केरल के एक जिले के स्कूलों में प्रवासी बच्चों की मदद कर रहा है एक कार्यक्रम
एर्नाकुलम (केरल): ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले के एक प्रवासी 24 वर्षीय सुप्रिया देबनाथ मध्य केरल के एर्नाकुलम जिले के एडापल्ली में अपर प्राइमरी सरकारी स्कूल के एक कोने में एक नीले और सफेद सलवार कमीज में बैठी थीं। उसके माथे पर चंदन की पतली ऊर्ध्वाधर लकीर नजर आ रही है। उनके बगल में, पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद जिले की एक प्रवासी 27 वर्षीय हसीना खातून अपने सहयोगियों को बात-चीत करते बड़े ध्यान से सुन रही है, जो मलयालम सीखने के लिए प्रवासी श्रमिकों के बच्चों के स्कूल में बने रहने में मदद करने वाली एक परियोजना, रोशनी नामक एक कार्यक्रम के तहत, अपने शिक्षण के अनुभवों को साझा कर रही थीं।
देबनाथ और हसीना जैसे गैर-स्थानीय मलयालम भाषी, रोशनी के 40 शिक्षा स्वयंसेवकों में से हैं, जो प्रवासी श्रमिकों के बच्चों को स्थानीय भाषा सीखने और केरल के 38 सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में परीक्षणों में बेहतर प्रदर्शन करने में मदद करते हैं।
केरल श्रम विभाग के लिए गुलाटी इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनेंस एंड टैक्सेशन द्वारा 2013 के एक अध्ययन के अनुसार, लगभग 25 लाख प्रवासी केरल की 8 फीसदी आबादी का गठन करते हैं और 2011 की जनगणना के अनुसार, काम या परिवार के लिए प्रवास करने वाले कुल भारतीय आबादी का यह लगभग 38 फीसदी है। विशेषज्ञों के अनुसार, प्रवासी,जिनके परिवार अपनी जन्मभूमि से बाहर रहते हैं, भविष्य में उनके कौशल और अवसरों को प्रभावित करते हुए, उनके बच्चों में स्कूल छोड़ने की अधिक आशंका रहती है।
केरल में, प्रवासियों का सबसे बड़ा अनुपात पश्चिम बंगाल (20 फीसदी), बिहार (18.10 फीसदी), असम (17.28 फीसदी) और उत्तर प्रदेश (14.83 फीसदी) से है, जैसा कि 2013 के अध्ययन में उल्लेख किया गया है और उनमें से अधिकांश लोगों ने मलयालम में अध्ययन करना चुनौतिपूर्ण पाया है। रोशनी जैसे कार्यक्रम प्रवासी बच्चों के लिए शिक्षा की खाई को कम करने में मदद कर सकते हैं।
शनी, सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में स्वयंसेवकों को 1,000 से अधिक प्रवासी कामगारों के बच्चों की मदद करने के लिए प्रशिक्षित करती है, जहां बच्चों की मातृभाषा सहित, कई भाषाओं के उपयोग के माध्यम से मलयालम सीखा जा सकता है।
इसका नाश्ता घटक यह सुनिश्चित करता है कि बच्चे भूखे न रहें, उपस्थिति बनी रहे, और वे सहजता से स्थानीय संस्कृति को आत्मसात कर सकें।
एर्नाकुलम जिला प्रशासन द्वारा 2017 में शुरू की गई रोशनी परियोजना ने निम्न प्राथमिक से लेकर उच्च विद्यालय तक के 1,265 प्रवासी कामगार बच्चों का समर्थन किया है। जब 2017-18 से तुलना करने पर 2018-19 में 20 स्कूलों में स्कूल छोड़ने वालों की संख्या लगभग आधी (48 फीसदी) घटकर 65 हो गई, जैसा कि कार्यक्रम के आंकड़ों से पता चलता है।
प्रवासियों पर निर्भर है केरल की अर्थव्यवस्था
