चुनाव के वक्त सांसदों ने किया ज्यादा खर्च, लेकिन 2014 के चुनाव परिणाम पर इसका मामूली प्रभाव
वर्ष 2009 में निर्वाचित संसद सदस्यों (सांसदों) ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (एमपीएलएडीएस) से कम धन खर्च किया, जो धीरे-धीरे हर वर्ष बढ़ा है। वर्ष 2014 के आम चुनाव से पहले स्थानीय क्षेत्र विकास योजना के तहत सांसदों द्वारा सबसे ज्यादा खर्च किया गया है। यह निष्कर्ष येल विश्वविद्यालय के एक सीनियर रिसर्च स्कॉलर, हैरी ब्लेयर द्वारा किए गए अध्ययन का है। यह अध्ययन वर्ष 2017 के अगस्त में ‘इकोनॉमिक एंड पलिटिकल वीकली’ में प्रकाशित हुई है।
एमपीएलएडीएस फंड से प्रत्येक सांसद को वर्ष 2009 से 2011 के बीच हर वर्ष 2 करोड़ रुपए और 2011 और 2014 के बीच 5 करोड़ रुपए दिए गए हैं। वर्ष के दौरान खर्च न की जाने वाली राशि अगले वर्ष दी जाती है।
औसत रूप से, सांसदों द्वारा किया गया खर्च वर्ष 2009 -10 में करीब 0.4 करोड़ रूपए है जो वर्ष 2013-14 में 6 करोड़ रुपए से अधिक हुआ ।
अध्ययन में पाया गया कि, हालांकि इस वृद्धि का हिस्सा एमपीएलएएडीएस के अधिकार में वृद्धि से आया है, लेकिन खर्च में वृद्धि धन में वृद्धि से स्वतंत्र थी।
चुनावी मौसम में सांसद करते हैं ज्यादा खर्च
Note: Spending is calculated for only those incumbent MPs standing for re-election, for whom complete data was available in Ministry of Statistics and Programme Implementation reports.
चुनाव के पहले ही अतिरिक्त धन खर्च करने से चुनाव नतीजों पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ता है। अध्ययन के लेखक लिखते हैं, “पिछले साल विजेताओं के मुकाबले हारने वाले प्रतियोगियों के थोड़ा ज्यादा खर्च करने के साथ यह साफ है कि चुनाव नतीजों पर ज्यादा खर्च करने का कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। ”
अध्ययन के अनुसार, “पिछले वर्ष अतिरिक्त 1 करोड़ रुपए खर्च करने से चुनाव जीतने की संभावनाएं 0.13 कम हो गई।“ हम बता दें कि अध्ययन में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है।
पूरे पांच साल के कार्यकाल में 1 करोड़ रुपए अतिरिक्त व्यय से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस के सांसदों पर कम प्रभाव पड़ा है। ( 0.060 और .048 से जीतने की अपनी बाधाओं को बढ़ाते हुए ) लेकिन अन्य पार्टियों के सांसदों के लिए अतिरिक्त 1 करोड़ रुपए ने .409 तक जीतने की बाधाओं में सुधार किया है, जैसा कि अध्ययन में पाया गया है
चुनाव के नतीजे पर सबसे बड़ा प्रभाव उन राजनीतिक दलों पर था, जिनके सदस्य सांसद थे। अध्ययन के अनुसार, कम से कम 80 फीसदी कांग्रेस उम्मीदवार हार गए थे, जबकि भाजपा के 87 फीसदी उम्मीदवार जीते। हम बता दें कि अध्ययन में चुनाव आयोग के आंकड़ों का विश्लेषण भी किया गया है।
अध्ययन में पाया गया कि एक कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में दौड़ में प्रवेश करने से .718 तक जीतने की बाधाएं कम हुईं, जबकि भाजपा उम्मीदवार के रूप में 13.767 की वृद्धि हुई थी। लेखक ने निष्कर्ष निकाला कि, "2014 एक अलग तरह का चुनाव था, जिसमें मोदी 'लहर' ने सब कुछ साफ कर दिया। भाजपा को 25 से अधिक वर्षों में लोकसभा में पहली बार किसी भी पार्टी को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला था, जबकि पूरे देश में थकी हुई कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर हुई। यह ‘लहर’ इतनी ताकतवर थी कि इस चुनाव में एमपीएलएडीएस खर्च का चुनाव परिणामों में योगदान गौण हो जाता है। "
(शाह रिपोर्टर/लेखक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 23 अगस्त 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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