दलितों का बौद्ध धर्म अपनाना जारी, लेकिन परिवर्तन दर कम
4 नवंबर, 2001 को नई दिल्ली में एक सभा के दौरान सरकार के खिलाफ नारा लगाता हुआ एक दलित व्यक्ति। शहर में बड़े पैमाने पर हुए एक कार्यक्रम में हजारों दलितों ने बौद्ध धर्म को अपनाया।
- मई, 2017 में उत्तर प्रदेश (यूपी) के सहारनपुर जिले में जाति हिंसा के बाद लगभग 180 दलित परिवारों ने बौद्ध धर्म अपनाया।
- एक नया दल ‘भीम सेना’ , जो दलित राजनीति को अधिक आक्रामक चेहरा देने की कोशिश रहा है, कहता है कि हैं कि वह बौद्ध धर्म में परिवर्तन के लिए एक बड़े पैमाने पर अभियान पर विचार कर रहा है।
- पिछले साल गुजरात में, गाय की चमड़ी उतारने के आरोप में सात दलितों पर कोड़े बरसाए गए थे, जिसके बाद 300 से अधिक दलितों ने बौद्ध धर्म अपना लिया था।
हिंदू जाति के क्रम में दलित सबसे नीचे माने जाते हैं। इस देश में दलितों ने सबसे पहले वर्ष1956 में एक राजनीतिक संकेत के रूप में बौद्ध धर्म अपनाना शुरु किया था। यह वह वर्ष था जब दलितों के प्रतीक माने जाने वाले बी. आर. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म को स्वीकार करते हुए कहा कि यह जाति उत्पीड़न से बचने का एकमात्र तरीका है।
समुदाय ने विरोध के प्रतीक के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाना जारी रखा।हर बार जब दलित आंदोलन बढ़ा है, तो परिवर्तन की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 1956 के बाद, वर्ष1980 और वर्ष1990 के दशक में, एक प्रमुख दलित-आधारित- राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के उदय के साथ नव-बौद्धों की संख्या में में वृद्धि देखी गई।
आज की तारीख में भारत में करीब 87 फीसदी बौद्ध नव-रूपांतरित हैं। बाकी पारंपरिक बौद्ध समुदायों से हैं, जिसमें ज्यादातर भारत के उत्तर-पूर्व और अन्य हिमालयी क्षेत्रों के निवासी हैं।
हालांकि, हाल के वर्षों में भारत में बौद्धों के विकास दर में गिरावट आई है। जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, धार्मिक समूहों में यह गिरावट जैन समुदायों में ज्यादा है। बौद्ध दूसरे नंबर पर हैं।
जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2001-11 में बौद्धों की संख्या में 6.13 फीसदी और हिंदू की संख्या में 16.76 फीसदी की वृद्धि हुई है। लेकिन पिछले दशक में यह प्रवृति विपरीत देखी गई।बौद्ध के लिए आंकड़े 24.53 फीसदी और हिंदुओं के लिए 20.35 फीसदी थे।
जनसंख्या वृद्धि दर, वर्ष 1971-2011
Source: Census of India data here, here and here
यह गिरावट कर्नाटक, यूपी और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में सबसे दर्ज की गई है। देश के सभी बौद्धों में से 77 फीसदी महाराष्ट्र में रहते हैं। राज्य में भी समुदाय विकास दर में गिरावट दर्ज की गई है। यह आंकड़े 1991-2001 में 15.83 फीसदी से गिरकर 2001-11 में 11.85 फीसदी हुआ है।
बौद्धों के लिए जनसंख्या वृद्धि दर, 1961-2011
Source: Census of India data here, here and here
इस गिरावट के क्या कारण हो सकते हैं? ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि धर्म परिवर्तन मुख्य रूप से दलितों द्वारा एक राजनीतिक उपकरण के रूप में उपयोग किया जाता है और इसका मतलब है कि संख्याओं में उतार-चढ़ाव ऐसे कारणों पर आधारित है, जो समुदाय को प्रभावित करते हैं।
बौद्ध धर्म को मानने वाली स्कूल शिक्षक, मीना श्रीनिवासन अपने इस लेख में लिखती हैं, "यह बताता है कि कई लोग अभी भी हिंदू अनुष्ठानों का पालन करते हैं। हालांकि, बौद्ध धर्म के आध्यात्मिक और धार्मिक पहलुओं के बारे में अधिक जानने में लोगों की एक दिलचस्पी भी है। "
बौद्ध धर्म में गए नए लोग या तो हिंदू धर्म की ओर लौट रहे हैं या सरकारी सर्वेक्षणों में स्वयं को हिंदू बता रहे हैं। इन दोनों परिदृश्यों में जटिलताएं हैं, जो भारत में नव-बौद्ध आंदोलन को दर्शाती हैं।
कर्नाटक में बौद्धों की संख्या में 75 फीसदी की गिरावट
