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उत्तर प्रदेश के बांदा में बच्चा लाल का परिवार मनरेगा के काम से मिले मजदूरी पर निर्भर करता है। अपर्याप्त काम और मजदूरी भुगतान में देरी ने इनकी समस्या को बढ़ा दिया है।

बांदा (यूपी)/ मुंबई: बच्चा लाल मध्य उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में अपने फूस के बने घर के बाहर एक ढीले-ढाले शर्ट में खड़ा है। अपने बीमार बेटे, बहू और पोती की ओर इशरा करते हुए उन्होंने कहा कि, “ये सब मुझ पर निर्भर करते हैं।” निरक्षर और भूमिहीन मजदूर, 65 वर्षीय लाल को जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत खोदने या सड़कों के निर्माण में काम मिलता है तो वो एक दिन में 175 रुपये कमाते हैं।

लाल ने इंडियास्पेंड से बताया कि, "जब सरकार ने पहली बार मनरेगा लाया तो मैंने सोचा कि हमें समय पर हमारा पैसा मिल जाएगा। लगा था कि अब मालिकों का दुर्व्यवहार नहीं झेलना पड़ेगा और काम के लिए अनावश्यक भटकने की ज़रूरत नहीं होगी।" लेकिन मनरेगा को लेकर उनका अनुभव बहुत अच्छा नहीं है, "हमें समय पर मजदूरी नहीं मिलती है। हमें दो दिनों का काम मिलता है, लेकिन फिर अगले महीने या अगले साल - डेढ़ साल तक बेरोजगार बने रहते हैं। "

2006 में लॉन्च किया गया, मनरेगा, दुनिया का सबसे बड़ा ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम है और लाल जैसे ग्रामीण भारतीयों को 100 दिनों के अकुशल काम की गारंटी देता है। इसमें 110 मिलियन सक्रिय श्रमिक हैं, और ऐसे समय में जब कृषि संकट गहरा रहा है और अधिक ग्रामीण खेती करने वालों की तुलना में कृषि श्रम के रूप में काम कर रहे हैं, श्रम बल में प्रवेश करने वाले लोगों की बड़ी संख्या को समायोजित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, मनरेगा से मिलने वाला भुगतान भारतीय गांवों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत है।

तीन-रिपोर्ट की एक श्रृंखला में, इंडियास्पेंड ने इस योजना की सफलताओं और विफलताओं का विश्लेषण किया है।

इस पहले लेख में बजट आवंटन का विश्लेषण किया गया है, जिससे यह पता चला कि कृषि संकट के बावजूद, 2016-17 के बाद से तीन वर्षों में इस साल सरकार ने इस योजना के लिए कम से कम धनराशि को अलग किया है - ग्रामीण विकास मंत्रालय के बजट का 48 फीसदी।

कम वित्त पोषण के परिणामस्वरूप, पिछले छह वर्षों से 2016 में 48 फीसदी कम परियोजनाएं पूरी हो रही हैं। हालांकि मजदूरी पर व्यय अब मनरेगा दिशानिर्देशों के तहत निर्धारित 60:40 मजदूरी-से-सामग्री अनुपात के मुकाबले 73 फीसदी व्यय का गठन करता है, लेकिन मजदूरी भुगतान में देरी अक्सर होती है ।

इस श्रृंखला में हमें यह भी पता चलेगा है कि कैसे केरल राज्य में महिलाओं को मनरेगा से फायदा हुआ है, और नीति निर्माताओं को कौन सा सबक मिला है।

इंडियास्पेंड की श्रृंखला के इस रिपोर्ट को 2019 के चुनावों में महत्वपूर्ण प्रमुख कार्यक्रमों पर सरकार के प्रदर्शन की समीक्षा के रूप में भी आप देख सकते हैं।

अपर्याप्त निधि

अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय (एपीयू) में ‘लिबरल स्टडीज स्कूल’ के सहायक प्रोफेसर राजेंद्रन नारायणन ने इंडियास्पेंड को बताया, "इस कार्यक्रम ( मनरेगा ) को केंद्र द्वारा बड़े पैमाने पर अंडर-फंडिंग कमजोर करता है।" उन्होंने कहा कि सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में मनरेगा के लिए आवंटन में लगातार गिरावट हुई है - 2010-11 में, यह सकल घरेलू उत्पाद का 0.53 फीसदी था, और 2017-18 में 0.42 फीसदी था।

