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नई दिल्ली: 27 जुलाई, 2018 को, पूर्वी झारखंड के एक जिले रामगढ़ में, 40 वर्षीय आदिवासी राजेंद्र बिरोर की भूख से मौत हो गई। वह "विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह" (पीवीटीजी) से संबंधित थे, और कम से कम दो जनकल्याणकारी उपाय तक उनकी पहुंच होनी चाहिए थी, जिससे उनका जीवन बच सकता था: एक पेंशन और राशन कार्ड।

राइट टू फूड (आरटीएफ) अभियान के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 10 महीनों में, बिरोर जैसे अन्य लोगों की भूख से मौत हुई है। उन्हें अंतोदय अन्न योजना (एएई) से लाभान्वित होना चाहिए था, जो भारत में गरीबों के लिए सबसे गरीब भोजन योजना है।

ज्यादातर मामलों में, झारखंड सरकार ने इनकार किया कि मृत्यु भुखमरी के कारण हुई थी (आप यहां, यहां और यहां खंडन को पढ़ सकते हैं)। राज्य खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री सरयू रॉय ने खाद्य कार्यकर्ताओं पर ‘राजनीतिक खेल’ का आरोप लगाया है। वे राजनीति को भुखमरी और इन मौतों के बीच एक लिंक के रुप में देखते हैं।

इंडियास्पेंड ने चिकित्सा विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात की और पाया कि सरकार की प्रतिक्रिया कुपोषण और भुखमरी के बीच संबंधों को शामिल करने वाले दो कारकों को ध्यान में नहीं रखती है:

  • चिकित्सकीय रूप से, इन मौतों का कारण संक्रमण और बीमारियां होने की संभावना सबसे अधिक है। लेकिन लंबे समय तक कुपोषण प्रतिरक्षा प्रणाली को कम करता है, जिससे शरीर में खतरनाक संक्रमण होता है।
  • भुखमरी से मौत गरीबी सर्कल, सरकारी उदासीनता और अनिवार्य आधार-राशन-कार्ड एकीकरण के कारण होती है, जिसकी कमी से खाद्यान्न से गरीब नागरिक वंचित हैं, जबकि वे सरकारी योजनाओं के तहत हकदार हैं। समय के साथ, इसका परिणाम कुपोषण और मृत्यु के रुप में होता है।

जैसा कि निम्नलिखित टेबल से पता चलता है, सितंबर 2017 और जुलाई 2018 के बीच झारखंड में भुखमरी से मौत के आधे मामलों में, मृतक को सार्वजनिक वितरण योजना (पीडीएस) और एएई के तहत राशन का नहीं मिला।

आरटीएफ कार्यकर्ताओं के मुताबिक, सरकार के द्वारा राशन कार्ड और बैंक खाते को आधार से जोड़ने की अनिवार्यता से उत्पन्न हुई जटिलताओं से कारण का पता लगाया जा सकता है। आधार प्रत्येक नागरिक को भारत सरकार द्वारा जारी 12 अंकों का अद्वितीय पहचान संख्या है और विभिन्न सरकारी कल्याण योजनाओं के लिए अनिवार्य घोषित किया गया है।

