जलवायु परिवर्तन से बिहार में खेती के बुरे दिन
पटना: ग्लोबल वार्मिंग में कोई ख़ास योगदान ना होने के बावजूद, बिहार को जलवायु परिवर्तन के अंजाम भुगतने पड़ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा असर बिहार में खेती पर पड़ा है। बेमौसम बरसात, मॉनसून की बारिश का लगातार कम होना और तापमान में लगातार बढ़ोत्तरी ने बिहार की खेती की तस्वीर बदल कर रख दी है। कभी फ़ायदे का सौदा कही जाने वाली खेती में अब नुकसान के अलावा कुछ नहीं बचा है।
राजधानी पटना से कुछ ही दूर स्थित मोकामा टाल क्षेत्र दाल की खेती के लिए मशहूर है। आमतौर पर यहां अक्टूबर के मध्य से 15 नवंबर तक दलहन की बुआई हो जाती है। इस साल किसानों को लगा था कि समय से बुआई हो जाएगी, क्योंकि सितंबर में मॉनसून की विदाई से हफ़्ते भर पहले बारिश बंद हो गई थी। लेकिन, चौथे हफ़्ते में तीन दिन में ही करीब 350 मिलीमीटर बारिश हो गई, जो बिहार में मॉनसून के सीज़न में होने वाली औसत बारिश का क़रीब 30% था। अचानक हुई इस बारिश से मोकामा टाल क्षेत्र में इतना पानी भर गया, जो अभी तक नहीं निकल पाया है।
मोकामा टाल क्षेत्र के 69 वर्षीय अरविंद सिंह ने 70 के दशक में सरकारी नौकरी की जगह खेती को चुना। उन्हें 40 बीघा ज़मीन में खेती-बाड़ी का जिम्मा विरासत में मिला। कुछ दशकों तक तो सब कुछ ठीक रहा, लेकिन अब वह अपने फ़ैसले पर अफ़सोस करते हैं।
“90 के दशक तक खेती-किसानी फ़ायदे का सौदा हुआ करती थी, लेकिन अब मौसम की अनिश्चितता इतनी बढ़ गई है कि कई बार भारी नुक़सान उठाना पड़ता है। अब मुझे लगता है कि खेती की जगह सरकारी नौकरी चुन लेता, तो फ़ायदे में रहता,” अरविंद सिंह कहते हैं।
“बारिश का पानी नहीं निकलने से 7,500 बीघे में इस बार दलहन की बुआई नहीं हो सकी है। इसमें मेरा भी खेत शामिल है,” बेमौसम हुई बारिश पर अरविंद सिंह ने कहा।
जलवायु परिवर्तन ने अरविंद सिंह की तरह ही बिहार के लाखों किसानों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं।
मॉनसून में बदलाव
बिहार का भौगोलिक क्षेत्रफल 93.60 लाख हेक्टेयर में फैला हुआ है। इनमें से 79.46 लाख हेक्टेयर ज़मीन में खेती की जाती है। राज्य की 90 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और उनकी कमाई का मुख्य ज़रिया खेती है। इनमें सीमांत और छोटे किसान 90% से ज़्यादा हैं। खेती से उन्हें इतनी कमाई भी नहीं हो पाती है कि परिवार पाल सकें और दूसरी तरफ़ मौसम में लगातार हो रहे बदलावों से खेती में अनिश्चितताएं और बढ़ गई हैं। खेती के इस संकट ने पलायन भी बढ़ाया है।
मौसम में बड़े बदलाव का संकेत पिछले एक दशक में बारिश के पैटर्न में उलटफेर में मिलता है। बिहार में खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है, इसलिए इसका खेती पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है।
एक जून से 30 सितंबर तक बिहार में औसतन 1,027.6 मिलीमीटर बारिश होनी चाहिए, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 साल (साल 2010 से 2019 तक) में सिर्फ़ दो बार ऐसे मौके आए, जब औसत से ज़्यादा बारिश दर्ज की गई। साल 2011 में 1057.6 मिलीमीटर और इस साल 1050.4 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई। सबसे कम 723.4 मिलीमीटर बारिश साल 2013 में दर्ज की गई थी, जो औसत से 30 प्रतिशत कम थी।
Year | Rainfall in Monsoon (1 June to 30 September) |
2010 | 794.0 mm |
2011 | 1057.6 mm |
2012 | 815.4 mm |
2013 | 723.4 mm |
2014 | 849.3 mm |
