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“तीन साल पहले मैं दिल्ली स्थित एक गैर लाभकारी संगठन में रिसर्च फैलो के रूप में काम करती थी। एक समय मुझे लगा कि अपने वरिष्ठ सहयोगी के साथ समन्वय न बैठा पाने के मुद्दे को लेकर मुझे मैनेजमेंट से बात करनी चाहिए। मैंने अपनी समस्याएं दूसरे प्रोग्राम मैनेजर को बताई। लेकिन उसका व्यवहार अवांछित था। मैं उसके ऑफिस से निकल गई।”

“उसने सलाह दी कि हमें कहीं बाहर, कनॉट प्लेस पर जा कर बात करनी चाहिए। मैं मान गई लेकिन फिर उन्होंने अपने घर चलने के लिए जोर दिया। हालांकि, मैंने काफी मना किया लेकिन उसने घर चलने के लिए मेरी हामी भरवा ली। रास्ते में उसने मुझे गलत तरीके से छूना शुरु कर दिया और मेरे पहनावे पर टिप्पणी करने लगा। जब हम उसके घर पहुंचे तो उसने मुझे ड्रिंक ऑफर किया। मैंने मना कर दिया। फिर उसने मुझे साथ सोने के लिए कहा। मेरे मना करने के बावजूद वह मेरे साथ जबरदस्ती करने लगा।”

“मेरे साथियों ने मुझे शिकायत दर्ज करने के लिए प्रोत्साहित किया। हालांकि मेरे अनुबंध में यौन उत्पीड़न की जांच के लिए एक समिति का उल्लेख किया गया था, लेकिन इस संबंध में कोई विवरण मौजूद नहीं था। वहां केवल एक पैनल का जिक्र किया गया था, जो 'यौन उत्पीड़न के मामलों' में गठित किया जाएगा।”

“मैंने अपने वरिष्ठ सहयोगी के पास शिकायत की, जो मुझे मानव संसाधन (एचआर) प्रबंधक और सिटी निर्देशक के पास गए। लेकिन मेरी वरिष्ठ के साथ मेरे रिश्ते पहले से ही तनावपूर्ण थे – उन्होंने कहा कि सारी गलती मेरी ही है। और आखिरकार मैं अपना फैलोशिप अधूरा छोड़ आई। ऑफिस छोड़ने से पहले एच आर मैनेजर ने लिखित निकास साक्षात्कार की मांग की । जिसमें यौन उत्पीड़न का जिक्र करने के बावजूद भी मेरी शिकायत दर्ज नहीं की गई। लेकिन उस प्रोग्राम मैनेजर का करियर काफी ऊंचा उठ गया।”

यह कहानी 25 वर्षीय रिद्दिमा चोपड़ा की है। चोपड़ा उन महिलाओं में से हैं, जो कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न के खिलाफ शिकायत की पक्षधर हैं।

हम बता दें कि वर्ष 2012 में दिल्ली सामूहिक बलात्कार के मद्देनजर कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 बनाया किया गया है। हालांकि वर्ष 2017 में भारतीय बार एसोसिएशन द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 70 फीसदी ने महिलाओं ने खराब परिणाम की आशंका में अपने वरिष्ठ अधिकारी के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत करने से मना किया है। इस सर्वेक्षण में 6047 महिलाओं को शामिल किया गया है।

उपलब्ध आंकड़ों और कामकाजी महिलाओं के साथ बातचीत पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि उत्पीड़न के मामलों में वृद्धि हुई है। वर्ष 2014 से 2015 के बीच, कार्यालय परिसर के भीतर यौन उत्पीड़न के मामले दोगुने हुए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार यह संख्या 57 से 119 हुई है। कार्य से संबंधित अन्य स्थानों पर यौन उत्पीड़न के मामलों में 51 फीसदी की वृद्धि हुई है। यह आंकड़े वर्ष 2014 में 469 से बढ़ कर वर्ष 2015 में 714 हुआ है।

महिलाओं के शील भंग करने के मामले

Source: Crime in India 2014 and 2015, National Crime Records Bureau

लोकसभा में दिसंबर 2016 में दिए गए एक जवाब के अनुसार, वर्ष 2013 से 2014 के बीच, राष्ट्रीय महिला आयोग की शिकायतों में 35 फीसदी वृद्धि दर्ज की गई है। यानी आंकड़े 249 से बढ़ कर 336 हुए हैं।

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, वर्ष 2013-14

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Source: Lok Sabha

संख्या में वृद्धि के बावजूद, चोपड़ा की तरह महिलाओं की शिकायतों पर नियोक्ताओं द्वारा प्रभावी ढंग से निराकरण नहीं किया जाता है या तो नियोक्ताओं को कानून के प्रावधानों की जानकारी नहीं है या फिर उन्हें आंशिक रूप से लागू किया है और यहां तक ​​यदि आंतरिक पैनलों की स्थापना भी की है तो उनके सदस्य ठीक तरह से इस मामले में प्रशिक्षित नहीं है।

