बेंगलुरु: देश के नौ राज्यों में पुलिस फ़ोर्स में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33% (जैसी कि सिफारिश की गई है) तक पहुंचाने के लिए 50 साल का लंबा इंतेज़ार करना पड़ेगा। मध्य प्रदेश को इस काम में 294 साल लगेंगें और महाराष्ट्र को 14 साल। 7 नवंबर 2019 को जारी एक रिपोर्ट में इन राज्यों की पुलिस फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी की मौजूदा दर को देखते हुए ये निष्कर्ष निकाला गया है।

इंडिया जस्टिस की रिपोर्ट के नाम से जारी टाटा ट्रस्ट्स की इस रिपोर्ट में महिलाओं के ख़राब प्रतिनिधित्व के बारे में बताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस बल में महिलाओं की हिस्सेदारी 7% है, 10% जेल कर्मचारी महिलाएं हैं और हाई कोर्ट और सब-ऑर्डिनेट कोर्ट में 26.5% जज महिलाएं हैं।

नोट: यह अनुमान वर्ष 2012 से 2016 तक पांच वर्ष की अवधि के दौरान राज्य/केंद्र शासित प्रदेश की पुलिस में महिलाओं की हिस्सेदारी में परिवर्तन पर आधारित है। यहां ये मान लिया गया है कि राज्य, इसी दर से अपने कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाता रहेगा । जिस राज्य/केंद्र शासित प्रदेश में पांच साल के आंकड़े नकारात्मक थे वहां रिपोर्ट में बेहतर बदलाव वाले साल के आंकड़ों को शामिल किया गया है। उत्तराखंड को इस अनुमान से बाहर रखा गया है क्योंकि इसमें सभी वर्षों में महिलाओं की हिस्सेदारी में गिरावट देखी गई ।

यह अपने आप में पहली ऐसी रिपोर्ट है जिसमें अलग-अलग सरकारी स्रोतों के आंकड़ों को एक जगह पेश किया गया है। शोधकर्ताओं ने न्याय प्रणाली के चार स्तंभों (पुलिस, जेल, न्यायपालिका और कानूनी सहायता) के आधार 18 बड़े और मध्यम राज्यों (एक करोड़ या उससे ज़्यादा आबादी वाले, जहां देश की 90% आबादी रहती है) की तुलना की। ऐसी ही तुलना सात छोटे राज्यों (एक करोड़ तक की आबादी वाले) की भी की गई।

रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्षों में ये बड़ी बातें सामने आईं

  1. सभी राज्यों में न्याय प्रणाली के चार स्तंभों कई पद खाली हैं।

  2. ज़्यादातर राज्य, आवंटित राशि का इस्तेमाल नहीं कर पाए।

  3. कानूनी सहायता देने के मामले में, राज्यों के ख़र्च करने की सीमा प्रति व्यक्ति एक रुपये सालाना से भी कम है। (कमज़ोर वर्गों के लिए मुफ्त क़ानूनी सेवाएं)

ये निष्कर्ष इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि 126 देशों की रुल ऑफ लॉ इंडेक्स 2019 में भारत 68 वें स्थान पर है। (श्रीलंका और नेपाल से भी नीचे)। ऑर्डर और सिक्यूरिटी के मामले में 111वें स्थान पर, सिविल जस्टिस में 97वे स्थान पर और क्रिमिनल जस्टिस में 77वें स्थान पर है।

भारतीय अदालतों में लाखों मामले लंबित हैं, जिससे लोगों को परेशानी तो है ही, साथ ही इससे मुकदमेंबाज़ी की लागत भी बढ़ती है। 4 फरवरी, 2018 को देश के 24 हाई कोर्ट में 42 लाख से ज्यादा मामले लंबित थे। इनमें से 49% पांच साल से अधिक पुराने थे। इस बारे में इंडियास्पेंड ने 12 फरवरी, 2018 की रिपोर्ट में विस्तार से बताया था।

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट पर आधारित हमारी सीरिज़ की यह पहली रिपोर्ट है। इंडियास्पेंड आगे की रिपोर्ट्स में भारतीय न्याय प्रणाली के चारों स्तम्भोें और उनकी आर्थिक समस्याओं पर रिपोर्ट करेगा। (पुलिस हाउसिंग और पुलिस, न्यायिक और जेल इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थिति सहित न्यायिक और पुलिस सुधारों पर इंडियास्पेंड की रिपोर्ट्स यहां पढ़ें)।

