नोटबंदी के ढ़ाई साल बाद भी पुणे में श्रमिकों की कमाई कम
पुणे: 50 वर्षीय, अर्जुन काले पुणे में दिहाड़ी मजदूरी का काम करते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने वोट देने से इंकार कर दिया था। 1 मई को पुणे के मजदूर अड्डा पर हमसे बात करते हुए उन्होंने बताया, “इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता में कौन है। सभी सरकारों ने हमारे मजदूरों की जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया है।”
सुबह के 8 बजे थे और सैकड़ों पुरुष और महिलाएं साफ-सुथरी शर्ट और पैंट पहने, बैग और खुदाई के औजार लेकर पुणे के उपनगर वारजे में लेट प्रथक बाराटे गार्डन के बाहर इकट्ठे हुए थे। हालांकि ज्यादातर संस्थान अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस होने के कारण बंद थे, लेकिन शहर में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के पास दिन के काम की उम्मीद में व्यस्त वारजे फ्लाईओवर के नीचे इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। रंग-बिरंगी सिंथेटिक साड़ियां पहनी कुछ महिलाओं को भी रोजगार की तलाश में बैठा देखा जा सकता था, कुछ अपने बच्चों को अपने साथ ले कर आईं थीं।
काले ने हमें बताया, “मानसून का मौसम हमारे लिए सबसे खराब है। कई बार हम दिन भर इस पुल के नीचे खड़े रहते हैं, लेकिन यहां शायद ही कोई काम होता है, इसलिए हम अपने गांव वापस जाते हैं और खेतिहर मजदूरों की तरह काम करते हैं।” पुणे से 261 किलोमीटर दूर सोलापुर शहर में करमाला तालुका के नेरले गांव के रहने वाले काले एक अशिक्षित मजदूर हैं। वह पिछले आठ वर्षों से वारजे मजदूर अड्डा पर आ रहे हैं।
उन्होंने बताया, "यहां मैं निर्माण स्थलों पर खोदकम (खुदाई कार्य) का काम करता हूं, जिसके लिए प्रति दिन 400 रुपये मिलते हैं, लेकिन मेरे गांव में, कृषि श्रमिक प्रति दिन केवल 300 रुपये पाते हैं।" अधिक आकर्षक काम पाने की उम्मीद में पुणे आने से पहले, काले ने कोंकण क्षेत्र के सिंधुदुर्ग तालुका के कंकावली में एक मजदूर के रूप में काम किया था।
उनके सबसे छोटे बेटे ने 12 वीं कक्षा की पढ़ाई छोड़ दी है। बड़े बेटे ने ग्रैजुएशन के प्रथम वर्ष के बाद कॉलेज छोड़ दिया है। खराब वित्तीय परिस्थितियों के कारण, उन्होंने आगे की शिक्षा नहीं ली और अपने पिता की तरह दैनिक मजदूरी की तलाश वारजे श्रम केंद्र आने लगे। उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत रूप से, वे प्रति दिन लगभग 300-400 रुपये कमाते हैं। यह रकम जो नोटबंदी के बाद से बहुत ज्यादा नहीं बदली है, हालांकि काम मिलने वाले दिनों की संख्या कम जरूर हो गई है।
50 वर्षीय अर्जुन काले ने 2019 के आम चुनाव में वोट देने से इनकार कर दिया। वह कहते हैं, “इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता में कौन है। सभी सरकारों ने हमें मजदूरों की जरूरतों को नजरअंदाज किया है।”
उनकी पत्नी और दोनों बहूएं काम नहीं करती हैं। छह लोगों का परिवार लेबर हब से लगभग 2 किमी दूर एक झुग्गी में रहता है और हर दिन पैदल आना-जाना करता है। वे किराए के लिए 3,000 रुपये, और बिजली के लिए 300-400 रुपये का भुगतान करते हैं।
