बदलते जॉब मार्केट के साथ ख़ुद को ढाल रहे हैं राजस्थान के प्रवासी श्रमिक
नई दिल्ली: दक्षिणी राजस्थान के कोविया गांव के रहने वाले 32 साल के वला राम गमेती हर रोज़ सुबह 7 बजे अपने घर से निकलते हैं। वो 3 किलोमीटर दूर बाज़ार जाते हैं और वहां पहुंचकर वह दिनभर के लिए प्याज़, गाजर, पत्ता गोभी काटते हैं और सॉस तैयार करते हैं। इस काम में वला राम को लगभग एक घंटा लगता है। सुबह के 9 बजते ही वह अपने चाइनीज़ कॉर्नर का शटर उठाते हैं। उनका दावा है कि "इस इलाक़े में चाइनीज़ फ़ूड का यह पहला स्टॉल है।" मार्च के महीने में देशव्यापी लॉकडाउन के बाद, गुजरात के एक फ़ास्ट फ़ूड रेस्टोरेंट में कुक की अपनी नौकरी गंवाने के बाद वो अपने घर लौट आए और अपना स्टॉल शुरु किया।
गमेती, लगभग एक करोड़ उन प्रवासी श्रमिकों में से एक है जो लॉकडाउन के बाद अपने घरों को लौट आए, संसद में पेश सरकार के आंकड़ों के अनुसार। रिवर्स माइग्रेशन को छह महीने से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है, हमने जाना कि अपने गांवों को लौट चुके प्रवासी मज़दूर कैसे इस परिस्थिति का सामना कर रहे हैं?
कोविड-19 संकट ने आजीविका को कैसे प्रभावित किया है, इस बारे में तीन भागों की श्रृंखला में, हम जानेंगे कि श्रमिक, बदलती परिस्थितियों के लिए अनुकूल कैसे ख़ुद को ढाल रहे हैं। इस श्रृंखला के इस पहले भाग में, हम दक्षिणी राजस्थान के उन श्रमिकों की बात करेंगे जो अपने गांवों में रुक गए हैं। राज्य में लगभग 13 लाख श्रमिकों ने वापसी की है, जो मुख्यत: निर्माण, विनिर्माण, हॉस्पिटैलिटी सैक्टर से जुड़े हैं या फिर दिहाड़ी मज़दूर हैं। दूसरे भाग में हम ओडीशा के उन श्रमिकों की बात करेंगे जो शहरों को लौट गए हैं। तीसरे और आख़िरी भाग में जानेंगे इस महामारी की वजह से उत्तर प्रदेश की महिलाओं की ज़िंदगी में क्या बदलाव आया है।
जो श्रमिक गांवों में रह गए हैं उनमें से अधिकांश शहरों में वापस जाने का इंतज़ार कर रहे हैं, लेकिन उन्हें अभी तक वहां काम नहीं मिला है। वे उम्मीद कर रहे हैं कि दिवाली के बाद हालात बदलेंगे, इंडियास्पेंड ने कई श्रमिकों से बातचीत के दौरान पाया। कुछ ने कहा कि उनके दिल में अभी भी कोरोनोवायरस का डर है, इसलिए वो वापस नहीं जाना चाहते हैं और घर के आसपास ही काम करना चाहते हैं। हालांकि यह विश्लेषण करना बहुत जल्दी होगी कि यह लंबे वक़्त में काम की प्रकृति को बदल देगा, दो रुझान स्पष्ट हैं: श्रमिकों को हताशा ने अपना काम को बदलने के लिए मजबूर किया है और कुछ नए कौशल सीख रहे हैं; वापस आने वाले प्रवासी श्रमिक, ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे उद्यम स्थापित कर रहे हैं ताकि वह यहां वो सेवाएं दे सकें जो सिर्फ़ शहरों में ही उपलब्ध हैं।
आजीविका ब्यूरो ने अप्रैल और मई में दक्षिणी राजस्थान के पांच ज़िलों के 426 प्रवासी श्रमिकों का सर्वेक्षण किया जो देश के विभिन्न हिस्सों से घर लौटे थे। इस अध्ययन से पता चला कि श्रमिकों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। कई लोगों के बड़े परिवार थे, लेकिन कमाने वाला एक ही सदस्य था। लॉकडाउन की वजह से श्रमिक बेरोज़गार और कैशलेस कर दिया था, और कई को उनके आख़िरी तनख़्वाह भी नहीं मिली थी, सर्वेक्षण में पाया गया। यह सर्वेक्षण अभी प्रकाशित नहीं हुआ है।
