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जयपुर, राजस्थान: एक नए अध्ययन के मुताबिक, नवंबर-2014 और अगस्त- 2015 के बीच मुबंई और पटना के निजी स्वास्थ्य क्षेत्र द्वारा तपेदिक (टीबी) के केवल 35 फीसदी मामलों को सही ढंग से संभाला गया था। टीबी एक वायु से उत्पन्न संक्रामक जीवाणु रोग है, जो ज्यादातर फेफड़ों को प्रभावित करता है।

इलाज न किए गए या आंशिक रूप से इलाज किए गए टीबी रोगी दूसरों को संक्रमित कर सकते हैं । इससे बीमारी को समाप्त करने के भारत का प्रयास आंशिक रूप से कमजोर कर सकता है। इस बीमारी की चपेट में हर साल करीब पास हजार लोग आते हैं, जैसा कि ‘प्लॉस मेडिसिन’ पत्रिका में सितंबर 2018 में प्रकाशित अध्ययन ने कहा गया है। इसने वर्ष 2025 तक टीबी को देश से खत्म करने लक्ष्य को खतरे में डाल दिया है। निजी क्षेत्र भारत के 2.74 मिलियन नए टीबी मामलों में से अनुमानित दो-तिहाई हिस्से को संभालता है। यह दुनिया में सबसे ज्यादा टीबी बोझ है। 2025 तक टीबी को खत्म करने का भारत का लक्ष्य निजी क्षेत्र में बेहतर टीबी निदान और देखभाल से हासिल हो सकता है, यानी यह संख्या मौजूदा प्रति 100,000 पर 204 मामलों की संख्या प्रति 100,000 पर 10 की संख्या तक लानी है।

टीबी के लिए उपचार में सरकार के संशोधित राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) द्वारा मुहैया कराई गई दवाओं का 6 महीने का कोर्स शामिल है। यदि सही तरीके से इलाज नहीं किया जाता है तो इसका परिणाम मृत्यु भी हो सकता है, या टीबी बैक्टीरिया बीमारी के अधिक शक्तिशाली रूप में परिवर्तित हो सकता है, जिसका इलाज महंगा है, और इसके उपचार के दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं।

‘मैकगिल इंटरनेशनल टीबी सेंटर’ के निदेशक और अध्ययन के सह-लेखक मधुकर पाई कहते हैं, “ लांसेट आयोग के अनुसार खराब गुणवत्ता वाला टीबी देखभाल सभी टीबी मौतों में से 50 फीसदी के लिए जिम्मेदार है।”

विश्व बैंक में मानव विकास दल में अग्रणी अर्थशास्त्री और अध्ययन के प्रमुख लेखकों में से एक, जिशनु दास के मुताबिक, "भारत को इस महामारी को संभालने के लिए अपनी अनूठी रणनीति विकसित करनी होगी, जिसमें निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करना भी शामिल होगा।"

यह अध्ययन इस बात पर आधारित था कि डॉक्टरों ने मुंबई और पटना में 2,602 फर्जी मानकीकृत मरीजों को कैसे संभाला। डॉक्टरों में उन लोगों को शामिल किया गया था जिनके पास बैचलर ऑफ मेडिसिन, बैचलर ऑफ सर्जरी (एमबीबीएस) या उच्चतर डिग्री थी। उन लोगों को भी शामिल किया गया जो आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध, या होम्योपैथी (आयुष) चिकित्सक थे या जिनके पास वैकल्पिक चिकित्सा या स्वास्थ्य की पारंपरिक प्रणालियों में डिग्री थी और अन्य या कोई औपचारिक योग्यता वाले प्रदाता थे। लेखकों ने फॉलो-अप यात्राओं और मामलों के बाद के संचालन का अध्ययन नहीं किया। अध्ययन विश्व बैंक सहित मैकगिल इंटरनेशनल टीबी सेंटर, विकास और लोकतंत्र पर सामाजिक-आर्थिक अनुसंधान संस्थान के विशेषज्ञों द्वारा आयोजित किया गया था और और ‘ग्रांड चैलेंज कनाडा’, ‘बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन’, और विश्व बैंक के ‘परिवर्तन के लिए जानकारी’ द्वारा वित्त पोषित किया गया था।

