बिहार में शराबबंदी के चार साल: ग़रीब और कमज़ोर तबके के लोगों पर बरपा कार्रवाई का कहर
पटना: काली स्याह रात में जब सब लोग सो चुके होते हैं तो राजेश (बदला हुआ नाम) अपने कस्बे के कब्रिस्तान में जाता है। ये सिलसिला हफ़्ते में चार दिन चलता है। "हर हफ़्ते की शराब की खेप लेने के लिए ये सुनसान जगह सुरक्षित है," राजेश ने कहा। "हम जगह बदलते रहते हैं। कभी-कभी हम खेतों के बीच भी मिलते हैं।"
राजेश पेशे से कार मैकेनिक है, लेकिन उसकी कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा - एक लाख रुपए महीना से अधिक - अवैध शराब के काम से आते हैं। यह उस राज्य का किस्सा है जहां 2016 में शराबबंदी घोषित की जा चुकी है। "मेरे कपड़ों पर मत जाओ," अपने गैरेज में एक छोटे से स्टूल पर बैठकर उसने एक हंसते हुए कहा। इसी गैरेज में ही अक्टूबर के महीने की शुरुआत में हमारी उससे मुलाकात हुई।
बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य में शराबबंदी का वादा किया था। जिसका मुख्य उद्देश्य घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाना था, जिसे अकसर शराब पीने की लत से जोड़ा जाता है। चुनाव के बाद, जब मुख्यमंत्री के रूप में अपना लगातार तीसरा कार्यकाल संभाला तो उन्होंने राज्य में शराबबंदी की घोषणा की।
शराबबंदी से पहले, बिहार में हर महीने लगभग 25 मिलियन लीटर शराब की खपत थी, राज्य के आबकारी विभाग के आंकड़ों के अनुसार। उसी साल, देश भर में शराब की खपत 5.4 बिलियन लीटर थी। राज्य में शराबबंदी के तुरंत बाद ही शराब का अवैध कारोबार शुरु हो गया।
ही में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान राज्य में शराब का अवैध कारोबार तेज़ी बढ़ गया। "यह पैसा कमाने का समय है," राजेश ने कहा। "राजनीतिज्ञों को अपने प्रचार के दौरान मतदाताओं के बीच शराब बांटनी होती है। चुनाव से पहले बिक्री आसमान को छूती है। हमने 2019 के आम चुनाव के दौरान भी बहुत पैसा कमाया था। "
इन खेतों अकसर अवैध शराब के ट्रक आते हैं।
दो भागों की इस श्रृंखला में इंडियास्पेंड ने बिहार में शराबबंदी के असर को जानने की कोशिश की पहले भाग में हमने बताया कि कैसे बिहार में सस्ती ज़हरीली शराब और ड्रग्स की खपत इजाफा हुआ है। इस अंतिम भाग में, हम जानेंगे कि राज्य में कैसे अवैध शराब की समानांतर अर्थव्यवस्था कायम हो चुकी है और कैसे उल्लंघन करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई ने महादलितों (दलितों में सबसे अधिक वंचित) और आदिवासी समुदायों जैसे पारंपरिक रूप से हाशिए पर पड़े सामाजिक समूहों को बुरी तरह प्रभावित किया है।
बिहार में शराबबंदी की समस्या यह है कि शराबबंदी को कानून और व्यवस्था की समस्या के तौर पर लिया जा रहा है न कि सामाजिक समस्या के तौर पर, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़, पटना के प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कुमार ने कहा। "राज्य को अधिक समय जन जागरूकता अभियान चलाने में लगाना चाहिए था, संबंधित हितधारकों से सलाह-मशविरा करते, नशा मुक्ति केंद्र आदि स्थापित करते," उन्होंने कहा। "राज्य की ज़िम्मेदारी शराब पर प्रतिबंध लगाने से नहीं ख़त्म होती है: समाज की विभिन्न श्रेणियों के बारे में सोचना चाहिए था। नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती होने का मतलब यह भी है कि लोगों के सामने रोज़गार की समस्या आनी है। कई लोग ऐसा करने का जोखिम नहीं उठा सकते। इसके अलावा, इसे एक निषेध के रूप में देखा जाता है, और पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं है।"
बिहार के चार ज़िलों में हमें ऐसे कई मामले मिले, जिनमें दिहाड़ी मज़दूरी करने वाले लोगों से जुर्माने की भारी रकम वसूली गई जिसे अदा करना उनके बस की बात नहीं थी। उन्हें जुर्माना चुकाने के लिए कर्ज़ लेना पड़ा।
'विकल्प क्या हैं?'
