भारत के प्राइम टाइम टीवी बहसों में महिलाओं की भागीदारी कम
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मुंबई: किसी भी शाम को, जो भारत में प्राइमटाइम टेलीविजन न्यूज़ बहस देखते हैं, उन्हें यह धारणा मिल सकती है कि टीवी पर प्रसारित होने वाले किसी भी विषय ( राजनीति, अर्थव्यवस्था, शेयर बाजार या भू-राजनीति ) पर होने बहस पर महिलाओं की शायद ही राय ली जाती है।
5 फरवरी, 2018 से शुरू होने वाले पांच दिनों के लिए, इंडियास्पेंड ने 8 से 10 बजे के बीच 10 अंग्रेजी समाचार चैनलों पर बहस पैनलिस्टों (टिप्पणीकार / प्रवक्ता / न्यूज़मेकर) के रूप में दिखाई देने वाले पुरुषों और महिलाओं की संख्या की गणना की है।
महिलाओं की तुलना में चार गुना अधिक पुरुष (54 महिलाओं की तुलना में कुल 264 पुरुष ) उस अवधि के दौरान पैनालिस्ट के रूप में दिखाई दिए । यह मीडिया प्रसारण में महिलाओं के विचारों के कम प्रतिनिधित्व का संकेत देता है।
लिंग गणना स्टूडियो में आने वाले गेस्ट (एंकर्स नहीं) और बहस (साक्षात्कार नहीं) तक सीमित थी। संख्याएं पैनल के समूहों के स्क्रीनशॉट्स पर आधारित थीं, जो शो के पहले आधे में दिखाई दिए (कुल आंकड़ों में मामूली विसंगतियां हो सकती हैं, क्योंकि बहस शुरू होने के बाद कुछ पैनलिस्टों को लाया जाता है)। इन शो में पैनलों की संख्या तीन से लेकर 10 तक थी और कुछ विशेषज्ञ एक ही शाम कई चैनलों पर दिखाई दिए ।
अध्ययन के निष्कर्ष अनुभवजन्य आंकड़ों को बेहतर ढंग से समझने की आवश्यकता पर बल देते हैं कि 780 मिलियन टेलीविजन दर्शकों के साथ देश की प्राइमटाइम टीवी न्यूज पर भारत की पेशेवर महिलाएं बेहद अनदेखी और अनसुनी क्यों हैं?
मोटे तर पर अंग्रेजी प्रसारण के लगभग 220 मिलियन दर्शक और भारत में 400 से अधिक समाचार चैनल हैं। पांच दिन के नमूने में 10 शो में से केवल एक में महिला पैनललेस्ट अपने पुरुष समकक्षों से अधिक संख्या में थी। सीएनएन समाचार 18 पर 6 फरवरी, 2018 को शाम 7 बजे से 10 बजे तक।
राष्ट्रवादी झुकाव के साथ टेलीविजन के दो सबसे तेज शो ( नौ बजे रिपब्लिक टीवी बहस और 10 पीएम विथ अरनौब गोस्वामी और टाइम्स नाउ पर 9 बजे और 10 बजे न्यूज ऑवर में महिलाओं का सबसे कम प्रतिनिधित्व था।
अंग्रेजी समाचार चैनल पर जेंडर के अनुसार पैनेलिस्ट (05.02.2018- 09.03.2018)
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Gender Sample Of Panellists On English News Channels (February 5-9, 2018) | ||||
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Show | Channel | Slot | Male panellists | Female panellists |
Left, Right & Centre | NDTV 24x7 | 8:00 PM | 33 | 5 |
The Urban Debate | Mirror Now | 8:00 PM | 23 | 8 |
People's Court | India Today | 8:00 PM | 11 | 7 |
Face-off Tonight | CNN-News18 | 8:00 PM | 25 | 4 |
The Newshour | Times Now | 9:00 PM | 36 | 1 |
The Urban Debate | Mirror Now | 9:00 PM | 23 | 9 |