अप्रैल के अंत तक, 57% श्रमिकों ने बताया, उनके पास बिल्कुल भी पैसा नहीं बचा था; 22% ने कहा कि उनके पास सिर्फ़ 100 से 500 रुपए तक बचे हुए थे, अपनी मूल ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें कर्ज़ लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। लगभग 38% ने कहा कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान सरकार से भोजन और राशन जैसी कोई मदद नहीं मिली। कोई नियमित काम नहीं होने और सरकार से कोई ख़ास मदद नहीं मिलने के कारण, 69% श्रमिकों ने कहा कि वे काम करने के लिए शहरों में वापस जाना चाहते हैं, सर्वेक्षण में पाया गया।
"लंबे समय तक काम न होने से श्रमिकों के उपलब्ध संसाधनों में कमी आएगी, जो अंततः उनकी सौदेबाज़ी की शक्ति और गतिशीलता को प्रभावित कर सकता है," अध्ययन में भविष्यवाणी की गई, आगे कहा गया, "संसाधनों की कमी की वजह से श्रमिक शायद शहर न लौट पाएं या ज़्यादा ब्याज दर पर कर्ज़ लेकर कर्ज़ के जाल में फंस जाएं। यह श्रमिकों की सौदेबाजी की शक्ति को भी बहुत प्रभावित करेगा, जो कम मज़दूरी पर काम करने को तैयार हो जाएंगे।"
'मुश्किल भरी है शहर की ज़िंदगी'
वला राम ने गुजरात के वापी के एक रेस्टोरेंट में एक दशक से अधिक समय तक काम किया था। जब लॉकडाउन की घोषणा की गई, तो रेस्टोरेंट बंद हो गया और उन्हें उस महीने की तनख़्वाह नहीं मिली। वला राम ने अपने साथ काम करने वाले अपने दो भाइयों के साथ अपने गांव वापस जाने का फ़ैसला किया। राजस्थान की सीमा तक उन्होंने एक बस ली और फिर दो दिन तक पैदल चलकर अपने गांव कोविया पहुंचे। जून में लॉकडाउन में ढील दिए जाने के बाद, उनके भाई वापी लौट आए, लेकिन उन्होंने शहर की ज़िंदगी से तौबा कर ली।
"शहर में बहुत मुश्किलें थी," वला राम ने कहा। जो अब अपनी पत्नी, तीन बेटियों और माता-पिता के साथ घर पर है। "मेरे मालिक ने मेरी मजृ़दूरी बढ़ाने से इनकार कर दिया। मुझे अपने परिवार की चिंता होती थी। यहां मुझे लगता है मैं सुरक्षित हूं और यहां बीमार पड़ने की संभावना कम है।" अगस्त में, उन्होंने प्रवासी कामगारों की मदद करने वाले राजस्थान के एक गैर-सरकारी संगठन, आजीविका ब्यूरो की सहायता से फ़ूड स्टॉल खोला। वापी में वे महीने में 13,000 रुपए कमाते थे, जबकि इस स्टॉल से एक दिन में 1,000 रुपए और कभी-कभी तो इससे ज़्यादा भी कमा लेते हैं - जो उन्हें काफी संतोषजनक लगता है। इसके अलावा, वह खुद से काम करना पसंद करते हैं। उन्होंने कहा, "मैं हाई लेवल का चाइनीज़ बनाता हूं," उन्होंने कहा।