अड्डे पर आए अन्य कई मजदूरों की तरह, काले ने मजदूरों की मांग में गिरावट के लिए नोटबंदी को दोषी ठहराया। उन्होंने बताया कि इससे पहले वह आसानी से प्रति सप्ताह कम से कम चार दिन काम पाते थे, और प्रति माह लगभग 2,500 रुपये कमा लेते थे। अब केवल दो-तीन दिन ही काम मिलता है, और कुल मिला कर लगभग 1,000 रुपये कमाते है।
यह 11-आलेखों की श्रृंखला का 10 वां आलेख है (आप यहां पहला आलेख को पढ़ सकते हैं, दूसरा यहां, तीसरा यहां, चौथा यहां, पांचवा यहां, छठा यहां,सातवां यहां, आठवां यहां और नौवां को यहां), जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार पर नजर रखने के लिए, राष्ट्रीय स्तर पर श्रम केंद्रों से रिपोर्ट की गई है ( ऐसी जगह, जहां अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक अनुबंध की नौकरी पाने के लिए इकट्ठा होते हैं।) अनौपचारिक क्षेत्र देश के निरक्षर, अर्ध-शिक्षित और योग्य-लेकिन-बेरोजगार लोगों के बड़े पैमाने पर रोजगार देता है, भारत के 52.7 करोड़ कार्यबल में से 92 फीसदी को रोजगार देता है, जैसा कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर 2016 के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अध्ययन से पता चलता है।
अनौपचारिक श्रमिकों के जीवन और आशाओं को ध्यान में रखते हुए, यह श्रृंखला नोटबंदी और जीएसटी के बाद नौकरी के नुकसान के बारे में चल रहे राष्ट्रीय विवादों को एक कथित परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है। अखिल भारतीय निर्माता संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार,जिसकी 300,000 सदस्य-इकाइयों में से 34,700 लोगों ने मतदान किया, पिछले चार वर्षों से 2018 तक, नौकरियों की संख्या में एक-तिहाई की गिरावट हुई है।
कंसल्टेंसी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के मुताबिक, 2018 में अकेले 1.1 करोड़ नौकरियां खो गईं। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के तहत पिडियोडिक लेबर फोर्स सर्वे द्वारा जारी किए गए नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, 2017-18 की बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी है, जो कि 45 साल में सबसे ज्यादा है। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि असंगठित क्षेत्र में 71.1 फीसदी वेतनभोगी श्रमिकों ( कृषि क्षेत्र को छोड़कर ) के पास कोई आधिकारिक या लिखित नौकरी अनुबंध नहीं है।
लेबर हब
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की श्रमिक शाखा, सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीआईटीयू) के पुणे सचिव, वसंत पवार के अनुसार, पुणे शहर में 200,000 से अधिक निर्माण श्रमिकों हैं।
पुणे विश्वविद्यालय में लाइफलॉन लर्निंग एक्सटेंशन डिपार्टमेंट के प्रोफेसर, सतीश शिरसाथ के अनुसार, “श्रम हब "अमीबा की तरह विकसित होता है।" शिरसाथ ने 2014 और 2016 के बीच श्रमिक हब में मजदूरों के जीवन का अध्ययन किया है। 2016 में, जब उन्होंने अपने शोध के निष्कर्ष में पाया कि पुणे ने 51 श्रमिक केंद्रों की मेजबानी की है।उन्होंने कहा, “ अब यह संख्या अधिक होगी।”
पुणे में एक सामाजिक कार्यकर्ता, सुभाष वेयर ने कहा, “निर्माण श्रमिकों के लिए जहां भी आवश्यकता होती है, वहां मज़दूर अड्डा (श्रम केंद्र) बन जाते हैं। पुणे में सभी प्रमुख उपनगरों में ऐसा ही है।”
