चुनाव के वर्षों में पुलिस के तबादले में तेजी - नई रिपोर्ट
मुंबई: 2007 और 2016 के बीच, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में, क्रमश: 125 फीसदी और 121 फीसदी एसएसपी और डीआईजी का दो वर्षों से कम समय में स्थानांतरित किया गया था। यह जानकारी एक नए रिपोर्ट में सामने आई है।
इसका मतलब यह है कि एक अधिकारी को दो वर्षों में कई बार स्थानांतरित किया गया था। गैर-लाभकारी संस्था कॉमन कॉज की रिपोर्ट में कहा गया है कि इन राज्यों में पूरे भारत में सबसे अधिक तबादले हुए।
हालांकि, भारत भर के 22 राज्यों में समय से पहले स्थानांतरित डीआईजी और एसएसपी की संख्या 2007 में 37 फीसदी से घटकर 2016 में 13 फीसदी हुई है, लेकिन रिपोर्ट में ‘चुनाव और स्थानान्तरण के बीच सीधा संबंध’ पाया गया है, जैसा कि चुनाव के वर्षों में स्थानांतरण में काफी वृद्धि हुई और यह पर्याप्त राजनीतिक हस्तक्षेप का संकेत देता है।
लेकिन, इन दोनों राज्यों के लिए स्थिति अद्वितीय नहीं है, जैसा कि नई दिल्ली स्थित मानवाधिकार संस्था, राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल (सीएचआरआई) की 2018 की रिपोर्ट से पता चलता है। देश भर के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से किसी ने भी 2006 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आदेशित भारतीय पुलिस बल में राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने और सार्वजनिक जवाबदेही बढ़ाने के लिए पुलिस में सुधार के निर्देशों का पूरी तरह से अनुपालन नहीं किया था।
2006 में, उत्तर प्रदेश (पूर्व) पुलिस के पूर्व महानिदेशक और सीमा सुरक्षा बल के प्रमुख प्रकाश सिंह की याचिका के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को छह सुधार उपायों को लागू करने का आदेश दिया था: राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना संचालित करने के लिए राज्य पुलिस के लिए व्यापक नीतिगत दिशानिर्देश और निर्देश देने के लिए राज्य सुरक्षा आयोग (एसएससी) की स्थापना करना;पुलिस प्रमुखों के लिए एक न्यूनतम कार्यकाल तय करना; जांच इकाइयों से कानून और व्यवस्था-प्रवर्तन इकाइयों को अलग करना, स्थानान्तरण और पोस्टिंग निर्धारित करने के लिए पुलिस द्वारा संचालित बोर्ड की स्थापना करना;और पुलिस में जनता के विश्वास को बढ़ावा देने के लिए हर जिले में एक शिकायत सेल की स्थापना करना।
लेकिन अप्रैल 2018 में, सीएचआरआई ने पाया कि:
- किसी भी राज्य / केन्द्र शासित प्रदेश ने किसी भी छह निर्देशों को पूरी तरह से लागू नहीं किया था। 27 ने राज्य सुरक्षा आयोग का गठन करने की कोशिश की थी, लेकिन कई महत्वपूर्ण दिशानिर्देशों को छोड़ दिया था, और 17 ने कानून और व्यवस्था को जांच इकाइयों से अलग करने के लिए सुधार पेश किया था।
- केवल एक राज्य (नागालैंड) ने अपने पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) के लिए न्यूनतम दो साल का कार्यकाल पेश किया था। लेकिन ज्यादा राज्यों (छह) ने अपने पुलिस महानिरीक्षक (आईजीपी) के लिए इसे पेश किया था। इनमें शामिल थे: ओडिशा, नागालैंड, मणिपुर, मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और आंध्र प्रदेश।
- हालांकि, 27 राज्यों / केंद्रशासित प्रदेशों ने स्थानान्तरण और पोस्टिंग निर्धारित करने के लिए पुलिस स्थापना बोर्ड (PEB) की शुरुआत की थी, और 24 ने सार्वजनिक विश्वास उत्पन्न के लिए एक पुलिस शिकायत सेल की स्थापना की थी,केवल एक राज्य प्रत्येक (अरुणाचल प्रदेश और आंध्र प्रदेश) ने पूरी तरह से दिशा निर्देशों का पालन किया था।