झारखंड में भुखमरी से मौत, सितंबर 2017 से जुलाई 2018 तक

Starvation Deaths in Jharkhand, September 2017 To July 2018
Name of victimAge (In years)Block, DistrictDate of deathDetails
1Santoshi Kumari*11Jaldega, SimdegaSep 28, 2017Family denied ration for five months as its ration card was cancelled for want of a link to Aadhaar.
2Baijnath Ravidas40Jharia, DhanbadOct 21, 2017Despite repeated applications, the family did not get a ration card.
3Ruplal Marandi*60Mohanpur, DeogharOct 23, 2017Family denied ration for two months as the thumbprint of Ruplal and his daughter did not work in the Aadhaar-based biometric authentication (ABBA) point-of-sale machine.
4Premani Kunwar*64Danda, GarhwaDec 1, 2017After September 2017, Premani’s pension was redirected to someone else’s bank account linked with her Aadhaar. Premani did not receive her ration in November 2017 even though she successfully authenticated herself through ABBA. MGNREGS work unavailable.
5Etwariya Devi*67Majhiaon, GarhwaDec 25, 2017The family did not get ration from October to December 2017 due to ABBA failure. Etwariya’s old pension was not credited in her account in November. In December, the Common Service Point operator did not give her the pension as the internet connection was disrupted just after she authenticated through ABBA. MGNREGS work unavailable.
6Budhni Soren40Tisri, GiridihJan 13, 2018The family was not issued a ration card (presumably as it did not have Aadhaar). Budhni Soren was also not issued a widow pension.
7Lukhi Murmu*30Hiranpur, PakurJan 23, 2018The family was denied its PDS rice since October 2017 due to ABBA failure. In June 2017, the family’s Antyodaya Anna Yojana card was converted into a priority ration card without its knowledge. No MGNREGS work available in the village.
8Sarthi Mahtain*Exact age not availableDhanbadApr-18She was denied her ration and pension for several months as she could not go to the ration shop and bank for Aadhaar-based biometric authentication due to illness.
9Yurai DeviExact age not availableRamna, GarhwaMay-18Denied ration
10Savitri Devi*60Dumri, GiridihJun-18Did not have a ration card despite having applied for it. She was sanctioned a widow pension in 2014, but the first pension instalment was transferred in her account in only April 2018 as her Aadhaar was not linked with her bank account. No MGNREGS work available in the village for the past two years.
11Mina Musahar45Itkhori, ChatraJun-18Did not have ration card or shelter. Was forced to beg for food and was hungry for four days.
12Chintaman Malhar50Mandu, RamgarhJun-18Was not issued a ration card or particularly vulnerable tribal group pension. Lived in makeshift shelter. No MGNREGS work available. Lived in state of semi-starvation.
13Lalji Mahto70Narayanpur, JamtaraJul-18Did not receive pension for the last three months
14Rajendra Birhor40Mandu, RamgarhJul-18Was not issued a ration card and particularly vulnerable tribal group pension.

Source: Right To Food Campaign

* Cases where Aadhaar-related failures clearly contributed to starvation

आधार और राशन कार्ड का मामला

डिजिटल भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के दृष्टिकोण के अनुरूप, जुलाई 2016 में झारखंड सरकार ने व्यक्तिगत आधार संख्याओं से जुड़ी एक ‘पेपरलेस’ सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में प्रवेश किया, जैसा कि 18 जुलाई, 2017 को TheWire.in की रिपोर्ट में बताया गया है।

इस प्रणाली में दो आवश्यकताएं हैं। पहला यह कि प्रत्येक व्यक्ति के राशन कार्ड को उसके आधार कार्ड से जोड़ा जाना चाहिए और दूसरा, प्रत्येक बार जब कोई व्यक्ति पीडीएस के तहत राशन चाहता है, तो उसके पास ‘प्वांयट ऑफ सेल' मशीन पर बॉयोमीट्रिक प्रमाणीकरण होना चाहिए, जो पात्रता की गणना करता है। ये मशीनें पीडीएस दुकानों पर स्थापित की जाती हैं, जहां डीलर को प्रत्येक लेन-देन को प्रमाणित करना होता है।

इस आधार-पीडीएस लिंकेज नियम के दो महीने बाद रांची जिले में, राशन कार्डधारकों को उनके हक का केवल 49 फीसदी या आधे से भी कम प्राप्त हुआ है, जैसा कि विकास अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज द्वारा जुलाई और अगस्त 2016 में सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है।

झारखंड में खाद्यान्न से इनकार करने पर पहले रिपोर्ट की गई है (यहां, यहां और यहां) और लोगों ने इसका विरोध भी हुआ है।

अक्टूबर 2017 में, झारखंड सरकार ने दावा किया कि पीडीएस के तहत अनाज एकत्र करने के लिए आधार अनिवार्य नहीं है। हालांकि, आरटीएफ कार्यकर्ताओं के मुताबिक, राज्य में जिला प्रशासन द्वारा अनिवार्य रूप से आधार-राशन कार्ड नियम का पालन हो रहा था। यह बिरोर के मामले में भी हुआ था।

रांची विश्वविद्यालय के एक अतिथि प्रोफेसर द्रेज ने इंडियास्पेंड को बताया, "खाद्य मंत्री या अन्य ने मीडिया को जो कुछ भी बताया हो, झारखंड सरकार ने कभी भी आधार के साथ राशन कार्ड के अनिवार्य संबंध की अपनी नीति वापस नहीं ली।"

कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि गरीबों को संकट से बचाने के लिए, पेंशन समेत सभी सामाजिक-सुरक्षा योजनाओं के साथ आधार को लिंक करने की अनिवार्यता हटा दिया जाए। रांची में एक आरटीएफ कार्यकर्ता स्वाती नारायण का मानना ​​है कि आधार-राशन एकीकरण आवश्यकता झारखंड में भुखमरी की मौत से जुड़ी हुई है।

वह कहती हैं, "झारखंड सरकार को राज्य की आबादी के 86 फीसदी से 100 फीसदी तक ग्रामीण राशन योग्यता को तत्काल सार्वभौमिक करने की जरूरत है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई परिवार नहीं छोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त, छोड़े गए परिवारों को भुखमरी के कारण भयानक मौत से बचाने के लिए कम से कम पिछले एक साल के लिए क्षतिपूर्ति खाद्य सुरक्षा भत्ता का भुगतान किया जाना चाहिए।"

खाद्य और आपूर्ति मंत्री रॉय ने जोर देकर कहा कि 14 मौत भुखमरी से संबंधित नहीं हैं। उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया, "(उन्हें) राशन कार्ड की कमी के कारण जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो सरकारी प्रणाली में कमी के कारण है, लेकिन वे भुखमरी की मौत नहीं हैं। आरटीएफ कार्यकर्ता मामले को जरूरत से ज्यादा हवा देने वाले लोग हैं। वे सिर्फ बीजेपी सरकार के खिलाफ हैं। मैंने उन्हें दिल्ली में भूख से हुई मौतों पर टिप्पणी करते नहीं देखा है। "

27 जुलाई, 2018 को दिल्ली के मंडवाली इलाके में अस्पष्ट परिस्थितियों में तीन बहनों की मौत हो गई थी। उनकी मौत का कारण संभवतः कुपोषण या भुखमरी था, जैसा कि उनके पोस्टमॉर्टम रिपोर्टों से पता चलता है।

भारत की आबादी में असमानताओं को देखते हुए ( भारत के शीर्ष 1 फीसदी के पास 73 फीसदी भारत की संपत्ति है ) हाशिए के लोगों के लिए भोजन और पोषण प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार की है, जैसा कि दिल्ली में आरटीएफ कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज कहती हैं। वह कहती हैं, "दिल्ली और झारखंड में, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है, वे बहुत सी चीजों का वादा कर सकते हैं, लेकिन इस आधार की अनिवार्यता से जमीनी स्तर पर लोग भूखे रह रहे हैं।"

ब्रुकिंग्स इंडिया के शोध निदेशक और प्रधान मंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य, शामिका रवि कहती हैं कि, प्रणालीगत समस्याओं को हल करने पर जोर दिया जाना चाहिए।

उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया, " किसी त्रुटि की वजह से अगर किसी व्यक्ति को उनके लाभों से इनकार किया जा रहा है तो यह अस्वीकार्य है और अन्यायपूर्ण है। हालांकि, आधार प्रणाली को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए। इसपर विवाद है,लेकिन अभी भी स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में समस्या क्या है? क्या यह प्रमाणीकरण के बिंदु पर एक समस्या है? या पीडीएस कार्यक्रम आधार से कैसे जुड़ा हुआ है इसमें समस्या है? आधार कई कार्यकर्ताओं का पसंदीदा निशाना बन गया है, लेकिन हमें सटीक समस्या की पहचान करने और उन्हें मजबूत करने की आवश्यकता है। "

द्रेज आंशिक रूप से रवि से सहमत हैं। वह कहते हैं, "यदि कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार का उपयोग किया जाना है, तो यह उन मामलों तक ही सीमित होना चाहिए जहां यह एक स्पष्ट उद्देश्य प्रदान करता है और जहां आधार को एक भरोसेमंद तरीके से किया जा सकता है। आधार आधारित बॉयोमीट्रिक प्रमाणीकरण अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए। "

भुख से मौत की अलग समीक्षा हो !

