भारत में मेट्रो रेल एक सुनहरा अवसर
जब भी आप किसी तेल कुंए या क्षेत्र के बारे में सोचते हैं, तो सामान्य तौर पर समुद्र पर लगे हुए बड़-बड़े तेल रिग या रेगिस्तान में फैले तेल रिग का ख्याल ही मन में आता है। इस दौरान कभी भी जेहन में मेट्रो की हलचल नहीं आती है। लेकिन अगर आप इस कहावत पर भरोसा करते है, कि जो एक-एक पैसा कमाते हैं, वहीं बचत होती है। केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान के अनुसार दिल्ली मेट्रो ने तेल कुंओ को दोगुना कर दिया है। मेट्रो के जरिए हर साल 1200 करोड़ रुपये के तेल की बचत करती है। मेट्रो के इस्तेमाल से दिल्ली की सड़कों पर पेट्रोल और डीजल वाहनों में आई कमी के कारण हर साल 20 लाख बैरेल तेल की बचत होती है। यदि कुछ महीने पहले जब 100 डॉलर प्रति बैरल तेल की कीमत थी, उसके आधार पर आंकलन किया जाय, तो दिल्ली मेट्रो 20 करोड़ डॉलर यानी 1200 करोड़ रुपये की सालना बचत तेल खपत में करती है। भारत जिसका व्यापार घाटा बढ़ने की प्रमुख वजह प्रोट्रोलियम उत्पादों का आयात है। वह अपनी कुल जरूरत का 70 फीसदी तेल आयात करता है।
इंडियास्पेड ने रिपोर्ट में बताया है कि कैसे सार्वजनिक वाहनों के इस्तेमाल से सड़कों पर जाम में कमी आती है, समय की बचत होती है, प्रदूषण में कमी आती है, दुर्घटनाओं का जोखिम कम होता है, इसके साथ ही ईंधन की खपत में भारी मात्रा में कमी आ सकती है। पचास साल से भी ज्यादा समय में मुंबई अकेला शहर है जो पूरी तरह से लोकल ट्रेन पर निर्भर है। जो कि अब तक ओवरलोडेड हो चुकी है। अब दिल्ली मेट्रो पूरे देश के शहरों में ट्रांसपोर्ट का नया पैमाना तय कर रही है। जिससे प्रेरणा लेकर कम से कम देश के 10 शहरों में मेट्रो रेल का निर्माण शुरू किया जा चुका है। हाल ही में संसद के सामने पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में मेट्रो रेल का यह प्रभाव हुआ है।
. सड़कों पर प्रतिदिन 3.9 लाख वाहनों के इस्तेमाल में कमी आई है
. सालना 2.76 लाख टन ईँदन की खपत में कमी (करीब 20 लाख बैरेल)
. प्रदूषण करने वाले घटकों में सालाना 5.77 लाख टन की कमी
. सड़कों पर दुर्घटना से होने वाले मृत्यु में कमी (125)
. आवागमन में लगने वाले समय में कमी
दिल्ली मेट्रो से होने वाले सकारात्मक असरों से यह साफ है कि नीतियां बनाने वालों के लिए यह घाटे का सौदा नही बनी है। अब देश के कई शहरों में मेट्रो प्रोजेक्ट शुरू किए जा चुके है। मुंबई और बंगलुरू में एक मेट्रो लाइन शुरू हो चुकी है। यहां पर भारत में चल रहे मेट्रो रेल प्रोजेक्ट का त्वरित विवरण दे रहे हैं।
टेबल-- भारत के विभिन्न शहरों में चल रहे मेट्रो प्रोजेक्ट का विवरण
जब यह प्रोजेक्ट तैयार होकर काम करना शुरू कर देंगे, तो इनके जरिए जहां इन शहरों ट्रैफिक में कमी आएगी वहीं ईंधन की खपत और दुर्घटनाओं से होने वाले मौतों की संख्या में भी कमी आएगी।
जीवन रक्षा करने के साथ अर्थव्यवस्था को भी मजबूत
भारत में हर साल सड़क दुर्घटनाओं में मौत के शिकार होने वालों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। साल 2013 में भारत में सड़क हादसों में मरने वालो की संख्या 1,37,000 थी, जिसका मतलब है कि सड़क हादसों में हर दिन औसतन 375 लोग मौत के शिकार हो जाते हैं। इनम से में 17000 मौतें 10 लाख या उससे ज्यादा की आबादी वाले 50 शहरों में हुई थी। सड़क हादसों में मौत का शिकार होने वाले लोगों की संख्या दिल्ली में थी, जहां साल 2013 में 1820 लोगों की मौत हुई । इसके अलावा दिल्ली से जुड़े शहर फऱीदाबाद, गाजियाबाद को भी शामिल कर दिया जाय, तो यह संख्या कहीं ज्यादा हो जाएगी। दिल्ली के बाद चेन्नई और बंगलुरू शहरों को दूसरा और तीसरा नंबर है। इन शहरों की तुलना में मुंबई की स्थिति कहीं बेहतर है, जबकि वहां भी दिल्ली जैसा ही ट्रैफिक और आबादी है। मुंबई के आंकड़े अच्छे होने की प्रमुख वजह वहां की लाइफलाइन लोकल ट्रेनों का होना है।
