“ परामर्श से ही एक समान नागरिक संहिता संभव ”
22 अगस्त, 2017 को लखनऊ में तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जश्न मनाती मुस्लिम महिलाएं। एक तरह से, पूर्व कांग्रेस मंत्री और मुस्लिम कानून सुधारक आरिफ मोहम्मद खान ने 31 साल पहले मुस्लिम महिलाओं के लिए जिन समान अधिकार मांगा था उसे सुप्रीम कोर्ट ने समर्थन दिया है।
66 वर्षीय आरिफ मोहम्मद खान ने लगातार मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अधिकार और मुस्लिम समाज को विकसित करने और प्रगतिशील बनाने के लिए काम किया है। वह अपनी प्रतिबद्धता के लिए अडिग हैं। वर्ष1986 में, उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी सरकार की कांग्रेस सरकार का साथ एक नया कानून लाने के फैसले के विरोध में छोड़ दिया था। नए कानून में सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो बेगम नामक 68 वर्षीय तलाकशुदा को 179.20 रुपए का मासिक रख-रखाव देने के फैसले को उलटने की बात की गई थी।
खान ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक छात्र नेता के रूप में शुरुआत की थी और इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में एक कनिष्ठ मंत्री के रूप में कार्य किया। वह चार बार सांसद चुने गए और राजीव गांधी और जनता दल के वी. पी. सिंह, दोनो के समय कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्य किया, (शाह बानो के फैसले को उलझाए जाने के बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दिया था)। संसद के निचले सदन, लोकसभा में शाह बानो के पक्ष में उनके भाषण से, उनके प्रगतिशील रुख के लिए उन्हें काफी प्रशंसा मिली थी।
खान ने मुस्लिम धर्मगुरुओं पर एक अभियान चलाया और मुसलमानों से आग्रह किया है कि वे आगे सोचने और समय के साथ आगे बढ़ें। पांच न्यायाधीशों की सुप्रीम कोर्ट की पीठ से पहले, जिसने 22 अगस्त 2017 को तीन तलाक के खिलाफ फैसला सुनाया, उन्होंने इस प्रथा के अंत के लिए समर्थन दिया था। एक तरह से, मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अधिकारों की मांग करने के 31 साल बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने उनके विचारों का समर्थन किया है। इंडियास्पेंड के साथ एक साक्षात्कार में खान ने अपने विचारों को, सुप्रीम कोर्ट के फैसले, इसके निहितार्थ और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के भाग्य पर साझा किया है।
आपने अक्सर कहा है कि " ट्रिपल तालक संविधान-विरोधी, कुरान विरोधी और मानव विरोधी है।" वास्तव में आपने कहा था कि तीन तलाक को अदालत की अवमानना माना जाना चाहिए और कम से कम तीन महीने के इद्दत (एक जोड़े को अंतिम रुप से अलग होने से पहले एक साथ रहना) की जेल की सजा मिलनी चाहिए। अदालत के हालिया फैसले पर आपका क्या कहना हैं? क्या आपको लगता है कि यह एक जीत है, जो सरकार खुद के लिए भी दावा कर सकती है?
यह एक ऐतिहासिक निर्णय है और इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यह महिलाओं के सशक्तीकरण को प्रोत्साहन देगा। यह सिर्फ मुस्लिम महिलाओं को नहीं, बल्कि हर धर्मों की महिलाओं के आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला है। मुस्लिम महिलाएं अपने सिर पर अस्वीकृति और अपमान की तलवार के साथ बड़ी होती थीं। वे अपने पतियों की दया पर रहती थीं, जो मुल्लों की सहायता से उनको छोड़ कर चले जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा।
सरकार या राजनीतिक दल की जीत के रूप में इसे (निर्णय) देखना सही नहीं है। वास्तव में, इस मुद्दे पर पहला सरकारी हलफनामा बहुत कमजोर था, जहां सरकार ने कहा था कि वह हर किसी से बात करेगी और फिर एक निर्णय लेगी। यह तभी हुआ, जब सुप्रीम कोर्ट ने यह बताया कि उनकी स्थिति उनके विवेक पर आधारित थी क्योंकि मुकुल रोहतगी (तत्कालीन अटॉर्नी जनरल) ने दूसरा शपथ पत्र दायर किया था।
आपने यह भी कहा है कि समान नागरिक संहिता "सरकार का संवैधानिक दायित्व" है। हालांकि, जब हम एक संप्रदाय को व्यवस्थित करने के बारे में बात करते हैं तो तीन तलाक के अलावा अन्य धर्मों में महिलाओं के प्रति भेदभाव करने वाली अन्य प्रथाएं भी हैं, जिन्हें बदलने की जरूरत है, जैसे विरासत कानून, तलाक के अधिकार, या गोद लेने के अधिकार। क्या आप मानते हैं कि वर्तमान सरकार इन समस्याओं को उसी उत्सुकता से लेगी, जैसा कि तीन तलाक के मुद्दे को लिया?
धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में, कानून एक समान होने के लिए होते हैं, जहां सभी नागरिकों के समान अधिकार और दायित्व हैं। इसका अर्थ यह भी है कि न तो कानून लोगों को अपने धार्मिक प्रथाओं का पालन करने से रोकते हैं और न ही राज्य बल किसी भी विशेष अभ्यास का पालन करने के लिए होगा। एक समान नागरिक संहिता केवल परामर्श के माध्यम से ही आ सकती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि विभिन्न धर्मों के लोगों को एक विशेष तरीके से विवाह करना होगा। जैसा कि गुरु गोवालकर ने एक साक्षात्कार (एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पत्रिका) कहा। भारत की संवेदनशीलता और विविधता को ध्यान में रखना होगा। आखिरकार, हिन्दू कोड बिल शास्त्रों का उत्पाद नहीं है, यह विभिन्न धर्मों से उधार लिया गया है। उदाहरण के लिए, संपत्ति में एक बेटी का संपत्ति और मेहर में हिस्सा (एक अनिवार्य भुगतान) मुस्लिम कानून से अपनाया गया है। हालांकि, हिंदू कोड बिल के प्रावधान जैन और ईसाई पर भी लागू होते हैं, वे अपनी पहचान बरकरार रखते हैं।
सरकार की स्थिति यह है कि वह विभिन्न हितधारकों से परामर्श कर रही है, और मुझे उम्मीद है कि यह उस लक्ष्य की दिशा में काम करेगी।
आपने 1986 में, मुस्लिम महिला (तलाक के तहत अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के साथ शाह बानो पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश उलटने के लिए राजीव गांधी की आलोचना की थी। दरअसल, इसी मुद्दे पर आपने कांग्रेस छोड़ा था। आपको लगता है कि इस मौजूदा सरकार को मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों के साथ संवेदना से निपटना बेहतर होगा?
मैंने यह पहले भी कहा है और फिर से यही कहूंगा। मुझे नहीं लगता है कि राजीव गांधी ने अपने दम पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करने का फैसला लिया है। वह एक आधुनिक ख्याल के व्यक्ति थे और प्रगति विरोध के खिलाफ थे। वास्तव में मैंने राजीव गांधी की फाइल देखी थी, जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा था कि, " अस्पष्टवादी और कट्टरपंथी तत्वों के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिए। " उन पर पी. वी. नरसिंह राव, अर्जुन सिंह और एन डी तिवारी (तत्कालीन सरकार में मंत्री) की पसंद के कारण ऐसा करने पर दबाव डाला गया था। उनका मानना था कि मुसलमानों को सुधारना कांग्रेस पार्टी का काम नहीं है। उन्होंने कहा, "अगर वे ऐसे ही रहना चाहते हैं तो रहने दें।"
शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलटने के लिए अधिनियम के पारित होने के बाद, आपने कहा था, "हम अपनी आवश्यकताओं के अनुसार कानून बना सकते हैं और बदल सकते हैं, लेकिन निजी कानून बोर्ड के सदस्यों द्वारा दिए गए भाषणों द्वारा भारत की राजनीति में डाले गए सांप्रदायिक जहर को समाप्त करना मुश्किल होगा। " आप क्यों मानते हैं कि भारत में हालिया सांप्रदायिक तनाव का वह प्रारंभिक बिंदु था?
