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मुंबई: जुलाई 2018 में, जब अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने 25 वर्षीय नेटवर्क लगभग 50 दारुल काजा (शरिया या इस्लामी कानून की शिक्षाओं के आधार पर परामर्श केंद्र) की हर भारतीय जिले में विस्तार करने की घोषणा कि तो दक्षिणपंथियों ने काफी नाराजगी जाहिर की।

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सांसद, मीनाक्षी लेखी ने जिलों में शरिया क विस्तार को एक खतरे की तरह महसूस किया और इसे "भारत को इस्लामी गणराज्य" बनाने के प्रयास में एक कदम की तरह देखा। अन्य ने कहा कि बिना सोचे दी गई प्रतिक्रियाएं यह समझने में नाकाम रहीं कि इन 'अदालतों' द्वारा दिए गए फैसले कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं बल्कि सलाह हैं जो नागरिक अदालत के मामलों की संख्या को कम करने की कोशिश करेंगे।

इस उथल-पुथल को देखने और दारुल कजा कैसे काम करते हैं, इस सच्चाई पर प्रकाश डालने के लिए इंडियास्पेंड ने प्रमुख महिला अधिकार वकील और मजलिस के सह-संस्थापक फ्लाविया एग्नेस से बात की है। मजलिस एक कानूनी और सांस्कृतिक केंद्र है जो महिलाओं और बच्चों को कानूनी प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। एक प्रभावशाली लेखक और कार्यकर्ता, 71 वर्षीय एग्नेस ने घरेलू हिंसा, अल्पसंख्यक कानून सुधार, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकारों से संबंधित मुद्दों पर व्यापक रूप से लिखा है। उनके काम को राष्ट्रीय स्तर के प्रकाशनों में जगह मिली है, जैसे द हिंदू, द इंडियन एक्सप्रेस इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकलीआदि। 1988 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा 'माई स्टोरी ... आर स्टोरी: ऑफ़ रीबिल्डिंग ब्रोकन लाइव्स' ने घरेलू दुर्व्यवहार के बचे हुए लोगों के लिए उपलब्ध कानूनी सेवाओं का खुलासा किया । भारत में महिलाओं के आंदोलन के लिए मार्गदर्शक बन गई वह किताब। वह मुंबई उच्च न्यायालय में वकील हैं और महाराष्ट्र राज्य सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग की सलाहकार भी हैं।

मजलिस ने हाल ही में अपना 25वीं वर्षगांठ मनाई है। मजलिस ने 1999 के मुंबई और 2002 के गुजरात सांप्रदायिक दंगों के पीड़ितों के साथ काम किया है। एग्नेस के संगठन ने गुजरात में हिंसा के बाद राहत शिविरों में यौन उत्पीड़ित महिलाओं के लिए कानूनी वकालत कार्यक्रम शुरू किया, और इसकी वेबसाइट के मुताबिक, " वे लगातार देश में हिंदू कट्टरतावाद की बढ़ती लहर का सामना कर रहे हैं।

वर्तमान में विभिन्न भारतीय अदालतों में 2.7 मिलियन से ज्यादा मामले सुनवाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो कि पांच साल से 24 फीसदी अधिक है।

वैकल्पिक विवाद समाधान केंद्र एक ऐसे देश में उपयोगी साबित हो सकते हैं जहां एक धीमी न्यायिक प्रणाली है। उदाहरण के रूप में 2011 के दिल्ली उच्च न्यायालय ने तीन दशक की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 85 वर्षीय व्यक्ति को तलाक देने का फैसला किया।

अध्ययनों से पता चला है कि इस्लामी वैकल्पिक विवाद प्रस्ताव का मुख्य लाभ काफी हद तक महिलाओं, तलाक, भूमि और अन्य पारिवारिक विवादों के मामले में है।

प्रत्येक अदालत के दौरे पर औसतन 350 रुपये प्रति दिन (100,000 रुपये से कम की घरेलू आय वाले लोगों के लिए कमाई का 25 फीसदी) के साथ कई कम आमदनी और वंचित व्यक्तियों के लिए न्याय के मार्ग में बाधाएं आ सकती हैं।

एक ईमेल साक्षात्कार में, एग्नेस बताती हैं कि क्यों इस्लामोफोबिया को बढ़ाने के समय, हमें दारुल कजा पर राजनीतिक अवधारणा से बचना चाहिए, जिससे पूरी तरह से ये समझा जा सके कि कैसे समुदाय के लोग इसका उपयोग कर रहे हैं और उनके काम से लाभान्वित हैं?

