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वर्ष 2014 की आंकड़ों पर नज़र डालें तो देश के बंगलौर शहर में बाल यौन उत्पीड़न मामलों में खासी वृद्धि हुई है। एक प्राइवेट स्कूल में छह साल की बच्ची के साथ 37 वर्ष के शिक्षक के दुष्कर्म का मामला हो या चार साल की मासूम बच्ची के साथ अनजान लागों द्वारा शारीरिक शोषण का मामला हो या फिर 63 वर्ष के शिक्षक द्वारा आठ साल की बच्चीका शोषण का मामला, बंगलौर में इस तरह की घटनाएं आम हो रही हैं।

बाल उत्पीड़न के मामले पर मीडिया में भी खासी बहस छिड़ी हुई है। लेकिन देश में ऐसी कई घटनाएं होती हैं जिन्हें न तो रिपोर्ट किया जाता है न ही उनकी कहीं गिनती होती है।

यदि राषट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों को देखें तो साल 2009 से साल 2014 के दौरान बाल उत्पीड़न मामले में 151फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। साल 2009 में जहां बाल उत्पीड़न के 5,484 मामले दर्ज की गई थी वहीं साल 2014 में 13,766 मामले दर्ज की गई है।

इसके अलावा देश भर में प्रिवेंशन ऑफ सेक्सुअल ऑफेंसेस अगेंस्ट चिल्ड्रेन एक्ट ( पोकसो ) के तहत 8,904 मामले एवं आपीसी की अनुभाग 354 ( जिसमें इरादे से पीछा करना, छिप कर देखना, अपराधिक बल का प्रयोग करना शामिल है ) की “बालिकाओं के साथ अश्लील हरकतें” करने की श्रेणी के तहत 11,335 मामले दर्ज की गई है। यह आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी ) द्वारा जारी की गई है।

एनसीआरबी ने साल 2014 के बाद ही पोकसो विशिष्ट आंकड़ों का संकलन शुरु किया है। पॉस्को अधिनियम के एक सरल व्याख्या यहाँ दी गई है – नए कानून के हिसाब से बाल उत्पीड़न के सभी मामलों की रिपोर्ट करना अनीवार्य किया गया है।

बाल यौन उत्पीड़न के मामले सर्वाधिक मध्यप्रदेश में दर्ज की गई है। इसी मामले में दूसरा स्थान महाराष्ट्र एवं तीसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश है।

बाल यौन उत्पीड़न – पांच साल की प्रवृति

Source: NCRB

बाल यौन उत्पीड़न के टॉप पांच राज्य, 2014

Source: NCRB

पिछले चार सालों में बाल यौन उत्पीड़न मामले में वृद्धि होने के दो मुख्य कारण हैं : पहला मामलों का अधिक रोपर्ट करना एवं विशेषज्ञों के अनुसार दूसरा कारण नए कानून का लागू होना है।

अमित सेन, दिल्ली के बाल एवं किशोर मनोचिकित्सक, के अनुसार “घटना से जुड़े नकारत्मक सोच का कम होने के कारण बाल उत्पीड़न और बलात्कार के मामलों की रिपोर्टिंग अधिक हुई है, निश्चित तौर पर घटनाओं की संख्या में वृद्धि हुई है।”

सोनाली गुप्ता, मुंबई से एक नैदानिक ​​मनोवैज्ञानिक के मुताबिक सामाजिक मीडिया में तेजी से वृद्धि से बाल यौन उत्पीड़न के संबंध में जागरुकता बढ़ी है। सोनाली कहती हैं कि “कई ऐसी नामी गिरामी हस्तियां ( उद्हारण के तौर पर अभिनेत्री कोइचिन )अब सामने आकर अपनी बचपन में हुए उत्पीड़न के विषय में बात कर रही हैं जिससे बच्चों के माता-पिता को यौन उत्पीड़न मामलों को रिपोर्ट करने की प्रेरणा मिल रही है। ”

साथ ही 2012 में पोकसो अधिनियम एवं 2013 में आपराधिक कानून ( संशोधन) अधिनियम के लागू होने के बाद बाल यौन उत्पीड़न एवं बलात्कार के अधिक मामले रिपोर्ट हुए हैं।

बलात्कार की नई परिभाषा

वेद कुमारी, दिल्ली विश्वविद्यालय के फैक्लटी ऑफ लॉ की प्रोफेसर के मुताबिक “बलात्कार की परिभाषा...पहले वर्गीकृत किए गए यौन उत्पीड़न के मुकाबले अब अधिक यौन क्रियाएं शामिल हैं।”वेद कुमारी ने बताया कि कैसे पोकसो अधिनियम के तहत लड़कियों की यौन स्वीकृति की उम्र 16 वर्ष से बढ़ा कर 18 वर्ष कर दिया गया है। इसका मतलब आम सहमति से यौन संबंध रखने वाले लड़कों के साथ बलात्कार का आरोप लगाया जा सकता है।