2018 में रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद से हालात थोड़े बदल गए हैं, जैसा कि कॉमन कॉज की रिपोर्ट से पता चलता है।
22 राज्यों में, 2007 से 2016 के बीच ट्रांसफर किए गए एसएसपी और डीआईजी में से 25 फीसदी को दो साल से कम समय में स्थानांतरित कर दिया गया।
कई राज्यों में चुनावी वर्षों के दौरान स्थानांतरण में काफी वृद्धि हुई, विशेष रूप से राजस्थान में, जहां एसएसपी और डीआईजी के 98 फीसदी का स्थानांतरण 2013 में किया गया। हरियाणा में, 2013 में 32 फीसदी स्थानांतरित किया गया, और झारखंड में, चुनावी वर्षों में 28 फीसदी से 53 फीसदी स्थानांतरित किया गया है, जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है।
यहां तक कि जिन राज्यों में पार्टी सत्ता में रह गई, वहां तबादले औसत से अधिक थे। एक चुनावी वर्ष, 2012 के गुजरात में, डीआईजी और एसएसपी के तबादले बढ़कर 80.6 फीसदी हुए, जोकि 2008 में 23.7 फीसदी थे।
चुनावी वर्ष 2013 में, छत्तीसगढ़ के लिए, स्थानान्तरण 63.5 फीसदी तक बढ़ गया, जबकि 2012 में 36 फीसदी थे।
सीएचआरआई में पुलिस सुधार कार्यक्रम की कोर्डिनेटर, देविका प्रसाद ने इंडियास्पेंड को बताया, "इन सुधारों का मूल-बिंदू यह है कि चेक और बैलेंस में लाने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। हमारी रिपोर्ट के बाद बहुत कुछ नहीं बदला है। समस्या यह है कि कार्यपालिका इसे (पुलिस सुधार) शक्ति को कम करने के रूप में देखती है। लेकिन यह लोकतांत्रिक तरीका नहीं है। ”
कॉमन कॉज रिपोर्ट में जोर दिया गया है कि पुलिस को कानून-प्रवर्तन की एजेंसी होने के साथ-साथ व्यापक जनता के प्रति जवाबदेह होने के बीच संतुलन बनाना होगा और, लोकतांत्रिक रूप से चुने गए प्रतिनिधियों के रूप में, कार्यकारी को पुलिस के समग्र कामकाज की निगरानी करनी चाहिए। सीएचआरआई रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि पुलिस को अपने कार्यों में, विशेष रूप से प्रशासन (पदोन्नति, स्थानांतरण, पोस्टिंग, आदि) से संबंधित और कानून-प्रवर्तन (जांच, गिरफ्तारी, खोज, आदि) के लिए स्वतंत्र होना चाहिए।
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मॉडल पुलिस अधिनियम
2006 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ समय बाद, मॉडल पुलिस अधिनियम का मसौदा तैयार किया गया था, ताकि राज्यों को निर्देश के अनुसार सुधारों करने में मदद मिल सके। 2018 तक, 11 राज्यों और दिल्ली को पुलिस अधिनियम लागू करना बाकी था, जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है। उनके विधानों को या तो प्रारूपित नहीं किया गया था या बिना किसी प्रगति के विधायिका में मसौदा तैयार किया गया था।
प्रसाद ने कहा, "भारत में केवल 17 राज्यों ने पुलिस कानून पारित किया है, लेकिन अभी तक मॉडल पुलिस अधिनियम को पूरा नहीं किया गया है। वे मॉडल पुलिस अधिनियम का उपयोग करने के लिए बाध्य नहीं हैं, लेकिन उन्होंने शॉर्ट-कट लिया है और जो उन्होंने किया है, वह वास्तव में प्रतिगामी है, वे आगे की बजाय पीछे की ओर बढ़ रहे हैं।"
