फेफड़े के रोग संकट से निपटने के लिए क्यों संघर्ष कर रहा है भारत?
नई दिल्ली, पुणे, बेंगलुरु, मैसूरु: श्वसन रोगों श्वसन रोगों पर भारत के अग्रणी शोधकर्ताओं में से एक ने 2014 में भारत में क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) में तेजी और मरीजों की स्क्रीनिंग और उन्हें प्रबंधित करने की रणनीति की जरूरत से अवगत कराने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव से मुलाकात की। उन विशेषज्ञ ने, जो भारत सरकार के साथ अक्सर सहयोग करते हैं, ने नाम नहीं जाहिर करने की इच्छा जताई है।
बीमारी से अपरिचित लग रहे, स्वास्थ्य सचिव ने बैठक में अपने तकनीकी सलाहकार से संक्षिप्त जानकारी देने के लिए कहा। एक मेडिकल डॉक्टर व सलाहकार ने कहा, "सीओपीडी, वही बीमारी है, जो बच्चों में होती है। "
उनके ‘स्पष्टीकरण’ से यह पता चलता है कि भारत के सीओपीडी संकट से भारत कितना अनजान था - हृदय रोग के बाद, यह देश में मृत्यु का दूसरा सबसे आम कारण है। तंबाकू या कोयले, लकड़ी या गाय-गोबर और अन्य पदार्थ के धुएं के संपर्क में आने में कई साल बाद सीओपीडी हो सकता है- और इसके रोगी आमतौर पर 40 वर्ष की आयु से ऊपर होते हैं।
इस घटना के पांच साल बाद,इस बीमारी के बारे में जागरूकता में सुधार हुआ है, लेकिन भारत ने इसकी रोकथाम के लिए अभी तक कोई रणनीति नहीं बनाई है। 1990 में भारत में सीओपीडी के 2.81 करोड़ मामले थे। 2016 में यह बढ़कर 5.53 करोड़ हो गया है, ऐसा ‘द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ ’ में प्रकाशित सितंबर 2018 के अध्ययन से पता चला है। दुनिया की आबादी का 18 फीसदी लोग भारत में हैं, लेकिन इस पर सीओपीडी का 32 फीसदी बोझ है, जैसा कि यह आगे दिखाया गया है।
सीओपीडी हर वर्ष लगभग एक लाख मौतों के लिए जिम्मेदार है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने मार्च 2019 में इस पर आलेखों की श्रृंखला के पहले भाग में बताया है। दूसरे भाग में, भारत में सीओपीडी में योगदान देने वाले पारंपरिक चूल्हे, लकड़ी और गाय-गोबर के योगदान के बारे में बताया गया है। तीसरा भाग एक राष्ट्र की जहरीली हवा, एक खतरनाक आदत और धीरे-धीरे पहले से अधिक भारतीयों को मारने वाली बीमारी की कहानी बताई गई थी।
इस चौथे आलेख में, हम देखेंगे कि भारत सीओपीडी को चुनौती देने के लिए तेजी से आगे क्यों नहीं बढ़ रहा है।हमारी जांच में हमें कई कारण मिले: स्पिरोमेट्री - सीओपीडी का निदान करने के लिए स्वर्ण मानक परीक्षण - आमतौर पर डॉक्टरों द्वारा उपयोग नहीं किया जाता है, क्योंकि वे परिणाम पढ़ना नहीं जानते हैं।इसके अलावा, राष्ट्रीय गैर-संचारी रोग कार्यक्रम सीओपीडी के रोगियों की जांच नहीं करता है। भारत के सीओपीडी बोझ में से आधे से अधिक बोझ का कारण वायु प्रदूषण है और यह एक ऐसी समस्या है, जिसका समाधान करने के लिए भारत संघर्ष कर रहा है।