नारायणन ने कहा कि मुद्रास्फीति और जीडीपी (1.3-1.7 फीसदी) का प्रतिशत समायोजन, 2017-18 के लिए आवंटन 71,000 करोड़ रुपये से कम नहीं होना चाहिए था। वास्तविक आवंटन 48,000 करोड़ रुपये था।

इसे 48,000 करोड़ रुपये आवंटित करने के लिए, सरकार ने दावा किया था कि यह अब तक का सबसे ज्यादा था। हालांकि, कार्यक्रम ने पिछले साल से 11,644 करोड़ रुपये के बकाया जमा किए थे, जैसा कि नारायणन ने बताया है। उन्होंने आगे बताया कि बकाया निकालने के बाद, आवंटन 36,000 करोड़ रुपये था।

चालू वर्ष, 2018-19 के लिए आवंटन, पिछले वर्ष के 55,000 करोड़ रुपये (अतिरिक्त व्यय को पूरा करने के लिए बजट आवंटन से परे अतिरिक्त धनराशि) के संशोधित अनुमान से अधिक नहीं है।

ग्रामीण विकास मंत्रालय के व्यय के अनुपात के रूप में भी मनरेगा का खर्च अब तीन वर्षों में सबसे कम है। 2012-13 में, मनरेगा का हिस्सा मंत्रालय के आवंटन का 55 फीसदी था। तब से, यह सात प्रतिशत अंक गिरकर 48 फीसदी हो गया है।

योजना दिशानिर्देशों के अनुसार केंद्र सरकार 96 फीसदी मनरेगा कार्यान्वयन लागत के लिए ज़िम्मेदार है। यह अकुशल और अर्द्ध कुशल श्रम के लिए मजदूरी का भुगतान करती है, और उपयोग की जाने वाली सामग्रियों की लागत के तीन-चौथाई तक भुगतान करती है। राज्य सरकार बेरोजगारी भत्ता और सामग्रियों की शेष लागत का भुगतान करती है।

यदि एक आवेदक को आवेदन के 15 दिनों के भीतर काम नहीं दिया जाता है तो वो बेरोजगारी भत्ता के हकदार हैं। भत्ता पहले 30 दिनों की एक चौथाई मजदूरी दर और वित्तीय वर्ष की शेष अवधि के लिए मजदूरी दर के आधे से कम नहीं होनी चाहिए।

2012-13 और 2017-18 के बीच, ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षा बढ़ाने के प्रस्तावित उद्देश्य को हराकर, प्रत्येक वित्तीय वर्ष में 10 फीसदी से अधिक परिवारों को 100 दिनों का रोजगार नहीं मिला है।

28 अप्रैल, 2018 को उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 2012-13 के मुकाबले 2017-18 में, परिवारों ने 100 दिनों का रोजगार प्रदान किया, चार प्रतिशत अंक से छह फीसदी तक गिर गया।

मनरेगा के तहत रोजगार

Source: MGNREGA Dashboard
*Figures have been rounded off

जब मनरेगा व्यय केंद्र सरकार द्वारा आवंटन के पार चला जाता है, तो राज्य सरकारें कमी को कम करती हैं, जो केंद्र के लिए 'लंबित देयता' बन जाती है ( ऊपर उल्लिखित बकाया ), जैसा कि ‘अकाउन्टबिलिटी इनिशटिव’ के इस संक्षिप्त विवरण में बताया गया है। 2017-18 तक संचयी देनदारियां 12-1601 करोड़ रुपये थीं, जो 2015-16 में 6,355 करोड़ रुपये की देनदारियों की दोगुनी थी।

2006-07 से 2018-19 तक मनरेगा का आवंटन

Source: Accountability Initiative, 2018, Accountability Initiative, 2012
*Budget Estimate 2018-19