एर्नाकुलम-स्थित गैर-लाभकारी संस्था, बेनॉय पीटर ऑफ सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड इनक्लूसिव डेवलपमेंट (CMID), के अनुसार, केरल में बड़ी संख्या में श्रमिकों को विदेशों में भेजने के साथ ( सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज़ द्वारा मई 2018 की रिपोर्ट के आधार पर 2013 में 24 लाख श्रमिक भेजे गए ) इसे केरल के आर्थिक गतिविधियों के लिए अन्य भारतीय राज्यों के प्रवासियों की आवश्यकता है।
पीटर कहते हैं, "केरल को प्रवास से काफी फायदा हुआ है। लेकिन शिक्षितों और आबादी के बीच बेरोजगारी को देखते हुए, जो भविष्य में नकारात्मक विकास (पहले से ही दो जिला) देखेंगे, राज्य के लिए प्रवासी श्रमिकों के लिए अपनी आर्थिक गतिविधियों को बनाए रखने की आवश्यकता है।"
केरल आने वाले प्रवासियों की सही संख्या अज्ञात है। सीएमआईडी द्वारा 2017 के एक अध्ययन में अनुमान के मुताबिक अब 11 फीसदी आबादी (35 और 40 लाख के बीच) प्रवासी हो सकती है।
पीटर ने कहा कि "अन्य राज्यों की तुलना में सरकार ज्यादा सक्रिय" है। प्रवासी कल्याण कार्यक्रमों जैसे अपना घर, किराये के आधार पर अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिकों के लिए आवास, और स्वास्थ्य बीमा योजना - आवाज और रोशनी जैसी शिक्षा योजनाएं प्रवासियों के लिए हैं।
इससे प्रवासी बच्चों को स्कूल में रहना आसान हो जाता है
"एननिकु मलयालम एएनयू ईजी (मुझे मलयालम आसान लगता है)," सुष्मिता ने कहा और उसकी सहपाठी, अंजलि, ने भी सहमती में सिर हिलाया। अंजलि ने हिंदी में बोलने की अनिच्छा के बाद कहा, "पांच साल हो गया है यहां मुझे, इसलिए मलयालम ईजी है।” दोनों उत्तर प्रदेश के वाराणसी से हैं और10 साल की हैं। दोनों बच्चे, एर्नाकुलम के मलयालम-माध्यम बिनानीपुरम गवर्नमेंट हाई स्कूल में अपनी मातृभाषा हिंदी की तुलना में स्थानीय भाषा बोलने में अधिक सहज हैं। वे पिछले डेढ़ दशक से केरल में रह रहे हैं, जब से उनके पिता काम के लिए यहां आए थे। घर पर अपने माता-पिता को छोड़कर उनकी अधिकांश बातचीत मलयालम में होती है।
“सुष्मिता और अंजलि 2015-16 में औपचारिक रूप से लॉन्च होने से पहले मलयालम सीखने के लिए पायलट कार्यक्रम में छात्रों के पहले समूह का हिस्सा थीं”, रोशनी के अकादमिक कोर्डिनेटर जयश्री के. ने इंडियास्पेंड को बताया।
सुष्मिता (बाएं) और अंजलि। दोनों वाराणसी(उत्तर प्रदेश ) से हैं। वे कहती हैं कि वे अपनी मातृभाषा हिंदी की तुलना में मलयालम में अधिक सहजता से बातचीत कर पाती हैं।
सरकार के शिक्षा पोर्टल, समग्र शिक्षा केरल (एसएसके) के आंकड़ों के अनुसार, एर्नाकुलम के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में प्रवासी छात्रों की संख्या एक साल में 44 फीसदी बढ़कर 3,985 हो गई है।
एसएसके के एर्नाकुलम के जिला कार्यक्रम अधिकारी सजॉय जॉर्ज ने इंडियास्पेंड को बताया, “हमारा सर्वेक्षण प्रत्येक वर्ष 150 से 200 के बीच प्रवासी बच्चों को पाता है, जो स्कूल से बाहर हैं। इस साल (2019-20) हमने 160 पाया। अक्सर ये बच्चे पहली पीढ़ी के स्कूल जाने वाले होते हैं।"