जून 2018 में, झारखंड सरकार ने भुखमरी की मौतों के लिए शव-परीक्षा को जरूरी बना दिया। लेकिन प्रचारकों का कहना है कि यह भूख से होने वाली मौत के निर्धारण के लिए एक कारगर तरीका नहीं है।

दिल्ली के अम्बेडकर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर दीपा सिन्हा कहती हैं, "ऐतिहासिक रूप से, यदि पोस्ट-मॉर्टम में चावल का एक दाना मिला है, तो उन्हें भूख की मौत के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है।" "ओडिशा में, लोगों ने आम की गुठलियां खाए हैं, क्योंकि उनके पास खाने के लिए और कुछ नहीं था। इसलिए, आधिकारिक तौर पर, चिकित्सकीय रूप में उन मौतों को भूख से मौत नहीं कह सकते हैं। झारखंड में, सरकार जिम्मेदारियों से बचने के लिए तकनीकी पहलुओं का सहारा ले रही है, लेकिन हम इस तथ्य को भूल नहीं सकते हैं कि भोजन न मिलने का मतलब है गंभीर कुपोषण का शिकार हो जाना। "

नारायण कहते हैं कि मौत के कारण को ठीक करने के लिए शव-परीक्षा की बजाय भुखमरी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की चिकित्सा और उनका सामाजिक इतिहास अधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने बताया कि, “एक साल तक शोर-शराबा करने के बाद, झारखंड सरकार ने अंततः भुखमरी की अपनी परिभाषा बदल दी है, लेकिन बहुत कम काम किया है। ”

मार्च 2018 में, झारखंड सरकार ने नौ सदस्यीय समिति की स्थापना की, जिन्हें उस पैरामीटर को परिभाषित करना था, जिसके द्वारा भुखमरी की मौत आधिकारिक तौर पर स्थापित की जा सकती है। हालांकि, समिति ने रिपोर्ट को संकलित करने और इसे सार्वजनिक करने के लिए अपनी दूसरी समय सीमा को पीछे छोड़ दिया है, जैसा कि ‘न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ ने 31 जुलाई, 2018 की रिपोर्ट में बताया है।

झारखंड के मंत्री रॉय कहते हैं, " जितना मुझे पता है, समिति ने सूचना का विश्लेषण किया है और रिपोर्ट लगभग तैयार है। समिति जल्द ही अंतिम रिपोर्ट जारी करेगी। हालांकि, मैं सही तारीख के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर सकता क्योंकि यह एक स्वायत्त समिति है और वे अपना समय और निर्णय लेंगे। "

पूर्व योजना आयोग के पूर्व सचिव और खाद्य और भूख पर सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी समिति के पूर्व आयुक्त, एनसी सक्सेना ने कहा, “भुखमरी को परिभाषित करने के लिए एक समिति स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इस विषय पर बहुत सारी रिपोर्ट और शोध पहले से मौजूद हैं। मेरे अनुभव में, झारखंड में, सरकार आमतौर पर भुखमरी और कुपोषण के स्तर की रिपोर्ट करती है। उन्हें उचित जानकारी इकट्ठा करने और गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों और लोगों की पहचान पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।"

कुपोषण और संक्रमण

सितंबर 2017 में, एक 11 वर्षीय लड़की संतोषी की कथित तौर पर भूख के कारण मृत्यु हो गई थी। उसे और उसके परिवार को खाद्यान्न नहीं मिला क्योंकि उनके आधार कार्ड राशन कार्ड से जुड़े नहीं थे। संतोषी की मौत पर आलोचना के जवाब में, बीजेपी की सूचना प्रौद्योगिकी सेल के प्रभारी अमित मालवीय ने जिला अधिकारी की रिपोर्ट का हवाला दिया और दावा किया कि उनकी मृत्यु मलेरिया के कारण थी, और भुख कारण नहीं था।

हालांकि, विशेषज्ञों ने इंडियास्पेंड को बताया कि कुपोषण और बीमारी इतनी उलझी हुई है कि दोनों को अलग करना मुश्किल है। 2016 के इस पेपर के अनुसार, कमजोर बच्चे मुख्य रूप से आम संक्रमण और बीमारियों से मर जाते हैं।

