नोटबंदी का असर: आदिवासियों क्षेत्रों में कम साक्षरता, मोबाईल का उपयोग कम, एटीएम मशीने भी कम
मध्यप्रदेश के झाबूआ जिले के फूटिया गांव का भील आदिवासी जुमला पढ़े-लिखे नहीं हैं। एटीएम के उपयोग के संबंध में पूछे जाने पर जुमला कहते हैं, “अगर हम पढ़ना नहीं जानते तो हमें ये कैसे पता होगा कि कौन सा बटन दबाना है। सरकार का कैशलेस भुगतान की और जोर अनुसूचित जनजाति की तरह ऐतिहासिक रूप से पिछड़ी आबादी के लिए काम नहीं आ रहा है।”
मध्य प्रदेश का धार, झाबुआ और खरगोन जिला: 30 वर्षीय संतोष भावश को इंटरनेट की जानकारी नहीं है। इंडियास्पेंड से बात करते हुए वह कहते हैं, “मैंने सुना है यह भविष्य के बारे में बताता है।” संतोष, भारत के गरीब राज्यों में से एक मध्य प्रेदश के पश्चिमी जिले धार के ज्ञानपुरा गांव के रहने वाले हैं।
14 लाख करोड़ रुपए (संचलन में भारतीय मुद्रा के मूल्य से 86 फीसदी) वापस लेने के बाद अर्थव्यवस्था में नोटों की कमी का मुकाबला करने के लिए सरकार डिजिटल भुगतान पर जोर दे रही है। किसी भी अन्य राज्य की तुलना में अधिक आदिवासी रहने वाले राज्य में इंडियास्पेंड ने 28 आदिवासियों से मुलाकात की है। इनमें से दो को छोड़ कर सबके पास बैंक खाते हैं। लगभग 92.8 फीसदी के पास। 17 के पास निजी मोबाईल फोन था और वे जानते थे कि इसका उपयोग किस प्रकार होता है। प्रतिशत में बात करें तो 60.1 फीसदी। 21.4 फीसदी यानी छह के पास एटीएम कार्ड था और वे इसका इस्तेमाल जानते थे। मात्र 7.1 फीसदी यानी दो को इंटरनेट के संबंध में जानकारी थी ।ये आंकड़े "डिजिटल" या "कैशलेस" अर्थव्यवस्था के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूरदृष्टि और और भारत के सबसे वंचित क्षेत्रों में हकीकत की बीच की खाई का संकेत देते हैं।
भारत में 10.4 करोड़ आदिवासी हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कुल आबादी का 8.6 फीसदी आबादी आदिवासियों की है। भारत की आदिवासी आबादी लगभग 1.53 करोड़ का 14.69 फीसदी मध्य प्रदेश में रहती है। 2011 की जनगणना, और सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों के अनुसार बाकि जनसंख्या की तुलना में आदिवासियों के लिए बैंकिंक सेवाओं तक पहुंच पाना कठिन है। इसके साथ ही उनकी आय, शिक्षा का स्तर, और स्वास्थ्य के परिणाम भी कम हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक आदिवासी रहते हैं गरीबी रेखा के नीचे
Source: Census 2011
कैशलेस युग के लिए अन्य भारतीयों की तुलना में आदिवासी अभी तैयार नहीं
गांव में बने एक ऊंचे मंच पर पुरुष और महिलाएं बैठी हैं। पास में ही छोटे बच्चे झूला झूल रहे है। एक तरफ खेत हैं और दूसरी ओर रहने के लिए घर हैं। यह नजारा गुजरात की सीमा से सटे मध्य प्रदेश के झाबूआ जिले के फूटिया गांव का है। 2011 की जनगणना से प्राप्त जानकारी के अनुसार, फूटिया में मुख्य रूप से आदिवासी बसे हुए है, और वहां सहकारी या वाणिज्यिक बैंक, एटीएम, या सार्वजनिक फोन बूथ नहीं है।
मंच पर बैठे लोगों में से जुमला भी हैं। जुमला कहते हैं कि कुछ सालों तक उसके पास बैंक खाता था लेकिन शायद ही कभी उसने खाते का इस्तेमाल किया होगा। क्योंकि उसके पास जमा कराने के लिए बहुत कम पैसे थे और गांव से बैंक की दूरी काफी ज्यादा थी। निकटतम बैंक की दूरी 6 किमी है और वहां पहुंचने में कम से कम एक घंटा लगता है।