समग्र शिक्षा केरल के जिला कार्यक्रम अधिकारी सजॉय जॉर्ज कहते हैं,” हर साल लगभग 150-200 प्रवासी बच्चे स्कूल से बाहर होते हैं, और अक्सर स्कूल जाने वाले पहली पीढ़ी होते हैं।”
प्रवासी काम की प्रकृति के साथ बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाना, एक बड़ी चुनौती है। अक्सर प्रवासी परिवार पारिवारिक कार्यों या त्यौहारों के लिए अपने गृह राज्य लौट जाते हैं और बच्चों को वहीं छोड़ कर वापस आते हैं।
इसके अलावा, अगस्त 2018 बाढ़ की तरह प्राकृतिक आपदाएं, प्रवासन पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। 2018-19 में, बाढ़ के कारण नौकरी छूटने के कारण 26 छात्रों ने भी स्कूल छोड़ दिया, पारिवारिक मुद्दों के कारण 24, और मौसमी त्योहारों के कारण 15 छात्रों ने स्कूल छोड़ा है, जैसा कि 20 स्कूलों के लिए रोशनी कार्यक्रम के आंकड़ों से पता चलता है।
जार्ज ने कहा, “यहां तीन प्रकार के प्रवासी श्रमिक हैं; जो लोग काम के लिए आते हैं और बस जाते हैं, वे जो अस्थायी रूप से काम करते हैं, और मौसमी प्रवासी। प्रवासी छात्र ड्रॉप-आउट दर प्रवास की प्रकृति पर निर्भर करता है।”
मोहम्मद दिलशाद, जिनका परिवार केरल में वर्षों से रह रहा है, जैसे बच्चों को कार्यक्रम से लाभ हुआ है। उन्होंने सभी विषयों में ए + के साथ स्कूल में टॉप किया। हालांकि वह 2015 में पायलट के शुरू होने पर मलयालम जानता था, "इससे उसे गाने और कविताएं सीखकर अपने मलयालम कौशल को सुधारने में मदद मिली"।
बिहार के दरभंगा जिले के प्रवासियों में से एक के सबसे बड़े बेटे और पहली पीढ़ी के छात्र दिलशाद बड़े होने पर इंजीनियर बनना चाहते हैं। उनके पिता, मोहम्मद साजिद अशिक्षित हैं, एर्नाकुलम में एक जूता कारखाने में काम करते हैं और सात लोगों के परिवार के लिए एकमात्र कमाऊ सदस्य हैं। दिलशाद की मां आबिदा खातून ने समस्तीपुर के अपने गांव में एक मदरसे (इस्लामिक शिक्षण के लिए स्कूल) में पढ़ाई की है।
मोहम्मद दिलशाद ने कक्षा 10 की परीक्षा में अपने मलयालम माध्यम हाई स्कूल बिनानीपुरम में टॉप किया। वह दरभंगा, बिहार से अनपढ़ माता-पिता के पांच बच्चों में सबसे बड़े हैं।
केरल में दो दशक से अधिक समय तक रहने वाले खातुन ने इंडियास्पेंड को बताया, "मुझे अब भी मलयालम बोलना मुश्किल लगता है, हालांकि अब पहले से बेहतर बोलती हूं। बिहार की तुलना में यह जगह शांतिपूर्ण है।
अपनी सीमित शिक्षा के बावजूद आबिदा चाहती है कि उसके बच्चे पढ़ाई करें।
आबिदा ने बताया, “हमने दिलशाद की ट्यूशन पर 200 रुपये महीने खर्च किए, जब उसने स्कूल जाना शुरू किया। हमने शायद ही कुछ बचत की हो। अब भी वही हालात हैं। लेकिन मैं चाहती हूं कि मेरे सभी बच्चे पढ़े और अपनी इच्छा के मुताबिक आगे बढ़ें।”