मुख्य निष्कर्ष

इस रिपोर्ट के मुताबिक, पुलिस, जेल, न्यायपालिका और कानूनी सहायता के प्रभावी रुप से काम करने के मामले में महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु सबसे ऊपर हैं जबकि उत्तर प्रदेश (18), बिहार (17) और झारखंड (16) सबसे नीचे के राज्यों में आते हैं। ये तुलनात्मक रेंकिंग इन राज्यों की न्याय प्रणाली की क्षमता के आधार पर की गई है।

भारतीय न्याय प्रणाली के हर सेक्शन में तमाम पद खाली पड़े हैं -इस अध्ययन की अवधि को दौरान, न्यायपालिका में 20 से 40% पद खाली थे। देश में लगभग 18,200 जज थे और कुल पदों में से 23% खाली थे। सर्वेक्षण में शामिल 25 राज्यों में से करीब आधे राज्यों ने ही पांच साल के दौरान इन खाली पदों को भरने का प्रयास किया था।

पुलिस में 22% और जेल विभाग में 33 से 38.5% पद खाली थे

अध्ययन की अवधि के दौरान गुजरात एकमात्र ऐसा राज्य था, जहां पुलिस, जेल विभाग और न्यायपालिका में खाली पदों की संख्या कम हुई थी।

रिपोर्ट, राज्यों के अंदर ही अलग-अलग विभागों में अलग-अलग तरह के प्रदर्शन की तरफ़इशारा करती है (एक राज्य एक विभाग में बेहतर प्रदर्शन करता है तो दूसरे विभाग में ख़राब)। मसलन, महाराष्ट्र कुल मिलाकर सबसे ऊपर है, लेकिन यह जेल विभाग में यह दूसरे (केरल के बाद), पुलिस और न्यायपालिका में चौथे और कानूनी सहायता में पांचवें स्थान पर है।

कुछ राज्यों ने सभी विभागों में एक समान रुप से प्रदर्शन किया है। तमिलनाडु रैंकिंग में तीसरे स्थान पर है, फिर भी न्यायपालिका और पुलिस के मामले में सबसे ऊपर है।

गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, राजस्थान और पश्चिम बंगाल ने इन पांच साल के दौरान आवंटित राशि का पूरी तरह इस्तेमाल नहीं किया है।

हालांकि, पंजाब ने जेल विभाग, न्यायपालिका और पुलिस पर अपना खर्च बढ़ाया है। ये बढ़त 6% की है और पंजाब के कुल ख़र्च में हुई बढ़त की तुलना में ज़्यादा है। ऐसा करने वाला पंजाब देश का अकेला राज्य है।

रिपोर्ट के चीफ़ एडिटर और

कॉमनवेल्थ ह्युमन राइट्स इनिशिटिव के सीनियर एडवाइजर, माजा दारुवाला ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए कहा, “लगभग सभी राज्यों में, कम बजट की समस्या को आवंटित राशि का कम इस्तेमाल करने के साथ देखा गया है। केंद्र से विभिन्न योजनाओं के तहत फंड आमतौर पर केवल किसी खास काम के तहत ही आवंटित किए जाते हैं।

किसी भी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश ने अपने राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (NALSA) के बजट का उपयोग नहीं किया है। एनएएलएसए समाज के कमजोर वर्गों को मुफ्त कानूनी सेवाएं प्रदान करता है और विवादों के सौहार्दपूर्ण निपटारे के लिए लोक अदालतों को व्यवस्थित करता है।

छोटे राज्यों ने भी बेहतर प्रदर्शन नहीं किया है। दारूवाला ने कहा, "आंकड़े बताते हैं कि छोटा शासित क्षेत्र, कम आबादी और कम भौगोलिक क्षेत्र होने के बावजूद, छोटे राज्य, बड़े राज्यों से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं।"

इस रिपोर्ट में, पुलिस विभाग के लिए 1 जनवरी 2017, जेल विभाग के लिए 31 दिसंबर 2016, न्यायपालिका के लिए 2016, 2017, 2018 और कानूनी सहायता के लिए 2017-18 और जनवरी 2019 तक के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है।