2015 | 774.7 mm |
2016 | 971.6 mm |
2017 | 936.8 mm |
2018 | 771.3 mm |
2019 | 1050.4 mm |
भारतीय मौसम विभाग से मिले आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि औसत बारिश में ये गिरावट सभी महीनों में दर्ज की गई। मसलन, जून के महीने में औसतन 168 मिलीमीटर बारिश होनी चाहिए, पिछले 6 साल में कभी भी औसत से ज़्यादा बारिश नहीं हुई।
जुलाई में मॉनसून अपने शबाब पर होता है और इस महीने सबसे ज़्यादा औसतन 343 मिलीमीटर बारिश होनी चाहिए लेकिन 6 साल के आंकड़े बताते हैं कि साल 2016, 2018 और 2019 में ही बारिश औसत से ऊपर पहुंच पाई।
इसी तरह अगस्त में 291.3 मिलीमीटर बारिश होनी चाहिए, मगर 6 साल में दो बार ( साल 2014 और 2018) ही बारिश औसत से ज़्यादा हुई। सितंबर मॉनसून की विदाई का महीना होता है। इस महीने औसतन 224.3 मिलीमीटर बारिश होनी चाहिए, लेकिन 6 साल में दो बार ही ऐसे मौके आए, जब बारिश औसत से अधिक हुई।
Year | June | July | August | September |
2014 | 115.3 mm | 266.8 mm | 304 mm | 163.2 mm |
2015 | 122 mm | 232.9 mm | 288 mm | 101..5 mm |
2016 | 128.8 mm | 356.5 mm | 150 mm | 335.7 mm |
2017 | 84 mm | 379.9 mm | 342.8 mm | 129.5 mm |
2018 | 100.7 mm | 291.2 mm | 266.1 mm | 112.8 mm |
2019 | 98.7 mm | 418.5 mm | 140.4 mm | 398 mm |
खेती पर मॉनसून का असर
मॉनसून की बारिश में गिरावट से फ़सलों पर बुरा असर पड़ रहा है और कई बार फ़सलें सूख जाती हैं। इसी साल सितंबर के तीसरे हफ़्ते के ख़त्म होने के बावजूद पर्याप्त बारिश नहीं होने की वजह से बिहार सरकार ने 18 ज़िलों के 102 प्रखंड के 896 पंचायतों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था।
“मेरे पास 10 बीघा ज़मीन है। धान की बुआई के सीज़न में हमारी तरफ़ बिल्कुल भी बारिश नहीं हुई, जिस कारण मैं इस साल धान की बुआई नहीं कर पाया,” कम बारिश वाले क्षेत्र में पड़ने वाले नवादा ज़िले के छतरवार गांव के किसान सहदेव मुखिया ने बताया।
नवादा में सितंबर महीने में औसतन 181.6 मिलीमीटर बारिश होनी चाहिए थी, लेकिन सितंबर के तीसरे हफ़्ते तक लगभग 60 मिलीमीटर बारिश हुई थी।
पिछले साल खरीफ़ के सीज़न में कम बारिश होने की वजह से बिहार सरकार ने 24 ज़िलों के 275 प्रखंडों को सूखाग्रस्त घोषित किया था। इससे पहले साल 2015 में 38 में से 33 ज़िलों को सूखाग्रस्त घोषित किया गया था।
141 साल के आंकड़े
जर्नल ऑफ़ वाटर रिसोर्सेज़ एंड हायड्रॉलिक इंजीनियरिंग मैगज़ीन के सितंबर 2016 में ‘क्लाइमेट चेंज इन बिहार, इंडिया: ए केस स्टडी’ नाम से छपे एक रिसर्च पेपर में 141 साल के आंकड़ों का विश्लेषण कर बताया गया है कि मॉनसून और सर्दी के मौसम में बारिश में गिरावट का ट्रेंड दिख रहा है और तापमान में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है।
रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 1901 से 2009 के दरमियान बिहार के तापमान में 0.479 डिग्री सेल्सियस का इज़ाफ़ा हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर यह बढ़ोत्तरी 0.56 डिग्री सेल्सियस रही। साल 1901 से 2002 के दौरान बिहार में बारिश में 201.348 मिलीमीटर की गिरावट दर्ज की गई।
इस रिसर्च पेपर से एक दिलचस्प बात यह भी पता चली है कि मॉनसून पूर्व बारिश में इज़ाफ़ा हो रहा है और यही वजह है कि मॉनसून के आने से पहले बिहार में ठनका (बिजली) गिरने की घटनाएं बढ़ी हैं।