शयिबा सलदानहा, बंगलौर एंफोल्ड ट्रस्ट, बाल शोषण को रोकने वाली एक संस्था के सह-संस्थापक के अनुसार नए कानून आने के पहले बलात्कार की परिभाषा कुछ ऐसी थी - हमारे यौन अंगों में बग़ैर हमारी मर्ज़ी के किसी अंग या वस्तु का हल्का प्रवेश भी बलात्कार कहलाता है।

सलदानहा ने आगे बताया कि “अब गुप्त अंगों एवं अन्य भागों पर चोट के निशान महत्वपूर्ण साक्ष्य के रुप में माना जाता है। लड़कों के लिए यह और मुश्किल है क्योंकि केवल गंभीर गुदा चोटों को ही साक्ष्य के रूप में विचार किया जाता है।” पोकसो एक्ट के मुताबिक बच्चे की गवाही और परिस्थितिजन्य साक्ष्य सर्वोपरि महत्व रखती है।

ऑड्रे डी मेलो , मुंबई की मजलिस कानून,कानूनी वकालत पर परियोजना निदेशक के अनुसार इन्ही नए कानून, पोकसो एक्ट 2012, के लागू होने का परिणाम है कि अब बाल यौन उत्पीड़न के अधिक मामले दर्ज की जा रही है।

पोकसो एक्ट के तहत यौन उत्पीड़न – टॉप पांच राज्य

Source: NCRB

पोकसो के तहत दर्ज होने वाले मामलों में टॉप राज्य उत्तर प्रदेश है। देश में कुल दर्ज हुए बाल यौन उत्पीड़न मामले में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी 40 फीसदी है। उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान पश्चिम बंगाल एवं तीसरा स्थान तमिलनाडु का है।

हालांकि ग्रामीण इलाकों में कुछ बदलाव देखे गए हैं जोकि मीडिया दबाव, राजनीतिक दिलचस्पी एवं एनजीओ से अनछुए हैं जोकि रिपोर्ट दर्ज कराने में मदद करते हैं।

राकेश सेंगर, परियोजना निदेशक - अभियान और पीड़ित सहायता , बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) , या सेव चाइल्डहुड मूवमेंट, एक गैर सरकारी संगठन, के अनुसार “ग्रामीण इलाकों में पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने में बेहद संकोच करती है। केवल सामूहिक बलात्कार या एक ही व्यक्ति द्वारा कई बलात्कार करने के मामले को महत्व दी जाती है।”

अधिकतर मामलों में करीबी होता है आरोपी

यह माना जाता है कि दस में से नौ बलात्कार एवं यौन उत्पीड़न के मामले पीड़ित के जानने वाले या करीबी होते हैं। यह सत्य बच्चों के मामले में भी लागू होती है।

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक साल 2014 में हुए बाल यौन उत्पीड़न एवं बलात्कार के कुल मामलों में से 86 फीसदी आरोपी, पीड़ित के जानने वालो में से हैं।

RAHAT is a program by Majlis Law to provide socio-legal support to survivors of sexual assault, so that survivors are not traumatised in the course of investigation and prosecution. This is what they found during a study of 644 cases they handled in Mumbai:

  • 51% of the victims were between 11 years and 18 years old
  • 91% of rapes were committed by known persons and involved long-term abuse
  • 46% of family rapes were by fathers

डी’मेलो, कानून के मजलिस के अनुसार, “हम सभी सार्वजनिक स्थलों पर सीसीटीवी कैमरे स्थापित करने और बनाने की बात करते हैं, लेकिन अधिकतर मामलों में बच्चों के परिवार के सदस्यों एवं जानने वाले लोगों द्वारा ही शोषण किया जाता हैइसलिए, हमें काम सही दिशा में ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।”

पूजा तापडिया, संस्थापक, अर्पण, शोषित बच्चों के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संगठन, “हमारे पास जितने भी मामले होते हैं उनमें से अधिकतर मामलों में जानने वाले की आरोपी होते हैं...कुछ ही मामलों में अनजान व्यक्ति आरोपी होते हैं। ”

इसलिए बच्चों के साथ गुणवत्ता समय बिताने के साथ अभिभावकों एवं स्कूलों को यौन शिक्षा देना चाहिए एवं संभव दुरुपयोग के बारे में बात कर उन्हें सशक्त बनाएं।