जुमला ने आगे अपना अंगूठा दिखाते हुए बताया कि वह पढ़े-लिखे नहीं हैं। जुमला बताते हैं, “मैं अपने चेकबुक (उनका मतलब पासबुक से था का इस्तेमाल पैसे जमा कराने और निकालने के लिए करता हूं। लेकिन मैं एटीएम का इस्तेमाल करना नहीं जानता। अगर मैं पढ़ना नहीं जानता तो मुझे कैसे पता होगा कि कौन सा बटन दबाना है।”
राज्य में सबसे कम ग्रामीण साक्षरता स्तर वाले क्षेत्र में से झाबूआ जिला एक है। झाबूआ जिले में 91 फीसदी परिवार अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार , ग्रामीण इलाकों में, जिले में आधी से कम आबादी (40.1 फीसदी) और एक-तिहाई से कम महिलाएं (29.8 फीसदी) साक्षर हैं।
ग्रामीण महिलाओं में साक्षरता दर कम
Source: Census 2011
कुल मिलाकर, अन्य आबादी की तुलना में आदिवासियों की साक्षरता दर कम होती है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 70.63 फीसदी कुल आबादी की तुलना में मध्य प्रदेश में करीब आधी आदिवासी आबादी (50.6 फीसदी) साक्षर है।
भारत के आदिवासियों के लिए क्यों कैशलेस होना है मुश्किल
बैंकिंग सेवाओं के इस्तेमाल में अन्य भारतीयों से पीछे हैं आदिवासी
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 58 फीसदी के कुल आबादी की तुलना में 45 फीसदी से कम अनुसूचित जनजाति के परिवारों ने 2011 में बैंकिंग सेवाओं का इस्तेमाल किया है।
रोजगार की कमी और गरीबी के कारण कुछ आदिवासियों के पास बैंक खाते में जमा करने के लिए पैसे नहीं हैं। 35 वर्षीय मीरा मुजादी, खरगोन जिले के बिड़ला गांव की हैं। मजदूरी का काम करती हैं। वह कहती हैं, “मुझे महीने में कभी 4-5 दिन काम मिलता है तो कभी 10 दिन।” वह प्रति माह 5,00 रुपए तक कमा लेती हैं। उनके पास बैंक खाता है, लेकिन इसका इस्तेमाल उन्होंने कभी नहीं किया है। खरगोन की आबादी के लगभग 42 फीसदी को अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
अन्य आबादी की तुलना में आदिवासियों की आय कम है। मध्य प्रदेश में 1 फीसदी आदिवासी आयकर का भुगतान करते हैं। जबकि गैर जनजातीय आबादी के लिए यही आंकड़े 2.4 फीसदी है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने जुलाई 2016 में विस्तार से बताया है। सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ओडिशा के साथ मध्य प्रदेश में आयकर भुगतान करने वाले परिवार का प्रतिशत कम है। इस मामले में यह राज्य दूसरे नंबर पर है।
एटीएम, सेलफोन, बैंक खातों से अब भी हैं अंजान
आदिवासियों में बैंक खाता और एटीएम का उपयोग न करने का मुख्य कारण एटीएम, सेलफोन या बैंक खातों के बारे में जानकारी का न होना है।
अनीता धार जिले के छत्तीरिपुरा गांव से हैं। धार की 64.4 फीसदी आबादी अनुसूचित जनजातियों की है। अनीता बताती हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत एक बैंक खाता खोला था, और उन्हें एटीएम कार्ड दिया गया था। वह बताती हैं कि एटीएम कार्ड का इस्तेमाल कैसे होगा, यह उन्हें किसी ने नहीं सिखाया। एक साल पहले खाता खोलने के बाद से वह कभी बैंक नहीं गईं और न ही उन्होंने खाते में पैसे जमा कराए हैं।
अनीता ने प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत एक बैंक खाता खोला है ।इनके पास एटीएम कार्ड भी है। लेकिन एक साल पहले खाता खोलने के बाद से वह कभी बैंक नहीं गईं और न ही उन्होंने खाते में पैसे जमा कराए हैं।