Arnab Goswami on The Debate | Republic TV | 9:00 PM | 38 | 2 |
Epicentre | CNN-News18 | 10:00 PM | 9 | 11 |
Arnab Goswami on The Debate | Republic TV | 10:00 PM | 38 | 3 |
The Newshour | Times Now | 10:00 PM | 28 | 4 |
विशेषज्ञों के रूप में कम ,खबरों में पीड़ितों के रूप में दिखाई देती हैं महिलाएं
मीडिया में विशेषज्ञ महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व एक वैश्विक प्रवृत्ति है। पांच-वार्षिक ग्लोबल मीडिया मॉनिटरिंग प्रोजेक्ट (जीएमएमपी) के मुताबिक 2015 में, "अखबार, टीवी और रेडियो समाचार सुनने, पढ़ने या देखने वाले लोगों में केवल 24 फीसदी महिलाएं थी। 2010 में भी यही स्तर पाया गया था। "
यूरोप में, “महिलाओं का स्टोरी में विशेषज्ञ, पेशेवर राजनेताओं या व्यापारिक व्यक्तियों के तौर परयोगदान देने की संभावना कम होती है, ” जैसा कि 114 राष्ट्र जीएमएमपी 2015 की रिपोर्ट में कहा गया है।
"समाचार में अब भी उन चीजों के बारे में बात करते हुए पुरुषों का दबदबा है, जिसमें उनकी अभिनीत भूमिका और अधिकार हैं।" यह आसानी से भारत में इस दृश्य का विवरण हो सकता है, जहां करीब आधी आबादी महिलाओं की है।
पिछले साल जारी किए गए मुंबई स्थित मीडिया सर्वेक्षण से पता चलता है कि केवल दो उत्तरदाताओं ने ( बीबीसी और आईबीएन लोकमत, एक मराठी भाषा के समाचार चैनल ) सहमति व्यक्त की कि ‘कम से कम’ एक महिला की उपस्थिति टीवी पर बहसों में विशेषज्ञों की मौजूदगी को बैलेंस करती है।
‘पॉप्युलेशन फर्स्ट’ और ‘केसी कॉलेज’ की अगुवाई में किए गए अध्ययन में आधे से अधिक उत्तरदाताओं की यह राय थी कि पेनलिस्टों के चयन में लिंग एक निर्णायक कारक नहीं है। लेकिन 15.78 फीसदी उत्तरदाताओं ने कहा कि पैनलिस्टों की "उपस्थिति" महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 2015 में, भारत में मीडिया और लिंग पर ‘इंटरनेश्नल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट सर्वेक्षण’ से पता चलता है कि केवल 6.34 फीसदी उत्तरदाताओं का मानना है कि समाचार कार्यक्रमों में महिलाओं को विशेषज्ञों / नेताओं के रूप में दर्शाया गया था; जबकि 21.73 फीसदी का कहना था कि उन्हें पीड़ितों के रूप में चित्रित किया गया था।
यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण क्यों है कि टीवी समाचार शो में अधिक महिला पेशेवरों को देखा जाए? विशेषज्ञों का कहना है कि मीडिया में लैंगिक रूढ़िवाइयों का चित्रण इस बात को प्रभावित कर सकता है कि समुदायों और समाज में महिलाओं की जगह कैसी है। समाचारों और वर्तमान मामलों के प्रसारण में महिलाओं की एक सभा की लॉर्ड्स की जांच का जवाब देते हुए ब्रिटिश सरकार ने 2015 में कहा, "मीडिया संपूर्ण रूप से सांस्कृतिक और सामाजिक मानदंडों को बनाए रखने या चुनौती देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि यह उद्योग आज के समाज का सही प्रतिनिधित्व करे।"
क्यों ज्यादा पुरुष दर्शकों के लिए पुरुष विशेषज्ञ ?