अक्सर अस्पताल में भर्ती होने के कारण, सीओपीडी रोगियों के वित्तीय स्थिति पर गहरा प्रभाव डालता है।स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MOHFW) द्वारा कमीशन और नेशनल कमीशन फॉर मैक्रोइकॉनॉमिक्स एंड हेल्थ द्वारा 2005 की एक रिपोर्ट के अनुसार, वार्षिक रूप से, भारत बीमारी के इलाज पर 32,000 करोड़ रुपये खर्च करता है।यह उस राशि के करीब है जिसे स्वास्थ्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए 2019-20 (33,651 करोड़ रुपये) में आवंटित किया है;यह राष्ट्रीय शिक्षा मिशन के लिए आवंटन ( 38,547 करोड़) से थोड़ा कम है और शहरी और ग्रामीण गरीबों के लिए राष्ट्रीय आवास योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना (25,953 करोड़ रु) के लिए निर्धारित राशि से थोड़ा ज्यादा है।
सीओपीडी राष्ट्रीय स्क्रीनिंग मिशन का हिस्सा नहीं
प्रमुख गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) को रोकने और नियंत्रित करने के लिए 2010 में भारत में 21 राज्यों में 100 जिलों में कैंसर की रोकथाम और नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम,मधुमेह, हृदय रोग और स्ट्रोक (एनपीसीडीसीएस) शुरू किया गया था। कार्यक्रम का मुख्य फोकस बुनियादी ढांचे और क्षमता निर्माण को मजबूत करने के अलावा, स्वास्थ्य संवर्धन, शीघ्र निदान, प्रबंधन और मामलों का रेफरल था।
उस समय मृत्यु और बीमारी का प्रमुख कारण डायरिया, मलेरिया और निमोनिया जैसी संक्रामक बीमारियां नहीं थीं, बल्कि मधुमेह, हृदय रोग, स्ट्रोक और कैंसर जैसी एनसीडी थीं। 2016 में 10 में से छह मौतें एनसीडी के कारण हुईं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने नवंबर 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
लेकिन 1990 और 2016 के बीच, सीओपीडी रोग के बोझ के आठवें सबसे बड़े कारण से, दूसरे स्थान पर पहुंच गया, लेकिन 2010 में एनपीसीडीसीएस में इसका कोई उल्लेख नहीं मिला है। क्रोनिक किडनी रोग संबंधी दिशानिर्देशों के साथ यह, 2016 में कार्यक्रम में शामिल किया गया था, लेकिन वहां सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में बीमारी के लिए अधिक रोगियों को स्क्रीन करने या प्रबंधित करने का कोई प्रयास नहीं है।
2018 में, भारत ने प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना शुरू की, जिसे आमतौर पर आयुष्मान भारत के रूप में जाना जाता है। 50 करोड़ को हेल्थ कवर प्रदान करने के साथ, इसका उद्देश्य 150,000 उप-केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों (एचडब्ल्यूसी) में बदलना है। इन केंद्रों का काम सामुदायिक स्तर पर स्वास्थ्य संवर्धन के साथ-साथ व्यापक प्राथमिक देखभाल प्रदान करना था। इसके लिए, देश भर में आम गैर-संचारी रोगों की व्यापक जांच, रोकथाम और प्रबंधन के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया गया है।
2018 में, 10,000 से अधिक एचडब्ल्यूसी काम कर रहे थे और मधुमेह, उच्च रक्तचाप और मौखिक, स्तन और गर्भाशय और ग्रीवा के कैंसर जैसे एनसीडी के लिए 1.3 करोड़ लोगों की जांच की गई थी, लेकिन सीओपीडी स्क्रीनिंग कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था। इस तथ्य के बावजूद कि 2016 में, सीओपीडी ने मधुमेह, टीबी, मलेरिया और स्तन कैंसर की संयुक्त संख्या की तुलना में अधिक लोगों को मार डाला है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जुलाई 2019 की रिपोर्ट में बताया था।
