कोविड-19 के बीच डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं यूपी के प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र
लखनऊः उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के जमड़वा गांव के रहने वाले राहुल यादव (34) आजकल बहुत ख़ुश हैं। राहुल यादव दूसरी बार पिता बनने वाले हैं। उनकी पत्नी गर्भवती हैं। लेकिन चेहरे की इस ख़ुशी के साथ ही राहुल के माथे पर चिंता की लकीरें भी हैं। राहुल को अपनी पत्नी की प्रसव पूर्व जांच करानी थी लेकिन जब वो अपनी पत्नी को लेकर गांव के निकटतम सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) पर पहुंचे तो पता चला कि इस केंद्र को कोविड अस्पताल में बदल दिया गया है। राहुल के घर के आसपास यही एक स्वास्थ्य देखभाल केंद्र है।
“मेरी पत्नी मां बनने वाली है लेकिन कोरोना की वजह से डॉक्टर ही नहीं मिल रहे हैं कि उसका चेकअप कराएं। बड़े अस्पताल (सीएचसी) में तो कोरोना के मरीज़ हैं और ज़िला अस्पताल गांव से दूर पड़ता तो बार-बार जाया नहीं जा सकता है वो भी इस आफ़त में,’’ राहुल यादव ने बताया।
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में पहले से ही डॉक्टरों की भारी कमी है। अब कोरोनावायरस महामारी ने इस संकट को और बढ़ा दिया है। समय-समय पर कई सरकारी रिपोर्ट में राज्य में डॉक्टरों की इस कमी की तरफ़ इशारा किया जाता रहा है। रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2018-19 के अनुसार राज्य के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों के 30% और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 82% पद ख़ाली हैं।
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ही ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का ज़रिया हैं। 30 हज़ार की जनसंख्या पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 1.2 लाख की जनसंख्या पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना का प्रावधान है। हर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के तहत 4 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आते हैं।
गांव में जहां एक ओर कोरोनावायरस के संक्रमण का डर है वहीं दूसरी ओर कोई और बीमारी होने पर इलाज के लिए कहां जाएं, यह भी एक बड़ी समस्या है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में इलाज कराने वाली ग्रामीण क्षेत्रों की ज़्यादातर आबादी अब यहां जाने से भी कतराती है। स्टाफ़ कम होने की वजह से यहां काम करने वाले डॉक्टर दिन-रात ड्यूटी कर रहे हैं। रोज़ाना के इनके कामों के अलावा, कोरोनावायरस की रोकथाम में भी इनकी ड्यूटी लगी है।
ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी
उत्तर प्रदेश में 2,936 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर डॉक्टरों के लिए 4,509 स्वीकृत पद हैं लेकिन डॉक्टरों की कमी का आलम यह है कि राज्य के सभी पीएचसी में कुल मिलाकर लगभग 30% डॉक्टरों के पद ख़ाली हैं।
राज्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों का हाल तो और भी बुरा है।कुल 679 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 2,716 डॉक्टरों की ज़रूरत है, इन केंद्रों के लिए 2,099 पद स्वीकृत हैं लेकिन कुल 484 डॉक्टर ही तैनात हैं। राज्य के सभी सीएचसी में जितने डॉक्टरों की ज़रूरत है उनमें लगभग 82% डॉक्टरों की कमी है। स्वीकृत पदों के हिसाब से देखा जाए तो सिर्फ़ 23% डॉक्टरों के साथ ही यह केंद्र काम कर रहे हैं। पीएचसी और सीएचसी में डॉक्टरों की कमी के ये आंकड़े रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2018-19 की रिपोर्ट से लिए गए हैं।