जिन लोगों ने एटीएम कार्ड का इस्तेमाल किया है या तो वे शिक्षित थे, या फिर किसी दोस्त या बैंक अधिकारी ने उनकी मदद की थी।
30 वर्षीय लालसिंह गमड़ धार जिले के अमोदिया गांव में रहते हैं। वह बताते हैं कि उन्होंने एटीएम कार्ड का इस्तेमाल कई बार किया है। "बैंक मैनेजर ने हमें कोड दिया। और फिर मैंने अपने एक दोस्त की मदद ली, जो पहले एटीएम कार्ड का इस्तेमाल कर चुका था।"
सामान्य तौर पर इस मामले पर रिपोर्ट तैयार करने वालों ने गरीबी में कमी और बैंकिंग के प्रसार के बीच एक मजबूत संबंध पाया गया है। वर्ष 2003 के इस पेपर को रॉबिन बर्गेस और रोहिणी पांडे ने तैयार किया है। इस पेपर के अनुसार, “ भारतीय ग्रामीण शाखा विस्तार कार्यक्रम ने महत्वपूर्ण रुप से ग्रामीण गरीबी को कम और गैर- कृषि उत्पादन में वृद्धि किया है।”
इंडियास्पेंड ने पाया कि मध्य प्रदेश में कुछ, आदिवासी लोगों ने सरकार की ओर से प्रत्यक्ष स्थानान्तरण के लिए बैंक खाता खुलवाया है। यह स्पष्ट नहीं था कि बैंक खाते से सरकारी सब्सिडी की पहुंच बेहतर हुई है या बैंक खाते सरकार की सब्सिडी के बारे में जागरूकता के परिणाम थे।
जिन्हें सरकारी सब्सिडी मिलती है, वे बैंक खातों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन केवल एक-तिहाई करते हैं मोबाईल फोन का इस्तेमाल
जो सरकारी कार्यक्रमों से बेहतर परिचित हैं, वे बैंक खातों का इस्तेमाल सरकारी सब्सिडी के प्रत्यक्ष स्थानान्तरण से मिलने वाले पैसे के लिए करते हैं।
धार जिले की छत्रिपुरा गांव की रहने वाली सावित्री बाई मजदूरी का काम करती हैं। उन्होंने दो-तीन महीने में एक बार अपने बैंक खाते का इस्तेमाल किया है। वह कहती हैं, "मेरे चार बच्चे हैं। जब सरकार ने साइकिल के लिए पैसे जमा कराए, तब मैं पैसे निकालने बैंक गई।"
इसी तरह, खरगोन जिले के रुई गांव के आदिवासी गप्पू दौला कहते हैं कि उनके पास बैंक खाता है, जिसमें वे सरकार से पेंशन और कृषि सब्सिडी प्राप्त करते है। वह कहते हैं, “किस बैंक में खाता है, यह तो मुझे याद नहीं है, लेकिन बैंक यहीं पास में हैं, मैं जानता हूं।”
जब उनसे मोबाईल फोन के इस्तेमाल के बारे में पूछा गया तब उन्होंने बताया, "मुझे नहीं पता फोन का इस्तेमाल कैसे होता है। मैं तो एक हाथ में इसे पकड़ भी नहीं सकता।"
गप्पू दौला के पास बैंक खाता है, जिसमें वे सरकार से पेंशन और कृषि सब्सिडी प्राप्त करते है।
हालांकि, जिन घरों का दौरा इंडियास्पेंड ने किया, उनमें से अधिकांश के पास एक मोबाईल फोन था। घरों में मोबाईल फोन ज्यादातर पुरुष सदस्य या परिवार के छोटे सदस्य के पास था। मोबाईल फोन स्वामित्व अभी भी सार्वभौमिक नहीं था। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2011 में 31 फीसदी आदिवासी परिवारों के पास मोबाईल फोन था, जबकि कुल आबादी के लिए यही आंकड़े 53.2 फीसदी थे।
ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट कनेक्टिविटी कम
Source: Telecom Regulatory Authority of India
इंडियास्पेंड ने पाया कि मोबाईल फोन और एटीएम कार्ड का स्वामित्व और उपयोग करने की ज्यादा संभावना पुरुषों की है।
वनका बाई, जो धार जिले के छत्रिपुरा में गांव में रहती है, कहती हैं कि उनके पति के पास मोबाईल फोन है लेकिन वह फोन का इस्तेमाल करना नहीं जानती हैं। वह बताती हैं कि, “अगर मेरे घर से कोई फोन करता है तो वो मुझे फोन देते हैं और मैं बात कर लेती हूं।”