आरती राजरत्नम , चेन्नई की एक मनोवैज्ञानिक, के अनुसार “बालकामुक लोग ( जैसे करीबी रिश्तेदार, चौकीदार , गार्ड या स्कूल कंडक्टर ) आसानी से बातों में आने जाने वाले बच्चों को निशाना बनाते हैं। जो बच्चे भावनात्मक रूप से कमजोर और जरूरतमंद हैं, या जिनके माता-पिता लंबे समय के लिए घर से बाहर रहते हैं या जो बच्चों के साथ गुणवत्ता समय नहीं बिताते, उनके बालकामुक लोगों का निशाना बनने की संभावना सबसे अधिक होती है।”

पुलिस, न्यायपालिका और अस्पतालों के बच्चों के साथ दुर्व्यवहार से निपटने में संवेदनशीलता की कमी

“बलात्कार से पहले पहने हुए अंदरुनी वस्त्र दिखाओ”। यह जशपुर ( छत्तीसगढ़ ) में 12 साल की बच्ची के साथ हुए दुष्कर्म के बाद पुलिसवाले द्वारा पूछा गया प्रश्न था। यह मामले बीबीए के सेंगर द्वारा सुनाए गए। सेंगर राज्य की पुलिस के साथ कई मामले में काम कर चुके हैं। उन्होंने बताया कि पुलिस अक्सर पीड़ितों को धमकी देती है या बयान वापस लेने का दबाव बनाती हैं। कई मामलों में पुलिस आपी एवं पीड़ित के बीच ब्रोकर भी बनती है।

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक पोकसो एक्ट एवं वर्ष 2014 में आईपीसी की धारा 384 के तहत बाल यौन उत्पीड़न के खिलाफ मामलों के तहत सज़ा दर 31.1 फीसदी, 24 फीसदी एवं 29.3 फीसदी दर्ज की गई है।

संसद में पेश हुए आंकड़ों के मुताबिक, पोकसो एक्ट के तहत अक्टूबर 2014 तक 6,816 एफआईआर दर्ज की गई है। इनमें से 166 अभियुक्तों को दोषी करार दिया गया है। सज़ा का दर 2.4 फीसदी दर्ज की गई है।

आंकड़े भले ही स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन बच्चों के साथ दुर्व्यवहार से निपटने के जो लोग हैं वह निश्चित तौर पर स्पष्ट करते हैं कि असंवेदनशील पुलिस , वकीलों और अप्रशिक्षित अस्पताल के कर्मचारियों की बेकार रवैया अभियोजन और सजा को कठिन बना देते हैं।

POCSO conviction rate
No. of FIRs registeredNo. of cases in which charge-sheets filedNo. of cases in which accused convictedNo. of cases in which accused acquitted
68165340166389

2014No. of cases in which trials completedNo. of convictions%age of conviction
POSCO40610024.6
Rape5527171731.1
Assault on women (girls) with intent to outrage her modesty140441229.3

Source: Lok Sabha; Note: It is possible that cases under IPC 376, IPC 354 and POCSO overlap. For instance, in a single rape case, the police might use either IPC 376 or IPC 376+ POCSO or just POCSO. It depends on the discretion of the investigating officer and other factors.

सेन, दिल्ली के मनोचिकित्सक के मुताबिक, “बाल उत्पीड़न के मामलों को संभालने वाले पुलिस वालों के पास संवेदनशीलता बिल्कुल नहीं है। पोकसो एक अच्छा कानून है लेकिन यह ज़रुरी है कि इसे ठीक प्रकार एवं प्रभावी ढ़ंग से लागू की जाए। ”

चेन्नई के राजारत्नम के मुताबिक कई अदालत की प्रक्रिया के दौरान उन्होंने देखा है कि बचाव पक्ष के वकील पीड़ितों के लिए परिस्थिति को इतना अप्रिय एवं अपमानजनक बना देते हैं कि उनकी पीड़ा और बढ़ जाती है। और इन्हीं परिस्थितियों के कारण अधिकतर अभिभावक मामले को आगे न ले जाने का फैसला करते हैं।

मजलिस कानून के डी मेलो का मानना है कि आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता प्रणाली के भीतर ही काम करना है। उन्होंने बताया कि सालों से कैसे मजलिस ने मुबंई के पुलिसवालों को यौन उत्पीड़न मामले को संभालने के लिए प्रशिक्षित किया है एवं पोकसो अधिनियम के प्रावधानों के बारे में अधिकारियों को जागरुक किया है जिससे पीड़ितों के बयान दर्ज कराने में सहायता मिली है।

Pendency In Court Cases For Rapes
YearNo. of cases for trial including pending cases from previous yearPendency at end of yearPercentage pendency
2010171872059483%
2011193942318184%
2012228122697285%
2013281713332885%
2014319763751985%

Source: NCRB

POCSO And Outraging Modesty Cases
Specific actTotal no. of cases for trial including pending cases from previous yearPendency at end of year
POCSO83797970
IPC 354 outraging modesty1316211607