वला राम का गांव आदिवासी क्षेत्र में आता है। गांव के पुरुष पारंपरिक रूप से देश भर में, ख़ासतौर पर गुजरात में खाना बनाने का काम करते हैं। दक्षिणी राजस्थान-गुजरात प्रवासी कोरिडोर से तीन क्षेत्रों के लिए श्रमिक जाते हैं: निर्माण, वस्त्र और छोटे होटल और रेस्तरां। 2018 के एक शोध पत्र में पाया गया कि दक्षिणी राजस्थान का आदिवासी समुदाय, गुजरात में "अत्यधिक शोषण" का शिकार है, जहां मालिक उनके ऐतिहासिक रूप से निम्न सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का लाभ उठाते हैं। उनके काम करने के बावजूद उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।
अप्रैल की शुरुआत से मई के अंत तक, उदयपुर, डूंगरपुर, सिरोही, जालौर, नागौर, बाड़मेर और बीकानेर ज़िलों में 13 लाख प्रवासी श्रमिक लौटे हैं, राजस्थान सरकार के एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज पोर्टल के अनुसार।
जो काम मिला करने को मजबूर
लॉकडाउन के बाद, इस क्षेत्र के श्रमिकों को या तो काम नहीं मिला या फिर जो भी काम मिला वो करने के लिए मजबूर हो गए। कई ने शहरों को पहले की तुलना में अधिक प्रतिकूल पाया।
वला राम के गांव कोविया थोड़ी दूर स्थित अजयपुरा गांव के 33 साल के परता राम के पास होटल और रेस्टोरेंट में काम करने का लगभग 25 साल का अनुभव है। लॉकडाउन की घोषणा के वक्त परता राम अपने गांव के ही 35 और लोगों के साथ पूर्वी गुजरात के छोटा उदयपुर के एक स्कूल में कुक के तौर पर काम कर रहे थे। लॉकडाउन के दौरान जब वो घर लौटने लगे तो उन्हें उनकी मज़दूरी का भुगतान नहीं किया गया, और तब से कोई स्थाई काम नहीं है। उन्होंने बताया कि उन्होंने महामारी से पहले अपने खेत में एक ट्यूबवेल लगाने के लिए अपने जीवन भर की बचत, 2.5 लाख रुपए लगा दिए थे। अब कोई बचत और कोई काम नहीं होने के कारण, वह मुश्किल से अपने दैनिक ख़र्चों को पूरा कर पाते हैं। उन्होंने कुछ दिन महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत और निजी निर्माण स्थलों पर काम किया। जहां से वो प्रतिदिन 100 से 200 रुपए कमाते थे, जो राजस्थान में अकुशल श्रमिकों के लिए न्यूनतम मज़दूरी, 225 रुपए से कम है।
इस साल अप्रैल महीने से राजस्थान के 6 करोड़ घरों में से 65.7 लाख घरों ने मनरेगा का लाभ उठाया है। उत्तर प्रदेश के 80 लाख घरों के बाद यह दूसरे नंबर पर है। कार्यान्वयन में अनियमितताएं थी, मज़दूरी का भुगतान न्यूनतम मज़दूरी से कम था, काम बंद हो गया था और सुपरवाइज़र्स ने मीटिरियल और पैसे में गड़बड़ियां की, मज़दूरों के अधिकारों पर काम करने वाले संगठनों के अनुसार। इस तरह के मामले देश भर से सामने आए।
"मनरेगा ने लॉकडाउन के बाद के पीरियड में राहत का काम किया है," राजस्थान में मनरेगा के राज्य कमिश्नर, पीसी किशन ने कहा। "हमने इस साल जून के महीने में 54 लाख लोगों को काम दिया, जबकि पिछले साल गर्मियों में यह संख्या 30 लाख थी। राज्य ने इस वर्ष के लिए अपने बजट को 30 करोड़ कार्य दिवस से संशोधित करके 37 करोड़ कर दिया है। हम जनवरी और फ़रवरी में मनरेगा के तहत रोज़गार की और अधिक मांग की उम्मीद कर रहे हैं, पलायन शुरू हो गया है लेकिन केवल कुछ ही क्षेत्रों में। लोग ग़रीबी की कगार पर हैं। हम बजट को फिर से संशोधित तक 40 करोड़ कार्य दिवस तक करेंगे," उन्होंने कहा।
