीबों के लिए काम करने वाला एक गैर-लाभकारी संगठन, एक्शन फॉर फूड प्रोडक्शन ( एएफपीआरओ ) के अहमदनगर के रीजनल मैनेजर, एजी सालुंके कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन से खेती के कैलेंडर में बदलाव, नए कीटों के हमले और लंबे समय तक कीट संक्रमण जैसी नई समस्याएं पैदा हुई हैं।"
अनिश्चित मौसम पर निर्भर कृषि
जैसा कि हमने बताया कि, देश में सबसे समृद्ध औद्योगिक राज्यों में से एक होने के बावजूद, महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था प्रमुख रुप से कृषि पर आधारित है। महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, महाराष्ट्र के 70% भौगोलिक क्षेत्र अर्ध-शुष्क क्षेत्र के तहत आने के साथ, राज्य में 2011-12 से "प्रमुखता से सूखा देखा गया" है। वर्ष 2013 में, राज्य ने पिछले 40 साल के सबसे खराब सूखे में से एक देखा था।
महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में कहा गया है कि राज्य में सूखे की स्थिति के कारण फसलों की पैदावार कम होने की संभावना है, जिसकी वजह से राज्य के GVA में फसलों के योगदान के 8% तक गिरने का अनुमान है।
26 जिलों में 2018-19 के खरीफ सीजन (जून से अक्टूबर) के दौरान पानी की कमी ने 151 तालुकाओं (उप-जिला प्रशासनिक इकाइयों) को प्रभावित किया है। इनमें से 112 तालुकाओं में भीषण सूखा पड़ा जबकि 39 में मध्यम सूखा देखा गया। इससे लगभग 8.6 मिलियन हेक्टेयर की फ़सल प्रभावित हुई।
महाराष्ट्र आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, पिछले वर्ष की तुलना में 2018-19 में रबी की फसलों का क्षेत्र 50% कम था। इसका कारण मुख्य रूप से सितंबर और अक्टूबर 2018 में बारिश की कमी था। पिछले वर्ष की तुलना में अनाज, दलहन और तिलहन के क्षेत्र में क्रमशः 56%, 40% और 58% की कमी हुई।
सालुंके ने कहा, "कभी कम, कभी ज़्यादा बारिश का होना फसल की पैदावार पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है और भविष्य में इस तरह की बारिश की घटनाएं और होंगी। इसके लिए किसानों को ट्रेनिंग की जरुरत होगी। नई समस्याओं से निपटने के लिए केवल ऐतिहासिक, पारंपरिक ज्ञान पर भरोसा नहीं कर सकते हैं।" अनुकूलन उपायों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, जो लंबी अवधि में महत्वपूर्ण होगा।
मराठवाड़ा और विदर्भ राज्य के सूखाग्रस्त क्षेत्र हैं जो कम बारिश वाले क्षेत्र में आते हैं। मिरर नाउ की 10 मई, 2019 की रिपोर्ट में कहा गया है कि, 2019 के पहले तीन महीने में महाराष्ट्र में लगभग 611 किसान आत्महत्याओं की सूचना मिली थी। 70% मामले इन दोनों राज्यों से थे। सबसे ज्यादा आत्महत्याओं की सूचना विदर्भ के अमरावती (227) से मिली। इसके बाद मराठवाड़ा में औरंगाबाद (198) का स्थान रहा।
21 जून, 2019 की रिपोर्ट में इंडिया टुडे ने राज्य विधान सभा में दिए गए विवरण का हवाला देते हुए बताया कि,2015 से 18 के बीच राज्य में 12,021 किसानों ने आत्महत्या की है। ये आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र में औसतन हर दिन सात से आठ किसान आत्महत्या करते हैं। 2015 के एनसीआरबी आंकड़ों से पता चलता है कि महाराष्ट्र में लगभग 43% आत्महत्याएं (3,030 आत्महत्याओं में से 1,293) दिवालियापन या कर्ज के बोझ के कारण हुई है।
श्रीनिधि ने कहा, "सरकार को सूखे जैसी स्थितियों के अनुसार एक दीर्घकालिक और ठोस समाधान निकालना चाहिए।" हालांकि, सूखे की स्थितियों के दौरान राहत उपायों पर ध्यान देने की आवश्यकता होगी, सरकार को यह विचार करना चाहिए कि इन राहत उपायों से किसे फायदा हो रहा है और कौन इससे छूट रहा है। अक्सर भूमिहीन किसान, जो पट्टे पर दी गई जमीन पर खेती करते हैं, राहत के उपायों से लाभ नहीं उठा पाते हैं। उन्होंने कहा कि सूखे के दौरान पशुओं की बिक्री में भी कमी होती है, जिससे उन्हें नुकसान होता है।
सूखे और ख़राब फसलों से पलायन होता है
लोकनीति के राज्य कोर्डिनेटर और पुणे के येरवडा के डॉ. अंबेडकर आर्ट एंड कॉमर्स कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर नितिन बिरमल ने इंडियास्पेंड को बताया, "लोग सूखाग्रस्त जिलों से शहरी क्षेत्रों में चले गए हैं, क्योंकि वे अब खेती नहीं करना चाहते हैं। वे शहरों में उबर, ओला कैब चला कर ज्यादा कमा रहे हैं। उस्मानाबाद जैसे जिले खाली हैं। "