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़़ेशन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के हिसाब से हर 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर का अनुपात होना चाहिए। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ है, 2011 की जनगणना के अनुसार। इस हिसाब से राज्य में कम से कम 20 लाख डॉक्टर होने चाहिए। लोकसभा में 7 फ़रवरी 2020 को पेश आंकड़ों के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में 30 सितंबर 2019 तक 81,348 एलोपेथिक डॉक्टर ही रजिस्टर्ड थे। यानी राज्य में ज़रूरत के हिसाब से लगभग 60% डॉक्टरों की कमी थी। ग्रामीण क्षेत्रों में हालात ज़्यादा ख़राब हैं। राज्य की 75% से ज़्यादा आबादी गांवों में रहती है। जहां लोग स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पीएचसी और सीएचसी पर निर्भर करते हैं। ग्रामीण इलाक़ों में पीएचसी और सीएचसी दोनों को मिलाकर कुल 3,664 डॉक्टर ही उपलब्ध हैं। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों की जनसंख्या 15.5 करोड़ है।
लेकिन उत्तर प्रदेश में चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशक डॉ. देवेन्द्र सिंह नेगी राज्य में डॉक्टरों की कमी से इंकार करते हैं। “हमारे पास अभी पर्याप्त डॉक्टर और अस्पताल हैं इसीलिए यूपी में कोविड का इलाज भी अच्छा हो रहा है और लोग तेज़ी से ठीक होकर अपने घर जा रहे हैं, हम आगे की व्यवस्था पर ध्यान दे रहे हैं कि स्थिति ऐसे ही नियंत्रण में रहें,” डॉ. देवेन्द्र सिंह नेगी ने इंडियास्पेंड से कहा।
उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य सुविधाओं पर जारी सीएजी की एक रिपोर्ट के अनुसार, डॉक्टरों की कमी की वजह से राज्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर एक मरीज़ को देखने में डॉक्टर 5 मिनट से भी कम का समय लेते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य सेवाएं
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों को लेकर अलग-अलग मानक तय किए गए हैं। मैदानी क्षेत्रों में 5,000 की जनसंख्या पर एक उप केन्द्र, 30,000 की जनसंख्या पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 120,000 की जनसंख्या पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए। हर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के तहत 4 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आते हैं।
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 4 से 6 बेड वाली स्वास्थ्य सेवा होती है। यहां कुल 15 लोगों की टीम होती है जिसमें एक मेडिकल ऑफ़िसर और 14 पैरामेडिकल स्टाफ़ होता है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में ये स्टाफ़ बढ़कर 25 हो जाता है, जिसमें 4 मेडिकल स्पेशिलस्ट होने ज़रूरी होते हैं, इनमें एक सर्जन, एक फ़िज़ीशियन, एक प्रसूति रोग विशेषज्ञ और एक बाल रोग विशेषज्ञ होता है।
रायबरेली ज़िले का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र । फोटो- श्रृंखला पांडेय
24 घंटे ड्यूटी करने को मजबूर हैं डॉक्टर
स्वास्थ्य सेवाओं में पहले से ही पिछड़े उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों का हाल कोरोनावायरस के दौर में और भी बदहाल है। यहां पहले से डॉक्टरों की कमी थी और अब कोरोनावायरस के दौर में स्थिति और भी गंभीर हो गई है।
“एक महीना हो गया है, घर गए हुए, कोविड के मरीज़ों के बीच ड्यूटी करने के बाद घर जाने से भी डर लगता है और जब रोज़ यहीं आना हो तो घर वालों के लिए ख़तरा बढ़ जाता है,” लखनऊ ज़िले के गोसाईंगंज ब्लॉक के सीएचसी में तैनात डॉक्टर हेमंत ने बताया।