इन सब के ऊपर, आज भी यहां के संस्थानों में लैंगिक समानता कम है। इस असमानता को देखना हो तो ‘द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के उस हाई-प्रोफाइल मामला को देखें, जहां एक महिला को स्पष्ट सबूत होने के बावजूद कंपनी के पूर्व महानिदेशक आर के पचौरी के खिलाफ उत्पीड़न के मामले में दो साल तक की लड़ाई लड़नी पड़ी।

ये समस्याएं सिर्फ निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में ही नहीं हैं, बल्कि अपेक्षाकृत नए सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) कंपनियों में भी हैं।

क्यों रिद्धिमा न्याय पाने में रही विफल, निवारण प्रणाली अब भी है दोषपूर्ण

कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के अनुसार, हर निजी या सार्वजनिक संस्थान, जहां 10 या अधिक कर्मचारी काम करते हैं, वहां एक आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) होना अनिवार्य है। हालांकि, 36 फीसदी भारतीय कंपनियां और 25 फीसदी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने आईसीसी का गठन नहीं किया है, जैसा कि, वाणिज्य और उद्योग चैंबर भारतीय महासंघ (फिक्की) द्वारा वर्ष 2015 में किए गए एक अध्ययन ‘फॉस्टरिंग सेफ वर्कप्लेसेज’ से पता चलता है। अध्ययन में शामिल किए गए 120 कंपनियों में से 50 फीसदी से ज्यादा ने स्वीकार किया कि उनके आईसीसी के सदस्य कानूनी रूप से प्रशिक्षित नहीं हैं।

स्वतंत्र लेखक, कुंजिला मैसकिलमनी ने कोलकाता में सत्यजीत रे फिल्म और टेलीविजन संस्थान ( एसआरएफटीआई ) में पढ़ाई के दौरान यौन उत्पीड़िन के खिलाफ शिकायत की थी। वह कहती हैं, “2015 में मैं अपने स्कूल के डीन के पास यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराने गई।

उन्होंने कहा कि संस्थान के पास इस तरह के मामलों से निपटने के लिए कोई तंत्र नहीं है। मुझे कार्यस्थल उत्पीड़न पर कानून के प्रावधानों की जानकारी नहीं थी और मैं निर्देशक के पास गई और उनसे कहा कि हमें इस तरह के मुद्दों का समाधान करने के लिए एक तंत्र की जरूरत है। उन्होंने मुझे बताया कि महिलाओं के लिए यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक आंतरिक समिति पहले से ही संस्थान में मौजूद है। मैं चौक गई कि डीन ने मुझसे झूठ बोला । मैसकिलमनी ने दो मामले दर्ज किए – एक उत्पीड़न का और दूसरा बलत्कार का। उत्पीड़न पर फैसला जुलाई 2016 को सुनाया गया और जिस प्रोफेसर के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था उन्हें सेवानिवृत होने कहा गया। बलात्कार का मामला अब भी कोर्ट में लंबित है। ”

एसआरएफटीआई के अध्यक्ष पार्थ घोष ने एक साक्षात्कार में कहा कि यौन उत्पीड़न की शिकायत उनके लिए एक 'नया और चौंकाने वाला "अनुभव" था। घोष ने इसे "अनुशासनात्मक समस्या" के रुप में वर्णित किया, जिस पर संस्था ने कानून के अनुसार कार्यवाही की है।

40 फीसदी आईटी और 50 फीसदी विज्ञापन और मीडिया कंपनियां कानून से बेखबर

दिसंबर 2016 को लोकसभा में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा दिए गए इस जवाब के अनुसार, सभी मंत्रालयों और भारत सरकार के विभागों में आईसीसी का गठन किया गया है। उद्योग निकाय एसोचैम, फिक्की, भारतीय उद्योग परिसंघ, वाणिज्य एवं उद्योग चैंबर, और सॉफ्टवेयर और सेवा कंपनियों के राष्ट्रीय संघ के साथ कारपोरेट मामलों के मंत्रालय को निजी क्षेत्र में प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए अनुरोध किया गया था। नियोक्ता, जो कार्यस्थल पर इस अधिनियम को लागू नहीं करते हैं या यहां तक ​​कि एक आईसीसी का गठन करने में विफल रहते हैं उन पर 50,000 रुपए का जुर्माना लग सकता है। लेकिन पूरी तरह से कानून का पालन नहीं करने वाले नियोक्ताओं की संख्या को देखकर लगता है कि इस मामले में सरकार की ओर से कम ही निगरानी होती है।