संपादित अंश:

शब्दावली

    • शरिया - इस्लामिक कानून, जो कुरान और विद्वानों द्वारा धार्मिक ग्रंथों की व्याख्याओं पर आधारित है।

    • दारुल कजा - धार्मिक कानून विशेषज्ञों द्वारा मध्यस्थ विवाद समाधान केंद्र।

    • तलाक - सुलह के सभी प्रयासों की समाप्ति के बाद पति द्वारा शुरू की गई अलग होने की प्रक्रिया। पत्नी द्वारा शुरू किए गए अलग होने की प्रक्रिया को खुला कहा जाता है।

    • ट्रिपल तलाक या तालक-ए-बिदाह – पति द्वारा पत्नी को तीन बार “तलाक, तलाक, तलाक” कहना। इसके बाद पति-पत्नी साथ नहीं रह सकते और न ही दोबारा शादी कर सकते हैं।

    • तलाकनामा - तलाक आवेदन दस्तावेज।

    • फतवा - धार्मिक कानून के आधार पर किसी व्यक्ति द्वारा मांगे गए एक प्रश्न का उत्तर। सलाह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है और व्यक्ति का स्वीकार करना या न करना वैकल्पिक है।

    • मुफ्ती - धार्मिक कानून में एक विशेषज्ञ

    • काजी - एक शरिया अदालत की अध्यक्षता करने वाला न्यायाधीश।

Source: The Muslim Law Shariah Council UK, Council on Foreign Relations, The Islamic Supreme Council of America

अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के देश के हर जिले में शरिया अदालतें स्थापित करने का इरादा रखने पर संसद सदस्यों के बीच नकारात्मक और तीखी प्रतिक्रियाएं हुईं है। क्या आप बता सकती हैं कि आपको ऐसा क्यों लगता है कि जो लोग शरिया अदालतों को एक 'समानांतर कानूनी व्यवस्था' के रूप में देखते हैं, उन्हें शरिया अदालतों के काम के तरीकों को लेकर गलतफहमी है?

धारणा है कि हर जिले में दारुल कजा स्थापित करने का यह कदम ट्रिपल तलाक (शायरा बानो बनाम भारतीय संघ) मामले में हालिया संवैधानिक खंडपीठ के फैसले के प्रभाव को कमजोर करने के उद्देश्य से प्रेरित है। पिछले अगस्त में दिए गए इस फैसले में ट्रिपल तलाक को अवैध घोषित किया था। लेकिन इसका कोई आधार नहीं है, दारुल कजा लंबे समय से भारत में काम कर रहा है। मिसाल के तौर पर, पटना में इमरत-ए-शरिया, जिसमें एक अच्छी तरह से चलने वाला वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र है, 1920 में स्थापित किया गया था । कई उत्तर भारतीय राज्यों में दारुल कजा का व्यापक नेटवर्क है।

उस समय, इस संस्थान की स्थापना के आसपास कोई विवाद नहीं था। इसके अतिरिक्त मुफ्तियों द्वारा संचालित दारुल कजा भी हैं, जो किसी भी दारुल कजा से संबद्ध नहीं हैं। असल में एआईएमपीएलबी के पास दारुल कजा स्थापित करने का एकाधिकार नहीं है। कोई भी जानकार मुफ्ती, जो सामाजिक रूप से जागरूक है, परिवार विवादों को हल करने में मदद के लिए एक दारुल कजा स्थापित कर सकता है।

इस्लामी कानून तंत्र के आस-पास गलतफहमी पहले भी देखी गई है। 2006 इमराना बलात्कार का मामला, जब उत्तर प्रदेश में एक मामूली क्लर्क से पत्रकार द्वारा प्राप्त एक फतवा को बाध्यकारी और अति रूढ़िवादी इस्लामी फैसले के उदाहरण के रूप में व्यापक रूप से कायम रखा गया था। क्या आपको लगता है कि एआईएमपीएलबी की अपनी ताफीम-ए-शरीयत समिति को सक्रिय करने की योजना जागरूकता के स्तर और विरोध समूहों के बीच संबंधों को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी?