शोधकर्ताओं ने "पुलिसिंग और कानून और व्यवस्था के सामान्य दायरे से परे आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों" के कारण नागालैंड, मणिपुर, असम, और जम्मू और कश्मीर (केंद्र शासित प्रदेश घोषित करने से पहले) का अध्ययन नहीं किया है। रिपोर्ट सात केंद्र शासित प्रदेशों को रैंक नहीं करती है, जो रिसर्च की अवधि के दौरान अस्तित्व में थे (अंडमान और निकोबार, दमन और दीव, दिल्ली, चंडीगढ़, पुडुचेरी, लक्षद्वीप और दादरा और नागर हवेली; जम्मू और कश्मीर और लद्दाख बाद में केंद्र शासित प्रदेश बने)।

जेल और पुलिस विभागों की रिपोर्टों पर नये आंकड़े हासिल करने के लिए, सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत 700 से अधिक अनुरोध 150 विभागों में दायर किए गए थे। इनमें पुलिस महानिदेशक, हाई कोर्ट, राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण, राज्य अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, और जेल विभाग समेत कई अन्य शामिल थे।

पुलिस

पुलिस क्षमता में तमिलनाडु, उत्तराखंड और पंजाब टॉप तीन राज्य थे। राजस्थान (17) और उत्तर प्रदेश (18) सबसे नीचे रहे।

लेकिन, जैसा कि पहले बताया, यहां तक ​​कि टॉप रैंकिंग (कुल) राज्यों ने सभी क्षेत्रों में एक-समान प्रदर्शन नहीं दिखाया है। केरल का मामला देखें तो जेलों और कानूनी सहायता के तहत सबसे अच्छे आंकड़ों के साथ ये दूसरे स्थान पर है। लेकिन पुलिस कार्यप्रणाली के मामले पर ये 13वें स्थान पर आता है।

इन पांच साल के दौरान, पुलिस बल में महिलाओं और केरल में सभी पुलिस अधिकारियों में महिला अधिकारियों की संख्या में क्रमशः 0.03 और 0.13 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। अधिकारी स्तर पर खाली पदों में 3 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई हैं।

पुलिस में अधिकारियों की भर्ती के मामले में कोटे को पूरा करने (सभी जाति श्रेणियों - अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों) में पुलिस विभाग सीमित तौर पर ही सफलता रहा। सिर्फ़ कर्नाटक ही अकेला ऐसा राज्य है जिसने इस मामले में सफलता हासिल की है।

केवल छह राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश ( दमन और दीव, मेघालय, गोवा, मणिपुर, गुजरात और केरल ) अपने अनुसूचित जाति के कोटे को भरने या उससे अधिक भर्तियां करने में कामयाब रहे।

न्याय प्रणाली

न्यायपालिका की क्षमता में तमिलनाडु अव्वल रहा है। पांच वर्षों में 2017 तक, तमिलनाडु ने प्रति हाई कोर्ट जज और सब-ऑर्डिनेट कोर्ट जज की अदालत में औसत लंबित मामलों की संख्या में सुधार किया था। साथ ही सब-ऑर्डिनेट कोर्ट में जजों के खाली पदों को भरने और सब-ऑर्डिनेट कोर्ट्स में कुल लंबित मामलों की संख्या कम करने में सफल रहा है।

दूसरे और तीसरे स्थान पर पंजाब और हरियाणा थे। बिहार और उत्तर प्रदेश निचले स्थान पर आने वाले राज्य रहे।

बड़े और मध्यम आकार के राज्यों में, तेलंगाना में सब-ऑर्डिनेट कोर्ट में महिलाओं की सबसे ज़्यादा भागीदारी, 44% थी। लेकिन हाई कोर्ट के मामले में, यह घटकर 10% तक रह जाती है।

Note: Five UTs have been excluded as their judiciary expenditure data were not available: Andaman & Nicobar Islands, Chandigarh, Dadra & Nagar Haveli, Daman & Diu, and Lakshadweep. Andhra Pradesh and Telangana have been excluded as five-year data were not available separately.