Source: NCRB

यह स्पष्ट है कि इस मामले में काफी काम करने की आवश्यकता है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2014 में,पिछले पांच सालों में दर्ज हुए बाल बलात्कार मामलों में से 85 फीसदी मामले लंबित हैं वहीं पोकसो के 95 फीसदी मामले एवं 88 फीसदी महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामले लंबित हैं।

समर्थन प्रणाली साथ लाना – बंगलौर से सबक

यहां सिर्फ पुलिस एवं न्याय व्यवस्था में ही कमी नहीं हैं बल्कि अस्पलात में भी बाल यौन उत्पीड़न मामलों को संभालने में सुसज्जित नहीं है। अस्पतालों में प्रशिक्षित स्टाफों की कमी है।

एंफोल्ड ट्रस्ट सलदानहा के अनुसार “पुलिस अस्पताल को दोषी बताती है और अस्पताल पुलिस को...एक दूसरे पर दोषारोपण चलता रहता है...इसलिए सभी हितधारकों को साथ लाना आवश्यक है...इसलिए हमने हम सहयोगात्मक बाल प्रतिक्रिया इकाइयों ( सीसीआरयू ) की शुरुआत की है।”

वर्ष 2011 में एंफोल्ड ट्रस्ट ने भारत में पहली बार अस्पतालों में सीसीआरयू की स्थापना की। इन सीसीआरयू का उदेश्य पीड़ित बच्चों को उचित इलाज एवं सामाजिक एवं कानूनी सहायता दिलाना है। एंफोल्ड, कर्नाटक सरकार एवं संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के बीच सहयोग से अब बंगलौर के तीन प्रमुख अस्पतालों में सीसीआरयू चल रहे हैं।

यह केंद्र, पीड़ितों की स्थिति को देखते हुए सलाहकारों, चिकित्सा चिकित्सकों , सामाजिक कार्यकर्ता, न्यायपालिका , कानूनी कार्यकर्ताओं, गैर सरकारी संगठनों और पुलिस को प्रशिक्षित करने का भी काम करते हैं।

स्पष्ट रुप से अस्पताल इस श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी है। शैलेश मोहिते , प्रमुख, नायर अस्पताल , मुंबई में फोरेंसिक विभाग के मुताबिक “यौन उत्पीड़न के मामलों एवं मामले की पूरी विवरण को संभालने के लिए डॉक्टरों को प्रशिक्षित करना आवश्यक है।”चूंकी डॉक्टरों के बयान बेहद महत्वपूर्ण होते हैं इसलिए अदालत में जिरह को संभालने के लिए इनका प्रसिक्षित होना आवश्यक है।

सोशल मीडिया हो सकता है बच्चों के लिए खतरनाक

सोशल मीडिया में हुई तेजी से वृद्धि ने बाल यौन उत्पीड़ने से संबंधित जागरुकता बढ़ाई है लेकिन इसमें दो राय नहीं कि सोशल मीडिया से बच्चों के लिए एक खतरा भी पैदा हो गया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि इंटरनेट की पहुंच पहले से कहीं अधिक हो गई है। अभिभावकों के लिए यह अति आवश्यक है कि वह ऑनलाइन अपने बच्चों की फोटो एवं जानकारियां डालने से पहले अच्छी तरह सोच-विचार लें।

हाल ही में एक वेब पोर्टल, द न्यूज़ मीनट ने कहानियों की श्रृंखला में बताया कि किस प्रकार सोशल मीडिया पर डाली बच्चों की तस्वीरे एवं जानकारियां बालामुकों द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे हैं।

विद्या रेड्डी, चेन्नई स्थित गैर सरकारी संगठन, टूलिर- बाल उत्पड़ीन रोकथाम केंद्र, के मुताबिक “यह अभिभावकों के लिए सचेत होने का समय है। हमारे आस-पास कई ऐसे लोग हैं जो यौन में रुचि रखते हैं...सोशल मीडिया इस बात का सबूत है।”

शक्ति वी , एक लोकप्रिय ब्लॉगर और लेखक ने हाल ही में अपने एक पोस्ट में लिखा है कि किस प्रकारमाता पिता को इंटरनेट तक पहुँचने में अपने बच्चों का मार्गदर्शन करना चाहिए।

शक्ति लिखते हैं कि “कई ऐसे बच्चे हैं जो अपनी गलत उम्र बता कर सोशल मीडिया साइट्स पर नकली अकाउंट बनाते हैं। इस तहर से बच्चों का एक समूह होता है। कई ऐसे बच्चे भी हैं जो डेटिंग साइट्स पर लगातार जाते हैं एवं गलत कामों के अंदर गिरते चले जाते हैं। कुल मिलाकर इसका बुरा परिणाम बच्चों पर पड़ता है। ”

(साहा नई दिल्ली में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 22 अगस्त 15 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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