राजेश अपने छोटे से कस्बे में अवैध शराब के सबसे बड़े कारोबारियों में से एक है। वो उत्तर प्रदेश, झारखंड, हरियाणा और पंजाब से राज्य में शराब की तस्करी करता है। उसके गैरेज के ठीक पीछे खाली बोतलों का अंबार लगा है। इस तरह के अंबार पूरे राज्य में दिखाई देते हैं, खासकर खेतों के पास।
राजेश के गैरेज के पीछे ख़ाली बोतलों का अंबार।
जब बिहार में अवैध शराब का धंधा शुरू हुआ, तो कुछ ही लोग इस काम में लगे थे और वो बड़ी सावधानी से काम करते थे। 'शराब' शब्द का इस्तेमाल कभी नहीं किया जाता था, अवैध शराब के एक पूर्व कारोबारी विजय (बदला हुआ नाम), 27, ने कहा। "हम कोड-वर्ड का इस्तेमाल करते थे - क्वार्टर के लिए चवन्नी, हाफ़ के लिए अठन्नी आदि," विजय ने कहा। "किसी नए ग्राहक को पुराने ग्राहक के माध्यम से ही आना होता था। हालांकि यह एक ख़तरनाक समय था, लेकिन पैसा कमाने का भी यही समय था।"
जल्द ही, अवैध शराब का कारोबार फलने-फूलने लगा था, और इसके कारोबारियों के पास पैसा बरस रहा था। "मैंने अपने जीवन भर में कारों की मरम्मत की है, लेकिन फिर भी मैं अपने परिवार को एक अच्छी ज़िंदगी नहीं दे सका," राजेश ने कहा। "नीतीश [मुख्यमंत्री] ने जब शराब पर प्रतिबंध लगाया तो शहर के एक बड़े विक्रेता ने मुझे अपने साथ जुड़ने के लिए कहा। तब से ही मैं इस व्यापार का हिस्सा हूं।"
रात में जब राजेश को खेप मिलती है, आठ पहिया पिकअप ट्रकों के साथ "वितरकों" की लाइन लग जाती है। सुभाष (बदला हुआ नाम) उनमें से एक है। "मैं शराबबंदी से पहले शराब की एक दुकान पर काम करता था," सुभाष ने कहा। सुभाष ने अपनी दाहिनी कलाई पर एक बैंड पहन रखा था जिस पर लिखा हुआ था बेरोजगारी हटाओ । "मेरी नौकरी चली गई। इसलिए जो मैं कानूनी रूप से करता था, मैं उसे अवैध रूप से करता हूं। क्या हमारा रोज़गार लेने से पहले नीतीश कुमार ने वैकल्पिक नौकरियां दीं? कोई उद्योग नहीं लगाया। अगर आप नौकरियां नहीं दे सकते हैं, तो कम से कम लोगों के मौजूदा रोज़गार को तो न छीनें।"
पिकअप ट्रक जिसमें मध्यम स्तर के वितरक शराब की खेप ले जाते हैं।
बिहार की बेरोज़गारी दर अक्टूबर 2020 में 9.8% थी, जो देश की बेरोज़गारी दर, 6.7% से अधिक थी। "कम से कम राज्य को पहले राजस्व प्राप्त होता था। अब वह पैसा ब्लैक मार्केट में घूम रहा है," राजेश ने कहा।
शराबबंदी से ठीक पहले, 2014-15 में बिहार ने शराब की बिक्री पर उत्पाद शुल्क से 3,100 करोड़ रुपए से अधिक राजस्व प्राप्त किया, 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार। सर्वेक्षण में बताया गया कि 2015-16 में इससे राजस्व का अनुमान 4,000 करोड़ रुपये था। यह रकम राज्य के लिए क्या मायने रखती है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार के बजट प्रस्तावों में 2020-21 में मिड-डे मील योजना के लिए 2,554 करोड़ रुपए प्रस्तावित थे - अनुमानित 4,000 करोड़ रुपए का लगभग 64%।
शराब के एक तस्कर ने हाथ में ये बैंड पहना है जिस पर लिखा है, बेरोज़गारी हटाओ।
मद्य निषेध विभाग के अधिकारियों ने इंडियास्पेंड को बताया कि पिछले साढ़े चार साल में 20 अक्टूबर तक बिहार में 30 लाख लीटर शराब ज़ब्त की गई है।
