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प्रशिक्षक निखिल कालेलकर की बातें सुनती महिलाएं। कालेलकर दो पहिया सवारियों के लिए एक स्टार्ट अप हेडीडी के साथ जुड़े हैं। यह कंपनी ‘भारत की पहली महिला तत्काल पार्सल डिलीवरी सेवा' के रुप में शुरु की गई है। कुछ दिनों में इन महिलाओं को ऑनलाइन परीक्षा देनी है, जो कि लर्नर लाइसेंस पाने, अपनी दो पहिया वाहन चलाने और संभवत: वित्तीय आजादी और व्यवसाय की ओर उनका पहला कदम है।

मुंबईः दो पहिया वाहन चालकों के लिए निखिल कालेलकर की क्लास से हंसी की आवाजें आती हैं। काललेकर पूछते हैं, "यदि आपके पास से जानवरों के झुंड को ले जाता व्यक्ति गुजर रहा हो और ऐसा लगे कि वे नियंत्रण से बाहर हो सकते हैं तो आप क्या करेंगे? क्या आप अपना वाहन धीमा कर देंगें या हार्न बजाएंगे?"

सवाल के जवाब में 20 वर्षीय श्वेता जाधव कहती हैं, “सर, मुझे जानवरों से डर लगता है। मैं अपनी गाड़ी रोक दूंगी।”

“यदि यह ईमानदार उत्तर है तो यह गलत है, ” कालेलकर के इस जवाब से क्लास में मौजूद 20 लड़कियां हंस पड़ीं। कुछ दिनों में उन्हें ऑनलाइन परीक्षा देनी है जो कि लर्नर लाइसेंस पाने, अपनी दो पहिया वाहन चलाने और संभवत: वित्तीय आजादी और व्यवसाय की ओर पहला कदम है।

भारत की पहली महिलाएं तत्काल पार्सल डिलीवरी सेवा' के रुप में शुरु की गई स्टार्ट अप ‘हेडीडी’ द्वारा चलाए जा रहे क्लास में सभी लड़कियां कमाने के लिए वाहन चलाना नहीं सीख रही हैं। अनीस फातिमा मोहम्मद अशफन कहती हैं कि वे केवल शौक के लिए सीख रही हैं। उन्होंने बताया कि, “मैं टी-शर्ट पहन कर सामान डिलिवरी करने नहीं जाऊंगी। लेकिन अगर मैं दो पहिया वाहन चलाना सीख जाती हूं तो मैं जरुरत के समय, किसी के बीमार पड़ने पर अपने मुहल्ले की महिलाओं की मदद कर सकती हूं। ”

मुंबई के मधु औद्योगिक एस्टेट में ‘हेडीडी’ कार्यालय में हर वक्त शोर-गुल रहता है। एक पल भी शांति नहीं रहती। अगर छात्रों का एक बैच लर्नर लाइसेंस की तैयारी कर रहा है, तो दूसरा दोपहिया सिम्युलेटर पर और तीसरा बैच अपने स्कूटर और सड़क का अनुभव महसूस कर रहा होता है।

‘हेडीडी’ महिलाओं को 45 दिनों का प्रशिक्षण देता है। अंत में महिलाओं को एक प्रस्ताव पत्र देता है, जो उन्हें अपने दो-पहिया वाहन खरीदने के लिए बैंक ऋण प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। नियुक्ति और स्कूटर के साथ, वे एक नई शुरुआत के लिए तैयार होती हैं।

‘हेडीडी’ की सीईओ और प्रबंध निदेशक रेवती रॉय कहती हैं, “कई लड़कियों ने मुझे बताया कि वे ड्राइविंग सीखना चाहती हैं, लेकिन काम करना नहीं चाहती है।मेरे लिए वे गैर स्टार्टर हैं। यह महिलाओं के शौक के बारे में नहीं है, बल्कि उन्हें एक ऐसा कौशल दे रहा है, जो उन्हें अपने परिवार के लिए कमाई या परिवार को समर्थन समर्थन देने में सक्षम बनाता है। ”

यह बिना दिमाग जैसा लग सकता है। गाड़ी चलाना सीखें और सौदे में एक व्यवसाय पाएं। कहना आसान है लेकिन करना मुश्किल।