कुछ परियोजनाएं ही हुई पूरी

यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार पैदा करने और स्थायी संपत्ति बनाने के लिए डिजाइन की गई है। आवंटित बजट का व्यय पार होने के साथ भुगतान में देरी के कारण बड़े पैमाने पर परिसंपत्ति निर्माण प्रभावित हुआ है। नवंबर 2017 में लाल ने इंडियास्पेंड को बताया था कि, “मैं ज्यादातर मनरेगा के तहत खुदाई का काम करता हूं। मैंने इससे पहले खेत मजदूर के रूप में काम किया था।” चूंकि मनरेगा अकुशल मैनुअल श्रम को नियोजित करता है, इसलिए उनके जैसे कर्मचारी मिट्टी संरक्षण, बागवानी, शेड बनाने और खेत के तालाबों आदि के लिए खुदाई से संबंधित कार्यों में शामिल होते हैं।

ऐसे सभी काम मनरेगा के प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (एनआरएम) घटक के अंतर्गत आते हैं, जो इस योजना के तहत 153 प्रकार की परियोजनाओं में से 100 के लिए जिम्मेदार है। सभी एनआरएम परियोजनाओं में से 71 जल-संबंधित काम हैं, जैसे कुओं को रिचार्ज करने का काम, जल संचयन संरचनाएं और चेक बांध बनाना।

एनआरएम परियोजनाओं के बाद, 78 फीसदी घरों ने पानी में वृद्धि की सूचना दी है - पंजाब में मुक्तासर में 30 फीसदी से लेकर आंध्र प्रदेश में विजयनगरम में 95 फीसदी तक , 29 राज्यों के 30 जिलों जैसा कि एक संस्था, ‘इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनोमिक ग्रोथ’ द्वारा आयोजित 2017 के एक अध्ययन से पता चलता है।

इसके अलावा, 66 फीसदी परिवारों ने कहा कि सीमांत और छोटे किसानों (क्रमशः 2.5 एकड़ और 5 एकड़ भूमि की खेती करने वाले किसान) से जुड़े सार्वजनिक और निजी भूमि पर जल संरक्षण परियोजनाओं के बाद अधिक चारा उपलब्ध था।

झारखंड में छह यादृच्छिक रूप से चयनित जिलों में 926 मनरेगा कुओं के काम के सत्यापन में पाया गया कि स्वीकृत मनरेगा कुओं का 60 फीसदी का पूरा हो चुका है, जैसा कि मई 2016 की ‘इकोनोमिक एंड पलिटकल वीकली’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है। लगभग 95 फीसदी पूरे किए गए कुएं सिंचाई के लिए उपयोग किए जा रहे थे, जिससे कृषि आय में करीब तीन गुना वृद्धि हुई है।

एपीयू के नारायणन ने कहा, "स्थायी निर्माण छोटे और सीमांत किसानों की भूमि पर बनाई जाती है।यह सच नहीं है कि इस योजना से केवल बड़े खेत के मालिक ही लाभान्वित हो रहे हैं। "

हालांकि, भुगतान से जुड़े मुद्दों के कारण पूरा होने से पहले सभी स्वीकृत कुओं में से लगभग 12 फीसदी का काम छोड़ दिया गया था।

इस योजना को ऐसे लागू किया गया है कि श्रम या मजदूरी लागत से भौतिक अनुपात कम हो। ‘अकाउन्टबिलिटी इनिशटिव’ की निदेशक अवनी कपूर ने इंडियास्पेन्ड को बताया कि जल संरक्षण, तालाब खुदाई और वृक्षारोपण के लिए जब काम होता है, तो इसके लिए थोड़ा संसाधनों की आवश्यकता होती है। उन्होंने कहा, "जिन कार्यक्रमों में संसाधन महत्वपूर्ण हैं, जैसे स्वच्छता या आवास, आमतौर पर मौजूदा योजनाओं के साथ अभिसरण कार्यक्रम के रूप में चलाए जाते हैं।"

ग्राम सभा पंचायत में किए जाने वाले कार्यों का चयन करती है, और मनरेगा की मांग-संचालित दृष्टिकोण की भावना को बनाए रखने की उम्मीद करती है। हालांकि, अक्सर यह मामला नहीं होता है।

नारायणन ने कहा, "अगर परिसंपत्ति निर्माण लक्ष्य-आधारित और टॉप-डाउन बन जाता है, तो कई बार ऐसी संपत्ति बन जाने का खतरा होता है जो उपयोगी नहीं है। राज्य की राजधानी में बैठे किसी को कैसे पता चलेगा एक ग्राम पंचायत के लिए सबसे अच्छा क्या है? " कानून जिसके अंतर्गत एमजीएनआरजीएस संचालित होता है, स्पष्ट रूप से एक ग्राम पंचायत के नेतृत्व वाली, मांग-संचालित योजना का इरादा रखती है, उन्होंने आगे बताया।