आबकारी विभाग के अनुसार ज़ब्त की गई इस शराब में 14 लाख लीटर देसी और 16 लाख लीटर से अधिक विदेशी शराब थी। इससे पता चलता है कि राज्य में शराब की खपत कितनी है, एक ग़ैर सरकारी संगठन, एक किरण आरोह के संस्थापक, मनोज कुमार ने कहा। "अगर उन्होंने इतनी शराब ज़ब्त की तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि बिहार में कितना पैसा बहाया जा रहा है," उन्होंने कहा।
सबसे ज़्यादा बिकने वाले दो ब्रांड इंपीरियल ब्लू (आईबी) और रॉयल स्टैग व्हिस्की हैं, सुभाष ने बताया। "आईबी का क्वार्टर 150 रुपए का है, हाफ़ 300 रुपए और पूरी बोतल 600 रुपए की है," उसने कहा। "एक बॉक्स में 48 क्वार्टर, 24 हाफ़ या 12 बोतल होती हैं। बिहार में पर्याप्त मात्रा में शराब आ रही है।"
बिहार में सबसे लोकप्रिय व्हिस्की इम्पीरियल ब्लू
सुभाष, हर हफ़्ते 50 ऐसे बॉक्स वितरित करता है, यानी 3.6 लाख रुपए की शराब। "मैं हर बॉक्स पर लगभग 300 रुपए कमाता हूं, जो लगभग 60,000 रुपए महीना बैठता है," उसने बताया। "शराब की दुकान पर काम करने के दौरान मुझे जो वेतन मिलता था, उससे कहीं अधिक। अगर बेहतर ब्रांड की अधिक मांग होती है, तो मेरी आमदनी और बढ़ जाती है।"
अधिक महंगे ब्रांड में ब्लेंडर्स प्राइड और 100 पाइपर्स शामिल हैं, उसने बताया, 'ब्लेंडर्स प्राइड की बोतल की कीमत 1,500 रुपए है जबकि 100 पाइपर्स की बोतल 2,500 रुपए की है," उसने कहा। "पुलिस अफ़सर, डॉक्टर और नौकरशाह आम तौर पर यही पीते हैं।"
प्रशासनिक मिलीभगत
मई 2017 में, बिहार पुलिस ने दावा किया था कि चूहे जनता से जब्त 900,000 लीटर शराब पी गए हैं। अक्टूबर 2018 में, ज़ब्त की गई शराब बेचने के आरोप में दो पुलिसकर्मियों को गिरफ़्तार किया गया था।
बिहार पुलिस के आईजी मुख्यालय, नैय्यर हसनैन ख़ान ने कहा कि उनकी फ़ोर्स के सामने एक बड़ी चुनौती है क्योंकि राज्य चारो तरफ़ से दूसरे राज्यों से घिरा है। "पूरी सीमा को सील नहीं किया जा सकता है," उन्होंने कहा। "सीमा पार के लोग सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से राज्य से जुड़े हुए हैं।"
हालांकि, नैय्यर हसनैन ने कहा कि राज्य में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक ठोस अभियान चल रहा है लेकिन "उतार-चढ़ाव" तो रहते ही हैं। "पुलिस एक बड़ा संगठन है और आप भ्रष्टाचार के कुछ मामले पाएंगे," उन्होंने कहा। "लेकिन हमने अवैध शराब के कारोबार से जुड़े पाए गए कई अधिकारियों और कर्मियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की है। आबकारी अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि कोई भी सरकारी अधिकारी जो अपने पद का दुरुपयोग करने की कोशिश करता है, उस पर क़ानूनी कार्रवाई हो सकती है।"
अब तक के आबकारी विभाग के रिकॉर्ड के अनुसार, अवैध शराब के कारोबारियों से रिश्तों के कारण 52 पुलिस अधिकारियों से पूछताछ की गई है। इनमें से, 36 को या तो निलंबित कर दिया गया है या विभागीय जांच का सामना करना पड़ा है। सात को बर्खास्त किया गया है और नौ को दंड या प्रशासनिक जांच का सामना करना पड़ा है।
हालांकि, पुलिस की कार्रवाई का खामियाज़ा समाज कमज़ोर लोगों को उठाना पड़ा है, मनोज कुमार ने कहा। "शराबबंदी के उल्लंघन के लिए कितने बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया गया है?" उन्होंने पूछा। "कितने वरिष्ठ नौकरशाह? न्यायपालिका से कितने? हमेशा ग़रीब होता है जिसे मोहरा बनाया जाता है। अमीर लोग अधिकारियों को रिश्वत देकर छूट जाते हैं, जबकि ग़रीब अदालती मामलों में उलझ जाते हैं जो उन्हें कर्ज़ के जाल में धकेल देता है।"
