क्यों बदहाल हैं उत्तर प्रदेश के सरकारी अस्पताल
लखनऊ: उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले के बेलवार गांव के निवासी किशुन गुप्ता ने दो साल पहले अपने छह दिन के बेटे को हमेशा के लिए खो दिया था। उनका बेटा एकदम स्वस्थ पैदा हुआ था और उसे जन्म के बाद कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन जन्म के चौथे दिन अचानक उसे तेज़ बुख़ार आया। उसे लेकर वह तुरंत नज़दीकी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे, पेशे से फ़ार्मासिस्ट किशुन बताते हैं।
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में उन्हें पहले तो डॉक्टर नहीं मिले और जब किसी ने डॉक्टर को फ़ोन कर के बुलाया तो डॉक्टर ने उन्हें दवा और दूसरी चीज़ों के अभाव के चलते किसी प्राइवेट डॉक्टर के पास जाने को कह दिया, 33 वर्षीय किशुन ने बताया।
किशुन अपने बेटे को लेकर तुरंत गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज (बीआरडी मेडिकल कॉलेज) पहुंचे लेकिन उनके बेटे को बचाया ना जा सका। बेटे की मौत के बाद उनकी पत्नी ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया और दो साल के निरंतर इलाज के बाद अब वह कुछ ठीक होती हुई दिखाई दे रही है, किशुन ने बताया।
ये वही वक़्त था जब गोरखपुर का बीआरडी मेडिकल कॉलेज नवजात शिशुओं की मौत की वजह से देशभर के मीडिया में सुर्ख़ियों में आया था। एक ख़बर के मुताबिक़ साल 2017 में जनवरी से अगस्त के बीच बीआरडी मेडिकल कॉलेज में तक़रीबन 1250 शिशुओं की मौत हुई। सिर्फ़ अगस्त के महीने में ही 290 शिशुओं की मौत हुई।
शिशु मृत्यु दर
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्य में शिशु मृत्यु दर चिंता का विषय है। पैदाइश के 28 दिन के अंदर मरने वाले शिशुओं की संख्या 2016 में हर 1,000 शिशुओं पर 30 थी। साल 2015 में यही संख्या 31 थी। केरल में यह स्थिति सबसे बेहतर है जहां यह संख्या सिर्फ 6 है। यह आंकड़ा स्वास्थ्य विभाग की गुणवत्ता दर्शाता है, रिपोर्ट में कहा गया है। लेकिन 2017 में रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय द्वारा सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के अनुसार उत्तर प्रदेश की शिशु मृत्यु दर 41 थी। 2018 में दिमाग़ी बुख़ार यानी एक्यूट एन्सेफ़लाइटिस सिंड्रोम के कारण, उत्तर प्रदेश में 230 बच्चों की मौत हो गई। 2019 में यह संख्या 126 थी।
2019 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट करके लिखा था की “शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, सफ़र हो रहा आसान, विकास के उत्तर प्रदेश गढ़ रहा नए प्रतिमान।”
यूपी के अस्पतालों पर एजेंसियों की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश के अस्पतालों की हालत पर अलग-अलग सरकारी एजेंसियां समय-समय पर रिपोर्ट जारी करती रहती हैं। हाल ही में आई कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ़ इंडिया (सीएजी) की रिपोर्ट् में उत्तर प्रदेश के सरकारी अस्पतालों के कामकाज को लेकर कई सवाल उठाए गए थे। रिपोर्ट में कहा गया था कि यूपी के स्वास्थ्य विभाग ने ना तो केंद्र सरकार के मानदंडों को अपनाया है और ना ही अपने मानदंड तय किए हैं।
जून 2019 में नीति आयोग ने भी राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था पर एक रिपोर्ट जारी की थी। अलग-अलग पैमानों के आधार पर राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर एक रैंकिंग दी गई थी। इसमें तीन श्रेणियां बनाई गईं, ‘बड़े राज्य’, ‘छोटे राज्य’ और ‘केंद्र शासित’ प्रदेश।
अगर हम बड़े राज्यों की लिस्ट देखें, तो इसमें केरल पहले पायदान पर था और आंध्र प्रदेश दूसरे पर। उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य व्यवस्था के मामले में इस लिस्ट में 21वें यानी आख़िरी पायदान पर था। उत्तर प्रदेश का परफ़ॉरमेंस इंडेक्स 28.61 था जबकि लिस्ट में सबसे ऊपर रहे केरल का 74.01।