हां, मुझे यकीन है कि ऐसी पहल माहौल को स्वस्थ करने और इस्लाम और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के बारे में एक सच्ची तस्वीर दिखाने में मदद करेंगी। फिलहाल इस्लामोफोबिया और 'दूसरे' का डर है, क्योंकि हम मुस्लिमों की परंपराओं, रीति-रिवाजों और प्रथाओं के बारे में नहीं जानते हैं। जानकारी न होने की वजह से हम अज्ञानता के माध्यम से, हम इस्लाम से संबंधित हर चीज को महिला-विरोधी के रुप में ब्रांडिंग कर रहे हैं।

हाल ही में एक मुस्लिम महिलाओं के सम्मेलन में, जिसका शीर्षक, ‘मुस्लिम वुमन – राइट्स एंड रिएलिटी’ था, कुछ कार्यकर्ताओं ने हैदराबाद में शुरू की गई एक परियोजना का उल्लेख किया जिसे ' एडॉप्य ए मॉस्क” कहा जाता है। वे छात्रों और संबंधित नागरिकों के एक समूह को एक मस्जिद में जाने के लिए आमंत्रित करते हैं, मस्जिद के इमाम से बातचीत करते हैं और नमाज (प्रार्थना) और उसके बाद की अनुष्ठानों का भी पालन करते हैं। इसके लिए मैं जोड़ना चाहती हूं, हम सभी दारुल कजा जा सकते हैं और खुद देख सकते हैं कि उनके बारे में गलत और अमान्य अनुमान बनाने से पहले वे कैसे विवादों को हल करते हैं। यह हवा को साफ करने में मदद कर सकता है।

कानपुर में एक दारुल कजा में अध्ययन किए गए 100 मामलों मे से कम से कम 95 मामले महिलाओं द्वारा दायर किया गए थे, जो शादी या रख-रखाव के मुद्दे थे, जैसा कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर द्वारा 2017 के एक अध्ययन में बताया गया है। यह हमें इस समुदाय में महिलाओं के बीच इसकी भूमिका के बारे में क्या बताता है?

केवल कानपुर में ही नहीं, यह मुंबई के सभी कजा के बारे में भी यही सच है। मैंने काम करने वाले आठों कजा का दौरा किया है और प्रत्येक ने कहा कि पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएं उनसे संपर्क करती हैं। इनमें से कुछ ने कहा कि लगभग 95 फीसदी महिलाएं हैं।

ऐसा इसलिए है क्योंकि जब एक मुस्लिम महिला को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है तो वह अक्सर परिवार अदालत की बजाय अपनी शादी को भंग करने के लिए एक दारुल कजा जाना पसंद करती है। एक दारुल कजा में महिलाएं खुद को अधिक कंफर्ट महसूस करती हैं।

क्योंकि वे संस्कृति से परिचित हैं, भाषा को समझते हैं। इसके अलावा दारुल कजा नागरिक अदालतों की तुलना में पारिवारिक विवादों को हल करने के लिए त्वरित और सस्ता विकल्प प्रदान करते हैं।

पुरुष दारुल कजा से संपर्क तब करते हैं, जब यदि उनकी पत्नी ने उन्हें छोड़ दिया है या पत्नी ने आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) की धारा 498 ए के तहत आपराधिक मामला दायर किया है। पुरुष तलाक की घोषणा के लिए एक दारुल कजा से संपर्क नहीं करते हैं। यह आम तौर पर गवाहों की उपस्थिति में निजी तौर पर किया जाता है और तलाकनामा को एक काजा द्वारा लाया जाता है और कानूनी नोटिस के साथ एक वकील द्वारा भेजा जाता है।