एक व्यस्त फ्लाईओवर के नीचे स्थित वारजे मजदूर अड्डा पर खड़े काले, कुछ सौ मजदूरों में से एक है। कर्मचारी फुटपाथ पर इकट्ठा होते हैं। क्षेत्र में कुछ छोटी दुकानें और भोजनालय हैं। गर्मियों के दौरान, एक आइसक्रीम विक्रेता साइकिल चलाता है, एक फुटपाथ के बगल में पार्क करता है और काम के इंतजार में खड़े श्रमिकों को कुल्फी बेचता है।एक छोटा रेस्तरां 20-50 रुपये में स्नैक्स जैसे उपमा, पोहा और इडली-सांभर बेचता है।
पुणे के प्रत्येक प्रमुख उपनगर में एक श्रम केंद्र है। यहां, महिला दिहाड़ी मजदूर, बानेर श्रम केंद्र में काम की तलाश में बैठी हैं।
महिलाओं रंग-बिरंगी सिंथेटिक साड़ियां, झुमके और हार के साथ ने थीं। कई चांदी की पायल पहने हुए थी। पुरुषों ने बेमेल टी-शर्ट या शर्ट के साथ जींस और पैंट पहना था।
हर आने-जाने वाले को देख कर इनके चेहरे पर एक उम्मीद की दिखती है कि शायद काम मिलेगा। कुछ लोगों ने हमारी टीम से पूछा, उनके लिए हमारे पास किस तरह का काम है। यह पता लगाने पर कि हम श्रम के ठेकेदार नहीं हैं, निराशा उनके चेहरे पर दिखाई दी और हमसे बात करने की उनकी दिलचस्पी कम हो गई।
पुरुषों ने कहा कि उन्हें आमतौर पर चिनाई जैसी कुशल नौकरियों के लिए रखा जाता है, जबकि महिलाओं को सहायकों के रूप में काम करने के लिए चुना जाता है, और आमतौर पर पुरुषों की तुलना में कम भुगतान किया जाता है। कुशल पुरुष मजदूर एक दिन के काम के लिए अकुशल कर्मचारी से 200 रुपये अधिक कमाते हैं। लेबर हब पर सब इस बात से सहमत थे कि वहां वेतन दरों में बहुत अधिक बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन काम करने के दिनों की संख्या कम हो गई है।
पुणे में स्थित एक वयोवृद्ध ट्रेड यूनियनिस्ट और लेबर राइट एक्टिविस्ट बाबा अधव ने बताया, “वे सारा दिन धूप में काम की तलाश में खड़े रहते हैं। उनके लिए कोई सफाई की सुविधा नहीं है।पीने का पानी नहीं होता, छाया भी नहीं होती। वे घर बनाते हैं, जिसमें हम रहते हैं। कम से कम हम उन्हें एक शौचालय और एक छत दे सकते हैं, जिससे वे जब भी मजदूर अड्डे पर खड़े हों तो वे सहज रहें। "
वारजे लेबर हब पर इंतजार करती 22 साल की अनीता राठौर। वह एक साल के बच्चे की मां हैं। निर्माण स्थलों पर ईंटें ले जाने के लिए उसे 400 रुपये का भुगतान मिलता है।
बाईस वर्षीय अनीता राठौर लगभग दो महीने पहले कर्नाटक के गुलबर्गा से पुणे आई है। वह वारजे श्रम केंद्र में एक फुटपाथ पर बैठी निर्माण संबंधित काम मिलने के इंतजार में वह अपनी एक वर्षीय बेटी रीति को स्तनपान करवा रही थी। ईंटों को उठाने और कार्य स्थल पर मदद करने के लिए, उसे अच्छे दिन में लगभग 400 रुपये मिलते हैं। उसका पति उसके साथ लेबर हब पर काम करता है और दोनों पढ़े-लिखे नहीं हैं।
जबकि राठौर का तीन वर्षीय बेटा उसकी मां के साथ गांव में रहता है, उसके पास रीति को काम पर ले जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। जब वह काम कर रही होती है तो उसके भाई की सात साल की बेटी बच्चे की देखभाल करती है।
