‘गुड-एयर डे’ के लिए तरस रहा है पौराणिक शहर वाराणसी, दिल्ली बदनाम, उत्तर भारत के कई शहर बदतर
पवित्र शहर वाराणसी की हवा आपको सांस लेने की इजाजत नहीं देती। यहां की हवा में जहर की मात्रा लगातार बढ़ रही है। केवल वाराणसी ही क्यों, उत्तर भारत के कई शहरों की हवा दिल्ली से भी बदतर है। यह जानकारी इंडियास्पेंड के सहयोग से तैयार एक नई रिपोर्ट में सामने आई है।
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 में वायु प्रदूषण पर दर्ज आंकड़ों के 227 दिनों में पिछले साल वाराणसी में अच्छी गुणवत्ता वाली वायु शून्य रही, जबकि 263 दिनों में इलाहाबाद में अच्छी गुणवत्ता वाली वायु शून्य रही।
इन दो शहरों में ऐसा एक दिन भी नहीं पाया गया जब हवा में पीएम 2.5 का स्तर राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता के सुरक्षित स्तर से नीचे पाया गया हो। हम बता दें कि वायु में पाए जाने वाले 2.5 माइक्रोमीटर के व्यास के कणिका तत्व को पर्टीकुलेट मैटर या पीएम 2.5 कहा जाता है। यह रिपोर्ट जून 2016 में जारी किए गए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2015 के आंकड़ों पर आधारित है।
‘वाराणसी का दम घुंट रहा है’-‘सेंटर फार एनवायर्नमेंट एंड एनर्जी डेवलपमेंट’(सीईईडी) ‘इंडियास्पेंड’ और ‘केयर4एयर’ द्वारा पेश की गई इस रिपोर्ट के अनुसार यहां पर्टीकुलेट मैटर यानी पीएम 2.5 का राष्ट्रीय सुरक्षित मानक 60μg / घन मीटर, या घन मीटर प्रति माइक्रोग्राम का इस्तेमाल किया गया है। यह स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानक की तुलना में ढाई गुना लचीला है। पीएम 2.5 के लिए डब्लूएओ का 24 घंटे का औसत मानक 25μg / घन मीटर है।
रिपोर्ट से पता चलता है कि वायु प्रदूषण के मामले में लोगों का ध्यान दिल्ली पर केंद्रित है, जबकि कई उत्तर भारतीय शहरों की हवा दिल्ली की तरह खराब या कहीं-कहीं दिल्ली से भी बद्तर है।
वायु गुणवत्ता पर निगरानी रखने के लिए इंडियास्पेंड ने अब तक देश भर के 16 शहरों में #Breathe वायु गुणवत्ता सेंसर लगाए हैं। सिर्फ उत्तर प्रदेश में 25 निगरानी स्टेशन हैं। नवंबर 2016 के बाद से आगरा, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में वायु की गुणवत्ता ‘बहुत खराब’ से ‘गंभीर रूप से खतरनाक’ के बीच दर्ज की गई है। ऐसी हवा में सांस लेना हमारे शरीर और स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।
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यहां एक बार फिर बता दें कि पर्टीकुलेट मैटर हवा में घुले बेहद छोटे कण होते हैं। जिन कणों का व्यास 2.5 माइक्रोमीटर से कम होता है, उसे पीएम 2.5 कहते हैं। जिन कणों का व्यास 10 माइक्रोमीटर होता है, उसे पीएम 10 कहते हैं। पीएम 2.5 कण मानव बाल से करीब 30 गुना महीन होते हैं। ये कण सांस लेने के दौरान हमारे फेफड़ों के अंदर प्रवेश करते हैं, जिससे दिल का दौरा, स्ट्रोक, फेफड़ों के कैंसर और सांस की बीमारियां हो सकती हैं। पीएम 2.5 मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे हानिकारक माना जाता है। डब्ल्यूएचओ की मानें तो पीएम 2.5 के माप से वायु प्रदूषण से स्वास्थ्य के खतरे को स्तर का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है।
डब्लूएचओ की ओर से सबसे खराब हवा वाले शहरों में वाराणसी नहीं, भारतीय एजेंसी कहती है तीन बद्तर वायु वाले शहरों में से एक है वाराणसी
वर्ष 2016 में डब्लूएचओ ने विश्व भर में 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची जारी की थी। इस सूची में भारत के 10 शहर शामिल थे। इसमें उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, कानपुर, फिरोजाबाद और लखनऊ का नाम बदतर हालात वाले शहरों के रूप में था। हालांकि, वाराणसी का नाम डब्लूएचओ की सूची में शामिल नहीं था, लेकिन वर्ष 2015 में जारी सीबीसीबी की इस बुलेटिन के अनुसार, प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र भारत के तीन सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में से एक है।
वाराणसी में सीपीसीबी के तीन वायु गुणवत्ता वाले निगरानी केंद्र हैं। इसमें से केवल एक पीएम 2.5 और पीएम 10 का स्तर माप सकता है, जबकि एक्यूआई स्कोर मामले की यहां कोई सुविधा नहीं है। एक्यूआई से दूसरे विभिन्न प्रदूषकों को पहचाना जा सकता है। दिल्ली में 13 ऑनलाइन वायु गुणवत्ता वाले निगरानी स्टेशन हैं। ये स्टेशन एक्यूआई स्कोर के साथ-साथ रोजाना पीएम 10 और पीएम 2.5 के स्तर का माप करते हैं।
वाराणसी में सूचना के अधिकार के तहत वायु गुणवत्ता के मैनुअल कैंद्रों से मांगी गईगई जानकारी से पता चलता है कि पीएम10 के परिमाण में उल्लेखनीय अंतर दर्ज किए जा रहे हैं।स्वतंत्र शोधकर्ता और इस रिपोर्ट से जुड़े ऐश्वर्य मेदीनेनी कहते है, “वाराणसी को हवा की गुणवत्ता पर एक सर्जिकल स्ट्राइक की जरूरत है। बाल विशेषज्ञों से परामर्श करने पर पता चला है कि शहर में सांस की बीमारियों में आठ गुना वृद्धि हुई है और इसका कारण वायु प्रदूषण में वृद्धि ही है।”
रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा के आसपास के इलाके में बहुत ज्यादा औद्योगिक गतिविधियों के कारण प्रदूषण बढ़ा है। दिल्ली स्थित एक संस्था के अध्ययन का हवाला देते हुए रिपोर्ट कहती है कि विशेष रुप से सर्दियों के दौरान यहां की हवा बिजली संयंत्र के उत्सर्जन को कई सौ किलोमीटर दूर ले जाते हैं, जिससे क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर बढ़ता है।
आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक साइंस के सहायक प्रफेसर डॉ. सगनिक डे ने रिपोर्ट रिलीज होने के अवसर पर वाराणसी में आयोजित कार्यशाला में कहा, “ वायु प्रदूषण के लिए सिर्फ कल कारखाने या बिजली संयत्र ही जिम्मेदार नहीं हैं। बायोमास जलना (मौसमी), घरेलू उत्सर्जन (जैव ईंधन), वाहनों से होने वाले उत्सर्जन, ईंट भट्टा, आदि भी गंगा क्षेत्र में वायु प्रदूषण को बढ़ाते हैं। ”केयर4एयर की प्रतिनिधि एकता शेखर कहती हैं, “वायु प्रदूषण पर वाराणसी के पास व्यापक कार्य योजना नहीं है। वायु प्रदूषण को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने की जरुरत है।”
यह लेख मूलत:अंग्रेजी में 12 दिसंबर 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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