मुंबई में पूर्व पुलिस आयुक्त, जूलियो रिबेरो ने इंडियास्पेंड को बताया, "कानून मुख्य रूप से नियुक्ति की कार्यकारी शक्तियों को कम करने के लिए है। यह मुख्य समस्या है लेकिन सरकार ने इसके आस-पास जाने के कई रास्ते ढूंढ लिए हैं। वास्तव में, राजनेताओं ने पुलिस पर अपना प्रभाव मजबूत किया है। मैं आयुक्त के रूप में 30 साल पहले क्या कर सकता था, वर्तमान आयुक्त नहीं कर सकता। मुझे उन अधिकारियों के बारे में पता है, जिन्होंने पुलिस बल छोड़ दिया, क्योंकि वे दरकिनार हो गए। तो, यह बात है? "
महाराष्ट्र के राज्यपाल ने जुलाई 2014 में जूलियो रिबेरो और सतीश साहनी जैसे पूर्व आयुक्तों द्वारा पुलिस नेतृत्व और अनुशासन के सिद्धांतों के उल्लंघन के संबंध में महत्वपूर्ण चिंताओं के बावजूद महाराष्ट्र पुलिस (संशोधन) विधेयक को जल्दबाजी में मंजूरी दे दी। सीएचआरआई और पुलिस रिफॉर्म्स वॉच जैसे एनजीओ ने भी चेतावनी दी थी कि यह बिल अलोकतांत्रिक है और इसमें गंभीर खामियां हैं।
राज्य सुरक्षा आयोग
लगभग 42 साल पहले, 1977 में, जनता पार्टी की सरकार ने पुलिस बल की समकालीन आवश्यकताओं का अध्ययन करने के लिए एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग (एनपीसी) की स्थापना की थी। एनपीसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, यह सुनिश्चित करने के लिए राज्य सुरक्षा आयोग की स्थापना की गई कि सत्ता में सरकार पुलिस मामलों में गंभीर रूप से हस्तक्षेप नहीं करेगी।
2006 में, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि इस आयोग में विपक्ष के नेता, स्वतंत्र पैनल के माध्यम से चुने गए स्वतंत्र सदस्य, संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामित एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश शामिल होना चाहिए और एक वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित करनी चाहिए।
“हालांकि, अगस्त 2019 तक, किसी भी राज्य ने इस निर्देश का पूरी तरह से पालन नहीं किया है”, जैसा कि प्रसाद ने कहा, “27 ने आंशिक रूप से आयोग की स्थापना की है।”
उदाहरण के लिए, छह राज्यों ( असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, पंजाब और त्रिपुरा में ) के आयोग में एक राज्य में विपक्षी नेता शामिल नहीं है। तीन में ( बिहार, कर्नाटक और पंजाब में )किसी भी स्वतंत्र सदस्य को अनुमति नहीं है। इसके अलावा 18 राज् आयोग के स्वतंत्र सदस्यों के स्वतंत्र चयन की अनुमति नहीं देते हैं, जबकि 20 राज्यों में आयोग को वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना अनिवार्य नहीं है।
रिबेरो ने कहा, “ जब भी यह उन्हें सटीक लगता है, तो राज्य इसे लागू करते हैं, और जहां भी यह उन पर सूट नहीं करता है, वे नहीं करते हैं। मूल बिंदू ( आयोग का ) डिपोलिटिसाइज करना है। लेकिन सरकार अपने प्रभाव को जारी रखती है। पुलिस सत्ता में पार्टी के हाथों का खिलौना बन गई है।'
‘पुलिस प्रमुखों के लिए न्यूनतम दो साल का कार्यकाल’
एक राज्य, नागालैंड, तीन वरिष्ठ कार्यालयों के एक समूह से संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा चुने गए डीजीपी को दो साल के न्यूनतम कार्यकाल के लिए तैनात रखने के लिए सुनिश्चित करने के लिए दूसरे निर्देश के साथ पूरी तरह से अनुपालन करता है। डीजीपी का निष्कासन विशिष्ट आधारों पर होना चाहिए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने अनिवार्य किया था।