राठौर और उनका परिवार पुणे के उत्तमनगर में एक झुग्गी में रहता है, जो वारजे लेबर हब से लगभग 12 किमी दूर है। वह और उसका परिवार किराए, पानी और बिजली के लिए 4,500 रुपये का भुगतान करते हैं। वे बस से या शेयर ऑटो-रिक्शा से लेबर हब तक जाते हैं। एक-तरफ का किराया प्रति व्यक्ति 10 रुपये पड़ता है। जब उनके परिवार की मासिक आय के बारे में पूछा गया, तो राठौड़ ने कहा कि यह अलग -अलग होता है और वह इस पर एक सटीक आंकड़ा नहीं बता सकते।
2014 में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, उनके पूर्व गठबंधन सहयोगी शिवसेना, और कांग्रेस पार्टी ने महाराष्ट्र में राज्य विधानसभा (विधायिका) चुनाव लड़ा। भाजपा ने 288 सीटों में से 122 सीटें जीतीं, बहुमत हासिल किया और देवेंद्र फड़नवीस मुख्यमंत्री बने।
भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में - महिला सशक्तिकरण, आदिवासी कल्याण, रोजगार सृजन और औद्योगिक विकास के बारे में कई वादे किए थे। गन्ने के खेतों में, ईंट बनाने या निर्माण में काम करने वाले असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए, घोषणापत्र में स्वास्थ्य सेवा, दुर्घटनाओं के लिए बीमा कवर, श्रमिकों के बच्चों के लिए शिक्षा आदि का वादा किया गया था। इसने असंगठित क्षेत्र में मजदूरों को स्मार्ट कार्ड जारी करने और मजदूरों के कौशल और नियोक्ताओं की जरूरतों के बीच अंतर को पाटने के लिए ‘रोज़गार कॉल सेंटर योजना’ को लाने की बात भी की थी।
हालांकि, मजदूरों ने कहा कि या तो उन्हें इस तरह की योजनाओं की जानकारी नहीं है या उन्हें ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है।
सोलापुर जिले के अक्कलकोट तालुका के मेनडार्गी गांव के 55 वर्षीय हनुमंत दुबेकर ने लगभग 15 वर्षों तक एक निर्माण मजदूर के रूप में काम किया है। उन्होंने कक्षा 2 तक पढ़ाई की है। हालांकि उनके पास आधार और पैन कार्ड है, लेकिन दुबेकर ने कहा कि उन्हें कोई कल्याणकारी लाभ नहीं मिला है। उन्होंने कहा कि सरकार ने मजदूरों के लिए ‘कुछ नहीं’ किया है और पेट्रोल और अन्य वस्तुओं की बढ़ती कीमतों की शिकायत की। उन्होंने कहा, "चीजों को बदतर बनाने के लिए, इस सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी को लागू किया, जिसने हमारे आगे भी रोजगार पाने के अवसरों को कम किया।"
निर्माण मजदूर 52 वर्षीय सुखदेव जगदेव दामोदर कहते हैं , "मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, उनकी नीतियों ने हमारे रोजगार के अवसरों को कम कर दिया है । वह बताते हैं कि उन्हें एक महीने में मुश्किल से 10 दिन का काम मिलता है।
निर्माण कार्यकर्ता, 52 वर्षीय, सुखदेव जगदेव दामोदर ने कहा कि वह फरवरी 2019 में मुख्यमंत्री के समक्ष अपनी शिकायतों को बताने के लिए, महाराष्ट्र सरकार के प्रशासनिक मुख्यालय, मंत्रालय भी गए थे, लेकिन मुख्यमंत्री से मिलने के उनके अनुरोध को दो बार अस्वीकार कर दिया गया था। वह कहते हैं, "जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, उनकी नीतियों ने हमारे रोजगार के अवसरों को कम कर दिया है।"
नोटबंदी और जीएसटी के प्रभाव
व्यापारी संघ के अध्यक्ष अधव ने कहा, पुणे में मजदूर अड्डे पर सबसे अधिक मजदूरों को रोजगार निर्माण उद्योग देता है। श्रमिकों ने कहा कि उन्हें लगता है कि काम के दिनों की संख्या का कम होना होना नोटबंदी के स्थायी प्रभाव हैं।