अगर दारुल कजा को समाप्त कर दिया गया था और व्यक्तिगत कानून मामलों को धर्मनिरपेक्ष न्यायपालिका के दायरे में और अधिक लाया गया था, तो आपकी राय में उन समुदायों पर असर होगा, जो परंपरागत रूप से कुछ मुद्दों को हल करने के लिए वैकल्पिक विवाद तंत्र की ओर देखते थे?

आज हमारी न्यायपालिका पर अत्यधिक बोझ है और मामले बहुत लंबे समय तक खींचते हैं। तो वास्तव में लोक अदालतों (पीपुल्स कोर्ट), मध्यस्थता केंद्र आदि जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र के माध्यम से विवादों को हल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसलिए मुझे नहीं लगता कि सरकार दारुल कजा को खत्म कर देगी।

भले ही वे समाप्त हो जाएं, फिर भी नागरिक विवादों को हल करने के लिए स्थानीय पंचायत, पारिवारिक बुजुर्गों, धार्मिक प्रमुखों और स्थानीय राजनीतिक दलों आदि द्वारा मध्यस्थता जैसे विभिन्न वैकल्पिक मंचों का चयन कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर, यहां तक ​​कि ईसाईयों और हिंदुओं के बीच भी ऐसे विकल्प उपलब्ध हैं। ईसाईयों के पास अपने स्वयं के चर्च ट्रिब्यूनल हैं और परिवार के विवादों को हल करने के लिए कई निचली जाति के हिंदू अपने जाति पंचायत या गांव पंचायतों से संपर्क करते हैं।

हिंदू विवाह अधिनियम जाति के रिवाज के अनुसार दिए गए तलाक को मान्य करता है। इसलिए यदि मुसलमान एक दारुल कजा में खुला (पत्नी द्वारा शुरू किया गया तलाक) प्राप्त करने का विकल्प चुनते हैं, तो पति भी विवाद को हल करने के लिए इस मंच को स्वीकार करता है और दोनों पार्टियां दारुल कजा के फैसले का पालन करती हैं, इसे कैसे रोका जा सकता है? सबसे अधिक, खुला प्राप्त होने के बाद, पार्टियां अभी भी एक पारिवारिक अदालत में एक सूट दर्ज कर सकती हैं, जो कि औपचारिक न्यायिक निर्णय प्राप्त करने के लिए है। लेकिन पार्टियां इसे जरूरी नहीं मान सकती हैं।

आपने पहले तर्क दिया है कि मीडिया अक्सर भारत में मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा को दर्शाता है (अधिकारों की कमी के रूप में) और राजनीतिक रूप से आरोप लगाए जाने वाले फैसले को फिट करने के लिए स्टोरी को अपने हिसाब से ढालता है। आपने जो कहा उसका एक अच्छा उद्हारण, हाल ही में "तात्कालिक ट्रिपल तलाक" के खिलाफ शायरा बानो द्वारा दायर सार्वजनिक मुकदमा है। क्या आप समझा सकती हैं कि इसका मतलब क्या है?

भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (निष्कर्षों और पद्धतियों को कानूनी विद्वानों द्वारा चुनौती दी गई) द्वारा किए गए एक अध्ययन के आधार पर मीडिया में कई लेख सामने आए। सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने एक हिंदू महिला को पितृ संपत्ति के अधिकार से इंकार कर दिया, पूरी तरह से संदर्भ से बाहर, फिर एक संदर्भ दिया कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की कमी की जांच के लिए एक संविधान बेंच स्थापित किया जाए, हालांकि यह अदालत के समक्ष कोई मुद्दा नहीं था ।

