भारत में हर घंटे एक छात्र करता है आत्महत्या
3 अप्रैल, 2017 को 24 वर्षीय मैनेजमेंट छात्र अर्जुन भारद्वाज ने आत्महत्या कर ली। मुंबई में 19वीं मंजिल पर होटल के कमरे से कूद कर उसने अपनी जिंदगी समाप्त कर ली। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार वह परीक्षा में असफल होने के कारण निराश था और सोशल मीडिया पर लगातार खुद को समाप्त कर लेने की बात कर रहा था। यह भी कहा जा रहा है कि उसे ड्रग्स की लत थी।
भारद्वाज की कहानी सुर्खियां बनीं। शायद इसलिए भी कि वह एक पांच सितारा होटल से कूद गया था और शायद इसलिए भी कि उसने फेसबुक पर आत्महत्या के तरीकों पर चर्चा की थी। लेकिन यह इस कोई पहली घटना नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के वर्ष 2015 के आंकड़ों के अनुसार भारत में हर घंटे एक छात्र आत्महत्या करता है।
वर्ष 2015 में, 8,934 छात्रों द्वारा आत्महत्या के मामले दर्ज हुए हैं। 2015 तक पांच साल में, 39,775 छात्रों ने अपनी जान ली है। आत्महत्या की कोशिशों की संख्या तो इससे कहीं ज्यादा होने का अनुमान है। इनमें से कई का तो दुनिया को पता तक नहीं चल पाता है।
5 वर्षों में लगभग 40,000 छात्रों ने की आत्महत्या
Source: National Crime Records Bureau
मेडिकल जर्नल लांसेट की 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 15 से 29 साल के बीच के किशोरों-युवाओं में आत्महत्या की ऊंची दर के मामले में भारत शीर्ष के कुछ देशों में शामिल है। इसलिए समस्या को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है।
2015 में महाराष्ट्र में सर्वाधिक 1230 छात्र-छात्राओं ने खुदकुशी की। यह कुल आत्महत्या (8934) का 14 फीसदी है। 955 आत्महत्याओं के साथ तमिलनाडु नंबर दो पर और 625 खुदकुशी के साथ छत्तीसगढ़ नबंर तीन पर रहा। यह ध्यान देने की बात है कि महाराष्ट्र और तमिलनाडु देश के दो सबसे विकसित प्रदेश हैं। इन दोनों में आत्महत्याओं की ऊंची दर बता रही है कि आर्थिक विकास के दबाव किस हद तक बढ़ गए हैं।
उच्च छात्र आत्महत्या दर वाले टॉप पांच राज्य
Source: National Crime Records Bureau
बड़ी महत्वाकांक्षाएं, असफलता का डर और कहीं से कोई सहायता नहीं
कई सालों का समग्र अध्ययन बताता है कि सिक्किम में आत्महत्या की दर देश में सबसे ज्यादा है। और, यहां से देश के लिए चेतावनी के संकेत मिल रहे हैं।
दिल्ली और चंडीगढ़ के बाद प्रति व्यक्ति आय के मामले में सिक्किम देश में तीसरे नंबर पर है। साक्षरता के मामले में यह सातवें नंबर पर है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 18 मार्च 2017 को विस्तार से बताया है। लेकिन, बेरोजगारी की दर के मामले में यह देश में दूसरे नंबर पर है। राज्य में होने वाली आत्महत्याओं में से 27 फीसदी का संबंध बेरोजगारी से है और इसके शिकार लोग मुख्य रूप से 21 से 30 साल की उम्र के रहे हैं।
काउंसलर बताते हैं कि युवा परीक्षा और करियर में फेल होने के दबाव से टूट रहे हैं और बुरे वक्त में इन्हें समाज, संस्थाओं या परिवार का सहारा नहीं मिल रहा है। देश में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों की संख्या जरूरत के मुकाबले 87 फीसदी कम है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने सितंबर 2016 में विस्तार से बताया है। देश में मानसिक स्वास्थ्य पर सरकार बहुत कम खर्च करती है..बांग्लादेश से भी कम, मानसिक स्वास्थ्य पर कम सार्वजनिक खर्च से स्थिति बिगड़ जाती है। हम बता दें कि भारत मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में बांग्लादेश से कम खर्च करता है।