हालांकि, हालात बिगड़ते जा रहे हैं क्योंकि अगस्त से मनरेगा के तहत मिलने वाला काम कम हो गया है, आजीविका ब्यूरो में नॉलेज और प्रोग्राम सपोर्ट एग्जीक्यूटिव, सलोनी मुंद्रा ने कहा: "अप्रैल और मई में जब श्रमिक वापस आए, तो उनके पास काम नहीं था। कुछ को मनरेगा के तहत और स्थानीय स्तर पर जून और जुलाई के बीच काम मिला। लेकिन अगस्त से इस काम में कमी आई है।" बहुत से श्रमिकों ने हताशा की वजह अपना काम बदल लिया है, उन्होंने कहा - जो लोग टेक्सटाइल सेक्टर या होटल में काम करते थे वे अब निर्माण के क्षेत्र में काम कर रहे थे, एक ऐसा क्षेत्र जिसमें तेज़ी आई है जबकि अन्य क्षेत्रों में कमी आई है।
कामकाज में इस बदलाव को पूरे देश में देखा गया है। मुंबई मेट्रोपॉलिटन रीजन में शहरी ग़रीबों पर कोविड-19 के प्रभावों पर आई एक रिपोर्ट में कहा गया है, "आमदनी के लिए कुछ कुशल श्रमिकों ने अकुशल काम करने की जानकारी दी है। जो खेती करने की उम्मीद में अपने गांव वापस चले गए थे, उन्होने बताया है कि वो यह कर नहीं पा रहे हैं। ऐसी स्थितियों में राज्य की मदद पर निर्भरता अधिक है।" यह रिपोर्ट एक गैर-सरकारी संगठन यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) ने तैयार की है।
आमदनी में कमी के कारण श्रमिकों को यह करना पड़ रहा है, युवा की एसोसिएट डायरेक्टर मरीना जोसेफ ने कहा। "जो लोग निर्माण क्षेत्र में प्लंबर या इलेक्ट्रीशियन जैसे कुशल काम करते थे, वे सामान उठाने और लोड करने काम कर रहे हैं," उन्होंने कहा, "कई अन्य लोगों ने स्ट्रीट वेंडर बन गए हैं।"
"गुजरात में डायमंड कटिंग में बड़ी संख्या में राजस्थान के युवा काम करते हैं और ये कुशल श्रमिक हैं जिन्हें अच्छी मज़दूरी मिलती है; [वे] अब कुछ सौ रुपये कमाने के लिए लोडिंग और अनलोडिंग जैसा काम कर रहे हैं," श्रमिक अधिकार संगठन, सेंटर फ़ॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन के फ़ील्ड ऑफ़िसर, मदन वैष्णव ने कहा।
"यह अकुशलता की प्रक्रिया है," केरल में सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज़ में पलायन विशेषज्ञ एस. इरुद्या राजन ने कहा। सरकार को संकट को पहचानने और उन लोगों के बैंक खातों में सीधे पैसे भेजने की ज़रूरत है जो इस अवधि में अपनी नौकरी खो चुके हैं, ताकि श्रमिक तुरंत शहरों को लौटने के लिए मजबूर न हों, जहां उन्हें अर्थव्यवस्था की स्थिति की वजह से शोषण का सामना करना पड़ सकता है।
सहकारी समितियों के गठन से प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा हो सकती है, जैसा कि अधिकांश विकास अर्थशास्त्रियों की सिफारिश है।
अगस्त के महीने में, अजयपुरा के रसोइए परता राम को गुजरात के एक शहर मुंद्रा में काम की पेशकश की गई थी। जब वह अपने गांव के 27 लोगों के साथ वहां पहुंचे, तो उन्हें पता चला कि ठेकेदार ने उन्हें गुमराह किया है। उन्हें एक बर्तन के कारखाने में काम करने का वादा किया गया था, लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि जिस कारखाने में उन्हें काम दिया जा रहा था वहां लोहे के पाइपों का निर्माण होता है। उन्हें 12-घंटे की शिफ्ट में पाइप की लोडिंग और अनलोडिंग का काम करना था। "हमें इस काम के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया था, हर पाइप लगभग 50 किलो का था। हम तीन दिन में ही अपने गांव लौट आए," परता राम ने बताया। महामारी से पहले, लोडिंग और अनलोडिंग जैसे ख़तरनाक काम को ज़्यादतर बिहार से आए प्रवासी करते थे।