पुणे में चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक सुंदरदीप सालवी कहते हैं, “ जिस तरह से उच्च रक्तचाप, मधुमेह और कैंसर की रोकथाम के लिए भारत के पास कार्यक्रम हैं, सीओपीडी का मुकाबला करने के लिए वैसे ठोस कार्यक्रम नहीं हैं।
फेफड़ों के स्वास्थ्य पर केंद्रित शोध संस्थान चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन, पुणे के निदेशक सुदीप सालवी कहते हैं, "हालांकि एनसीडी पॉलिसी स्टेटमेंट में सीओपीडी के बारे में उल्लेख है, लेकिन सीओपीडी का मुकाबला करने के लिए अभी भी कोई संरचित कार्यक्रम नहीं है, जैसे कि उच्च रक्तचाप, मधुमेह और कैंसर के लिए हैं।"
"मेरा मानना है कि यह इसलिए है, क्योंकि एनसीडी के प्रभारी अधिकारियों को सीओपीडी रोगियों के लिए स्क्रीनिंग करने, निदान और प्रबंधन करने के तरीके नहीं पता हैं।"
एनपीसीडीसीएस दिशानिर्देशों (2013-17) में सीओपीडी का उल्लेख है,लेकिन केवल दो बार, जबकि मधुमेह का 87 बार उल्लेख किया गया है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में एनसीडी के निदेशक राजीव कुमार कहते हैं, "हम प्रत्येक राज्य को एनपीसीडीसीएस के तहत उपकरणों के लिए 150,000 रुपये और दवाओं के लिए 250,000 रुपये का बजट देते हैं। राज्य इस बजट का उपयोग या तो स्पिरोमेट्री प्राप्त करके या वेंटिलेटर या ऑक्सीजन आपूर्ति प्राप्त करके सीओपीडी के लिए कर सकते हैं।"
उन्होंने कहा कि सरकार सीओपीडी के लिए नए नैदानिक दिशानिर्देश लेकर आ रही है, जो जल्द ही जारी किए जाएंगे। "सभी नए एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) केंद्रों में एक पल्मोनोलॉजी विभाग होगा, जो सीओपीडी मामलों में इलाज कर सकेगा।"
नए एचडब्ल्यूसी सीओपीडी के लिए मरीजों की स्क्रीनिंग क्यों नहीं करते हैं? कुमार ने कहा, "हम एक बार में सभी बीमारियों की जांच नहीं कर सकते हैं। हमने अभी शुरुआत की है।" उन्होंने कहा कि टीबी के मरीजों की धूम्रपान की आदतों और उनके घरों में ईंधन के लिए बायोमास के उपयोग के बारे में पूछा गया था, और सीओपीडी प्रसार में ये भी कारक थे।
सीओपीडी के निदान में कठिनाई
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि एनपीसीडीसीएस दिशानिर्देशों में सीओपीडी मौजूद नहीं है, क्योंकि इसका निदान चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए स्पिरोमेट्री नामक एक परीक्षण की आवश्यकता होती है, जो आमतौर पर भारत के क्लीनिकों, अस्पतालों या सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में उपलब्ध नहीं है। रोगी को एक आयताकार उपकरण से जुड़े एक ट्यूब में फूंक मारनी होती है, जिसके बाद एक ग्राफ जैसी शक्ल में रिपोर्ट आती है, फिर एक प्रशिक्षित तकनीशियन अपनी राय देता है।