चार्ट—दुर्घटनाओं से होने वाली मौतों के आधार पर देश के 10 बड़े शहर ( जनसंख्या, मिलियन में)
Source: Ministry of Road Transport and Highways
भारत के 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में देश की 50 फीसदी कारें पंजीकृत हैं, जबकि 17 फीसदी दुपहिया वाहन पंजीकृत हैं। इंडियास्पेंड द्वारा पहले किए गए रिसर्च से जाहिर होता है कि दुपहिया वाहन उद्योग, लोगों की आय और शहरीकरण में सीधा संबंध है। यह संबंध पूर्वी एशिया के देश विएतनाम, इंडोनेशिया और मलेशिया में भी दिखता है। ऐसे में सार्वजनिक परिवहन, मेट्रो रेल और दूसरे विकल्पों में निवेश के जरिए ट्रैफिक से बदहाल होते शहरों को बचाया जा सकता है। साथ ही प्रदूषण में कमी और भारी मात्रा में पूंजी भी बचाई जा सकती है। सार्वजिक परिवहन में निवेश को मेक इन इंडिया अभियान का हिस्सा बना जा सकता है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड (बीईएमएल) मेट्रो रेल कोच या डिब्बों की प्रमुख सप्लायर है। वह इस समय दिल्ली, बंगलुरू और जयपुर को करीब 700 मेट्रो कोच दे रही है। वहीं चेन्नई मेट्रो को फ्रांस की कंपनी ऑलस्टॉम कोच की सप्लाई कर रही है। जो कि भारत में मेट्रो रेल कोच निर्माण के लिए प्लांट लगाएगी। इसी तरह दिल्ली मेट्रो को 600 कोच की सप्लाई करने वाली कनाडा की कंपनी बमबार्डिअर गुजरात में मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट लगा चुकी है।
टेबल- मेट्रो रेल प्रोजेक्टस को रोलिंग स्टॉक सप्लाई करने वाली कंपनियां
सभी प्रोजेक्ट कोच के लिए भारती विकल्पों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। मुंबई मेट्रो चीन में बने कोच की सप्लाई ले रही है। इसी तरह दक्षिण कोरिया की कंपनी हुंडई हैदराबाद मेट्रो को सप्लाई करती है। कुछ मामलों में ऐसा इसलिए हुआ है कि विदेशी सप्लायर और बैंकों ने इन समझौतो को आगे बढ़ा दिया। यह सब बडे ठेके हैं। दिल्ली मेट्रो ने वित्त वर्ष 2012-13 में रोलिंग स्टॉक पर 7533 करोड़ रुपये खर्च किए है। इसी तरह बंगलुरू, चेन्नई और हैदराबाद मेट्रो प्रोजेक्ट के लिए शुरूआती 1600-1800 करोड़ रुपये का आर्डर दिया है। जिस तरह से मेट्रो के लिए बड़े आर्डर दिए जा रहे हैं (पहले टेबल को देंखे), उसे देखते हुए यह जरूरी है कि सरकार मेट्रो कोच की डिजाइन आदि का मानकीकरण करें। जिससे बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाई जा सके, साथ ही सस्ते शहरी- परिवहन का मॉडल विकसित किया जा सके।
मेट्रो के निर्माण में सबसे ज्यादा लागत सिविल कंस्ट्रक्शन में आती है। जो कि भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर और कंस्ट्रक्शन कंपनियों का बड़ा बूस्ट दे सकती है। यह कदम उनके लिए खास तौर से फायदेमंद होगा, जब वह सुस्त अर्थव्यवस्था का बोझ ढो रही हैं। इसके अलावा इन कदमों से कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में भारी संख्या में नए रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे। दिल्ली मेट्रो प्रोजेक्ट इस दिशा में एक प्रमुख उत्प्रेरक है, ऐसे में चुनौती यही है कि कैसे औऱ कितनी जल्दी इस मॉडल को अन्य जगहों पर लागू किया जाय।
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