इसी तरह, पंजाब में, सब-ऑर्डिनेट कोर्ट में 39% महिला कर्मी थी और हाई-कोर्ट में ये हिस्सेदारी घटकर 12% रह जाती है। हाई कोर्ट स्तर पर 19.6% के साथ केवल तमिलनाडु ने नतीजे अलग हैं। सब-ऑर्डिनेट कोर्ट में राज्य के 35% के कोटे से अधिक महिलाएं थीं।

छोटे राज्यों में, हाई कोर्ट में 33.3% महिलाओं के प्रतिनिधित्व के साथ सिक्किम सबेसे ऊपर और गोवा दूसरे नंबर पर है।

हाई-कोर्ट में जजों के ख़ाली पदों के मामले में भी सिक्किम ने अच्छा प्रदर्शन किया है। यहां 20% से भी कम पद खाली थे।

जेल

केरल और महाराष्ट्र ने जेलों के मामले में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया। दोनों राज्यों ने पांच साल से 2016 तक कई मामलों में सुधार किया है।

इस अवधि के दौरान, केरल, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, गुजरात, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, बिहार और महाराष्ट्र ने अधिकारी और कैडर स्टाफ दोनों स्तरों पर ख़ाली पड़े पदों पर भर्तियों के साथ उनकी संख्या कम की है। अधिकारी स्तर पर, महाराष्ट्र ने 3.45 प्रतिशत औसत वार्षिक वृद्धि के साथ अधिकारियों के ख़ाली पदों को भरने में सबसे अधिक सुधार दिखाया है।

हालांकि, तमिलनाडु में कर्मचारियों के ख़ाली पदों के मामले में 8% की वृद्धि हुई है।

रिपोर्ट के अनुसार, सभी स्तरों पर सिर्फ़ 9.6% महिला कर्मचारी हैं, जो कि नीति दस्तावेजों में सुझाए गए 33% से बहुत कम हैं।

केवल छह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 15% से अधिक महिला प्रतिनिधित्व हैं: नागालैंड (22.8%), सिक्किम (18.8%), कर्नाटक (18.7%), अरुणाचल प्रदेश (18.1%), मेघालय (17%) और दिल्ली (15.1%)।

दूसरी तरफ, इस मामले में, गोवा और तेलंगाना का प्रदर्शन बेहद खराब है। दोनों राज्यों में महिला जेल कर्मचारियों के लिए आंकड़े क्रमशः 2.2% और 2.3% हैं।

2017 के जेल आंकड़ों के अनुसार, 115.1% के अखिल भारतीय औसत के साथ 16 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में, जेल ऑक्युपेंसी दर 100% से अधिक थी। भीड़भाड़ का लेखा-जोखा अंडर-ट्रायल की उपस्थिति से लिया जाता है - ‘हिरासत में जांच, पूछताछ या फ़ैसले का इंतजार करने वाले लोग।’ रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में हर दोष पर दो अंडरट्रायल का आंकड़ा है।

कानूनी सहायता

कानूनी सहायता का उद्देश्य समाज के ग़रीब वर्गों की मदद करना है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई को भी न्याय के अधिकार से वंचित ना रह जाए। कानूनी सहायता पर प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ 0.75 रुपये (2017-18) था।

इस मामले में केरल और हरियाणा टॉप पर हैं जबकि उत्तर प्रदेश सबसे नीचे है। छोटे राज्यों में, गोवा पहले और अरुणाचल प्रदेश अंतिम स्थान पर रहे।

रिपोर्ट में कहा गया है, "कानूनी सहायता सेवाओं को लागू करने में सबसे बड़ी चुनौती ज़िलों और उप-डिवीज़नों में कानूनी सेवाओं के वितरण में असमानताएं है।"

जनवरी 2019 तक, 22 राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों में प्रति 100,000 की आबादी पर10 से कम पैरा-कानूनी वालंटियर्स हैं जो दूर दराज़ के इलाकों और कमज़ोर वर्ग के लोगों को कानूनी सेवाओं में मदद करते हैं। दादरा और नगर हवेली में सबसे कम (0.9) वालंटियर्स हैं, उसके बाद उत्तर प्रदेश (1.6) का स्थान रहा है।

दूसरी तरफ़, हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश में प्रति 100,000 जनसंख्या पर 84.3 और 77 पैरा-कानूनी वालंटियर्स हैं।

(श्रीहरी विश्लेषक हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं।)

यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 07 नवंबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।