पुणे स्थित रियल एस्टेट कंसल्टेंट रवि करंदीकर ने कहा, “ धन ने अपनी धर्म खो दिया। नोटबंदी का रियल एस्टेट खरीदारों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा। एक उम्मीद यह भी थी कि काले धन का सफाया हो जाएगा, इसलिए भावी घर मालिकों ने नई संपत्ति की बुकिंग बंद कर दी, क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि कीमतें गिरेंगी। दूसरी ओर, नकदी ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि निर्माण श्रमिकों को नकद में भुगतान किया जाता है, इसलिए निर्माण धीमा हो गया। ”
एक निर्माण मजदूर 27 वर्षीय दत्ता चित्रांग ने कहा कि चूंकि गांवों में श्रमिक के लिए रोजगार कम संख्या में हैं, इसलिए श्रमिक नोटबंदी के बाद से शहरों में श्रमिक केंद्रों की ओर रुख कर रहे हैं। नौकरी चाहने वालों की संख्या बहुत अधिक है, लेकिन उनमें से प्रत्येक को कम दिनों के लिए काम मिल पाता है।
मुंबई के जय हिंद कॉलेज में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर (सेवानिवृत्त) अनुराधा कल्हान ने पुणे के स्थानीय बाजारों में अप्रैल 2017 से मई 2017 तक नोटबंदी के प्रभावों का अध्ययन किया था - 36.2 फीसदी छोटे खुदरा विक्रेताओं ने कहा कि उनकी बिक्री में 50 फीसदी से अधिक की गिरावट आई है। 17 वार्डों में सर्वेक्षण किए गए 127 लोगों में से 12 फीसदी ने खुलासा किया कि परिवार में किसी ने अपनी नौकरी खो दी है, जबकि 8 फीसदी लोगों ने कहा कि उनके पड़ोस में कोई बेरोजगार था, जैसा कि कल्हण के पेपर, ’करेंसी शॉर्टेज: इफेक्ट ऑन स्मॉल वेंडर्स’ में कहा गया है।
नोटबंदी के प्रभाव पूरे क्षेत्रों में दर्ज किए गए। कल्हण द्वारा लिए गए साक्षात्कार में एक केमिस्ट ने बिक्री में 60 फीसदी गिरावट की सूचना दी। कल्हण ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए कहा कि, “तथ्य यह है कि नोटबंदी दवाओं की बिक्री को प्रभावित करेगा, एक अचेतन कमोडिटी, इस मुद्दे की गंभीरता को दर्शाती है। संपूर्ण अनौपचारिक क्षेत्र प्रभावित हुआ, जहां एक व्यक्ति का खर्च दूसरे की आय है, जो लेन-देन का प्रवाह है और जो राष्ट्रीय आय का गठन करता है। अनौपचारिक क्षेत्र में इस मंदी के प्रभाव का अनुभव जारी है। यह केवल बाहरी हस्तक्षेप के माध्यम से ठीक हो पाएगा, अर्थात, असंगठित क्षेत्र में सरकार द्वारा रोजगार सृजन के माध्यम से।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 2016 और 2018 के बीच 50 लाख लोगों ने अपनी नौकरी खो दी। कल्हण कहते हैं, “बेरोजगारी की संख्या महिलाओं में अधिक होने की संभावना है क्योंकि वे पुरुषों की तरह मोबाइल नहीं हैं। वे ऐसे स्थानों से बंधे हैं जहां उनके बच्चे या परिवार रहते हैं और काम के लिए दूर की यात्रा करने की संभावना कम है।”
कल्याण के लाभ
निर्माण श्रमिक सुबह 7 बजे बनेर लेबर हब में इकट्ठा होते हैं। पुणे में 40,788 पंजीकृत पुरुष निर्माण श्रमिक हैं।