निजी क्षेत्र में गैर-अनुपालन की दर उच्च है, जैसा कि ‘अर्न्स्ट एंड यंग’ द्वारा 2015 में किए गए अध्ययन ‘रैनिंग इन सेक्सुअल हरैसमेंट ऐट वर्कप्लेस’ से स्पष्ट होता है। अध्ययन से पता चलता है कि पांच में से दो आईटी कंपनी आईसीसी स्थापित करने की जरूरत से बेखबर थे और 50 फीसदी विज्ञापन और मीडिया कंपनियों में आईसीसी के सदस्यों को प्रशिक्षित नहीं किया जा सका था।

तीन साल पहले मीरा कौशिक (बदला हुआ नाम)ने एक कॉपीराइटर के रूप में पुणे की एक मीडिया और विज्ञापन कंपनी में काम शुरू किया था। नौकरी में साक्षात्कार के समय वह बेहद असहज हो गई थी, जब नियोक्ता ने उन्हें मुस्कुराने पर मजबूर किया था। वह बताती हैं, “एक दिन जब मैं काम पर थी और थोड़ी परेशान थी तो मेरे बॉस ने मेरी परेशानी का कारण पूछा। उन्होंने मुझे मुस्कुराने और बालों को खुला रखने के लिए मजबूर किया। मैंने महसूस नहीं किया कि यह उत्पीड़न है। इस तरह की अभिव्यक्ति अक्सर कार्य संस्कृति का एक हिस्सा माना जाता है। मैंने विरोध नहीं किया, क्योंकि मुझे अपनी नौकरी खोने का डर था। ”अंत में कौशिक को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी।

कार्यस्थल पर उत्पीड़न की रिपोर्ट करने में महिलाएं क्यों होती हैं विफल

अनघा सरपोतदार एक शोधकर्ता हैं ,जो कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न मामलों पर काम करती हैं । सरपोतदार कहती हैं, “अपनी छवि की रक्षा करने के लिए नियोक्ताओं द्वारा रिपोर्टिंग को हतोत्साहित करना गलत है।“कम या कोई रिपोर्टिंग नहीं, संस्थान की लिंग संवेदनशीलता को बताता है। इसके अलावा, महिलाओं को उत्पीड़न की शिकायत कहां करनी है, यह जानकारी नहीं होती है या यह भी हो सकता है कि ऐसे मामले ईमानदारी के साथ उठाए नहीं जाते हों। अक्सर महिलाएं समिति के पास जाती हैं, जिन्हें वे स्वतंत्र समझती हैं । लेकिन बाद में उसे अपने वरिष्ठ अधिकारियों के हाथों की कठपुतलियों के रुप में पाती हैं। ”

चोपड़ा ने बताया कि हालांकि उसके अनुबंध में यौन उत्पीड़न के खिलाफ 'सख्त कार्रवाई' का वादा किया गया था, लेकिन उससे पहले कार्यस्थल पर इस मुद्दे के बारे में जागरूकता बहुत कम थी। और जागरुरकता पैदा करने के लिए कोई प्रयत्न भी नहीं किए जा रहे हैं।

दिल्ली की वकील शिखा छिब्बर कहती हैं, “कानून के तहत, कार्यस्थल के एक विशिष्ट स्थान पर यौन उत्पीड़न की दंडात्मक परिणाम भुगतने की सूची और जानकारी प्रदर्शित करने का निर्देश है। इसके अलावा आईसीसी को सभी सरकारी विभागों और मंत्रालयों में यौन उत्पीड़न के संबंध में जागरूकता पैदा करने के लिए निर्देशन का आदेश भी है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। ”

मैसकिलमनी ने कहा कि उनकी सुनवाई के दौरान घटना के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया गया। वह कहती हैं, “सभी संकाय सदस्य और प्रशासन मेरे खिलाफ हो गए थे । मैं सोशल मीडिया पर एक फूहड़ पात्र के रूम में दिख रही थी। मैं शर्मिंदा थी। यही वह समय था जब मैंने एक गैर सरकारी संगठन से प्रक्रिया की देखरेख और एक निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए एक बाहरी सदस्य नियुक्त करने के लिए संपर्क किया। ”

जैसा कि, सरपोतदार ने कहा, कई संगठनों के लिए, कार्यस्थल पर उत्पीड़न के खिलाफ प्रशिक्षण सत्र मात्र बॉक्स में चिन्ह लगाने की कवायद भर है। वह कहती हैं, “ऐसे कानून को लागू करने के लिए लैंगिक समानता पर नजरिये की कमी है।”

(चचरा दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एमफिल की छात्रा हैं। इससे पहले वे कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव से साथ जुड़ी थीं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 4 मार्च 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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