पहली बाधा: महिलाओं को शामिल कराना

हर चरण एक बाधा है। पहला चरण महिलाओं को क्लास में शामिल करने के लिए तैयार करना है। ‘हेडीडी’ के दो मोबिलाइजर में से एक कविता चंदेकर कहती हैं, “हमारे द्वारा भर्ती करने वाली ज्यादातर महिलाएं पारंपरिक पृष्ठभूमि से आती हैं जो नौकरी करना चाहती हैं, लेकिन उनके पिता या ससुराल वाले अनुमति नहीं देते हैं।” इस संस्था में मोबिलाइजर का काम महिलाओं को 1500 रुपए की सब्सिडी शुल्क पर प्रशिक्षण लेने के लिए तैयार कराना है। रॉय ने बताया कि यह टोकन शुल्क लेने का विचार महिलाओं द्वारा प्रशिक्षण को गंभीरता से लेने के लिए रखा गया है।

कविता की सहकर्मी और सह-मोबिलाइजर उपासना सिंह ने कहा, "आपको समुदाय को समझाना होगा। लड़कियों और उनके माता-पिता को कार्यक्रम के बारे में बताना होगा कि इससे उन्हें कैसे फायदा होगा। हम समुदाय स्तर पर बैठकों का आयोजन कर उनसे बात करते हैं। "

पेशेवर रूप से दोपहिया वाहन चलाते हुए डिलिवरी करना महिलाओं के लिए परंपरागत काम नहीं है, जैसे वे सौंदर्य व्यापार या स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में खुद को सहज पाती हैं।

महिलाओं के शामिल होने का फैसला करने के बाद बाधाएं खत्म नहीं हो जाती। उनके दिनचर्या के महत्वपूर्ण पहलू को समझना पड़ता है। स्कूल से बच्चों को कौन लाएगा? दोपहर और रात का खाना बनाने और कपड़े-बर्तन धोने के साथ महिलाएं दो घंटे की क्लास कैसे करेंगी इत्यादि।

38 वर्षीय सुवर्णा संतोष घाटे बताती हैं, "मैं एक बार सुबह और फिर शाम को खाना बनाती हूं, क्योंकि मेरे पति सुबह का बनाया शाम को नहीं खाते हैं।" सुवर्णा सुबह पांच बजे उठ कर घर के सारे काम निपटाती हैं।

वह कहती हैं, "2 से 4 बजे के बीच मेरा आराम-समय है और इसलिए मैं इस समय के दौरान कक्षा के लिए आ रही हूं।"

क्या उसका एक मात्र 15 वर्षीय बेटा उनके घर के काम में मदद करता है?

"बेशक," वह गर्व से बताती हैं "मुझे जो भी चाहिए वो मुझे बाजार से खरीद कर ला देता है।"

भारत में अवैतनिक काम में, पुरुषों और महिलाओं के बीच बड़ा अंतर

दुनिया भर में, 75 फीसदी अवैतनिक काम, जैसे कि बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल, खाना पकाने, सफाई आदि महिलाओं द्वारा किया जाता है। ‘मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की ओर से वर्ष 2015 की रिपोर्ट में ऐसा बताया गया है।

अगर इन कामों का मूल्य देखा जाए तो यह प्रति वर्ष 10 ट्रिलियन डॉलर के उत्पादन के बराबर ( या वैश्विक जीडीपी के 13 फीसदी के बराबर ) होगा।

अवैतनिक कार्य में विश्व भर में भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच बड़ा अंतर है। महिलाओं के लिए पांच घंटे या 351.9 मिनट और पुरुषों के लिए दिन में 51.8 मिनट, जैसा कि आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के लिए उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है।

यह विसंगति, आश्चर्यजनक रूप से, पुरुषों और महिलाओं को भुगतान कार्य पर खर्च किए जाने वाली समय को दर्शाता है। महिलाओं के लिए 184.7 मिनट; पुरुषों के लिए 390.6 मिनट।

जुलाई, 2015 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की ओर से बेंगलुरु, हैदराबाद और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सर्वेक्षण के लगभग आधे महिलाओं और लड़कियों का अध्ययन किया गया था।

अध्ययन के अनुसार,घरेलू कामकाजी और जिम्मेदारियां उनके कार्यबल की भागीदारी और आकांक्षाओं के लिए बाधा थीं। अध्ययन में पाया गया कि परिवार आकांक्षाओं का समर्थन करते हैं, जब तक कि वे अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को पूरा करने के बीच नहीं आते हैं। मुंबई इस प्रवृत्ति का एक अपवाद था, जहां बाधाओं के रूप में घरेलू कामकाज के लिए आंकड़े केवल 30 फीसदी रहे।

विभिन्न भारतीय शहरों में महिलाओं के जवाब –क्या काम करने में घरेलू कामकाज बाधाएं हैं?