परता राम अब अपनी मक्का की फ़सल की देखभाल के लिए अपने गांव वापस आ गए हैं। इस इलाक़े की ज़मीन कठोर और पथरीली है और खेती के लिए कठिन है। उनकी एक बीघा ज़मीन उनके छह सदस्यों के परिवार के जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं है। लेकिन शहरों के विपरीत इस इलाक़े में कोरोनावायरस का कोई डर नहीं है, राम ने कहा। "क्षेत्र की पहाड़ियां वायरस को दूर रखती हैं," उन्होंने ज़ोर देकर कहा।
अनिश्चितताओं की वजह से यहां लोगों के सामने आर्थिक संकट है। लेकिन परता राम फिर से शहर में नए काम की तलाश करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते और उम्मीद करते हैं कि स्कूल खुलने के बाद वह स्कूल की कैंटीन में कुक की अपनी पुरानी नौकरी पाने में कामयाब होंगे।
नए कौशल सीखने का चलन
इस सब के बीच, एक बदलाव भी देखने को मिला है। गैर-सरकारी संगठनों की मदद से या ख़ुद की पहल से कुछ श्रमिक, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में फिट होने के लिए अपने कौशल को उन्नत करने की कोशिश कर रहे हैं।
आजीविका ब्यूरो में काम करने वाले प्रशिक्षक, लोकेश खोरवाल ग्रामीण राजस्थान के युवाओं को मोबाइल फोन की मरम्मत करने का प्रशिक्षण दे रहे हैं ताकि वे गांवों में दुकानें खोल सकें। पिछले कुछ महीनों में इन वर्कशॉप की मांग में लगातार बढ़ोतरी हुई है। "इस संकट के बाद से इस वर्कशॉप में सबसे अधिक लोगों ने रुचि दिखाई, हर बैच भरा हुआ है," लोकेश ने बताया। "गांव के हर व्यक्ति के पास मोबाइल फोन है, लेकिन हर गांव में मोबाइल की मरम्मत की दुकान नहीं है और उन सभी को इसके लिए दूर जाना पड़ता है।"
सितंबर के अंत में जब इंडियास्पेंड ने उनसे संपर्क किया, तब अलग-अलग ज़िलों के 31 पुरुष दो सप्ताह के इस प्रशिक्षण में भाग ले रहे थे और परीक्षा की तैयारी में जुटे थे।
महेंद्र ढोडिया (20) मोबाइल फोन के मदरबोर्ड की मरम्मत करना सीख रहे थे। उन्होंने बताया कि वर्कशॉाप में पढ़ने और प्रैक्टिकल करने के लिए बहुत दबाव है। महेंद्र, पुणे में एक चाय की दुकान पर काम करते थे। वह लॉकड़ाउन के दौरान घर लौटने से पहले दो महीने तक वहां फंसे रहे। दुकान खोलने के लिए उन्होंने गांव के बाज़ार में एक व्यस्त जगह के बारे में पहले ही सोच लिया था।
मोबाइल की मरम्मत की दुकान से एक दिन में 1,000 से 2,000 रुपए के बीच कमाई करना कहीं भी संभव है, लोकेश ने कहा। उन्होंने आगे कहा कि यह शहरों में किसी ट्रेनी को मिलने वाले भुगतान से अधिक है। दोपहिया वाहनों की मरम्मत और बिजली का काम सीखने की वर्कशॉप भी भरी हुई हैं जिनसे गांवों में छोटे उद्यम स्थापित किए जा सकते हैं।/p>
(सुनयना, दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह सामाजिक न्याय और जेंडर जैसे मुद्दों पर लिखती हैं।)