महाराष्ट्र बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वेलफेयर बोर्ड वेबसाइट ( बीओसीडब्लू ) के अनुसार पुणे में 53,665 पंजीकृत निर्माण श्रमिक हैं, जिनमें 40,788 पुरुष और 12,877 महिलाएं हैं। ये आंकड़े कम हैं, खासकर पुणे में 200,000 निर्माण श्रमिकों की तुलना में, जैसा कि सीआईटीयू के पवार द्वारा गणना की गई है। लेबर वेलफेयर बोर्ड का गठन करने वाला महाराष्ट्र अंतिम राज्य था। राज्य ने 2011 में बोर्ड के तहत उपकर एकत्र करना शुरू किया, लेकिन अब तक एकत्र किए गए उपकर का केवल 6.8 फीसदी ही खर्च किया गया है।
कई श्रमिकों से हमने बनेर और वारजे श्रम केंद्रों में बात की, उन्होंने कहा कि उन्हें कभी कोई कल्याणकारी लाभ नहीं मिला। जिन श्रमिकों से हम मिले थे, उनमें से कोई भी बीओसीडब्लू अधिनियम के तहत निर्माण श्रमिकों के रूप में पंजीकृत नहीं थे। 2017-18 के एनएसएसओ सर्वेक्षण के अनुसार, असंगठित क्षेत्र में नियमित वेतन पाने वालों में ( कृषि क्षेत्र को छोड़कर ) 54.2 फीसदी पेड लीव के लिए पात्र नहीं थे, जबकि 49.6 फीसदी किसी भी सामाजिक सुरक्षा लाभ के लिए पात्र नहीं थे।
दामोदर बुलढाणा जिले के खामगांव तालुका में पिंपलगांव राजा गांव से है। उन्होंने एक निर्माण श्रमिक के रूप में श्रम कार्यालय में पंजीकरण करने की कोशिश की, लेकिन थकाऊ प्रक्रिया के कारण छोड़ दिया। उन्होंने कहा: "अधिकारी मुझे विभिन्न दस्तावेजों के साथ वापस आने के लिए कहते रहे। अगर मैं इन कल्याणकारी लाभों का पीछा करता रहा, तो मेरे बच्चे घर पर ही भूखे रहेंगे।”
दामोदर पिछले पांच साल से, एक राजमिस्त्री ( कुशल पेशेवर ) के रूप में दिहाड़ी रोजगार खोजने के लिए बानर मजदूर अड्डा में आ रहे हैं। उन्हें अब प्रति दिन 700-800 रुपये का भुगतान किया जाता है, और कहा कि नोटबंदी से पहले मजदूरी कम से कम 1,000 रुपये प्रति दिन थी। पुणे जाने से पहले दामोदर ने मुंबई में राजमिस्त्री का काम किया। उन्होंने कहा, एक अच्छे महीने में, उन्हें लगभग 10 दिनों का काम मिलता है। औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उन्हें उम्मीद है कि उनकी बेटी और दो बेटे अपनी शिक्षा पूरी करेंगे, लेकिन यह भी एक संघर्ष है।
यह परिवार औंध डीपी रोड पर एक झुग्गी में रहता है जो लेबर हब से लगभग 2 किमी दूर है। दामोदर हर महीने 5,000 रुपये और बिजली के लिए 1,000 रुपये का भुगतान करता है। उसकी पत्नी शिक्षित नहीं है और वह काम नहीं करती है। विमुद्रीकरण से पहले उनकी मासिक आय लगभग 15,000 रुपये थी, जो अब घटकर 10,000 रुपये से कम रह गई है।
सीआईटीयू के पावर कहते हैं, “निर्माण मजदूरों को हर बार श्रम कार्यालय जाने की जरूरत पड़ने पर एक दिन का वेतन रोकना पड़ता है,खुद को पंजीकृत कराने के लिए उन्हें कई बार जाना पड़ता है।”
इस पंजीकरण को पूरा करने की प्रक्रिया बहुत कठिन है: पात्र माने जाने के लिए, एक मजदूर को प्रमाण पत्र (नियोक्ता से एक प्रमाण पत्र) यह साबित करने के लिए प्रमाण पत्र देना होगा कि उन्होंने पिछले वर्ष में 90 दिनों तक काम किया है।
पुणे के एक सामाजिक कार्यकर्ता नितिन पवार कहते हैं, “इस प्रक्रिया के साथ कई खामियां हैं।”
पवार असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों के अधिकारों के लिए काम करते हैं। 90 दिनों काम का ठेकेदार की पावती प्रदान करना ‘बेहद मुश्किल है’, क्योंकि नियोक्ता बिना किसी अनुबंध के मजदूरों को कम अवधि के लिए काम पर रखते हैं। इसके अलावा, नियोक्ता के लिए अधिनियम के तहत पंजीकृत श्रमिकों को काम पर रखना अनिवार्य नहीं है।