भारतीय टेलीविजन के दर्शकों में आधी हिस्सेदारी पुरुषों की है और वे या तो दिन के शुरुआत में या समाप्त होने पर समाचार देखते हैं, जैसा कि इंडिया ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बीएआरसी) के अनुमान में बताया गया है।
शाम के 7 बजे से रात के 10 बजे तक प्राइम टाइम माना जाता है, भारत में ‘शहरी, ग्रामीण और बड़े शहरों’ में समाचार देखने वाली महिला दर्शकों की संख्या में गिरावट देखी जा सकती है। यह संभवतः एक कारक है जो मीडिया के फैसले को प्रभावित करता है
तीन महीने के फैलोशिप पेपर के लिए एक साक्षात्कार में ( जिस पर यह रिपोर्ट आधारित है ) पत्रकार सागरिका घोष ने ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड में ‘रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म’ (आरआईएसजे) को बताया, "पुरुष टीवी एंकर पुरुष टिप्पणीकारों का एक ग्रुप बनाते हैं और वे ज्यादातर मुद्दों पर स्वाभाविक रूप से उन्हीं को बुलाते हैं।’’
वह आगे कहती हैं, "भारत में टीवी न्यूज के कर्ता-धर्ता मानते हैं कि समाचार दर्शकों में ज्यादा पुरुष हैं। इसलिए वे महिलाओं की बजाय पुरुषों से राय पाना पसंद करते हैं। लेकिन यहां युवा पुरुषों के खिलाफ भेदभाव भी है, जैसा कि टीवी और मीडिया प्लेटफॉर्म बुजुर्ग स्थापित पुरुष टिप्पणीकारों को पसंद करते हैं।"
ज्यादातर लैंगिक मुद्दे पर चर्चा करने के लिए महिलाएं आमंत्रित
महिलाओं को आम तौर पर राजनीति, भू-राजनीति, रक्षा, वित्त या अर्थव्यवस्था की तुलना में लैंगिक मुद्दों पर चर्चा करने के लिए अधिक बुलाया जाता है।
उदाहरण के लिए, सभी पुरुष टिप्पणीकारों ने फरवरी 5, 2018 को प्रसारित किए गए 10 में से तीन कार्यक्रमों पर पाकिस्तान नीति समस्याओं पर चर्चा की है - लेफ्ट, राइट एंड सेंटर (एनडीटीवी 24 × 7), फेस-ऑफ (सीएनएन-न्यूज 18) और दी डिबेट (रिपब्लिक टी वी)।
चुने गए वक्त के दौरान महिला पैनल केवल दो बार दिखाई दिया है। 9 फरवरी, 2018 को, चार महिला टिप्पणीकारों ने एपिसेंटर (सीएनएन-न्यूज 18) और 8 फरवरी, 2018 को पीपुल्स कोर्ट (इंडिया टुडे) पर संसद में कांग्रेस की सांसद रेणुका चौधरी की हंसी पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया टिप्पणियों के बारे में लैंगिक राजनीति पर चर्चा की है।
उदाहरण के लिए, ‘मिरर नाउ’ पर अर्बन डीबेट में दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ कर पर बहस के लिए कोई महिला पैनलिस्ट मौजूद नहीं थी, लेकिन अगले दिन सैनिटरी नैपकिन पर माल और सेवा कर (जीएसटी) पर चर्चा के लिए तीन पुरुषों और तीन महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व था।
घोष कहती हैं, "भारत में मुट्ठी भर मजबूत महिला स्तंभकार और लेखकों को पैनलों पर बुलाया जाता है, लेकिन उन्हें ज्यादातर उदारवादी नारीवादियों के रूप में सामाजिक और लिंग न्याय के मुद्दों पर बात करने के लिए बुलाया जाता है।"
2016 में, वेबसाइट SheThePeople और Safecity ने 100 से अधिक सम्मेलनों, घटनाओं और टेलीविजन शो का एक सर्वेक्षण परिणाम जारी किया है। सर्वेक्षण से पता चलता है कि महिलाओं को ज्यादातर महिलाओं के मुद्दों पर टिप्पणी के लिए संपर्क किया जाता है। सर्वेक्षण में समाचार चैनलों पर एक चौथाई या कम महिला पैनलिस्ट देखे गए। 26 फीसदी ‘सीएनएन-न्यूज 18’ पर, 25 फीसदी ‘एनडीटीवी 24×7’ पर, ‘टाइम्स नाउ’ पर 18 फीसदी और दूसरों पर 12 फीसदी