मुंबई पुलिस के पूर्व आयुक्त एम. एन. सिंह ने कहा, "फिक्स्ड कार्यकाल अच्छा है, क्योंकि यह अधिकारियों को अपनी दृष्टि को विकसित करने और कार्यान्वित करने की अनुमति देता है। कोई केवल छह महीने के लिए काम कर रहा है.. जैसे एक व्यक्ति एक स्टेशन पर ट्रेन में सवार हो रहा है और अगले पर उतर रहा है। अचानक स्थानांतरण, पोस्टिंग और बड़े लोगों की चाल पुलिस का राजनीतिकरण करती है और इसके कामकाज में हस्तक्षेप करती है। "
लेकिन इस सुधार को लागू करने के प्रयास में, कई राज्य सुप्रीम कोर्ट के कुछ दिशानिर्देशों का पालन करने में विफल रहे थे।
उदाहरण के लिए, 2018 तक, 23 राज्यों ने, डीजीपी की नियुक्ति के लिए यूपीएससी शॉर्टलिस्ट को छोड़ दिया था। राज्य सरकार के हाथों में सभी प्रासंगिक अधिकार थे और 16 राज्यों ने डीजीपी को हटाने के लिए ‘सार्वजनिक हित में’ या ‘अन्य प्रशासनिक आधारों’ जैसे अस्पष्ट कारणों पर अनुमति दी थी।
यह सीएचआरआई द्वारा उल्लिखित राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उत्तरदायी है।
इसकी तुलना में, अधिक राज्यों (छह) ने केवल विशेष आधार पर हटाने के प्रावधानों के साथ आईजीपी के पद के लिए न्यूनतम दो साल के कार्यकाल को पूरी तरह से लागू करते हुए तीसरे निर्देश को पूरी तरह से लागू किया था। वे राज्य थे, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा।
अन्य राज्यों ने आंशिक रूप से सुधार को लागू करने की मांग की थी। इनमें से पांच इस रैंक के अधिकारियों को एक साल का कार्यकाल प्रदान करते हैं। इस बीच, 16 राज्यों ने आईजीपी की नियुक्ति को समाप्त करने के लिए ‘अस्पष्ट’ आधार पेश किया था, जिसे सीएचआरआई ने असम, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के लिए गैर-अनुपालन माना।
पांच राज्यों ( गोवा, केरल, जम्मू और कश्मीर, मध्य प्रदेश, और पश्चिम बंगाल ) और दिल्ली और केंद्र शासित प्रदेशों ने हटाने का कोई आधार नहीं बताया, इस मामले को पूरी तरह से राज्य सरकारों के विवेक पर रखा।
रिबेरो ने नियुक्तियों पर राजनीतिक प्रभाव को खत्म करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए कहा कहा,"न्यूनतम कार्यकाल अच्छा है। यदि आप गलत लोगों को नियुक्त करते हैं, तो यह फायदेमंद नहीं है।”
ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के पूर्व महानिदेशक मीरान बोरवंकर ने इंडियास्पेंड को बताया, "स्वतंत्र समितियों / आयोगों द्वारा अधिकारियों का चयन, जहां विपक्ष का नेता भी एक सदस्य होता है, सत्ताधारी पार्टी से जुड़े लोगों के चयन के बजाय योग्यता के आधार पर पोस्टिंग सुनिश्चित करेगा।"
जांच से कानून और व्यवस्था को अलग करना
जबकि 17 राज्यों / केंद्रशासित प्रदेशों ने कानून और व्यवस्था प्रवर्तन और जांच के लिए इकाइयों के पृथक्करण के प्रावधान किए थे,केवल मिजोरम ने डीजीपी की स्पष्ट अनुमति के साथ जांच इकाई के अधिकारियों को काम करने, नौकरी की सुरक्षा के साथ काम करने और अन्यत्र काम करने के लिए कानून पेश किया। इन राज्यों में कुछ अपराधों या भौगोलिक क्षेत्रों के लिए पुलिस स्टेशनों पर विशेष जांच इकाइयां थीं।
पूर्व आयुक्त सिंह ने कहा, "हमें विशेष अपराधों जैसे कि तस्करी, साइबर-अपराध आदि की जांच करने के लिए विशेष समूह बनाने चाहिए, जिनसे निपटने के लिए सभी पुलिस अधिकारी सुसज्जित नहीं हैं।" हालांकि, सिंह ने एक पूर्ण विभाजन के खिलाफ चेतावनी देते हुए कहा कि “यह न तो संभव है और न ही वांछनीय है। इसे मुंबई में आजमाया गया है, लेकिन इसने काम नहीं किया है।”