स्पिरोमेट्री के बिना, और बीमारी का निदान करने के लिए केवल इतिहास और नैदानिक लक्षणों का पर लगभग 60 फीसदी रोगियों का पता ही नहीं चल पाता, जिसमें 44 फीसदी गंभीर रूप से बीमार शामिल होते हैं, जैसा कि रोगी डेटा पर अमेरिका में किए गए 2003 के एक अध्ययन से पता चला है।
भारत में स्पाइरोमेट्री का समग्र उपयोग कम रहा है। चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन द्वारा किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि लगभग 30 फीसदी चेस्ट फिजिशिअन, 70 फीसदी जेनरल फिजिशिअन, 90 फीसदी जेनरल प्रैक्टिश्नर और 80 फीसदी बाल रोग विशेषज्ञों ने 2013 में अस्थमा और सीओपीडी जैसी बीमारी का निदान करने के लिए स्पाइरोमेट्री का उपयोग नहीं किया। जबकि 2005 की तुलना में सभी समूहों के लिए यह अनुपात बढ़ गया, लेकिन यह बीमारी के उच्च बोझ को देखते हुए अभी भी कम है।
डॉक्टरों द्वारा स्पिरोमेट्री का उपयोग नहीं करने के कई कारण थे: समय की कमी (32 फीसदी), रोगियों के लिए सामर्थ्य की कमी (29 फीसदी), उपकरण व्यय (28 फीसदी) और प्रदर्शन करने में कठिनाई (10 फीसदी) और निदान की व्याख्या करना (8 फीसदी)।
समस्या की जड़ यह है कि मेडिकल कॉलेज में सांस की दवा अक्सर उपेक्षित होती है, जैसा कि बेंगलुरु के नारायण हेल्थ में पल्मोनोलॉजिस्ट बी. वी. मुरली मोहन ने बताया। उन्होंने कहा, "जब मैं एक मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस (बैचलर ऑफ मेडिसिन, बैचलर ऑफ सर्जरी) पढ़ाता था, तो एक्जाम कार्डियोलॉजी और न्यूरोलॉजी पर बहुत ज्यादा केंद्रित था।"
उदाहरण के लिए, एमडी या डॉक्टर ऑफ मेडिसिन के लिए आयोजित पाठ्यक्रम में-जहां एक छात्र को जांच और निदान करने के लिए एक घंटे का समय दिया जाता है - आमतौर पर न्यूरोलॉजी से संबंधित होता था और केवल कुछ ही बार इसमें सांस से जुड़े रोग शामिल होते थे, और वह अक्सर टीबी होता था, कभी अस्थमा या सीओपीडी नहीं होता था, जैसा कि मोहन ने बताया।
उन्होंने आगे बताया, "एमडी स्तर पर, अधिकांश छात्रों से एक दिन से ईसीजी पढ़ने की उम्मीद की जाती है, और स्पष्ट रूप से ईसीजी पढ़ने की गुणवत्ता बहुत अच्छी है। लेकिन उनमें से ज्यादातर व्याख्या नहीं कर सकते हैं और यहां तक कि एक स्पाइरोग्राम को भी पहचान नहीं सकते हैं। इसके बावजूद तथ्य यह है कि एक स्पाइरोग्राम की तुलना में ईसीजी पढ़ना आसान है।"
क्या स्पिरोमेट्री का कोई विकल्प है? सालवी ने कहा, “नहीं, स्पिरोमेट्री इस समय सीओपीडी का निदान करने का एकमात्र तरीका है।”
स्वास्थ्य मंत्रालय के राजीव कुमार ने कहा, “प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर तृतीयक केंद्रों के रेफरल के लिए बिगड़ा फेफड़ों के कार्य के साथ रोगियों की पहचान करने के लिए सरकार भी पीक फ्लो मीटरों का उपयोग करने की योजना बना रही है। यह एक सस्ती हैंडहेल्ड डिवाइस है, जो व्यक्ति के फेफड़े के काम करने की अवस्था का अनुमान दे सकती है।
मैसूरु के जेएसएस मेडिकल कॉलेज में टीबी और श्वसन चिकित्सा विभाग के प्रमुख, पी.ए. महेश ने बताया, " पीक फ्लो मीटर से कई बार परीक्षण करने होते हैं और सीओपीड़ी का पता चलने में कई दिनों का वक्त लगता है। ।”