बिर्मल ने कहा कि, पानी खरीदने के लिए किसानों को पैसा मिल रहा है। “सरकार सिंचाई के माध्यम से जल आपूर्ति समस्या का समाधान नहीं कर रही है। इसके बजाय यह किसानों को खुद का पानी खरीदने के लिए पैसा मुहैया करा रही है। आपदा प्रबंधन को राज्य का मुद्दा नहीं माना जाता है, बल्कि एक स्थानीय मुद्दा है जो स्थानीय चुनावों के दौरान ही सामने आएगा। ”
मराठवाड़ा से पुणे और देश के अन्य हिस्सों में बड़े पैमाने पर पलायन पिछले सात वर्षों में तीन सूखे और पिछले पांच वर्षों में पानी की कमी के कारण हुए हैं।
इंडियास्पेंड ने 17 अप्रैल, 2019 की रिपोर्ट में बताया कि कृषि क्षेत्र में फैक्ट्रियों के निर्माण और गैर-कृषि उपयोग के लिए खेती की जमीन बेची जा रही है, जिससे कृषि क्षेत्र में मजदूरों को नुकसान हो रहा है। महाराष्ट्र के नासिक जिले के एक गांव पिम्पलाड के कमल गंगरुड़े ने कहा कि, “जनसंख्या बढ़ रही है लेकिन नौकरियों की संख्या हर साल कम हो रही है। पिछले साल कुछ लोगों को पूरे सीज़न में सिर्फ तीन हफ्ते का काम मिला था। अधिक मशीनरी के साथ भी, काम तेजी से और जल्दी ख़त्म हो जाता है।”
कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने इंडियास्पेंड को बताया, " लोग हाशिए पर पड़े लोग रोजगार की तलाश में शहरों में जाते हैं।" जल प्रबंधन की कमी के कारण एक साधारण सूखा महाराष्ट्र में गंभीर सूखा बन जाता है। जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट पर इंटरगवर्मेंटल पैनल का कहना है, सूखे मौसम का सूखे में बदल जाना हर साल 1% बढ़ रहा है।
शर्मा कहते हैं, "हम टेक्स्टबुक का अनुसरण कर रहे हैं," उन्होंने कहा, "जो कहते हैं कि सस्ती मज़दूरी के लिए लोगों को कृषि से बाहर निकालकर, शहरों में भेजा जाना चाहिए। रोज़गार नहीं हैं, लेकिन अर्थशास्त्री चाहते हैं कि लोग खेती-बाड़ी छोड़कर शहरों से दिहाड़ी की मज़दूरी करें। कुल मिलाकर कृषि नीति को बदलना होगा, हमने जानबूझकर कृषि को कंगाल बना रखा है। ”
बीजेपी का सूखा-मुक्त महाराष्ट्र, कांग्रेस-एनसीपी का ‘आपदा-मुक्त महाराष्ट्र’ का वादा
बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में सूखा मुक्त महाराष्ट्र की बात की है। इसके अलावा, यह सूखे और बाढ़ से निपटने के लिए एक आपदा प्रबंधन योजना लागू करने का वादा करता है। इसकी सहयोगी, शिवसेना, आपदा से निपटने के लिए हर जिले में प्रशिक्षित समूहों को तैनात करने के अलावा, सूखा-मुक्त, बेरोजगारी-मुक्त और प्रदूषण-मुक्त महाराष्ट्र की बात करती है।
कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन आपदा-रोकथाम तंत्र को मजबूत करने के अलावा, जलवायु परिवर्तन के लिए एक जिला-स्तरीय कार्य योजना का भी वादा करता है।
मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर, कवि कुमार ने इंडियास्पेंड को बताया कि बीजेपी “मौजूदा संस्थागत संरचना के बारे में पूरी तरह से अवगत नहीं है जो व्यापक आपदा प्रबंधन योजना की बात करती है।” कुमार ने कहा कि शिवसेना अपने घोषणा पत्र राज्य में प्रभावी जल संसाधन प्रबंधन के बारे में सही बात करती है, लेकिन बीजेपी की तरह शिवसेना का घोषणा पत्र में कही गई बातें भी मध्यम और लंबे समय के लिए जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए किसी भी योजना का सुझाव देने के लिए पर्याप्त नहीं है।
कुमार ने कहा कि, कांग्रेस-एनसीपी का घोषणापत्र “कम से कम जलवायु परिवर्तन की समस्या को गंभीरता से स्वीकार करता है और यह एक बड़ा कदम लगता है। मैं चाहता था कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने (नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाने के माध्यम से) पर ध्यान केंद्रित करने के साथ महाराष्ट्र के जलवायु लचीलापन में सुधार के लिए सुझाव सामने आते।"
डब्लूओटीआर ने घोषणा पत्रों का जिक्र करते हुए कहा, सुनिश्चित आय गारंटी, हर घर में नल का जल पर 100% सब्सिडी से वादे निश्चित रूप से मदद करेंगे। प्राथमिकताओं, योजनाओं और उनके अमल के लिए इसमें सिविल सोसायटी को शामिल करना महत्वपूर्ण होगा।
(मल्लापुर सीनियर एनालिस्ट हैं। अहमद और सालवे इंडियास्पेंड योगदानकर्ता हैं।)
यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 19 अक्टूबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।