स्वास्थ्य पर ख़र्च
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वित्त वर्ष 2016-17 में उत्तर प्रदेश ने स्वास्थ्य पर 19,287.1 करोड़ रूपए ख़र्च किए। यह ख़र्च बाकी सभी राज्यों के मुक़ाबले में सबसे ज़्यादा था। देश में सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाला राज्य होने के नाते अगर प्रति व्यक्ति ख़र्च निकाला जाए तो यह 964 रूपए प्रति व्यक्ति बनता है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की 2014-2015 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ स्वास्थ्य पर देशभर का औसत ख़र्च 3,826 रूपए प्रति व्यक्ति था। उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य पर ख़र्च राष्ट्रीय औसत से 4 गुना कम रहा।
अगर डॉक्टरों की संख्या की बात करें तो सितम्बर 2019 तक उत्तर प्रदेश में रजिस्टर्ड डॉक्टरों की कुल संख्या 81,348 थी जो कि महाराष्ट्र (179,783) और आंध्र प्रदेश (100,587) के बाद तीसरे स्थान पर है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ हेल्थ इंटेलीजेंस की एक रिपोर्ट के अनुसार देशभर का औसत 11,082 लोगों पर एक डॉक्टर का है। उत्तर प्रदेश में 1 जनवरी 2016 तक 19962 लोगों पर एक डॉक्टर का औसत था।
जच्चा-बच्चा स्वास्थ्य
साल 2017-18 में उत्तर प्रदेश में इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी यानि किसी भी प्रकार के प्राइवेट या सरकारी अस्पताल में जन्म देने के मामले केवल 50.6 प्रतिशत रहे। यह आंकड़ा 2015-16 से भी कम हो गया। 2015-16 में इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी के मामले 52.4 प्रतिशत थे। यानि की हर दूसरी गर्भवती महिला को नवजात को जन्म देते वक़्त अस्पताल की सुविधा उपलब्ध नहीं रही।
“जनसंख्या दबाव के हिसाब से संसाधन उपलब्ध होने चाहिए। बहुक्षेत्रीय भागीदारी होनी चाहिए जैसे कि ग्राम प्रधान को गांव के विकास के साथ स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना चाहिए। माताओं को उनका अधिकार नहीं पता है। सुविधाओं की कमी से मरने वालों में ग़रीबों की संख्या अधिक है। हालांकि संस्थागत डिलीवरी में पहले से सुधार आया है,” एक समाज सेवी संस्था से जुड़े पी. सिंह ने कहा।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत हर राज्य को फण्ड आवंटित किया जाता है। इस धनराशि का इस्तेमाल राज्य अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने के लिए करते हैं। तेलंगाना और ओडिशा में जहां यह धनराशि मात्र 20 दिन के भीतर आकर विभिन्न विभागों को चली जाती है वहीँ उत्तर प्रदेश में 2017-18 में इसमें 118 दिन का वक़्त लग रहा था। यह स्थिति 2015-16 से भी बद्तर हो गई। 2015-2016 में इसमें 93 दिन का वक़्त लग रहा था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत उत्तर प्रदेश को केंद्र का हिस्सा साल 2007-2008 के 3,050 करोड़ से घटकर साल 2018-2019 में 2,564 करोड़ रुपये रह गया।
“अगर ताज़ा आंकड़े निकाले गए तो मौजूदा स्थिति और बद्तर हो सकती है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सही से काम नहीं कर रहे हैं और मेडिकल कॉलेज के ऊपर अतिरिक्त दबाव डाल दिया गया है,” जाने माने बाल रोग विशेषज्ञ डॉ कफ़ील ख़ान ने कहा। “स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने के लिए सबसे पहले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर ध्यान देना चाहिए। अधिकतर मामलों में पहला संपर्क जनता का प्राथमिक सुविधा केंद्र से ही होता है,” 28 जनवरी को फ़ोन पर दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया।
(आदित्य और सौरभ, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं।)
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