यौन उत्पीड़न पर चर्चा करने के लिए सबसे ज्यादा महिलाएं पैनलेलिस्ट को आमंत्रित किया गया था, करीब 39 फीसदी। जबकि अपराध और सामाजिक मुद्दों के लिए आंकड़े 26 फीसदी रहे हैं। प्रौद्योगिकी (14 फीसदी) और उद्योग (12 फीसदी) पर महिलाओं के विचार को कम ही सुना गया है।
व्यवसायों में भारत का बढ़ता लिंग अंतर
टेलीविजन पत्रकारों का तर्क है कि विशेषज्ञों में पुरुषों की तुलना में महिला कमेंटेटर कम संख्या में उपलब्ध हैं। इस सामान्य अवलोकन को डेटा द्वारा समर्थित किया जा सकता है। वर्ष 2017 में लिंग-समान राष्ट्रों के विश्व आर्थिक मंच की रैंकिंग में 144 देशों में से भारत 108वें स्थान पर है। 2006 में भारत 98वें स्थान पर था। कम रैंकिंग आंशिक रूप से ‘विधायकों, वरिष्ठ अधिकारियों और प्रबंधकों के साथ-साथ पेशेवर और तकनीकी श्रमिकों के बीच महिलाओं के शेयरों में लिंग अंतर’ के कारण हुई थी।
घोष कहती हैं, "ज्यादातर टिप्पणीकार और सोच को प्रभावित करने वाले पुरुष हैं और अधिकतर राजनीति या प्रशासन के मुद्दों पर उन्हीं बुजुर्ग पुरुष को पैनलों में बुलाया जाता है। "
वर्ष 2017 में विश्व बैंक ने, 2004-05 से 2011-12 तक महिला और लड़कियां श्रमशक्ति की संख्या में 19.16 मिलियन की कमी दर्ज की है। 2015-16 में भारत की छात्र संख्या में 48 फीसदी लड़कियां हैं। लेकिन जैसा कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की 24 सितंबर, 2017 की रिपोर्ट कहती है, “श्रम में महिलाओं की भागीदारी 27 फीसदी है, संसद में प्रतिनिधित्व और राज्य विधानसभा के लिए आंकड़े 11 फीसदी और 8.8 फीसदी है। इसके अलावा, भारत की 500 सबसे बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों में से केवल 17 सीईओ महिलाएं हैं।”
एंकर कहते हैं, “ सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों की तलाश, लैंगिक संतुलन प्राथमिकता नहीं ”
साक्षात्कार में शामिल टेलीविजन एन्कर्स ने कहा कि वे लिंग पर ध्यान दिए बिना 'सर्वश्रेष्ठ' वक्ताओं की तलाश में रहते हैं, और व्यापार, वित्त और आर्थिक मुद्दों पर महिला विशेषज्ञ मिलना मुश्किल है।
आरआईएसजे पेपर के लिए एक साक्षात्कार में ‘एनडीटीवी 24 × 7’ की लेफ्ट, राइट एंड सेंटर कार्यक्रम की एंकर और कार्यकारी संपादक निधि राजदान कहती हैं, "मैं विशेषज्ञता, अलग-अलग दृष्टिकोणों से तलाश करती हूं, जो लोग टीवी पर स्पष्ट और सहज होते हैं, जो हर कोई नहीं हो सकता है।” राजदान ने कहा कि उन्होंने महिला पैनलों की भी मेजबानी की है और अक्सर राजनीति और विदेश नीति पर बात करने के लिए महिलाओं को आमंत्रित किया है। वह आगे कहती हैं, "ईमानदारी से, मैंने कभी भी लिंग के परिप्रेक्ष्य से नहीं सोचा है। लेकिन लिंग संतुलन के लिए मुझे प्रयास करना चाहिए! "अर्थव्यवस्था पर, रजदान कहती हैं, “ प्रमुख उद्योगपति किरण मजूमदार शॉ, बैंकर नैना लाल किदवई और अर्थशास्त्री इला पटनायक जैसे अक्सर देखे जाने वाले पैनलिस्ट अपवाद हैं। पुरुष विशेषज्ञों को ढूंढना आसान है।"