पुलिस स्थापना बोर्ड
इस निर्देश के अनुसार राज्य सरकार को सभी प्रमोशन, स्थानांतरण और पोस्टिंग का फैसला करने,अनुशंसा करने और पुलिस कार्यप्रणाली की समीक्षा करने के लिए राज्य पुलिस महानिदेशक और चार अन्य अधिकारियों को शामिल करते हुए एक पुलिस स्थापना बोर्ड (पीईबी) का गठन करने की जरुरत है।सुप्रीम कोर्ट ने इस बोर्ड को उप पुलिस अधीक्षक के रैंक से ऊपर के अधिकारियों के लिए अपील का एक मंच माना है, जो अपने स्थानान्तरण या पोस्टिंग के लिए शिकायत करते हैं।
हालांकि, सभी राज्यों ने कागज पर पीईबी स्थापित करके पांचवें निर्देश का पालन किया था। लेकिन 27 राज्य निर्देश के सभी मानदंडों का पालन नहीं करते थे। सीएचआरआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि पीईबी केवल 10 राज्यों में एक अपील फोरम की भूमिका निभाता है और पुलिस के कार्य की समीक्षा करता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अरुणाचल प्रदेश एकमात्र राज्य है, जिसने निर्देश के सभी मानदंडों का अनुपालन किया है। 1979 के राष्ट्रीय पुलिस आयोग की एक रिपोर्ट में,स्थानान्तरण या निलंबन के खतरे का मुख्य कारण राजनीतिक हस्तक्षेप माना गया है।
चालीस साल बाद, जनवरी 2019 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाली केरल राज्य सरकार ने कथित तौर पर पुलिस उपमहानिरीक्षक, चैत्र टेरेसा जॉन को हटा दिया गया और उन्हें महिला सेल के एसपी के पद पर बिठा दिया गया क्योंकि उन्होंने स्थानीय पुलिस स्टेशन पर पथराव करने के आरोपी लोगों को खोजने के लिए उनके कार्यालय पर छापा मारा था
पूर्व आयुक्त सिंह ने कहा, " इसीलिए तय किया गया कि कार्यकाल महत्वपूर्ण है। यह इस तरह के निष्कासन और स्थानांतरण को रोकेगा।"
2015 के एक अध्ययन के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 10 पुलिस व्यक्तियों में से नौ ने कहा कि उन्होंने राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण तनाव महसूस किया, जबकि 2014 में एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि ‘किसी भी समय निलंबित’ होने के जोखिम के कारण नौकरी की असुरक्षा तनाव का एक प्रमुख स्रोत है और कई पुलिस अधिकारियों ने अन्य नौकरियों की तलाश की है।
सिंह ने कहा, "तबादले, पोस्टिंग, प्रशिक्षण और अनुशासन पुलिस प्रमुखों के हाथों में होने चाहिए, न कि सरकार के हाथ में।"
पुलिस शिकायत सेल
अब तक, केवल आंध्र प्रदेश ने छठे निर्देश का पूरी तरह से पालन किया है। पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सार्वजनिक शिकायतों को संबोधित करने के लिए राज्य और जिला स्तरों पर एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण (पीसीए) की स्थापना की है। सुप्रीम कोर्ट की अन्यथा मांग के आदेश के बावजूद,16 राज्यों में, पीसीए की स्वतंत्र सिफारिशें राज्य सरकार की समीक्षा के अधीन हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में अभी तक किसी भी स्तर पर कोई पीसीए स्थापित नहीं किया गया है।
कॉमन कॉज-सीएसडीएस सर्वेक्षण-2018 के अनुसार, जुलाई 2018 में, लगभग 29 फीसदी भारतीयों ने कहा कि उन्होंने एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर बहुत भरोसा किया। 23 फीसदी ने एक स्थानीय पुलिस अधिकारी में विश्वास जताया। यातायात पुलिस में 16 फीसदी ने भरोसा दिखाया। तुलना में, 54 फीसदी भारतीयों की सेना विश्वास है, उसके बाद न्यायपालिका में 31 फीसदी लोगों का विश्वास है।