“24 घंटे की ड्यूटी है, रविवार की छुट्टी भी नहीं है। हमारे अस्पताल में तीन पुरुष और एक महिला डॉक्टर हैं। महिला डॉक्टर मैटरनिटी लीव पर हैं, दो डॉक्टर कोरोनावायरस से संक्रमित होने की वजह से होम आइसोलेशन में हैं। मैं अकेला ही हूं, कोविड में भी ड्यूटी करनी है और ओपीडी भी देखनी है,” गोंडा ज़िले के कर्नलगंज सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के डॉ एके चंद्रा ने बताया।
गोंडा ज़िले के कर्नलगंज ब्लॉक में तैनात डॉ एके चंद्रा के ऊपर कोरोनाकाल में पूरे अस्पताल की ज़िम्मेदारी हैं उनके दो सहयोगी डॉक्टर संक्रमित हैं और महिला डॉक्टर मेटरनिटी लीव पर हैं। फोटो- श्रृंखला पांडेय
“अब जो सरकारी डॉक्टर हैं उनसे ही काम कराना है क्योंकि प्राइवेट का कोई रोल नहीं है। अब उन्हीं डॉक्टरों की ड्यूटी लगाई जा रही है, कोशिश की जाती है कि काम का बोझ न बढ़े लेकिन ये समय ऐसा है कि हर किसी पर काम का बोझ बढ़ ही रहा है,” सीतापुर ज़िले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. आलोक वर्मा ने कहा।
कोविड के साथ इमरजेंसी सेवाएं देखना हो रहा मुश्किल
ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में से अधिकतर को कोविड अस्पतालों में बदल दिया गया है। पूरे ब्लॉक में एक ही सामुदायिक स्वास्थ्य केंन्द्र होता है। अब यहां डॉक्टरों को कोविड के साथ बाकी इमरजेंसी केस भी देखने होते हैं।
“दिन भर हम कोरोना की ड्यूटी करते हैं कि किस गांव में सैंपल लेने के लिए टीम भेजनी है, अगर कोई पॉज़िटिव मिलता है तो वो जिस-जिस से मिला, उन सबको ढूढकर उनका टेस्ट कराना। ये सारा काम सीएचसी के मेडिकल स्टाफ़ को ही दिया गया है। अब इसके बाद दोपहर से इमरजेंसी केस आने लगते हैं, उन्हें भी देखना होता है। इस तरह काम बहुत ज़्यादा बढ़ गया है,” शाहजहांपुर ज़िले के काठ ब्लॉक में तैनात चिकित्सा अधीक्षक डॉ ज़फ़र ने बताया।
कोविड की ड्यूटी के बाद इमरजेंसी सेवाओं को देखना डॉक्टरों के लिए अब मुश्किल हो रहा है। तस्वीर गोंडा ज़िले के एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र की है। फोटो: श्रृंखला पांडेय
मेडिकल स्टाफ़ की कमी की वजह से नहीं हो रहा गाइडलाइंस का पालन
स्वास्थ्य मंत्रालय की गाइडलाइंस के अनुसार 300 बेड वाले अस्पताल में दो डॉक्टरों की ड्यूटी सिर्फ़ छह घंटे के लिए एक साथ लगाई जाएगी। उसमें चार स्टाफ़ नर्स व चार लैब टेक्नीशियन होंगे। लेकिन स्टाफ़ की कमी की वजह से यह संभव नहीं हो पाता है।
“गाइडलाइंस के हिसाब से 25 लोगों की पूरी टीम होनी चाहिए। अब इसमें अगर 50% से ज़्यादा बेड पर मरीज़ हो जाने पर सभी डॉक्टरों की ड्यूटी लगानी होगी और अगर 50% से कम मरीज़ हैं तो एक डॉक्टर, एक स्टाफ़ नर्स को कम कर दिया जाता है। इसके अलावा हर डॉक्टर को एक बार कोरोना में ड्यूटी करनी तय है,” सीतापुर ज़िले में डॉक्टरों की ड्यूटी लगाने वाले एडिशनल सीमएओ डॉ सुरेन्द्र शाही ने बताया।
स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में यूपी और बिहार की हालत ख़राब
नीति आयोग की हेल्थ इंडेक्स 2019 में भी यूपी की हालत स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में निचले पायदान पर दिखती है। जबकि केरल इस मामले में सबसे बेहतर राज्य है। इस रिपोर्ट में 2015-16 की तुलना में 2017-2018 में स्वास्थ्य के मामलों में यूपी के प्रदर्शन में 5.08% की गिरावट दर्ज हुई है। ये रैकिंग 21 बड़े राज्यों के स्वास्थ्य मामलों पर की गई थीं जिसमें यूपी और बिहार सबसे निचले पायदान, क्रमश 20वें और 21वें नम्बर पर रहे।
Source: Health index 2019
हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य में डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए जूनियर और सीनियर रेज़िडेंट डॉक्टरों का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ाने का फ़ैसला किया है।
(श्रृंखला, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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