Source: Women’s Voices: Employment and Entrepreneurship in India, July 2015: UNDP et al

भारत में महिलाओं और लड़कियों पर पड़ने वाले घरेलू कार्यों के अत्यधिक बोझ से यह समझा जा सकता है कि उदारीकरण के बाद के वर्षों के बाद से वे लगातार नौकरी से बाहर क्यों निकल रही हैं? अप्रैल 2017 की विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष1993-94 और 2011-12 के बीच, भारत की महिला श्रम शक्ति भागीदारी (एफएलएफपी) 11.4 फीसदी की गिरावट होते हुए 42.6 फीसदी से 31.2 फीसदी तक पहुंची है।

वर्ष 2013 में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा एफएलएफपी के लिए सर्वेक्षण किए गए 131 देशों में भारत 120वें स्थान पर रहा। इस संबंध में इंडियास्पेंड द्वारा कवर की गई रिपोर्ट आप यहां और यहां पढ़ सकते हैं।

देखभाल के लिए अधिक विश्वसनीय लोग मिलने पर अधिक महिलाएं रोजगार के लिए बाहर जा सकती हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 7 अगस्त की अपनी विशेष रिपोर्ट में बताया है। राजस्थान के उदयपुर जिले में महिलाओं के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि एक से छह वर्षीय आयु वर्ग के बच्चों की माताएं घर पर काम करते हुए 9.4 घंटे खर्च करते हैं।

नारीवादी अर्थशास्त्री रितु दीवान ने तर्क दिया कि यदि आप महिलाओं के अवैतनिक श्रम को ध्यान में रखते हैं, तो एफएलएफपी वास्तव में पुरुषों के छह प्रतिशत अंकों से आगे निकल जाएगा। वह कहती हैं, " पुरुषों की तुलना में महिलाएं बहुत अधिक घंटे काम करती हैं। इनमें से ज्यादातर अदृश्य काम हैं, जिनमें सामान्य सामानों जैसे जलाशय, पानी आदि का मुफ्त संग्रह शामिल है। "

विभिन्न तरीकों से महिलाओं के श्रम को नियंत्रित करने के लिए राज्य, बाजार और परिवार के बीच अव्यक्त अनुमति है।

“मजबूरी है”- उन महिलाओं के लिए जिनकी नौकरियां हैं, पर कोई विकल्प नहीं

रेवती राय इस संघर्ष समझती हैं। वह बताती हैं,”जब मेरे पति कोमा में थे, तब मैंने कैब भी चलाया है।” रॉय के पास मुंबई विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रैजुएट की डिग्री है।

"बैंक खाता उनके नाम पर था, मुझे अपने बच्चों के फीस का भुगतान करने के लिए, पति के इलाज के लिए धन की ज़रूरत थी। तो तब मुझे कमाने की ज़रूरत थी। उस समय यह मेरा हुनर था, जिसने मेरी मदद की । तब मेरी डिग्री काम न आई थी। "

यह कैब ड्राइविंग एक अनुभव था जिसने उन्हें 2007 में एशिया की पहली अखिल महिला टैक्सी सेवा शुरू करने का नेतृत्व किया। यह साझेदारी 2009 में समाप्त हो गई, और अब रॉय फिर एक बार महिलाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ नया करने की कोशिश में हैं।

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‘हेडीडी’ की सीईओ और प्रबंध निदेशक रेवती रॉय कहती हैं, "मैं महिलाओं के शौक पूरा करने में नहीं लगी हूं। मैं उन्हें एक कौशल दे रही हूं, जो उन्हें अपने परिवार की कमाई में कुछ जोड़ने में मदद करेगा। कौशल हमेशा महिलाओं को समर्थ बनाता है।"

एक शब्द जो मैंने प्रशिक्षण को पूरा करने वाली महिलाओं से ड्राइविंग न आना, अंग्रेजी, कंप्यूटर ज्ञान न होना के अलावा सुना है, वह है मजबूरी।