शाही इमाम (दिल्ली के) जैसे नेताओं द्वारा आक्रामक और अपमानजनक भाषा के इस्तेमाल द्वारा सांप्रदायिक जहर फैलाया गया था। उन्होंने उन (मुस्लिम) सांसदों के पैरों को तोड़ने की धमकी दी, जो (राजीव गांधी) सरकार (शाह बानो) के फैसले को खारिज करने के फैसले के विरोध में थे। एक और मुस्लिम नेता ने जजों के नामों तक बताए । इन सब से माहौल और बिगड़ गया और एक जबरदस्त प्रतिक्रिया को जन्म दिया। प्रतिक्रिया को संतुलित करने के लिए, उन्होंने बाबरी मस्जिद खोलने का आदेश दिया और उसके बाद जो कुछ भी हुआ वह इतिहास है। उस एक निर्णय और अस्पष्टता के लगातार तुष्टीकरण और कट्टरपंथी तत्वों ने किसी की भी तुलना में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को कुछ ज्यादा ही नुकसान पहुंचाया है।
यूपी चुनावों की बात करते हुए, एक हालिया साक्षात्कार में, आपने कहा था: "जब हम एक समुदाय या जाति के वोटों के बारे में बात करते हैं, तो हम भारतीय संविधान की भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हैं।" चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा में अब एक सदी के एक चौथाई में सबसे कम मुस्लिम प्रतिनिधित्व है। आपने यह कहा था कि गैर-भाजपा पार्टियों ने अधूरेपन की बजाय मुस्लिम कार्ड खेला है। लेकिन अब यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार के साथ क्या आपको लगता है कि समुदाय की जरूरतें पूरी हो रही हैं? क्या आप कहेंगे कि वे भाजपा के उस तरह की बयानबाजी को लेकर सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, या तथ्य यह है कि गौ से संबंधित हिंसा से संबंधित 86 फीसदी हमले में मुसलमान पीड़ित हैं, जिनमें से 97 फीसदी हिंसा 2014 के बाद हुई हैं। समुदाय के हितों को दूर करने के जोखिम पर, क्या आप अभी भी मानते हैं कि मतों का एकीकरण नहीं होना चाहिए?
एकीकरण एक तरह से नहीं हो सकता। यदि मुस्लिम अन्य समुदायों को समेकित करते हैं तो उन्हें भी मजबूत करने के लिए परखना होगा। जाति और धार्मिक लाइनों पर एकीकरण का खतरनाक परिणाम हो गया है। यह देश के लिए अच्छा नहीं है, संयम और सुलह आगे बढ़ने के तरीके हैं।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की स्थिति पर फैसले का प्रभाव किस तरह होगा? उनका मानना था कि व्यक्तिगत कानूनों के साथ हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
वे (मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड) अपने विचार के हकदार हैं। मैं कुरान से प्रेरित हूं, जो कहता है कि जब तक आप आगे नहीं बढ़ेगें, आप नष्ट हो जाएंगे। यदि एआईएमपीएलबी अतीत में ही रहना चाहता है तो उन्हें मेरी शुभकामनाएं। मुल्ला हमेशा अप्रासंगिक रहे हैं। यहां तक कि 1986 में, अगर सरकार अपने दबाव में नहीं आई तो उनका असली रुप सबके सामने आ गया होता। वास्तव में, हमेशा से मेरा मानना रहा है कि मुख्यधारा के पार्टियों ने मुस्लिम समुदाय के साथ हमेशा सौदा करने का विकल्प चुना है।
ऐसे कई लोग हैं, जो तर्क देते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जमीन पर लागू नहीं किया जा सकता है और मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
जो लोग इस पर विश्वास करते हैं, वे खुद को भ्रमित कर रहे हैं। जो लोग तीन तलाक के माध्यम से तलाक देते हैं, उन लोगों को अब पुलिस द्वारा उत्पीड़न और मानसिक यातना मामले में घसीटा जा सकता है और उन्हें परिणाम भुगतना होगा।
क्या वाकई यह एक प्रमाण है, कि शाह बानो मामले में आपने जो साहसपूर्ण कदम उठाया था, अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक ही तरीके से बरकरार रखा है?
यह व्यक्तिगत पुष्टि नहीं है जिसे मैं देख रहा हूं। मुझे खुशी है कि सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को बहाल कर दिया है, जिन्हें उन्हें हमेशा के लिए उपलब्ध होना चाहिए था।
(अंसारी पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं और दिल्ली में रहते हैं।)
यह साक्षात्कार मूलत: अंग्रेजी में 27 अगस्त 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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