युवाओं में आत्महत्या के तीन कारण- तनावग्रस्त परिवार, अफलता और मादक द्रव्यों का सेवन
ऐसा लगता है कि युवाओं में निराशा की एक बड़ी वजह पारिवारिक पृष्ठभूमि होती है।भारतीय विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच आयोजित अक्टूबर 2016 के इस अध्ययन के अनुसार, ‘खुश’ परिवारों के छात्र कम अवसाद से पीड़ित होते हैं। बच्चों और किशोरों के साथ काम करने वाली एनजीओ एन्फोल्ड इंडिया के सह-संस्थापक, शैबा साल्दान्हा भी इस बात से सहमत दिखती हैं।
साल्दान्हा ने इंडियास्पेंड से एक ईमेल साक्षात्कार में कहा, “आम धारणा यही है कि परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना या पढ़ाई नहीं कर पाना विद्यार्थियों की खुदकुशी का मुख्य कारण है। इसकी जड़ में बेहद हताशा और अहसाय होने की भावना है।”
राजस्थान का कोटा शहर प्रतियोगी छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय है। दुखद यह है कि यहां छात्र आत्महत्या आम बात लगने लगी है। यहां कई वाणिज्यिक कोचिंग केंद्र हैं, जो प्रोफेशनल कोर्स के एंट्रेस एक्जाम में पास होने की गारंटी देते हैं । कई बार अवास्तविक लक्ष्यों के लिए प्रयास का दबाव घातक हो जाता है। असफलता को पचा पाने में असमर्थ और अपने परिवार की उम्मीद पर खड़े न उतर पाने के कारण कोटा के कई छात्रों ने अपना जीवन खत्म करने का विकल्प चुन लिया। इस बारे में ‘हफिंगटन पोस्ट’ की जून 2016 की रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है।
साल्दानहा कहती हैं, “ये मौत माता-पिता के साथ कमजोर रिश्ते, अत्यधिक उम्मीदें, अवांछित होने की भावना, दोस्तों के साथ कमजोर समझ, रोमांटिक संबंध के परिणाम होते हैं। ये एक आवेगी फैसला भी हो सकता है या लंबे समय से विचार-विमर्श करने के बाद उठाया गया कदम।”वर्ष 2016 के अध्ययन में यह पाया गया कि जो छात्र सामाजिक विज्ञान और मानविकी का अध्ययन करते हैं, खराब प्रदर्शन करते हैं या वंचित परिवारों से आए हैं, उनके अवसाद से ग्रसित होने की संभावना ज्यादा होती है।
वित्तीय मुद्दे आत्महत्या के कारणों पर हावी हैं: एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि 2015 में भारत में आत्महत्या करने वाले करीब 70 फीसदी पीड़ितों की सालाना आय 100,000 रुपए से कम थी। हालांकि यह आंकड़ा छात्रों के लिए अलग नहीं है, लेकिन यह आत्महत्या और वित्तीय स्थिति के बीच के संबंधों के अध्ययन के निष्कर्षों की पुष्टि करता है।
युवा आत्महत्याओं में नशीले पदार्थ का सेवन भी महत्वपूर्ण कारण है। 12 राज्यों में आयोजित किए गए राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2015-16 के अनुसार, 18 साल से अधिक आयु में भारत की 22 फीसदी से अधिक आबादी शराब, तम्बाकू और अन्य नशीली दवाओं का सेवन करती है। सर्वेक्षण के दौरान में 18 से अधिक उम्र के 9 फीसदी पुरुष और 0.5 फीसदी महिलाओं में शराब की लत देखी गई।
वर्ष 2004 से 2014 के बीच भारत में दहेज, गरीबी और वित्तीय मुद्दों से जुड़ी आत्महत्याओं की तुलना में नशीली दवाओं से जुड़ी आत्महत्याएं ज्यादा हुई हैं। इस बारे में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की वर्ष 2014 की इस रिपोर्ट को देखा जा सकता है। इस अवधि में ड्रग्स या दवा की लत के कारण कम से कम 25,426 लोगों ने आत्महत्या की है।
क्या है छात्र आत्महत्याओं को रोकने का रास्ता?