38 वर्षीय ज्योति ठाकुर ने अपनी शादी से लेकर अब तक अलग-अलग समय में घर में टिफिन बनाने से लेकर परिधान पैकर के रुप में काम किया है वह कहती हैं, “मजबूरी है, एक व्यक्ति के वेतन से कैसे काम चल पाएगा। ” ज्योति की एक ही बेटी है, जो कॉन्वेंट स्कूल में पहली कक्षा में पढ़ती है। स्कूल की फीस 1,800 रुपये प्रति माह है। इसके अलावा, एक महीने में 800 रुपये के लिए निजी ट्यूशन के लिए देना पड़ता है, क्योंकि ज्योति केवल आठवीं तक पढ़ी हैं और बेटी को घर पर पढ़ाई में मदद नहीं कर सकती हैं।

धारीदार टी-शर्ट और जींस में कपड़े पहने ज्योति ठाकुर ने प्रशिक्षण पूरा किया और ‘हेडीडी’ के साथ पार्सल और खाना डिलीवरी के लिए दिन में छह घंटे काम करती थीं। लेकिन उन्होंने बाद में काम छोड़ दिया, क्योंकि कभी-कभी बहुत मुश्किल होती थी। वह कहती हैं, "मुझे पास के रूट चाहिए थे, लेकिन कभी-कभी मुझे डिलीवरी के लिए बहुत दूर जाना होता था। कई बार मुझे अपने पति से साथ चलने के लिए पूछना पड़ता था। "

यह मजबूरी ही थी जिसके कारण 39 वर्षीय वसंत कुलकर्णी को उनके पति की मौत के बाद अपने बच्चों के देखभाल के लिए रोजगार की तलाश के लिए आगे आई। वह कहती हैं, "मैं 20 वर्षों में विभिन्न तरह की नौकरियां की हैं।"मेरी माँ मेरे बच्चों की देखभाल करती थी, क्योंकि मेरे लिए बस जीवित रहने के लिए काम करना जरुरी था।"

कुलकर्णी अब ‘हेडीडी’ के साथ एक ट्रेनर के रूप में काम करती हैं। वह महिलाओं को सड़कें और कार्यस्थल को नेविगेट करना सिखाती हैं। 15,000 रुपये प्रति माह और निश्चित घंटे के काम पर, यह एक अच्छी नौकरी है, हालांकि ठाणे से मध्य मुंबई की यात्रा में काफी घंटे खर्च हो जाते हैं।

कुलकर्णी की तरह, वैष्णवी ललिता राकेश एक युवा विधवा हैं। एक दुर्घटना में जब उनके पति की मृत्यु हो गई थी, तब उनकी एक छोटी बहुत छोटी थी और दूसरी गर्भ में ही थी। वह कहती हैं, "मैं घर पर नहीं रह सकती क्योंकि मुझे अपनी बेटी को शिक्षित करना है। " .राकेश ने पहले सिलाई का काम शुरु किया लेकिन इसमें पैसे ज्यादा नहीं मिलते थे। फिर इन्होंने ‘हेडीडी में कार्यक्रम के बारे में सुना और शामिल हुई। बेटियों की देखभाल इनकी मां करती है। थोड़ी मदद भाई से भी मिल जाती है। राकेश कहती हैं, “अगर इन दोनों की मदद न मिले तो मैं कुछ काम ही न कर पाऊं।”

वर्ली में ब्रजवासी मिठाई दुकान के बाहर बैठी राकेश एक ऑर्डर के लिए धैर्यपूर्वक इंतजार कर रही हैं। और जैसे कि 250 ग्राम ढोकला, 250 ग्राम खांडवी, 250 ग्राम पात्रा और दो घेवर का ऑर्डर आता है, वह फौरन काम पर लग जाती हैं। हेलमेट पहन, होंडा एक्टिवा को सावधानीपूर्वक प्रभादेवी में आरबीआई आवासीय कॉलोनी की ओर दौड़ाती हैं। इस दिन कोई टिप नहीं है, लेकिन कई बार लोग थोड़ा अतिरिक्त पैसे छोड़ देते हैं।

वह कहती हैं, "हां, यह अच्छा काम है। इससे मेरा घर भोजन चलता है। "

(भंडारे पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं। वे अक्सर भारत के उन लैंगिक के मुद्दों पर लिखती हैं, जिनका सामना समाज कर रहा होता है।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 18 अगस्त 17 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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