जिन लोगों से हमने बात की उनमें से कुछ ने कहा कि वे अपने नियोक्ताओं के नाम नहीं जानते हैं। 90 दिनों के लिए उनके काम का लिखित प्रमाण हासिल करना तब अवास्तविक लगता है जब अधिकांश निर्माण श्रमिक अशिक्षित होते हैं। शिरसाथ ने कहा, "शिक्षा और जागरूकता का स्तर मजदूर अडा्डा पहुंचने वाले श्रमिकों के बीच कम है।"
बानर लेबर हब में 77 वर्षीय गणपत मुंडकर 40 साल से कंस्ट्रक्शन लेबर के रूप में काम कर रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए क्या-क्या लाभ हैं। उन्हें आज तक कभी कोई लाभ नहीं मिला।
77 वर्षीय गणपत मुंडकर कर्नाटक के बीदर जिले के बावलगांव गांव से हैं। वह लगभग 40 साल पहले पुणे चले गए थे और तब से एक निर्माण मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं। उनके दो बेटों में से एक ने शिक्षा में डिप्लोमा पूरा कर लिया है, और दूसरे ने उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी कर ली है। दोनों अपनी शिक्षा के साथ रोजगार पाने में असमर्थ हैं, और अपने पिता की ही तरह, निर्माण श्रमिकों के रूप में श्रम केंद्र तक आते हैं।
केवल 18 और 60 वर्ष की आयु के बीच के लोग ही कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों के रूप में खुद को पंजीकृत करने के लिए पात्र हैं; बीओसीडब्ल्यू अधिनियम, 1996 की धारा 12 के अनुसार, हर साल इस पंजीकरण को भी नवीनीकृत किया जाना चाहिए। हालांकि, मुंडकर बीओसीडब्ल्यू अधिनियम के तहत कभी भी पंजीकृत नहीं किया है क्योंकि उन्हें लाभ के बारे में पता नहीं है। मुंडकर ने लाभ पाने के अवसरों को गंवा दिया है।
अब 52 साल के बबनराव हरिभाऊ मोरे की कहानी देखें। मोरे ने 10 साल तक एक ही निर्माण कंपनी के लिए काम किया, और हाल ही में उन्हें निकाल दिया गया, क्योंकि उन्होंने अपनी सुनने की क्षमता खोनी शुरू कर दी है जो कि निर्माण में काम करने का एक खतरे की तरह है। बीओसीडब्लू अधिनियम की अनुसूची II और धारा 31 नियोक्ताओं को उन व्यक्तियों को नियुक्त करने से रोकती है, जिनकी सुनने की क्षमता कम है या दृष्टि-बाधित हैं।उन्हें बीओसीडब्ल्यू अधिनियम के तहत पंजीकृत नहीं किया गया है; वास्तव में, उन्होंने इसके बारे में सुना भी नहीं है।
सीआईटीयू के पवार ने कहा, "हम जोर देते हैं कि श्रमिकों के पंजीकरण को अनिवार्य बनाया जाए और श्रमिकों के स्व-घोषणा को पंजीकरण के लिए वैध माना जाए।" उन्होंने कहा कि अधिनियम को लागू करने के लिए कानूनी तंत्र को सुधारने और ‘लंबी और थका देने वाली’ पंजीकरण प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की जरूरत है।
यह 11 आलेखों की श्रृंखला में से यह 10वां आलेख है। यहां इंदौर, जयपुर, केरल, अहमदाबाद, कोलकाता, लखनऊ, बेंगलुरु, बठिंडा और हरियाणा से पिछले आलेख पढ़ें।
(कुर्तकोटी पुणे स्थित एक स्वतंत्र लेखक हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं। 101Reporters.com अखिल भारतीय स्तर पर जमीनी स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों का नेटवर्क है।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 6 जुलाई 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।