"स्पिरोमेट्री के खिलाफ उनकी प्रभावकारिता का परीक्षण करने के लिए कोई परीक्षण नहीं है।"
भारत में धूम्रपान न करने वाले जोखिम में
एलपीजी पर खाना बनाने से पहले 48 साल की लक्ष्ममा, 30 साल से पारंपरिक चूल्हे पर खाना बना रही थीं। उनमें सीओपीडी के लक्षण मिले हैं, लेकिन उसने अभी तक चिकित्सा देखभाल की मांग नहीं की है।
48 वर्षीया लक्ष्मणा अपना दिन सुबह 4 बजे शुरू करती हैं। गायों का दूध निकालती हैं और मैसूरु शहर से 15 किलोमीटर दूर एक गांव बेलवाड़ी में घरों तक दूध पहुंचाती हैं। वह धीरे-धीरे चलती है, पूरे गांव में 5 किलोमीटर की यात्रा के दौरान छोटे-छोटे ब्रेक लेती हैं, लेकिन दूध देने में कभी असफल नहीं होती है। लक्ष्ममा का सीओपीडी का पता तब चला था, जब मैसूरु में जेएसएस मेडिकल कॉलेज के शोधकर्ताओं के एक समूह ने फेफड़े के स्वास्थ्य परियोजना मुद्रा के लिए उन पर और क्षेत्र के 16 गांवों से 1,084 अन्य लोगों के फेफड़े का परीक्षण किया था।
कुछ साल पहले एलपीजी में शिफ्ट होने से पहले लक्ष्ममा ने 30 साल तक मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाया। जलती हुई लकड़ी, कोयले या गाय के गोबर से चूल्हों का धुआं, भारत में सीओपीडी के लिए एक प्रमुख जोखिम कारक है, और जो तम्बाकू धूम्रपान से बहुत अधिक खतरनाक है। भारत में धूम्रपान करने वालों की तुलना में अधिक लोग परिवेश और घरेलू वायु प्रदूषण से जोखिम में हैं।
Source: The Lancet Global Health
ऐसा इसलिए है, क्योंकि 70 फीसदी भारतीय घर रसोई में खाना पकाने और हीटिंग के लिए बायोमास ईंधन का उपयोग करते हैं और अक्सर रसोईघर हवादार नहीं होते। अपने जीवनकाल में महिलाएं हर दिन 2-3 घंटे खाना बनाती हैं। औसतन एक महिला 2.5 करोड़ लीटर बहुत प्रदूषित हवा में सांस लेती है, जैसा कि 2012 के एक पेपर में बताया गया है।
2016 के एक अध्ययन में जहां 10 वर्ष से अधिक बायोमास खाना पकाने वाली 2,068 महिलाओं की जांच की गई थी, लगभग एक-पांचवें (18 फीसदी) में सीओपीडी का पता चला था। अध्ययन में शामिल अनियंत्रित सीओपीडी के साथ महिलाओं की औसत आयु 47 वर्ष थी।
कम शिक्षा, बायोमास जलने के खतरों के बारे में खराब जानकारी और स्वास्थ्य प्रदाताओं की अज्ञानता के कारण निदान स्तर खराब देखा गया।
लक्ष्म्मा अब तक डॉक्टर के पास नहीं गई हैं, हालांकि वह अपनी स्थिति के बारे में छह साल से जानती हैं। अस्पताल की टीम के साथ, जब इस रिपोर्टर ने उनके घर का दौरा किया तो उन्होंने कहा, " दो-तीन साल पहले ही मुझे सांस लेने में परेशानी शुरु हुई थी।"
अपने प्रारंभिक चरणों में, सीओपीडी आमतौर पर गंभीर छाती की परेशानी का कारण नहीं बनता है, लेकिन उम्र के साथ, लक्ष्म्मा इसके प्रभाव को महसूस करेगी। उनके पति सिवन्ना, जो एक बीड़ी पीते हैं, को भी 2006 में सीओपीडी का पता चला था, लेकिन उन्होंने कभी किसी भी डॉक्टर से परामर्श नहीं लिया है।
प्रदूषकों के संपर्क का गंभीर स्तर