2015 में प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा एक सर्वेक्षण के अनुसार, केवल 17 फीसदी भारतीयों के पास स्मार्ट फोन है, जबकि 15 फीसदी से कम आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल करती है।
मध्य प्रदेश के धार जिले के 21 वर्षीय मजदूर मिथुन मोहन कहते हैं, “मैं ज्यादा नहीं जानता। मेरे पास फोन में इंटरनेट नहीं है, मैं कैसे जान पाऊंगा।”
खरगोन जिले के बिड़ला गांव के 45 वर्षीय किसान, शिवराम चौहान कहते हैं, “मैंने दस्तावेज भेजने के लिए फेसबुक और इंटरनेट का इस्तेमाल किया है। ” वह कहते हैं कि उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में कॉलेज की डिग्री पूरी की थी और इससे पहले एक निजी ठेकेदार के रूप में काम किया था।
फसल के लिए कम कीमत, 2,000 रुपए का छुट्टा मिलने में परेशानी
इन क्षेत्रों में आदिवासी ज्यादातर या तो किसान या गैर कृषि मजदूर हैं। किसानों ने बताया कि उनकी उम्मीद की तुलना में उनकी फसल के लिए कम कीमतों की पेशकश की गई है। किसानों ने कम कीमतों के लिए मुद्रा की वापसी को दोषी ठहराया है।
6 दिसंबर 2016 को जब इंडियास्पेंड ने खरगोन जिले के रुई के गांव के गप्पू से बात की तो उन्होंने बताया कि, “मुझे प्रति किलो कपास पर 8 रुपए का नुकसान हो रहा है। मैं अब भी हर दूसरे दिन 42 रुपए प्रति किलो पर 5-10 किलो कपास बेच लेता हूं, क्योंकि यह हमें घर खर्च और कर्ज के भुगतान के ले चाहिए।” कपास वहां का मुख्य नकदी फसल है।
अन्य किसानों ने बताया कि वे बाजार में कीमतों में वृद्धि होने तक सामान बेचने से बच रहे हैं। रुई गांव की सायना नत्या कहती हैं, “कीमतों में वृद्धि होने तक परिवार ने मक्का बेचना बंद कर दिया है। मक्के की कीमत 8-9 रुपए प्रति किलो मिल रही है, जबकि हमने 12-13 रुपए प्रति किलो की उम्मीद की थी।” उन्होंने बताया कि कुछ व्यापारियों ने उसे भुगतान के लिए चेक की पेशकश की, लेकिन उसके पास बैंक खाता नहीं था और उसे पता नहीं था कि इसका इस्तेमाल कैसे होगा। सायना का परिवार शिक्षित नहीं है।
अन्य लोगों ने बताया कि नोटबंदी के कुछ दिनों बाद भी स्थानीय दुकानें 500 और 1,000 रुपए के पुराने नोट ले रहे थे, लेकिन खरीदे गए उत्पात पर उसकी कीमत की तुलना में 50-100 रुपए की कटौती कर रहे थे। धार जिले के नामखेड़ा गांव के राजेश दामोद कहते हैं, “दुकानदारों ने हमारा फायदा उठाया, लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते थे। गांव तक कुछ 2,000 रुपए के नोट पहुंचे हैं लेकिन उसका छुट्टा मिलने में परेशानी हो रही है।”
कुछ लोगों का कहना था कि निर्णय अंततः गरीब के लिए फायदेमंद होगा। धार जिले के मिथुन कहते हैं, “काला धन जो बाहर आया है, वह शायद मोदी बांट सकते हैं। हो सकता है कि वे गरीबों के लिए घर बनाने की मंजूरी दे दें।”
(शाह संपादक/रिपोर्टर हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। यह वीडियो, ‘वीडियो वालंटियर्स’ के सहयोग से बनाया गया है। वीडियो वालंटियर्स ,एक वैश्विक पहल है, जो वंचित समुदायों को कहानी एवं आंकड़े संग्रहित करने का कौशल प्रदान करता है। साथ ही सकारात्मक बदलाव के लिए वीडियो को उपकरण की तरह उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित करता है।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 22 दिसंबर 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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