दिलशाद की सहपाठी और पड़ोसी, दरकशाह परवीन ने कहा, "बिहार से आने के बाद जब मैंने कक्षा 5 में बिनानीपुरम स्कूल में दाखिला लिया तो चित्र और ड्रॉइंग के माध्यम से मलयालम सीखने में मदद मिली।" परवीन, जो एक फैशन डिजाइनर बनने के लिए पढ़ाई कर रही है, का मानना है कि रोशनी जैसे कार्यक्रम से प्रवासी छात्रों को मदद मिलती है। माता-पिता से बात करने के अलावा, वे अन्य किसी से भी हिंदी में बात करना पसंद नहीं करते हैं।
रोशनी की बुनियाद
रोशनी के अकादमिक कोर्डिनेटर जयश्री कहती हैं, “जब मैं 2014 में बिनानीपुरम में एक उच्च प्राथमिक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था, तो मैंने देखा कि स्कूल में 50 फीसदी से अधिक बच्चे प्रवासी बच्चे थे और उन्हें मलयालम सीखने में परेशानी हो रही थी, और इसलिए स्कूल में अन्य विषय समझने में भी कठिनाई थी, जो मलायाम माध्यम से थे।”
हेडमास्ट्रेस द्वारा अधिकारियों को प्रवासी बच्चों की उच्च संख्या के बारे में सूचित करने के बाद भी समस्याएं बनी रहीं। एक स्वयंसेवक इन छात्रों को मलयालम में मदद करता था। बड़ी संख्या में प्रवासी बच्चों के साथ स्कूल के शिक्षकों से संवाद करने में मदद के लिए, 2008 से, सर्व शिक्षा अभियान (SSA) के स्कूलों में स्वयंसेवक हैं। फिर भी, प्रवासी बच्चों को स्कूल में मलयालम माध्यम होने के कारण विषय समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ता था।
सितंबर 2015 में, एक शोध समूह की स्थापना हुई। हेडमिस्ट्रेस, कक्षा शिक्षक, एसएसए के एक स्वयंसेवक और एक शिक्षक शोधकर्ता के रूप में जयश्री ने 11 प्रवासी श्रमिकों के बच्चों ( ज्यादातर हिंदी भाषी ) को मलायम सीखने में मदद के लिए बिनानीपुरम स्कूल में एक पायलट प्रोजेक्ट विकसित किया।
जयश्री कहती है, “चुनौती यह थी कि स्कूलों में शिक्षक एकभाषी हैं, और बच्चों की भाषा में संवाद करने में वे सक्षम नहीं हो सकते हैं। यह अभी भी एक मुद्दा है, लेकिन स्वयंसेवक मदद करते हैं। हम गीत या लोरी के माध्यम से एक नवजात शिशु से बात करते हैं। उसी तरह जब हम स्कूल में दाखिला लेते हैं, तो हम किसी बच्चे से भाषा सीखने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। यह अवैज्ञानिक है। ”
प्रोजक्ट पायलट के दौरान, जयश्री ने धीरे-धीरे प्रत्येक दिन क्लास इंटरैक्शन और शिक्षकों से बातचीत के आधार पर शिक्षण मॉड्यूल और शिक्षा पद्धति विकसित की। जयश्री ने बताया, “केरल में प्राइमरी स्कूल के छात्रों को मलयालम सिखाने के लिए पहले से ही एक कार्यक्रम [मलयालथिलक्कम] था। मैं प्रवासी बच्चों के लिए ग्राफिक रीडिंग को शामिल करने के लिए मॉड्यूल को विकसित करने में कामयाब रहा।” भाषाविद् के. एन. आनंदन के मार्गदर्शन में रोशनी के लिए शिक्षा पद्धति विकसित की गई थी।
इस पद्धति में, शिक्षक प्रवासियों की भाषा से मलयालम में ‘कोड स्विच’करता है और वाक्य लिखते हैं, ग्राफिक चित्र, गीत, आदि का उपयोग करते हैं, ताकि बच्चे एक वाक्य में अक्षरों को पहचान सके और प्रवीणता विकसित कर सके।
जयश्री के अनुसार,तीन महीनों में, दिसंबर 2015 तक, बच्चों ने फोनेमिक अवेयरनेस (बोले गए शब्दों में सुनने और सुनने में हेरफेर करने की क्षमता) विकसित की थी, जिसमें मलयालम में 56 में से 16 अक्षर थे।यह पायलट रोशनी कार्यक्रम में बदल गया।