मध्य बिहार के एक शहर में शराब की खाली बोतलों से भरा बैग।
गिरफ़्ताररियों में भेदभाव
जिस तरह से गिरफ़्तारियां की गई हैं उससे राज्य सरकार की एजेंसियों में पूर्वाग्रह का पता चलता है, पटना के सामाजिक वैज्ञानिक, डीएम दिवाकर ने कहा। "वे शराब ले जाने वालों को गिरफ़्तार कर रहे हैं, कारोबारियों को नहीं," उन्होंने कहा। "शराब लाने ले जाने वाले लोग गरीब, असहाय हैं जो रोज़गार की तलाश में हैं। उन्हें अपना घर चलाने के लिए ऐसा करना पड़ता है।"
शराबबंदी के क़ानून में जुलाई 2017 में सबसे पहले दोषी करार दिए गए मस्तान मांझी (45) और उनके भाई पेंटर पटना से 50 किलोमीटर दूर जहानाबाद के रहने वाले हैं। उन्हें शराब पीने के आरोप में पांच साल कारावास और एक-एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया गया। ये मामला 2018 में शराबबंदी क़ानून में हुए संशोधन से पहले का है। 2018 में हुए संशोधन में इसे कम करके पहली बार पकड़े जाने पर तीन महीने की जेल या 50,000 रुपए का जुर्माना कर दिया गया।
मांझी, मुसहर समुदाय से आते हैं, जो बिहार के महादलित हैं, और किराए की ठेलागाड़ी चलाकर 250 रुपए रोज़ कमा पाते हैं। उनकी सज़ा के दो साल बाद, मांझी परिवार कर्ज में डूबा हुआ है। "मुझे एक निजी साहूकार से मस्तान का जुर्माना अदा करने के लिए एक लाख रुपए उधार लेने पड़े," मस्तान मांझी की पत्नी सियामनी (40) ने बताया। "5% ब्याज पर पैसे लिए है। मुझे समझ नहीं आता कि कैसे परिवार चलाएं, कैसे राशन ख़रीदें, कैसे बच्चों को पढ़ाएं और कैसे कर्ज़ चुकाएं। आप शराबबंदी कर सकते हैं मगर सज़ा तो उचित होनी चाहिए।"
मई 2017 में, आबकारी विभाग की टीम ने इन दोनों भाइयों को पकड़ा था। जहानाबाद ज़िला अदालत ने जुलाई 2017 में उन्हें छह महीने के लिए जेल भेज दिया। छह महीने बाद, परिवार पटना हाईकोर्ट से उनकी ज़मानत करवाने में कामयाब रहा। "हमें 10 सुअरों को बेचना पड़ा था, प्रत्येक 3,000 रुपये में," मुसहरी टोली में अपनी झोपड़ी के बाहर बैठी सियामनी ने कहा। "ज़मानत नहीं मिलती तो वह जेल में सड़ता रहता।"
कई मामलों में, पुलिस गिरफ़्तार किए गए लोगों के परिवारों को सूचित तक नहीं करती है, पटना के सामाजिक कार्यकर्ता और वकील, संतोष कुमार ने कहा। संतोष ने शराबबंदी के उल्लंघन में पकड़े गए ग़रीब और कमज़ोर वर्ग के सैकड़ों लोगों को ज़मानत पर रिहा कराया है। "पुलिस उनके हाथ-पैर रस्सी से बांध कर लाती है," उन्होंने कहा। "यह अमानवीय है। कई ऐसे लोग हैं जो पटना में काम करते हैं क्योंकि यह राजधानी है। उनके परिवार बिहार के दूसरे हिस्सों में हैं। पुलिस उन्हें बताने की ज़हमत भी नहीं उठाती। कई मामलों में, मैंने परिवारों से संपर्क किया और उनकी ज़मानत कराई। उनके पास ज़मानत भरने के लिए पैसे भी नहीं होते हैं।"
मस्तान जब से ज़मानत पर बाहर आया है, वह अपने कर्ज़ की अदायगी के लिए ज़्यादा काम कर रहा है। हालांकि, उसे साहूकार को हर महीने 5,000 रुपए देने हैं - अगर काम अच्छा मिला तो यह मस्तान की 20 दिन की मज़दूरी है। मूलधन, मस्तान के 400 दिन की मज़दूरी के बराबर है।
जब हम अक्टूबर में आए थे, तब कोविड-19 लॉकडाउन के बाद बहुत कम काम मिल रहा था, मस्तान ज़्यादातर दिन खाली हाथ घर लौटता था। "मैं शराबबंदी के पक्ष में थी," सियामनी ने कहा। "लेकिन इसने हमारी ज़िंदगियां बर्बाद कर दी हैं।"