राजदान आगे कहती हैं, " मैंने 18 साल पहले टीवी में कदम रखा था, और यह महिलाएं ही हैं जो एनडीटीवी को चला रही हैं और शीर्ष पदों पर हैं और प्राइम टाइम शो एंकर करती हैं। तो, मैं एक ऐसे वातावरण में आगे बढ़ी हूं जो वास्तव में पुरुषों और महिलाओं के बीच विभेदित नहीं हुआ है और हम इस तरह से बहुत भाग्यशाली रहे हैं। तो शायद यही वजह है कि मैं इसके बारे में भी सतर्क नहीं हूं। मैं उन लोगों के आधार पर पैनलों को आमंत्रित करती हूं जो मुझे विश्वास है कि किसी भी मुद्दे पर बोलने के लिए सबसे अच्छे व्यक्ति हैं। मैं उन्हें लिंग के हिसाब से आमंत्रित नहीं करती।"
‘टू द पॉइंट ऑन इंडिया टुडे टीवी’ के पूर्व मेजबान करन थापर कहते हैं," समाचार चैनलों पर बहसों में पुरुषों और महिलाओं की संख्या में असमानता जानबूझकर नहीं है। उदाहरण के लिए, विदेशी मामलों में कुछ बेहतरीन और सबसे अधिक जानकार वक्ता महिलाएं हैं ।"
थापर कहते हैं, "मुझे आपको बताना होगा, मेरी प्राथमिकता संतुलन बनाना नहीं है। लिंग प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण है लेकिन प्राथमिकता नहीं है। अच्छा बोलने वाले लोग मिलें, अच्छी तरह से अपनी बात रखें, यही महत्वपूर्ण है। "
चैनल के दो प्राइमटाइम महिला समाचार एंकर में से एक, ‘सीएनएन न्यूज 18’ में राजनीतिक संपादक मरिया शकिल ने महिला टिप्पणीकारों की कमी को न्यूजरूम के प्रभारी महिलाओं की कमी से जोड़ा है। शकील ने कहा, "न्यूजरूम बहुत पुरुष-केंद्रित हैं, इसलिए वे महिलाओं के योगदानों की अनदेखी कर सकते हैं।"
महिलाएं टीवी पर बहस में अपनी बात ठीक से नहीं रख सकतीं?
भारत में लगभग हर राजनैतिक दल में महिला प्रवक्ता हैं, लेकिन फिर भी वे पैनलों पर कम दिखाई देती हैं । अध्ययन के लिए चुने गए वक्त के दौरान, पाकिस्तान से लेकर मोदी के संसद में भाषण के मुद्दों पर, और मालदीव संकट से अयोध्या विवाद के मुद्दों पर 50 में से 22 शो पर सभी टिप्पणीकार पुरुष थे।
पत्रकार कल्पना शर्मा कहती हैं कि राजनीतिक विषयों पर चर्चा के लिए बहुत कम संख्या में महिलाओं को आमंत्रित किया जाता है। शर्मा कहती हैं, " संतुलन और विविधता पर प्रयास करने की बजाय सामान्य ढंग से जो मिल जाते हैं, बुला लिया जाता है। यहां तक कि अगर उन्हें कोई महिला मिलती भी है, जो उस विषय को गंभीरता से संबोधित कर सकती हो तो वहां एक फिल्म स्टार या एक प्रमुख सामाजिक व्यक्तित्व की तलाश होती है। उन्हें ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता होती है जो प्रदर्शन कर सकते हैं, कठोर हो सकते हैं, दूसरों को बाधित कर सकते हैं और मूल रुप से किसी के कहने को अनसुना कर सकते हैं। यहां तक कि समझदार विचारों वाले पुरुष भी इसमें शामिल नहीं हैं, क्योंकि वे प्रदर्शन नहीं करेंगे। बेशक, वहां महिलाएं हैं; और जाहिर है, केवल वे ही बार-बार बुलाए गए हैं। "
सीएनएन-न्यूज 18 की शकील कहती हैं कि वह जानबूझकर महिलाओं के पैनललेस्ट्स की तलाश करती हैं, खासकर राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं के रूप में, और मीडिया पैनलों को बहसों में उनकी भागीदारी और मुखरता को बढ़ाने की कोशिश करती हैं, " क्योंकि अक्सर पुरुष बातचीत पर हावी होने की कोशिश करते हैं, जबकि महिलाएं आमतौर पर कम मुखर और कम आक्रामक होती हैं।
घोष कहती हैं, " भारतीय जनता पार्टी की महिला प्रवक्ता को छोड़कर महिला वक्ता बहुत अधिक विरोधपूर्ण बहस और विवादास्पद विषयों से दूर रहती हैं।महिलाओं के योगदान की अनदेखी होती है।"
कैसे ब्रिटेन ने मीडिया पैनलों में लिंग अंतर को कम किया?