रोशनी की शैक्षणिक कोर्डिनेटर जयश्री के, जो स्वयंसेवकों और शिक्षण के लिए शिक्षण मॉड्यूल विकसित करने में मदद कर रही हैं, कहती हैं, “हम गाने या लोरी के माध्यम से एक नवजात शिशु से बात करते हैं। उसी तरह, जब हम स्कूल में दाखिला लेते हैं, तो हम किसी बच्चे से तुरंत भाषा सीखने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। यह अवैज्ञानिक है।"
अक्टूबर 2017 में, एर्नाकुलम के पूर्व जिला कलेक्टर मोहम्मद सफिरुल्ला को परियोजना के बारे में सूचित किया गया था।रोशनी के पहले चरण के लिए, बिनानीपुरम में चार स्कूलों को शॉर्टलिस्ट किया गया था। रोशनी के लॉन्च के साथ, भाषा-आधारित हस्तक्षेप जिला प्रशासन के अधीन आ गया है, न कि राज्य शिक्षा विभाग के।
सफिरुल्ला ने इंडियास्पेंड को बताया, "यह उनके (बच्चों के) प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए एक अतिरिक्त पैकेज है, न कि समानांतर स्कूलिंग प्रक्रिया। फोकस शुरू में अधिक से अधिक छात्रों तक पहुंचने का था।"
सफिरुल्ला ने कहा, "एक प्राथमिकता वाला क्षेत्र प्रवासी कल्याण था। स्कूल से बाहर रहने वाले प्रवासी श्रमिकों के बच्चों की एक बड़ी संख्या थी। प्रवासी श्रमिक अक्सर अपने दिन की शुरुआत जल्दी करते हैं, और कभी-कभी बच्चों को पर्याप्त पौष्टिक भोजन नहीं मिलता है। मैं यह सुनिश्चित करना चाहता था कि परियोजना में एक खाद्य घटक शामिल किया जाए। ”
लगभग 1 करोड़ रुपये की लागत वाली यह परियोजना, जिले की शिक्षा निधि द्वारा और भारत पेट्रोलियम के कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) फंड द्वारा आंशिक रूप से समर्थित है। भोजन घटक में प्रत्येक बच्चे के लिए 20 रुपये और प्रति दिन प्रति विद्यालय खाना पकाने के शुल्क के रूप में 100 रुपये शामिल हैं। इसमें स्टेश्नरी और शिल्प के लिए औसतन 20 रुपये प्रति बच्चा भी शामिल है।
जयश्री कहती हैं, "भोजन घटक को सुबह स्कूल जाने के लिए बच्चों के लिए एक प्रोत्साहन माना जाता है, क्योंकि रोशनी की नियमित कक्षाएं सुबह 10 बजे शुरू होने से 90 मिनट पहले शुरू होती हैं।"
बीपीसीएल के मैनेजर सीएसआर एंसी जॉनसन ने इंडियास्पेंड को बताया, "हम रोशनी को एक फ्लैगशिप प्रोजेक्ट के रूप में देखते हैं। अक्सर कंपनियां पूंजीगत व्यय में निवेश करती हैं, लेकिन यहां प्रभाव अधिक है।"
परियोजना 2018-19 में दूसरे चरण में 20 स्कूलों में विस्तारित हुई, और तीसरे चरण में 2019-20 में 38 हो गई।
“ हालांकि, ‘इरादा सकारात्मक है”, सीएमआईडी के पीटर जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि रोशनी के प्रभाव के बारे में निर्णय लेना जल्दबाजी होगी, हालांकि जब इस तरह का हिसाब होगा तो रोशनी का प्रभाव और 2008 से अब तक चल रहे सरकारी कार्यक्रम पर इसका प्रभाव दोनों को देखा जाएगा।
दोनों कार्यक्रमों ,एक को तीन स्वयंसेवकों के साथ 2008 में शुरू किया गया था, और रोशनी का उद्देश्य प्रवासी बच्चों की मदद करने का था, उन्हें ‘सिंक्रनाइज़ेशन से बचने और डी-डुप्लिकेश्न से बचने’ के लिए बाद के चरण में परिवर्तित किया जा सकता है, जैसा कि, जिला कलेक्टर एर्नाकुलम एस सुहास ने कहा।