क्लाइमेट रेज़िलियेंट ऑब्ज़र्विंग सिस्टम्स प्रोमोशन काउंसिल, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और वर्ल्ड विज़न इंडिया की संयुक्त मिड मॉनसून 2019 लाइटनिंग रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2019 में एक अप्रैल से 31 जुलाई के बीच बिहार में बिजली गिरने की 2,25,508 घटनाएं हुईं, जिनमें कुल 170 लोगों की मौत हो गई। उत्तर प्रदेश के बाद बिजली गिरने से सबसे ज़्यादा मौतें बिहार में दर्ज की गई।
“जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बिहार में स्पष्ट रूप से दिख रहा है। किसी साल भले ही ज़्यादा बारिश हो जाए, लेकिन ट्रेंड यही बता रहा है कि बारिश घट रही है और तापमान में उछाल आ रहा है,” ‘क्लाइमेट चेंज इन बिहार, इंडिया: ए केस स्टडी’ के लेखक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (पटना) के प्रोफ़ेसर लाल बहादुर रॉय ने बताया।
“इसका बिहार की खेती-बाड़ी पर गहरा असर पड़ेगा। अगर तापमान में एक डिग्री की बढ़ोत्तरी हो जाएगी, तो फ़सलों को पानी की ज़्यादा ज़रूरत पड़ेगी, फसलों की बुआई और कटाई का समय बदल जाएगा,” प्रोफ़ेसर लाल बहादुर रॉय विस्तार से बताते हुए कहते हैं।
उत्तर बिहार के सुपौल ज़िले के मन्नाटोला निवासी 40 वर्षीय रामचंद्र यादव का 15 सदस्यों का संयुक्त परिवार है। एक समय वह कम से कम 5 बीघा में हर साल धान की खेती करते थे, लेकिन अब रक़बा घट गया है।
“पहले धान की रोपनी के बाद से लेकर कटाई तक सिंचाई की ज़रूरत नहीं पड़ती थी क्योंकि पर्याप्त बारिश हो जाती थी। अब ऐसा नहीं है। बारिश कम होने की वजह से तीन से चार पानी देना पड़ता है, तब फ़सल तैयार हो पाती है। इससे खेती की लागत बढ़ जाती है। इसलिए अब हम एक बीघा में ही धान की खेती करते हैं,” रामचंद्र यादव ने बताया।
सुपौल बाढ़ के असर वाला ज़िला है। यहां कोसी नदी बहती है और यहां कमोबेश हर साल ही बाढ़ आती है। रामचंद्र यादव एक अलग समस्या की तरफ़ भी इशारा करते हैं, जो प्रत्यक्ष न भी हो तो परोक्ष रूप से बदलते मौसम का ही एक नतीजा है। “पहले कोसी की धारा में परिवर्तन 10-12 साल में एक बार होता था, लेकिन अब हर साल होने लगा है, जिससे हर साल हमें अपना ठिकाना बदलना पड़ता है। यही नहीं, नदी के कटाव का भी अब कोई सटीक समय नहीं है। पहले नदी का कटाव तब शुरू होता था, जब हम लोग खेतों से फसल काट चुके होते थे। लेकिन, अब कटाव जल्दी हो रहा है। मेरे खेत में अब भी फ़सल लगी हुई है, लेकिन नदी ज़मीन को अपनी चपेट में ले रही है,” रामचंद्र ने बताया।
जलवायु परिवर्तन से बढ़ा खेती का संकट
डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के सेंटर फ़ॉर एडवांस स्टडीज़ ऑन क्लाइमेट चेंज के एग्रोमेटियोरोलॉजी विभाग के प्रभारी प्रो. अब्दुस सत्तार मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने किसानों को बड़े संकट में डाल दिया है।
“पहले मॉनसून के मौसम में 55 से 60 दिन तक बारिश होती थी, जो अब घट कर 45 से 50 दिन रह गई है। यह पूरी खेती पर गहरा असर डाल रहा है। इससे हो यह रहा है कि बारिश नहीं होती है तो बिल्कुल नहीं होती और कभी-कभी एक-दो दिन में बहुत ज़्यादा बारिश हो जाती है। इस वजह से धान जैसी फ़सलों को काफ़ी नुक़सान हो रहा है। बारिश में इस बदलाव के कारण एक ही समय में कहीं सूखे की स्थिति हो रही है, तो कहीं बाढ़ आ रही है,” प्रो. अब्दुस सत्तार बताते हैं।