ब्रिटेन में प्रसारण समाचार उद्योग ने टेलीविजन और रेडियो पर महिलाओं के विचारों के कम प्रतिनिधित्व को समाप्त करने के लिए प्रयोग किया है। ब्रिटेन में समाचार और वर्तमान मामलों के प्रसारण में प्रमुख शो में पुरुष और महिला विशेषज्ञों के बीच कुल लिंग अंतर 2014 में 4:1 से घटकर 2016 में 2.9:1 हुआ है, जैसा कि 2013 के बाद से, सिटी यूनिवर्सिटी, लंदन के पत्रकारिता विभाग में किए गए एक शोध से पता चलता है।
इस 30 फीसदी सुधार के लिए कई पहल जिम्मेदार हैं, जिसमें समाचार कार्यक्रमों में महिला विशेषज्ञों के कम प्रतिनिधित्व पर सिटी यूनिवर्सिटी के डेटा पर प्रचार और मीडिया और पेशेवर महिलाओं के नजरिए पर इसका सर्वेक्षण, जो टेलीविजन पर उनकी भागीदारी को रोक सकते हैं शामिल हैं। इस आंकड़े ने इस मामले में जांच की मांग करने के लिए ‘हाउस ऑफ लॉर्ड्स’ में हड़कंप मचा दिया और 2015 में, महिला विशेषज्ञों के प्रतिनिधित्व पर यह रिपोर्ट जारी की गई।
2013 में, लंदन में बीबीसी अकादमी ने मीडिया टिप्पणीकार बनने में इच्छुक विशेषज्ञ महिलाओं के लिए अपना पहला प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया। वहां 24 सीटें थीं और दो हजार महिलाओं ने आवेदन किया था।
बीबीसी अकादमी के चार प्रशिक्षण दिनों के अंत में, 64 महिलाओं को प्रशिक्षण दिया था। भारत जैसे आकार के राष्ट्र में इस तरह की एक पहल की कल्पना करें। बीबीसी का अपने विशेषज्ञ महिला डेटाबेस का विस्तार जारी है।
सिटी यूनिवर्सिटी में, ब्रॉडकास्टिंग के निदेशक लॉस हावेल ने छात्र शोधकर्ताओं की एक टीम की अगुआई की है, जो पैनल के लैंगिक संतुलन को रिकॉर्ड करने के लिए नियमित रूप से प्रमुख शो की निगरानी करते हैं। हॉवेल की राय थी कि भारत में पत्रकारिता संस्थान मीडिया को मजबूती के लिए लिंग अंतर को कम करने के तरीके तलाशने के लिए इसी तरह की परियोजनाओं का संचालन कर सकते हैं।
हॉवेल ने संभावना व्यक्त की कि टेलीविज़न पत्रकार इस पद्धति पर सवाल करेंगे और हमेशा बचाव की मुद्रा में दिखेंगे। उदाहरण के लिए कुछ टीवी पत्रकारों ने अपने विभाग के शोध सर्वेक्षणों पर प्रतिक्रिया दी कि पुरुषों के मुकाबले महिला विशेषज्ञ को स्क्रीन पर प्रदर्शित होने के लिए राजी कराने में अधिक समय लगता है।
2013 में, जब सिटी यूनिवर्सिटी ने मीडिया में महिलाओं के विशेषज्ञों की कमी के बारे में आंकड़े प्रकाशित किए, तो बीबीसी ने इसे एक बड़ा मुद्दा माना, जैसा कि लंदन में बीबीसी अकादमी में फ्यूचर स्किल्स और इवेंट्स के प्रमुख गुरदीप भांगु कहते हैं। 2017 में, उन्होंने 48 नई महिला विशेषज्ञों की पहचान की थी।
भांगु कहते हैं, "हम हर साल वास्तविक समाचार कार्यक्रमों में आने के लिए 100 नए विशेषज्ञ महिलाओं को ढूंढना चाहते हैं। अनजाने में, हमने पाया है कि जिन महिलाओं को हमने प्रशिक्षित किया है, उनमें आधे से ज्यादा लोगों को सुना गया है। हमें एक प्रारूप मिल गया है जो काम करता है। लेकिन इसकी सफलता ‘शीर्ष संपादकीय नेतृत्व’ पर निर्भर करती है।
(यह आलेख ब्रिटेन के ‘रॉयटर्स इन्स्टिटूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म इन ऑक्सफॉर्ड’ के लिए रेशमा पाटिल द्वारा दिसंबर 2017 में फेलोशिप पेपर ‘ ब्रेकिंग न्यूज: मिसिंग व्यूज’ के लिए किए गए अनुसंधान और साक्षात्कार पर आधारित है और इसे अंशिक रुप से पुन: प्रस्तुत किया गया है। ).
यह आलेख अंग्रेजी में 19 फरवरी, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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