यह अध्ययन सरकार के मामले की रिपोर्ट करने के लिए डॉक्टरों और फार्मासिस्टों को मुफ्त दवाओं और प्रोत्साहनों तक पहुंच प्रदान करके आरएनटीसीपी में अधिक निजी क्षेत्र के मरीजों को शामिल करने के लिए एक कार्यक्रम का हिस्सा था। (निजी क्षेत्र के सहभागिता कार्यक्रम के बारे में अधिक पढ़ने के लिए, यहां हमारी पुरस्कृत आलेख है,देखें कि गुजरात के मेहसाणा में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र मरीजों की मदद कैसे कर रहा है।)

अनावश्यक दवाएं, टीबी लक्षणों वाले मरीजों को दी गई एंटीबायोटिक दवाएं

अध्ययन ने चार प्रकार के नकली टीबी रोगियों का निर्माण किया। जिसमें खांसी और 2-3 हफ्तों के बुखार के साथ अनुमानित टीबी का मामला था, दूसरा, जिसमें 2-3 हफ्तों के लिए खांसी और बुखार था और एंटीबायोटिक दवाओं वाले दूसरे डॉक्टर द्वारा इलाज किया गया था, तीसरा जिसमें पुरानी खांसी थी और एक स्पुतम टेस्ट का परिणाम (जो कुछ मामलों में टीबी का पता लगा सकते हैं) था, और चौथा पुराना खांसी का मामला पिछले अपूर्ण टीबी उपचार के साथ था। क्या इन मामलों को सही ढंग से संभाला गया था या नहीं, इसे जब परखा गया तो पा गया कि यह टीबी देखभाल के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत के मानकों के खिलाफ था। 2,602 मानकीकृत मरीज़ पटना में 473 हेल्थकेयर प्रदाताओं और मुंबई में 730 प्रदाताओं के प्रतिनिधि नमूने में गए थे। अध्ययन करने वाले डॉक्टरों ने पटना में 3,179 योग्य प्रदाताओं और मुंबई में 7,115 योग्य प्रदाताओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए इन्हें कहा था।

2,602 मामलों में से 959 मामले में (36.8 फीसदी या 35 फीसदी) उपचार के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधा के लिए रेफरल के रूप में या टीबी के परीक्षण के लिए छाती एक्स-रे का ऑर्डर करके रोगियों को सही ढंग से प्रबंधित किया गया था।

अध्ययन में पाया गया कि अभी भी लगभग सभी मरीजों को अनावश्यक दवाएं दी गई थीं, और एंटीबायोटिक उपयोग सामान्य बात थी । यहां तक ​​कि गैर-एमबीबीएस डॉक्टर, जो एलोपैथिक दवा नहीं लिख सकते हैं, उन्होंने कई मामलों में ऐसा किया था। 118 मामलों में एंटी-टीबी दवाएं निर्धारित की गईं, जिनमें से केवल 45 को सही उपचार दिया गया था। सही उपचार देने वालों में ज्यादातर एमबीबीएस-योग्य डॉक्टर थे।

डॉक्टरों ने स्पुतम स्मीयर परीक्षण के लिए कहा, जो 2,602 के 389 (अध्ययन में सभी योग्य प्रदाताओं के 18 फीसदी के बराबर) मामलों में टीबी को पहचानने में मदद कर सकता है, जबकि 2,602 मामलों में से 108 (अध्ययन में सभी योग्य प्रदाताओं के 2 फीसदी के बराबर) रिफाम्पिसिन ( मुख्य एंटी-टीबी दवाओं में से एक ) प्रतिरोध के लिए एक परीक्षण की सिफारिश की, जिससे टीबी पता लगाया जा सकता है, जैसा कि अध्ययन में पता चला है।

लेखकों को मरीजों के इलाज का कोई सामान्य वैकल्पिक पैटर्न नहीं मिला, जैसे कि यह शहरी प्रदूषण का नतीजा हो सकता है आदि। उदाहरण के लिए, डॉक्टर टीबी का संदेह करने की बजाय, उच्च प्रदूषण के साथ चिह्नित स्थान पर एक मरीज को खांसी का लक्षण देखकर राहत प्रदान कर सकते हैं।

योग्य डॉक्टरों और सही एंटीबायोटिक उपयोग की जागरूकता से टीबी देखभाल में हो सकता सुधार

दास कहते हैं, “शहरी भारत में टीबी देखभाल की गुणवत्ता में विविधता है - कुछ स्वास्थ्य प्रदाता हैं, जो हर मामले को गलत पाते हैं, लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो उत्कृष्ट देखभाल प्रदान कर रहे हैं। रोगियों से उत्कृष्ट देखभाल प्रदान करने वाले डॉक्टरों से जुड़ना महत्वपूर्ण है। ”