साथ ही, कार्यों की गुणवत्ता चिंता का कारण भी रही है। देर से कम फंड आवंटन से एक समस्या यह रही है कि 60:40 के अनुशंसित श्रम-से-भौतिक अनुपात को बनाए रखा नहीं गया है।

मजदूरी से लेकर सामग्री व्यय अनुपात मनरेगा दिशानिर्देशों से अधिक

पूरे हो चुके जल संरक्षण और जल संचयन परियोजनाओं का प्रतिशत 2009 -10 में 57 फीसदी से घटकर 2016-17 में 2.5 फीसदी हुआ है। दिल्ली में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ के अर्थशास्त्र प्रोफेसर रीतीका खेरा ने कहा, “एक बार जब आप आधिकारिक तौर पर एक काम बंद कर देते हैं, तो इसे फिर से खोलना बहुत मुश्किल हो जाता है (आपको तीन प्रकार की मंजूरी-तकनीकी, प्रशासनिक और वित्तीय मिलनी होगी)। पूर्ण कामों के प्रतिशत कम होने के लिए यह एक कारण है।"मनरेगा के 12 वर्षों के माध्यम से पूरा किए गए कार्यों का अनुपात ज्यादातर 50 फीसदी से नीचे रहा है, और हाल के वर्षों में गिर रहा है। 2016-17 में, पूरा हुए कामों में 13 प्रतिशत अंक की गिरावट हुई है और यह आंकड़े 15.6 फीसदी से 2.74 फीसदी हुआ है। वर्तमान आवंटन स्थिति में सुधार की संभावना नहीं है।

एक दशक में पूर्ण हुए कामों का प्रतिशत सबसे कम

मजदूरी का भुगतान बकाया

बांदा जिले के मावई गांव में अपने छोटे, अनियंत्रित घर में चारपाई पर बैठी 50 वर्षीय महिला सुखरानी ने कहा, “उनके पास मेरे 6,000 रुपए बकाया हैं। ” उन्होंने कहा कि मनरेगा के तहत उनके परिवार के दो लोगों का नामांकन किया गया है।

उन्होंने आगे कहा, “दो महीने हो गए, हम दूध का खर्च वहन करने में समर्थ नहीं हैं। हमें खर्च चलाने के लिए उधार लेना पड़ रहा है। कभी-कभी हम अपने जमीन के कुछ हिस्सों को बेचते हैं या किराए पर देते हैं।”

मजदूरी भुगतान में देरी पूरे मनरेगा कार्यान्वयन में निरंतर रही है। दिशानिर्देशों की सिफारिश है कि 'मस्टर रोल', साइट के लिए उपस्थिति रजिस्टर, के बंद होने के 15 दिनों के भीतर मजदूरी का भुगतान किया जाए।

10 राज्यों में मजदूरी और मुआवजे में देरी पर हालिया एक अध्ययन में पाया गया है कि 78 फीसदी भुगतान समय पर नहीं किए गए थे, और 45 फीसदी भुगतानों में देरी से भुगतान के लिए मुआवजे शामिल नहीं थे, जैसा कि दिशानिर्देश में बताया गया है।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि फरवरी, 2018 में भुगतान न किए गए मजदूरी का प्रतिशत 63.5 फीसदी से बढ़कर मार्च 2018 में 85.5 फीसदी हो गया, जो अप्रैल 2018 में 99% था, जो इस श्रृंखला के आगे की रिपोर्ट में अधिक विस्तार से पता चलेगा।

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महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना(मनरेगा) की सफलताओं और असफलताओं पर रिपोर्ट की श्रृंखला की यह पहली रिपोर्ट है।

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(यह रिपोर्ट ‘खबर लहेरिया’ के साथ मिलकर लिखा गया है। ‘खबर लहेरिया’ देश में महिला रिपोर्टरों का एकमात्र नेटवर्क है, जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में काम करता है। पालीयथ नीति विश्लेषक है और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं। )

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 4 मई, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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