अप्रैल 2016 और सितंबर 2020 के बीच, सरकारी एजेंसियों ने 488,450 छापे मारे हैं, जिनमें 67,367 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, आबकारी विभाग के आंकड़ों के मुताबिक़। 2017 में सबसे अधिक, 120,481 छापे मारे गए थे, 21,292 लोगों को गिरफ्तार किया गया था।
जब शराबबंदी के उल्लंघन के दो लाख से ज़्यादा मामले लंबित हो गए तब नवंबर 2019 में, पटना हाईकोर्ट ने इसके लिए बिहार की खिंचाई की।
कुछ 'बड़ी' गिरफ्तारियां
मई 2018 में, शराबबंदी के दो साल बाद, द इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी जांच में शराबबंदी के उल्लंघन में गिरफ़्तार लोगों के सामाजिक स्तर की जानकारी हासिल की। रिपोर्ट में पाया गया कि तीन केंद्रीय जेलों, 10 ज़िला जेलों और नौ उप-जेलों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के कैदियों का प्रतिशत राज्य की आबादी में उनके हिस्से से अधिक है।
हालांकि, पुलिस ने तस्करी में शामिल बड़ी मछलियों को भी गिरफ़्तार किया है और "बड़ी वसूली" की है, ख़ासकर चुनाव के दौरान, नैय्यर हसनैन ख़ान ने कहा। "लेकिन आदिवासी क्षेत्र और कुछ सामाजिक समूह हैं जो पारंपरिक रूप से शराब बनाते हैं। यह उन्हें ऐसा करने से रोकना एक चुनौती है क्योंकि सदियों से उनकी आजीविका इसी पर निर्भर है," उन्होंने कहा। "समाज कल्याण विभाग ने उन्हें वैकल्पिक आजीविका देने की कोशिश की है, लेकिन इस बारे में और अधिक करने की आवश्यकता है। ये वे कमियां हैं जिनका हमें अभी भी मुकाबला करने की ज़रूरत है।"
करीब एक साल पहले, राजमंथी देवी के पति को शराब बनाने के लिए कंचनपुर (बोधगया की एक मुसहर टोली) से उठाया गया था। "ड्रम खाली था लेकिन पुलिस ने उसमें महुआ सूंघ लिया," लगभग 45 साल की राजमंथी देवी ने कहा। "वो लगभग 10 दिन जेल में रहा। उसे निकालने के लिए हमें 10% महीने के ब्याज पर 6,000 रुपये उधार लेने पड़े।"
यह ब्याज दर सालाना 120% बैठती है। इसके विपरीत, हाउसिंग लोन की वार्षिक ब्याज दर 6.7% से शुरू होती है।
"मेरे ख़्याल से हम कर्ज़ में से 2,000 रुपए लौटा चुके हैं," अपनी झोपड़ी के बाहर चारपाई पर बैठी राजमंथी देवी ने अंदाज़े से बताया। "मेरे चार बच्चे हैं। हम रोज़ कमाते, रोज़ खाते हैं। मेरे पति मज़दूर हैं दिन के करीब 300 रुपए कमाते हैं। अगर आमदनी नहीं होती तो खाना भी नहीं खा पाते हैं। लॉकडाउन के बाद से कई दिन बिना कुछ खाए गुज़ारे हैं।"
राजमंथी देवी के पति को देसी शराब बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
कानून ग़रीबों के ख़िलाफ़ काम करता है, उन्होंने आगे कहा: "उसने कुछ भी नहीं चुराया था। अमीर हर समय शराब पीते हैं। उनका कुछ नहीं होता। बिहार में तमाम शराब के तस्कर हैं जो बेख़ौफ़ काम कर रहे हैं।"
तीन साल तक अवैध शराब का कारोबार कर काफ़ी पैसा कमाने वाले विजय ने पिछले साल ये काम छोड़ने का फ़ैसला लिया। "मैं कभी समझ नहीं पाया कि लोग पीते क्यों हैं। मुझे लगता है कि मैं उस हलवाई की तरह हूं जो अपनी मिठाई नहीं खाता है क्योंकि वह पूरे दिन मिठाई के सामने रहता है। विजय के पास अब दो मंज़िला घर है और एक सरकारी नौकरी भी है। "शराबबंदी से कुछ नहीं बदला है, और न ही इससे कभी कुछ बदलेगा," विजय ने कहा।
(पार्थ, इंडियास्पेंड में प्रिंसिपल कॉरोसपॉंडेंट हैं।)
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