मुद्रा परियोजना को सीओपीडी की वास्तविक व्यापकता का अनुमान लगाने और 2006 और 2010 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में जोखिम कारकों की जांच करने के लिए शुरू किया गया था। जिनका परिक्षण किया गया था, उनका पांच साल में फिर से परिक्षण किया गया।
यह अध्ययन इसलिए आयोजित किया गया था, क्योंकि सीओपीडी पर पहले के सभी अध्ययन प्रश्नावली और स्पिरोमेट्री पर आधारित थे और बीमारी और बायोमास ईंधन के जोखिम के बीच प्रतिक्रिया संबंध का पता नहीं लगाते थे।
अध्ययन में पाया गया कि 1,085 लोगों में, केवल 1 फीसदी पुरुषों और 0.6 फीसदी महिलाओं में निर्धारित परिभाषा के अनुसार सीओपीडी था, लेकिन उनमें से लगभग आधे में फेफड़े खराब रुप से काम कर रहे थे। पुरुषों की तुलना में, खाना पकाने के लिए 40 साल से कम तक लकड़ी के ईंधन के संपर्क रहने वाली महिलाएं असमान रूप से प्रभावित थीं।
फॉलो-अप के बाद, कम से कम दो साल के लिए साल में तीन महीने तक खांसी का सामना करने वाले लोगों में से 12.6 फीसदी की मृत्यु हुई, जबकि खांसी न होने वालों के लिए आंकड़े 5.7 फीसदी है।अध्ययन में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है कि साल में कुछ महीनों भी अगर खांसी है तो जांच कराने की आवश्यकता होती है।
जेएसएस मेडिकल कॉलेज में टीबी एंड रेस्पिरेटरी मेडिसिन के विभाग प्रमुख, पी ए महेश कहते हैं, "क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस सीओपीडी का एक हिस्सा है और इसे एक साधारण मेडिकल हिस्ट्री और रिस्क असेसमेंट का पता लगाया जा सकता है।"
जेएसएस मेडिकल कॉलेज में टीबी एंड रेस्पिरेटरी मेडिसिन के विभाग प्रमुख, और परियोजना से जुड़े मुख्य व्यक्ति, पी ए महेश कहते हैं, "क्रोनिक ब्रोंकाइटिस सीओपीडी का एक हिस्सा है और इसे एक साधारण चिकित्सा इतिहास और जोखिम मूल्यांकन के साथ पता लगाया जा सकता है।"
स्पिरोमेट्री उपलब्ध नहीं होने पर भी समुदाय में पुरानी ब्रोंकाइटिस की पहचान करना महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, "इनमें से कई मामलों का सीओपीडी में विकास हो सकता है और कई बार सीओपीडी विकसित हुए बिना भी मरने का खतरा होता है।"
मुद्रा कोहोर्ट बायोमास खाना पकाने और सीओपीडी के संपर्क के बीच लिंक स्थापित करने के लिए भी जिम्मेदार था। पहले के अध्ययनों से पता चला था कि सिगरेट धूम्रपान का न्यूनतम जोखिम, जो बीमारी का कारण हो सकता है, वह 10 पैक साल या 10 वर्षों के लिए एक दिन में 20 सिगरेट है। हालांकि बायोमास एक्सपोज़र को सीओपीडी के कारण स्वीकार किया गया था, लेकिन बीमारी के जोखिम को बढ़ाने वाला न्यूनतम जोखिम स्पष्ट नहीं था।
बायोमास के संपर्क की मात्रा का वर्णन सबसे पहले चंडीगढ़ के डी. बेहरा ने ‘पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टूट ऑफ एजुकेश्नल एंड मेडिकल रिसर्च’ में किया था और एक्सपोजर इंडेक्स को प्रति दिन एक्सपोजर की संख्या और एक्सपोजर के वर्षों की संख्या के उत्पाद के रूप में समझा जा सकता है।
"यह दुनिया में अपनी तरह का पहला अध्ययन है," महेश ने समूह की निष्कर्ष के बारे में कहा कि पुरानी फेफड़ों की बीमारी के विकास के जोखिम को बढ़ाने के लिए, 60 का न्यूनतम बायोमास एक्सपोजर इंडेक्स आवश्यक है।