भाषा को सीखना आसान
शिक्षा स्वयंसेवक देबनाथ ने कहा, "मलयालम सीखना मुश्किल है।" “हां, मेरा मतलब है, नालू का मतलब चार है, नाल्ले का मतलब कल है। इसी तरह वल्लम का मतलब नाव है और पानी को वेलम कहा जाता है। यह पहली बार में बहुत भ्रामक है, ”हसीना ने मुस्कुराते हुए कहा। हसीना के पति, मफ़ीकुल मोंडल ड्राइवर हैं और शादी के बाद जब वह यहां आई, तो वह बंगाली, हिंदी ही जानती थी, मलयालम नहीं। उसने बताया, "मैंने भाषा अवरोध के कारण खुद को घर तक ही सीमित कर लिया था।"
सुप्रिया देबनाथ (बाएं), ओडिया और हसीना खातुन, बंगाली बोलती हैं। दोनों रोशनी से जुड़ी हैं और प्रवासी बच्चों को मलयालम सीखने में मदद करती हैं।
जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार विवाह महिलाओं के प्रवास का सबसे बड़ा कारण है, और 21.1 करोड़ विवाहित लोगों ने प्रवास का कारण विवाह बताया, उनमें से 97 फीसदी महिलाएं थी।
लेकिन हाई-स्कूल ग्रैजुएट के लिए चीजें बदल गईं , जब उसे अपनी बेटी का स्कूल में दाखिला कराना पड़ा, जहां कई बच्चे बंगाली भाषी थे और हेडमिस्ट्रेस ने उससे सहायता का अनुरोध किया। मलयालम में प्रतिक्रिया देना पसंद करने वाली हसीना ने बताया, “शुरू में मुझे नहीं पता था कि मुझे कैसे और क्या सिखाना है। मुझे बंगाली छात्रों के साथ संवाद करने में मदद करने के लिए कहा गया। लेकिन फिर जैसे-जैसे मैंने क्लास टीचर की मदद करना शुरू किया। मैंने और सीखा, मैंने यह सुनिश्चित किया कि मैं कक्षा एक में अधिक समय बिताऊं, जहां मलयालम की मूल बातें सिखाई जाती हैं।”
इसी तरह, देवनाथ को प्लाईवुड कंपनी में सुपरवाईजर प्रशांत सामल से शादी के बाद अपनी पहली यात्रा के दौरान ही केरल पसंद आ गया था। उन्होंने बताया कि उसे भी एक स्कूल में मदद करने के लिए कहा गया था, जहां ज्यादातर छात्र ओडिया वक्ता थे।
उसने बताया, "मैं बहुत कम मलयालम बोल सकती थी। लेकिन मैंने सोचा था कि सिर्फ बच्चों केवल ओडिया पढ़ाने से बेहतर भविष्य नहीं बनेगा। जब मुझे रोशनी के लिए स्वयंसेवकों के साक्षात्कार कॉल के बारे में पता चला, तो मैंने वीडियो देखकर मलयालम पढ़ना और लिखना सीखना शुरु किया। "
रोशनी की जयश्री ने कहा, "हसीना और सुप्रिया जैसे स्वयंसेवक परियोजना के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि प्रवासी श्रमिकों की संख्या बढ़ रही है।"
वर्तमान में कार्यक्रम में 38 स्कूलों में 40 स्वयंसेवक हैं।दो स्कूल, जिनमें प्रवासी छात्रों की संख्या अधिक है, प्रत्येक में दो स्वयंसेवक हैं। हसीना और देबनाथ को छोड़कर रोशनी के स्वयंसेवक बहुभाषी (हिंदी, अंग्रेजी, तमिल भाषी) हैं और केरल से हैं।उन्हें एसएसए और बीपीसीएल फंड से प्रति माह 10,000 रुपये का भुगतान किया जाता है।