महाराष्ट्र, जहां भारत के 90 फीसदी नव-बौद्ध रहते हैं, वहां वर्ष 2001 और 2011 के बीच नव-बौद्धों की संख्या में 11.85 फीसदी की वृद्धि देखी गई है। संख्या पर नजर डालें तो बौद्ध धर्म को मानने वाले महाराष्ट्र में 58 लाख से बढ़ कर 65 लाख हुए हैं।
महाराष्ट्र में दीक्षा कार्यक्रम आयोजित कराने वाली एक संस्था, सत्यशोधक ओबीसी परिषद के अध्यक्ष संदीप अपर कहते हैं, “ज्योतिबा फुले और डॉ. अम्बेडकर सहित सामाजिक सुधारकों के लगातार प्रभाव से लोग यहां अधिक जागरुक हैं और अपनी हिंदू पहचान छोड़ने के लिए वे खुद को पर्याप्त सुरक्षित समझते हैं। ”
दूसरी तरफ कर्नाटक ने वर्ष 2001 और वर्ष 2011 के बीच बौद्धों की कुल संख्या में 75 फीसदी की गिरावट दर्ज की है। वर्ष 1991-2001 में 439 फीसदी की वृद्धि की तुलना में यह कुछ अटपटा सा लगता है।
पहले बौद्ध समुदाय के लोगों की संख्या में जो वृद्धि हुई थी, वह 1990 के दशक में एक मजबूत राजनीतिक आंदोलन की प्रतिक्रिया थी। तब बीएसपी ने दक्षिण भारत में पहली बार किसी विधानसभा सीट पर जीत हासिल की थी।
बेंगलुरु स्थित संस्था ‘दलित संघर्ष समिति’ के राज्य सचिव मवलाली शंकर कहते हैं, “कुछ वर्षों के दौरान बीएसपी के प्रभाव में कमी हुई है,जिसकी वजह से कुछ हद तक गिरावट हो सकती है। एक अन्य कारण यह है कि राज्य सरकार ने नव-बौद्धों को जाति प्रमाण पत्र देने से इनकार किया है। यह उन्हें शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण से दूर रखता है। ”
वर्ष 1990 में, भारत सरकार के 1936 के आदेश (अनुसूचित जाति) में नव-बौद्धों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में लाने के लिए एक संशोधन किया गया था। हालांकि, कर्नाटक ने कोई आधिकारिक आदेश जारी नहीं किया है जिससे बदलाव दर्शाया जाए।
कर्नाटक में एक अन्य दलित संगठन ‘वेदिका’ के देवेंद्र हेगडे कहते हैं, “यह मैन्युअल रूप से जारी किए गए प्रमाण पत्रों तक ठीक थे। इसमें हाथ से बदलाव किया सकता था। लेकिन कंप्यूटर के माध्यम से प्रमाण पत्र जारी होने की शुरुआत के साथ सिस्टम में क्रमादेशित विकल्पों को बदलना संभव नहीं है। ”
आरक्षण के लाभ को बनाए रखने के लिए बौद्ध धर्म में गए लोग अब भी हिंदू का प्रमाण पत्र रखते हैं और और बौद्ध धर्म को मानते हुए स्वयं को सरकारी सर्वेक्षणों में हिंदु बताते हैं।
बसपा के भाग्य के साथ नव बौद्धों की संख्या में 29.64 फीसदी गिरावट
बौद्ध पूर्णिमा और विजयादशमी, जिस दिन अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था, वह दलितों और नव-धर्मांतरणों के लिए खास दिन है। हिंदू त्यौहार होने के बावजूद विजयादशमी वह दिन है, जब इतिहास में बौद्ध धर्म के सबसे बड़े शासक संरक्षक राजा अशोक ने 263 ईसा पूर्व में दीक्षा ली थी।
हिन्दू समूह दलितों का बौद्ध धर्म में परिवर्तित होना एक चुनौती के रूप में नहीं देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म और बुद्ध की एक शाखा के रूप में देखते हैं। वे बुद्ध को विष्णु का अवतार मानते हैं।लेकिन इस धारणा के नतीजे स्वीकृत किए गए की तुलना में बड़ा है।
मई 2017 में जाति हिंसा से प्रभावित सहारनपुर में दलितों ने शिकायत की है कि हिंदू संगठनों ने उनको विधानसभा चुनावों में इस्तेमाल किया, जिससे यूपी में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्ता में आई ।
भीम सेना के नेता नवाब सतपाल तंवर, जिन पर यूपी पुलिस द्वारा सहारनपुर में हिंसा भड़काने का आरोप है, कहते हैं, “भाजपा, आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) और बजरंग दल हमेशा हिंदू पहचान के आधार पर समर्थन मांग रहे हैं। जब लोग बौद्ध धर्म को अपनाते हुए हिंदुत्व को नकारते हैं, तो वे उनकी सामाजिक-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का हिस्सा बनने से भी इनकार करते हैं। ”
भाजपा ने बौद्ध धर्म के नए परिवर्तितों को लुभाने के लिए विधानसभा चुनावों से पहले 40 भिक्षुओं की छह महीने की राज्यव्यापी 'यात्रा' को प्रायोजित करने का जोखिम स्वीकार किया है।
महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के बाद, उत्तर प्रदेश में नव-बौद्धों की संख्या सबसे ज्यादा है। राज्य में न केवल सारनाथ और कुशीनगर जैसे महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल हैं, बल्कि बसपा का भी काफी समर्थन है।
यूपी के मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल (2007-12) के दौरान, बसपा के अध्यक्ष मायावती ने कई जिलों और शहरों का नाम दलित प्रतिकों और गौतम बुद्ध पर रखने के अलावा कई स्मारकों और पार्कों के निर्माण कराया है।
(हालांकि खुद गैर-दलितों के लिए राजनीतिक रूप से प्रासंगिक रहने के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म को देरी से अपनाया।)
उत्तर प्रदेश में भी, वर्ष 2001 और वर्ष 2011 के बीच बौद्ध धर्म में नए परिवर्तितों की जनसंख्या में 29.64 फीसदी की कमी आई है।
नव-बौद्ध समुदाय की जनसंख्या, 1951-2011
Source: Centre for Policy Studies
आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अम्बेडकर के अनुनायियों के के बीच मतभेद हैं। भीम सेना और उसके अध्यक्ष चंद्रशेखर अपनी जाति की पहचान को मजबूत करने को गौरव की बात समझते हैं।
दास कहते हैं, "डॉ अम्बेडकर का संदेश जाति का विनाश था, न कि इसका जश्न मनाना था। जाति पर आधारित राजनीतिक संघों ने मजबूत करने के बजाय नव-बौद्ध आंदोलन को कमजोर किया। "दास ने बताया कि उत्तर प्रदेश वह हासिल करने में सक्षम नहीं है, जो महाराष्ट्र ने दृढ़ता से हासिल किया है। वह आगे कहते हैं, "1956 में सामूहिक रूप से परिवर्तन किया गया था और इसलिए राज्य में शुरुआत से ही नव-बौद्धों की अच्छी ताकत थी। वे किसी भी राजनीतिक दलों की तलाश नहीं करते हैं क्योंकि वे स्वयं एक ताकत हैं। "
अम्बेडकर की धम्म यात्रा
बौद्ध धर्म में अम्बेडकर की रुचि 1908 में जगी, जब उन्होंने पहली बार बुद्ध के जीवन के बारे में पढ़ा और 1935 में उन्होंने कहा, 'हालांकि मैं जन्म से एक हिंदू हूं, लेकिन मैं हिंदू नहीं मरूंगा।' अपने शीर्षक निबंध ‘जाति का विनाश’ में उन्होंने कहा है कि अछूतों की उन्नति के लिए सबसे बड़ी बाधा हिंदुत्व ही है।
अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म और सिख धर्म को दो घरों वाले धर्मों के रूप में पहचाना, जो ब्राह्मणवाद को झुठलाता है। वह आगे लिखते हैं, “आपको उस नज़रिया को अपनाना चाहिए जो गुरु नानक का नजरिया था। आपको शास्त्रों को छोड़ना होगा और बुद्ध और नानक की तरह उसके अस्तित्व से भी इनकार करना होगा। आपको हिंदुओं को यह बताने का साहस होना चाहिए कि आपके साथ जो गलत है वो है आपका धर्म।”
'धर्म परिवर्तन जाति और भेदभाव की अस्वीकृति है'
गुजरात के राजकोट जिले में धनक गांव की तरफ एक छोटी पहाड़ी पर एक छोटा शिव मंदिर है। गांव के लगभग 25 निवासी इस मंदिर में प्रवेश नहीं करते हैं। वे यहां किसी भी धार्मिक त्यौहारों में भाग लेने से भी इनकार करते हैं।
भरतभाई ने अम्बेडकर के ‘द बुद्ध एंड हिज धाम’ के गुजराती अनुवाद को पढ़ने के बाद बौद्ध धर्म को अपनाया। पांच साल पहले गांव के आठ अन्य परिवारों को उन्होंने धर्म की दीक्षा दी है।
भरतभाई कहते हैं, "मुझे एहसास हुआ कि बौद्ध ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो वास्तव में मानवता पर जोर देता है। यह लोगों के बीच अंतर नहीं करता है। इसलिए दीक्षा के लिए लोग स्वाभाविक रूप से भी आते हैं और उन लोगों की प्रतिक्रिया के रूप में भी आते हैं जो हमें अपने बराबर नहीं समझते हैं। "
लेकिन क्या परिवर्तन के बाद जातिवाद को मानने वालों का दलितों के प्रति व्यवहार बदलता है? अपरे कहते हैं, “यदि पड़ोसियों ने हमारी जाति के अनुसार हमें देखना और परखना जारी रखा है, तो यह उनकी मूर्खता है। हमने अपने हिंदू होने के सारे पहचान और सूत्रों को समाप्त कर लिया है और यह हमारे लिए मुक्ति का मार्ग है।”
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 17 जून 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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