उच्च रोगी भार कम गुणवत्ता वाले देखभाल के लिए जिम्मेदार नहीं थे। "2,602 इंटरैक्शन में, 45 फीसदी में कोई अन्य रोगी इंतजार नहीं कर रहा था। 65 फीसदी की कतार 1 या उससे कम थी। 75 फीसदी की 2 या उससे कम थी, और 95 फीसदी में 10 या उससे कम थी ," जैसा कि अध्ययन से पता चलता है।

अध्ययन के लेखकों ने लिखा, गुणवत्ता नुकसान को अकेले जानकारी में कमी या वित्तीय प्रोत्साहनों द्वारा संचालित नहीं माना जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि मामलों का गलत प्रबंधन दोनों का संयोजन है।

लेखकों ने पाया कि यदि एक डॉक्टर को टीबी निदान जैसे स्पुतम रिपोर्ट के अधिक प्रमाण दिए गए थे, तो डॉक्टरों की देखभाल की बेहतर गुणवत्ता प्रदान करने की संभावना अधिक थी, लेकिन वहां ज्ञान की कमी दिखाई दे रही थी।

लेकिन, साथ ही, उन सभी मामलों में निदान की गुणवत्ता में सुधार नहीं हुआ जहां परीक्षण के परिणाम प्रदान किए गए थे, और अनुचित दवा उपयोग को कम करने में थोड़ा प्रभाव पड़ा, जो यह सुझाव देते हैं कि जागरूकता बढ़ने से समस्या पूरी तरह हल नहीं होगी।

महाराष्ट्र राज्य विरोधी टीबी एसोसिएशन के मानद सचिव और तकनीकी सलाहकार यतीन ढोलकिया कहते हैं, "निजी क्षेत्र में देखभाल के मानकों में हार्ट सुधार करने के बहुत सारे अवसर हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, भारत में हार्ट डॉक्टरों के एसोसिएशन, और मेडिकल कॉलेजों के सहयोग से डॉक्टरों को सही प्रशिक्षण मिलना चाहिए। मुंबई के नगरपालिका निगम के साथ साझेदारी में गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से प्रशिक्षण सत्र आयोजित किया जाए क्योंकि अकेले सरकार द्वारा आयोजित ऐसे सत्रों से बात नहीं बनने वाली।”

अध्ययन में, फ्लूरोक्विनोलोन और स्टेरॉयड का उपयोग को सामान्य प्रथाओं के रूप में पाया गया था, जबकि ह अत्यधिक हानिकारक हो सकता है। इसके बारे में अधिक जागरूकता इसके उपयोग को कम कर सकती है, जैसा कि अध्ययन के मुख्य लेखकों में से एक, दास ने सुझाव दिया।

दास ने कहा कि मुंबई और पटना में निजी क्षेत्र के साथ कार्यक्रम में तेजी आई है, इसलिए अधिक निजी डॉक्टरों ने सरकार के साथ टीबी मामलों को पंजीकृत किया है, और माइक्रोबायोलॉजिकल परीक्षणों की सिफारिश की है। इससे एक बात साफ है कि ऐसे कार्यक्रम निदान और देखभाल में सुधार में मदद कर सकते हैं।

ढोलकिया ने कहा कि इस कार्यक्रम के नतीजों को समझने के लिए विस्तार से अध्ययन होना चाहिए कि इस अध्ययन के बाद पिछले चार वर्षों में देखभाल का स्तर कैसे बदल गया है। यह देखभाल की गुणवत्ता में सुधार के लिए भावी हस्तक्षेपों को दिशा दे सकता है।इससे सरकार के साथ अधिक मामलों को पंजीकृत करने में मदद मिल सकती है।

फिर भी, सार्वजनिक क्षेत्र में भी, उपचार की सफलता उतनी अधिक नहीं है जितनी सरकारी संख्याएं दिखाती हैं , जैसा कि हमने नवंबर 2016 में बताया था। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम स्थित स्वास्थ्य पत्रिका ‘प्लोस मेडिसिन’ में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इलाज के लिए पंजीकृत एक प्रकार के टीबी मामलों में से 73 फीसदी का ही सफलतापूर्वक इलाज किया गया था, जो कि सरकार द्वारा सूचित 84 फीसदी की सफलता दर की तुलना में बहुत कम है।

( श्रेया लेखक और संपादक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 18 अक्टूबर, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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