शायरा बानो घरेलू हिंसा का शिकार है जैसे कि सभी भारतीय महिलाओं में से 50 फीसदी हैं। उसने अपना वैवाहिक घर छोड़ा था और अपने माता-पिता के साथ रह रही थी। घरेलू हिंसा अधिनियम से महिलाओं के संरक्षण के तहत उनकी चिंताओं (रखरखाव, उनके बच्चों तक पहुंच और घरेलू हिंसा के खिलाफ सुरक्षा) के लिए उपचार उपलब्ध थे, लेकिन शायद किसी ने उसे इसके बारे में सलाह नहीं दी।

जब उसके पति ने वैवाहिक अधिकारों के पुनर्वास के लिए याचिका दायर किया, तो उसने इस मामले को लखनऊ से काशीपुर तक स्थानांतरित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के वकील से संपर्क किया। एक काउंटर प्रतिक्रिया के रूप में, पति के वकील ने उसे एक तलकनाम भेजा। चूंकि एक संविधान बेंच गठित किया गया था, उसके वकील ने उसे एक याचिका दायर करने और तलकनमा को चुनौती देने की सलाह दी थी, हालांकि वह लगातार खुद यह कहती रही कि घरेलू हिंसा के कारण वह अपने पति के पास वापस नहीं लौटना चाहती है। तो मेरे अनुसार यह मामला 'तत्काल और मनमाना ट्रिपल तलाक' के सूत्र पर फिट नहीं है। लेकिन रिट याचिका ने उन्हें लोकप्रियता दी और वह मुस्लिम महिलाओं के लिए एक क्रुसेडर के रूप में जाना जाने लगा। हाल ही में मैंने पड़ा कि वह बीजेपी में शामिल हो गई है।

लेख में आपने यह भी कहा कि मीडिया अक्सर भारत में मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक न्यायालय के फैसलों की एक बड़ी संख्या को अनदेखा करता है। क्या आप हमें मजलिस के साथ काम करने या मुस्लिम समुदाय के साथ बातचीत के अपने अनुभव से एक उदाहरण दे सकती हैं, जहां आप मानते हैं कि एक सफल या बड़ा मामला लोगों तक नहीं पहुंच पाया क्योंकि वह मीडिया के जरूरी नहीं था?

मैं ढेर सारे लोगों का उल्लेख कर सकती हूं क्योंकि हम मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए लगातार इन मामलों का उपयोग कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, 2002 में शामीम आरा मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने तालक की घोषणा के लिए सही प्रक्रिया निर्धारित की। इससे पहले भी 1981 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बरुल इस्लाम के फैसले थे, जहां तलाक घोषित करने की प्रक्रिया निर्धारित की गई थी। 1981 से 2002 के बाद से विभिन्न उच्च न्यायालयों ने गुवाहाटी के फैसले का पालन किया था। तो मुद्दा यह है कि मनमाने ढंग से ट्रिपल तलाक अमान्य है, पहले से ही तय किया गया था। लेकिन मीडिया में इन निर्णयों को हाइलाइट नहीं किया गया था।

इसी प्रकार 2001 में एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में, डैनियल लतीफी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने पूरे जीवन के लिए उचित निपटान की हकदार है। लेकिन इस ऐतिहासिक फैसले को उजागर करने के लिए कोई आगे नहीं आया और मीडिया ने तलाक के बाद एक मुस्लिम महिला अधिकारों से रहित होने का अपना प्रोजेक्ट जारी रखा। यह भी तथ्य है कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत मुस्लिम महिलाएं राहत के हकदार हैं, मीडिया में पर्याप्त रूप से हाइलाइट नहीं किया गया है। इसलिए हर बार जब हमने इस अधिनियम के तहत एक मुस्लिम महिला की रक्षा के लिए मजिस्ट्रेट की अदालत से संपर्क किया है, तो दूसरी तरफ तर्क दिया गया है कि एक मुस्लिम महिला इस अधिनियम के तहत राहत का दावा करने के हकदार नहीं है और यह इसलिए है, क्योंकि मीडिया ने इस मुद्दे को पर्याप्त रूप से उजागर नहीं किया था।

( संघेरा एक लेखक और शोधकर्ता हैं । इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। )

यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 23 सितंबर, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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