तो चार घंटे खाना पकाने वाली महिला को जोखिम में होने के लिए 15 साल की आवश्यकता होगी और तीन घंटे तक खाना पकाने वाली महिला 20 साल में जोखिम के स्तर तक पहुंच जाएगी।
ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य खतरे
बायोमास ईंधन के उच्च उपयोग के कारण, ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों जितना ही सीओपीडी का प्रचलन है।कम आर्थिक विकास वाले राज्यों में कम गैर-संचारी रोग होते हैं-जिसका अर्थ है एक कम महामारी विज्ञान संक्रमण स्तर (ईटीएल)- लेकिन सीओपीडी के कारण अधिक बीमारी फैल सकती है, जैसा कि लैंसेट ग्लोबल हेल्थ पेपर में कहा गया है।
पंजाब, केरल और तमिलनाडु जैसे उच्च ईटीएल वाले राज्यों की तुलना में,उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सीओपीडी और अस्थमा जैसे रोगों का उच्च बोझ है और मामलों की संख्या में गिरावट दर बहुत कम है।
68 वर्षीय आर देवराज को इस साल सीओपीडी का पता चला।वह धूम्रपान नहीं करते हैं और मैसूरु जिले में एक किसान के रूप में काम करते हैं।
68 साल के आर देवराज को इस साल सीओपीडी का पता चला था। वह कहते हैं, “मैं बहुत मजबूत हुआ करता था, इतना काम अकेले ही करता था। अब, मुझे देखो, मैं इतना कमजोर हूं, मैं बाइक भी नहीं चला सकता। ” आर. देवराज धूम्रपान नहीं करते हैं और मैसूरु जिले में एक किसान के रूप में काम करते हैं।
महेश ने कहा कि कीटनाशकों में धूल और रसायनों के कारण खेती में एक ज्ञात सीओपीडी जोखिम है। अन्य व्यावसायिक जोखिमों में खनन, गलाने, पशुपालन, रासायनिक कारखाने आदि में काम करना शामिल है।
वायु प्रदूषण (53.7 फीसदी) और धूम्रपान (25.4 फीसदी) के बाद, व्यावसायिक जोखिम भारत में सीओपीडी के लिए तीसरा प्रमुख कारक है।
महेश कहते हैं, "हम निश्चितता के साथ यह नहीं कह सकते हैं कि परिवेशी वायु प्रदूषण के कारण बीमारी कैसे बढ़ती है? हमें इन उत्तरों को खोजने के लिए अधिक धन और शोध की जरूरत है।"
महेश के पास बीमारी पर अंकुश लगाने के लिए एक सरल संदेश है: "खांसी को नजरअंदाज न करें।" अध्ययनों में दिखाया गया है कि जिन लोगों में साल में तीन महीने लगातार खांसी है, उनकी दूसरों की तुलना में मृत्यु दर दोगुनी है। हम यह भी जानते हैं कि बायोमास से क्लीनर ईंधन पर स्विच करने से ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में सीओपीडी के मामलों में कमी आएगी। धूम्रपान छोड़ने से कमजोर आबादी की स्क्रीनिंग में मदद मिलेगी।
अंत में, यह बढ़ी हुई जागरूकता है जो भारत को बीमारी को मात देने में मदद करेगी।
बायोमास ईंधन से एलपीजी पर स्विच करना: बायोमास ईंधन से एलपीजी जैसे क्लीनर ईंधन पर स्विच करना घरेलू वायु प्रदूषण के कारण सीओपीडी के बोझ को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना - जो गरीब परिवारों को एलपीजी कनेक्शन के लिए सहायता प्रदान करती है - ने अब तक 7 करोड़ परिवारों को कनेक्शन प्रदान किया है। जेएसएस मेडिकल कॉलेज, मैसूरु के पी. ए. महेश कहते हैं, "दक्षिण में, हमने पहले ही एलपीजी में स्विच करने के फायदे देखे हैं। उत्तर में भी हम जल्द ही इसका असर देखेंगे।"