भारत मानसिक स्वास्थ्य पर पर्याप्त खर्च नहीं करता है। वर्तमान में, यह मानसिक स्वास्थ्य पर अपने स्वास्थ्य बजट का 0.06 फीसदी खर्च करता है। यह आंकड़े बांग्लादेश (0.44 फीसदी) से कम है। वर्ष 2011 के विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के मुताबिक अधिकांश विकसित देशों ने मानसिक स्वास्थ्य अनुसंधान, बुनियादी ढांचे, फ्रेमवर्क और टैलेंट पूल पर अपने बजट का 4 फीसदी से ऊपर तक खर्च किया है।
नीति निर्माताओं और सेलिब्रिटी प्रचारकों के लिए छात्र आत्महत्या अब चेतावनी के स्तर पर पहुंच गई है।
27 मार्च, 2017 को अपने मन की बात के रेडियो भाषण में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीयों से कहा था कि वे अवसाद के बारे में बात करें और अगर ज़रूरत हो तो मदद लें। भारद्वाज की आत्महत्या के जवाब में अभिनेता अनुपम खेर ने ट्विटर पर अपना ईमेल पता साझा किया और निराशा से जूझते किसी भी व्यक्ति को बात करने के लिए आमंत्रित किया। हालांकि अवसाद एक ऐसी स्थिति है जिसके लिए चिकित्सा सहायता की आवश्यकता भी होती है।
Please write to me at anupam@anupamkhercompany.com if someone you know is feeling low, lonely or depressed. Will be happy to talk to them.🙏
— Anupam Kher (@AnupamPkher) April 5, 2017
#arjunbhardwaj's suicide is a reminder that we live in the times where feeling lonely & depressed has become so common with young people.
— Anupam Kher (@AnupamPkher) April 5, 2017
विशेषज्ञों का कहना है कि इस समस्या के हल की दिशा में बड़ा कदम स्कूलों-कालेजों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाकर उठाया जा सकता है। इंडिया टुडे के लेख में एक मनोचिकित्सक सत्यकांत त्रिवेदी कहते हैं, “स्कूल के पाठ्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को जोड़ा जाना चाहिए। जब बच्चों को उनके प्रारंभिक वर्षों में इन विकारों के बारे में पता होगा तभी वे सहायता प्राप्त करने में सक्षम होंगे। ”
एनफोल्ड इंडिया की साल्दनाहा भी इसी तरह के सामाधान के बारे में बात करती हैं। हालांकि वह भावनात्मक संकट के दौरान बेहतर पेरेंटिंग की जरूरत पर जोर देती हैं-“ बच्चे के भावनात्मक संकट के समय मां-बाप की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। जब जोड़े अपने विवाह के पंजीकरण के लिए आते हैं तो उनके लिए विशेष ‘पैरेंटिंग क्लास’ लगनी चाहिए।”
विशेषज्ञों का कहना है कि देश के विश्वविद्यालयों में बच्चों की मदद के लिए काउंसलिंग सेंटर की भारी कमी है जिसे दूर किए जाने की जरूरत है। साथ ही देश में मनोचिकित्सकों की भारी किल्लत को दूर करने की दिशा में भी कदम उठाए जाने की जरूरत है।
इसके अभाव में छात्र सहायता से वंचित रह जाते हैं और आत्महत्या करते हैं। वर्ष 2016 के विश्वविद्यालय के अध्ययन में छात्रों के लिए मानसिक स्वास्थ्य सहायता सेवाओं में तत्काल निवेश की बात की गई है, जिससे पेशेवर मनोवैज्ञानिक व्यक्तिगत और समूह परामर्श के लिए उपलब्ध होंगे।
अवसाद में डूबे लोगों के लिए थोड़ी सहायता
जैसा कि हमने कहा था कि भारत मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की 87 फीसदी कमी का सामना करता है। दिसंबर 2015 में लोकसभा में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा दिए गए एक उत्तर के अनुसार, देश भर में 3,800 मनोचिकित्सक, 898 नैदानिक मनोवैज्ञानिक, 850 मनोवैज्ञानिक सामाजिक कार्यकर्ता और 1500 मनोरोग नर्स हैं।
इसका मतलब है कि डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के मुताबिक प्रति 100,000 लोगों पर 3 मनोचिकित्सक हैं। यह आंकड़े प्रति 100,000 लोगों पर 5.6 मनोचिकित्सकों के राष्ट्रमंडल मानक के मुकाबले 95 फीसदी कम है। अगर इन आंकडों पर हिसाब लगाया जाए तो भारत में 66,200 मनोचिकित्सकों की कमी है।
(साहा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह ससेक्स विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज़ संकाय से वर्ष 2016-17 के लिए जेंडर एवं डिवलपमेंट के लिए एमए के अभ्यर्थी हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 6 अप्रैल 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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