स्वयंसेवकों को शिक्षण मॉड्यूल दिया जाता है और प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है।कक्षा की बातचीत के आधार पर, वे प्रत्येक सप्ताह एक व्हाट्सएप समूह पर अपना प्रतिबिंब साझा करते हैं, जो अन्य स्वयंसेवक से सीख सकते हैं। जयश्री ने कहा, "मैं अपने मुद्दों के आधार पर स्वयंसेवकों की मदद करने के लिए महीने के दौरान प्रतिक्रिया भी साझा करता हूं।"
जबकि हसीना साथी प्रवासियों के बच्चों को पढ़ाकर अपने कौशल में सुधार कर रही है। उसे खुशी है कि उसकी बेटी अलीवा स्कूल में अच्छा कर रही है- “उसे पुरस्कार मिले हैं। महत्वपूर्ण रूप से वह मलयालम और चार अन्य भाषाओं (हिंदी, अंग्रेजी, बंगाली और अरबी) को जानती है। मैं अक्सर मलयालम में उसकी मदद लेती हूं।
चालीस शिक्षा स्वयंसेवक एर्नाकुलम में 38 सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों में पढ़ाते हैं।उनके काम से 1,000 से अधिक प्रवासी बच्चों को स्थानीय भाषा सीखने और स्कूल में रहने में मदद मिली है।
स्केलेबिलिटी और स्थिरता
परियोजना के लिए धन और गति सुनिश्चित करना जारी है, भले ही प्रमुख अधिकारियों को जिला प्रशासन में स्थानांतरित किया गया हो, जैसा कि पूर्व जिला कलेक्टर सफिरुल्लाह ने कहा। शिक्षा स्वयंसेवकों के वेतन के लिए धनराशि को सीएसआर फंड उपलब्ध होने पर विचार करने में समस्या नहीं होनी चाहिए। सफिरुल्ला ने कहा, "आवश्यक धनराशि छोटी है, जिसे सरकार आवश्यकता पड़ने पर वहन कर सकती है, लेकिन प्रभाव बहुत अधिक है।"
"भाषा(स्थानीय) संस्कृति का प्रवेश द्वार है और रोशनी स्थानीय संस्कृति को आत्मसात करने वाली प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी की मदद करेगी।" अगर सरकार अन्य जिलों में परियोजना का विस्तार करने की योजना बना रही है तो "इसे चरणों में किया जाना चाहिए", उन्होंने कहा। चूंकि उन जिलों पर ध्यान केंद्रित करना अधिक प्रभावी हो सकता है, जिनमें प्रवासियों की आबादी अधिक है।
प्रवासी कामगार समुदाय के अधिक शिक्षा स्वयंसेवक या जो बच्चों की भाषा बोल सकते हैं, उन्हें हसीना और देबनाथ की तरह शामिल किया जाना चाहिए, जैसा कि थिंक टैंक सीएमआईडी के पीटर ने बताया।
सरकार का शिक्षा विभाग और समग्र शिक्षा केरल, पेरुम्बावूर में एक ब्रिज कार्यक्रम विकसित करने की योजना बना रही है , जहां प्रवासी परिवारों की उच्च आबादी है , जिससे मौसमी प्रवासियों के बच्चों को स्कूलों में आत्मसात करने में मदद की जा सके । समग्र शिक्षा केरल के जिला कार्यक्रम अधिकारी जॉर्ज ने कहा, "हम अगले कुछ महीनों में रोशनी से अन्य जिलों में साझा की जाने वाली सर्वोत्तम प्रथाओं सहित ब्रिज सामग्री बनाने की भी योजना बना रहे हैं।"
एर्नाकुलम के जिला कलेक्टर सुहास ने इंडियास्पेंड को बताया, "अगर हम सफलतापूर्वक दिखा सकते हैं कि एक साल में रोशनी को जिले भर में बढ़ाया जा सकता है, तो यह राज्य भर में क्यों नहीं किया जा सकता है।"
(पालियथ विश्लेषक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 16 अगस्त 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।
हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।