रिबेरो ने कहा, “महाराष्ट्र में, यह (पुलिस शिकायत प्राधिकरण) एक आपदा है। मूल रूप से, यदि आप ऐसे लोगों को नियुक्त करते हैं जो आपकी बोली लगाने जा रहे हैं, तो आप केवल नाम मात्र के लिए सुधारों को लागू कर रहे हैं, हालांकि सच्चाई यह है कि आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं। ”
भीतर से सुधार
सिंह ने सिफारिश की कि विधायिका और न्यायपालिका के अलावा पुलिस को भी जनता के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया जाए। उन्होंने कहा, "अगर पुलिस और जनता सीधे बातचीत करते हैं, तो दी जाने वाली सेवा में काफी सुधार होगा।"
राज्य सरकार से अलग, पुलिस बल के भीतर से बहुत कुछ किया जा सकता है। प्रसाद ने कहा, "पुलिस का नेतृत्व बहुत कुछ बदल सकता है।"
पुलिसिंग मामलों में सीधे कहने के लिए, सिंह ने सुझाव दिया कि नियमित रूप से पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक करने और उन्हें फीडबैक प्रदान करने के लिए प्रत्येक जिले में नागरिक समितियों की स्थापना की जानी चाहिए। उन्होंने कहा, "उदाहरण के लिए, इंग्लैंड में पहले से ही एक 'नेबरहुड वॉच' प्रणाली है जिसके तहत सार्वजनिक हितधारक और पुलिस अक्सर संवाद करते हैं।"
सिंह ने कहा, वास्तव में, पुलिस नेतृत्व के स्तर पर कई सुधार किए जा सकते हैं। उन्होंने सेवानिवृत्त भारतीय पुलिस अधिकारी और सिविल सेवक जूलियो रिबेरो का उदाहरण दिया, जिन्होंने 1982 से 1985 तक मुंबई पुलिस आयुक्त के रूप में कार्य किया। उन्होंने कहा, "राजनीतिक हस्तक्षेप को कम करने के लिए, रिबेरो ने पुलिस अधिकारियों के साथ स्टेशन अधिकारियों की नियुक्ति का निर्णय रखा। स्टेशन अधिकारियों को दो साल के न्यूनतम कार्यकाल की गारंटी दी। किसी भी राजनेताओं के दवाब के खारिज किया। और उन्होंने इसे औपचारिक रूप से नियमों में शामिल किया। पुलिस सुधार के लिए सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं रहा जा सकता है।"
कुछ विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि वर्तमान राजनीति में नेतृत्व के स्तर पर सुधार संभव या निरर्थक हो सकते हैं।
रिबेरो कहते हैं, " मेरे जमाने में, नेतृत्व स्तर पर इस तरह के सुधार संभव थे। अब, मैं वर्तमान असंतुष्टों के लिए दुख महसूस करता हूं, क्योंकि उनके हाथ बंधे हुए हैं। हालांकि कई अच्छे अधिकारी जनता की बेहतर सेवा करना चाहते हैं, फिर भी राजनेताओं के पास आखिरी चाबी है। एक घटना मुझे याद है। यहां तक कि एक अधिकारी जिनके खिलाफ कई शिकायतें थीं, को हटाने के लिए, पुलिस नेतृत्व में से एक को अनुमति के लिए सरकार को लिखना पड़ा।”
रिबेरो मानते हैं कि सार्वजनिक दबाव सरकार को पुलिस सुधार सुनिश्चित करने के लिए मजबूर कर सकता है। उन्होंने कहा, “लोगों को सरकार पर दबाव डालना होगा कि वे सही व्यक्ति को नियुक्त करें, जो उनके हितों की देखभाल करने जा रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी आगे आना होगा - गलत नियुक्तियों के खिलाफ जनता को जागरूक करना होगा, क्योंकि सभी राजनीतिक दल केवल तभी परेशान होते हैं, जब उन्हें वोट खोने की आशंका होती है।”
(मेहता इंडियास्पेंड में इंटर्न हैं ।)
यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 30 अगस्त 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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