वेंटिलेशन में सुधार: खराब वेंटिलेशन से रसोई में धुएं का कुप्रभाव बढ़ता है और एक और खिड़की जोड़ने से असुविधा को कम करने में मदद मिल सकती है, जैसा कि चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन ऑफ इंडिया के निदेशक सुंदरदीप सालवी कहते हैं। चिमनी और इग्जॉस्ट फैन को जोड़ने से भी रसोई वायु गुणवत्ता बेहतर हो सकती है।
चिकित्सकों के लिए प्रशिक्षण: अधिकांश रोगी प्रारंभिक शिकायतों के साथ प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सकों के पास जाते हैं। इसलिए, चिकित्सकों के बीच सीओपीडी के बारे में जागरूकता और समझ में सुधार करना महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) और नारायण हेल्थ एंड चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन ने सीओपीडी और अस्थमा के प्रबंधन में सर्टिफिकेट कोर्स के लिए डॉक्टरों को प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया है। पाठ्यक्रम को चेस्ट मेडिसिन में विशेषज्ञों द्वारा देश भर के 25 केंद्रों में पढ़ाया जाता है।अब तक, 600 डॉक्टरों को अन्य कौशल के बीच स्पिरोमेट्री और अच्छे साँस लेने के अभ्यास का प्रशिक्षण दिया गया है। "गुजरात, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम, त्रिपुरा और कोलकाता नगर निगम की राज्य सरकारों ने अपने चिकित्सा अधिकारियों के लिए पाठ्यक्रम को शामिल किया है", जैसा कि संदीप भल्ला, निदेशक, प्रशिक्षण, पीएचएफआई बताते हैं।
जोखिम वाले समूहों के लिए स्क्रीनिंग: सीओपीडी को विकसित होने में कई साल लगते हैं और जब तक मरीज को असुविधा का अनुभव होता है, तब तक फेफड़ों में बहुत सारी अपूरणीय क्षति हो जाती थी। जेएसएस मेडिकल कॉलेज के महेश ने कहा कि 30 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की धूम्रपान और बायोमास के धुएं और विभिन्न व्यावसायिक जोखिमों को देखते हुए वर्ष में एक बार स्क्रीनिंग करनी चाहिए।
व्यायाम और फुफ्फुसीय पुनर्वास: सीओपीडी रोगियों के लिए, फुफ्फुसीय पुनर्वास तक पहुंच जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद कर सकती है। बेंगलुरु के भगवान महावीर जैन अस्पताल में पल्मोनोलॉजी विभाग के प्रमुख, एच. बी. चंद्रशेखर कहते हैं, "व्यायाम से सांस फूलने की परेशानी कम हो जाती है और अस्पताल में भर्ती होने की संभावना कम हो जाती है। लक्षणों में सुधार होता है और मृत्यु दर भी कम हो सकती है।"
यह चार रिपोर्ट की श्रृंखला की अंतिम रिपोर्ट है। आप यहां पहली रिपोर्ट पढ़ सकते हैं, दूसरी यहां और तीसरी यहां।
यह रिपोर्ट हेल्थचेक पर पहली बार यहां प्रकाशित हुई थी।
यह रिपोर्ट गैर-संचारी रोगों पर आरईआरसी लिली मीडिया फैलोशिप प्रोग्राम द्वारा समर्थित थी।
(यदवार विशेष संवाददाता है और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)
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