प्रो. सत्तार जलवायु परिवर्तन का दूसरा प्रभाव हथिया नक्षत्र की बारिश में देख रहे हैं। हथिया नक्षत्र की बारिश सितंबर के आख़िरी हफ़्ते से अक्टूबर के पहले हफ़्ते तक होती है। “हथिया नक्षत्र की बारिश में भी भारी गिरावट देखी जा रही है। इसका असर भी खेती पर देखने को मिल रहा है। हथिया नक्षत्र की बारिश पर ही मक्का, चना, गेंहू, सरसों आदि रबी फ़सलों की बुआई निर्भर होती है, क्योंकि इस बारिश के कारण मिट्टी में काफ़ी नमी होती है, जिससे फ़सल अच्छी होती है और सिंचाई की ज़रूरत नहीं के बराबर होती है। लेकिन, हथिया नक्षत्र की बारिश में गिरावट के कारण किसानों की लागत बढ़ रही है और पैदावार में कमी आ रही है,” प्रो. सत्तार कहते हैं।
समस्या का समाधान
एक तरफ़ बारिश में कमी आ रही है, तो दूसरी तरफ़ तापमान में इज़ाफ़ा भी हो रहा है, जो रबी की फ़सल पर बुरा असर डाल रहा है।
रबी की फ़सल की बुआई के लिए अत्यधिक तापमान की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन चूंकि तापमान अधिक रहता है, तो किसानों को तापमान में गिरावट आने के लिए दिसंबर-जनवरी तक का इंतेज़ार करना पड़ रहा है।
डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी से मिले आंकड़ों के मुताबिक़, साल 1980 से 1999 के बीच (जून से सितंबर के बीच मॉनसून सीज़न में) में बारिश रहित दिनों की संख्या 1,599 थी, जो 2000 से 2019 के बीच बढ़ कर 1,626 हो गई।
आंकड़े यह भी बताते हैं कि 1968 से 2018 के बीच न्यूनतम तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस का इज़ाफ़ा हुआ है, जो ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का संकेत है।
“हम देख रहे हैं कि फ़रवरी तक तापमान 25 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है और फरवरी ख़त्म होते ही तापमान 30 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच जाता है। इससे गेहूं के परागण पर बहुत असर पड़ता है,” प्रो. अब्दुस सत्तार ने बताया।प्रो. सत्तार इस समस्या के समाधान के लिए मौसम आधारित खेती पर ज़ोर देते हैं। “अगर बारिश कम हो, तो धान की खेती नहीं करनी चाहिए, जो लंबी अवधि में तैयार होती है, इसमें अधिक पानी की ज़रूरत पड़ती है। जहां सूखा ज़्यादा पड़ रहा है, वहां मूंगफली की खेती की जा सकती है,” उन्होंने कहा।
जलवायु परिवर्तन के कारण खेती पर पड़ रहे प्रभावों के मद्देनज़र बिहार सरकार ने पिछले महीने मौसम अनुकूल कृषि कार्यक्रम की शुरुआत की। यह कार्यक्रम ‘जल, जंगल, हरियाली अभियान’ के अंतर्गत चलेगा। इसमें किसानों को मौसम के अनुकूल फ़सलों की खेती के लिए प्रेरित करने, कम पानी में उपजने वाली फ़सलों पर ज़ोर देने और मौसम को ध्यान में रखते हुए फ़सल चक्र में बदलाव करने पर ध्यान दिया जाएगा।
“इस कार्यक्रम के दो अहम बिंदू हैं – जलवायु अनुकूल खेती और तकनीक से किसानों को रूबरू कराना व उन्हें प्रशिक्षित करना और खेती पर जलवायु परिवर्तन के असर का अध्ययन,” कृषि विभाग के सचिव डॉ एन. सरवना कुमार ने बताया।
मौसम अनुकूल कृषि कार्यक्रम 5 साल के लिए है और इस पर 60.65 करोड़ रुपए ख़र्च किए जाएंगे। कृषि विभाग के अधिकारियों के मुताबिक़, पहले चरण में अलग-अलग जलवायु क्षेत्र के कुल 8 ज़िलों मधुबनी, खगड़िया, भागलपुर, बांका, मुंगेर, नवादा, गया और नालंदा का चयन किया गया है। इन ज़िलों के 5-5 गांवों को क्लाइमेट स्मार्ट गांव के रूप में विकसित किया जाएगा और बाद में इसका विस्तार पूरे राज्य में किया जाएगा।
(उमेश, पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं।)
हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण की शुद्धता के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।