भोपाल के ‘ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज’ के बाल रोग विशेषज्ञ भवना ढिंग्रा कहती हैं, "पर्याप्त पोषण या पोषण की कमी से संक्रमण हो जाता है जो जीवन को खतरे में डाल सकता है। हालांकि, ये संक्रमण बच्चों की भूख को कम कर सकते हैं, जो पहले से ही अनिश्चित पोषण की स्थिति में हैं, इससे गंभीर प्रभावित पड़ता है।"

‘पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ के महामारीविज्ञानी और अतिरिक्त प्रोफेसर गिरिधारा आर. बाबू ने समझाया कि कैसे कुपोषण शरीर को कमजोर करने के लिए काम करता है, "कम अवधि में, कुपोषण, कुछ अंगों सहित, वसा और मांसपेशियों के द्रव्यमान को कम करने लगता है, जिससे वजन घटने लगता है। लंबे समय तक आहार में कमी से कार्यशील ऊर्जा भंडार में कमी और शरीर की संरचना में बदलाव होता है। "

गुजरात में भुज के एक बाल रोग विशेषज्ञ नेहल वैद्य ने कहा कि भुखमरी में शायद ही कभी मृत्यु का कारण बनती है, आमतौर पर कुपोषण की कमी वाले लोगों में संक्रमण के कारण मौत होती है।

उन्होंने कहा कि, "बाल कुपोषण के मामले में, जहां एक बच्चा कई दिनों से भूखा है, सबसे पहले बच्चे के शरीर और भूख का विश्लेषण करने के लिए नैदानिक ​​मूल्यांकन किया जाना चाहिए और फिर उचित हस्तक्षेप किया जाना चाहिए । माता-पिता को सलाह दी जानी चाहिए कि बच्चे को किस प्रकार खाना खिलाना है। हालांकि, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों दोनों में, बुनियादी ढांचे की कमी एक बड़ी समस्या है। ऐसे मामलों से निपटने के लिए आपको विशेषज्ञ डॉक्टरों, चिकित्सा विशेषज्ञों, पोषण विशेषज्ञों और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की आवश्यकता है।"

झारखंड में राज्य संचालित कुपोषण उपचार केंद्रों (एमटीसी) में गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों के स्वास्थ्य की बद्तर स्थिति, उनके वजन के बहुत अधिक कम हो जाने और बड़ी संख्या में बीमारियों की सूचना मिली है, जैसा कि झारखंड में एमटीसी की प्रभावकारिता की जांच की गई 2018 के इस पेपर से पता चलता है। कम उम्र में कुपोषण के दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं, जो किसी व्यक्ति की संवेदनात्मक संज्ञानात्मक, सामाजिक और भावनात्मक विकास को प्रभावित करता है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 22 जुलाई, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।

2017 के ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी के मुताबिक, झारखंड में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में विशेषज्ञों (सर्जन, प्रसूतिविज्ञानी और स्त्री रोग विशेषज्ञ, डॉक्टर और पैडियट्रिशियन) की 90 फीसदी कमी है। विशेषज्ञों के अलावा, भारत में सामान्य रूप से डॉक्टरों की कमी है।

भारत का ‘डॉक्टर-टू-पॉपुलेशन’ अनुपात 1: 1,674 का है, जो अर्जेंटीना से 75 फीसदी कम है और अमेरिका की तुलना में 70 फीसदी कम है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 16 नवंबर, 2016 की रिपोर्ट में बताया है।

सीएचसी स्वास्थ्य देखभाल के माध्यमिक स्तर का गठन करते हैं और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से संदर्भित मरीजों को विशेषज्ञ देखभाल प्रदान करते हैं। संदर्भित मरीजों में से चार को प्रत्येक सीएचसी में भेजा जाता है। आदिवासी, पहाड़ी या रेगिस्तानी क्षेत्रों में लगभग 80,000 लोगों और मैदानी इलाकों में 120,000 लोगों की सेवा करते हैं।

(साहा, दिल्ली के ‘पॉलिसी एंड डेवलप्मेंट एडवाइजरी ग्रूप’ में मीडिया और नीति संचार परामर्शदाता हैं। वह एक स्वतंत्र लेखक भी हैं और ससेक्स विश्वविद्यालय केइंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीजसेजेंडर एंड डिवलपमेंटके पीएचडी के अभ्यर्थी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 11 अगस्त, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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