भूमिहीन किसानों पर क्यों केंद्रित होना चाहिए आपदा पुनर्वास?
थलनायार, नागपट्टिनम जिला: तमिलनाडु में मौत और तबाही का मंजर छोड़ जाने वाले सायक्लोन गाजा को आए 11 महीने बीच चुके हैं। इस विनाशकारी सायक्लोन चपेट में आने से राज्य के तटीय जिले तबाह हो गए । राज्य में तबाही झेलने वाले जिलों में राहत के लिए में 1,164 करोड़ रुपये (लगभग 161 मिलियन डॉलर) के पुनर्वास कार्यक्रम की घोषणा की गई । लेकिन ऐसी घोषणाओं से भी दक्षिणी जिले नागापट्टिनम के एक गांव, थलनयार में रहने वाले 45 वर्षीय दलित खेत मजदूर, पनीरसेल्वम को बेहतर भविष्य की कोई उम्मीद नजर नहीं आती है।
जिस घर में पनीरसेल्वम के परिवार की तीन पीढ़ियां रही हैं, वह घर और गांव की सार्वजनिक ज़मीन पर उगे नारियल के पेड़ सायक्लोन का सामना नहीं कर पाए। गंभीर नुकसान के बावजूद इस खेत-मजदूर को अभी तक पुनर्वास योजना से किसी भी तरह का फ़ायदा नहीं मिला है। इन खेत मजदूरों का भूमिहीन और दलित होना, इसका प्रमुख कारण है। ये भारत में रहने वाले 20 करोड़ दलितों में से हैं, जो देश की कुल आबादी का 16.6% हैं।
इन प्राकृतिक आपदाओं की सबसे ज्यादा मार हशिए पर रहने वाले भूमिहीन दलितों पर पड़ती है, लेकिन उन्हें राहत सबसे अंत में ही मिलती है। अगस्त 2019 की रिपोर्ट में इंडियास्पेंड ने बताया था कि ऐसा लगता है मानो राहत सामग्री पर उच्च और मध्यमवर्गीय जातियों का एकाधिकार हो।
हमने मई 2019 में सायक्लोन फानी का सामना करने वाले ओडिशा और नवंबर 2018 में सायक्लोन गाजा से प्रभावित होने वाले तमिलनाडु में जांच की और पाया कि हाशिए पर रहने वाले समुदाय, पुनर्वास कार्यक्रमों में भी हाशिए पर धकेल दिए गए हैं।
जैसा कि इंडियास्पेंड ने अगस्त 2019 की रिपोर्ट में बताया है कि आपदाओं की सबसेज़्यादा मार गरीबों पर ही पड़ती है। उनके घर, खेत, पेड़, मवेशी सब तबाह हो जाते हैं। यहां तक कि दिहाड़ी मजदूरी का काम भी। बिना किसी आर्थिक मदद के वह खुद को असहाय पाते हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कृषि अर्थव्यवस्था के निचले हिस्से में लगभग 71% दलित खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं। लेकिन केवल 9% का ही खेती योग्य ज़मीन पर मालिकाना हक है और इनमें से लगभग 61% के पास 2 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है। किसी भी प्रकृतिक आपदा के बाद उन्हें पुनर्वास सहायता की सबसे ज्यादा जरुरत होती है। लेकिन हमने पाया कि ऐसे कार्यक्रमों का सबसे कम लाभ उन्हें मिल पाता है । कारण यह कि उनके पास कोई संसाधन नहीं होते कि वे पुनर्वास सहायता के लिए दावा कर सकें।
भुवनेश्वर स्थित एनजीओ, सेंटर फॉर यूथ एंड सोशल डेवलपमेंट (सीवाईएसडी) के सामाजिक कार्यकर्ता तनमय कुमार जेना कहते हैं, "अधिकांश योजनाओं का ध्यान उन लोगों पर केंद्रित होता है, जिनके पास कुछ जमीन है। जिनके पास जमीन नहीं है, उनकी पहुंच हमारे सिस्टम तक नहीं है इसलिए उन्हें लाभ मिल पाना बेहद मुश्किल है।"
उदाहरण के लिए, पनीरसेल्वम आपदा प्रभावितों के लिए सरकारी आवास पुनर्वास योजना के लिए पात्र नहीं हैं। जिस घर में वे रहते हैं, वहां उनका परिवार तीन पीढ़ियों से रह रहा था। उनका घर 140 किमी प्रति घंटे के तूफान में बर्बाद हो गया। उनके घर के साथ 130,000 घर और तबाह हो गए थे। जिस जगह पर पनीरसेल्वम का घर था, वहां अब केवल एक टूटी हुई दीवार है । अब उन लोगों ने नारियल के पत्तों के साथ तिरपाल को बांध कर छत बनाई।
पनीरसेल्वम का घर नदी के पास है और यह उन नियमों का उल्लंघन है, जिसमें खाडी और नदियों के 50 मीटर के दायरे में निर्माण की मनाही है। इस कारण पनीरसेल्वम सरकारी आवास सहायता के पात्र नहीं बन सकते। उन्होंने कहा, "सरकार हमें कहीं और भेजना चाहती है, क्योंकि हम अपने घर की रजिस्ट्री (पंजीकरण) नहीं करा पाएंगे।"
यह केवल घर की ही बात नहीं है, पनीरसेल्वम जैसे भूमिहीन दलितों को जीने के लिए नया काम खोजने या अपने पुराने काम को फिर से शुरू करने में भी कोई मदद नहीं मिलती। इस बारे में हम बाद में चर्चा करेंगे। पनीरसेलवम के पास कोई स्थाई काम या आय नहीं थी, क्योंकि सायक्लोन ने उनके गांव के सभी खेतों को तबाह कर दिया था।
इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स (आईआईएचएस) की गरिमा जैन कहती हैं, "जब प्राकृतिक आपदाओं के चलते खेत नष्ट हो जाते हैं, तो बागान के नुकसान, खराब भंडारित उपज, काम और संबद्ध आय के कारण जमीन के मालिक और भूमिहीन मजदूर दोनों ही प्रभावित होते हैं।" लेकिन जमीन के स्वामित्व वाले किसानों को फसलों के नुकसान की भरपाई की जाती है,पनीरसेल्वम जैसे भूमिहीन किसानों को कोई सहायता नहीं मिलती है।
जैन उस टीम का हिस्सा थीं, जिस टीम ने साइक्लोन फानी के असर का अध्ययन किया था। अध्ययन में पाया गया कि सार्वजनिक भूमि पर की गई बागवानी पर निर्भर लोग सबसे ज्यादा और लंबे समय तक प्रभावित थे, क्योंकि पेड़ों को वापस बढ़ने में कई साल लगते हैं।
पनीरसेल्वम की झोपड़ी के पीछे नारियल के टूटे हुए पत्तों जैसा दृश्य सायक्लोन प्रभावित क्षेत्रों में आम है। इन पेड़ों पर उगने वाले फलों से पनीरसेल्वम को थोड़ी-बहुत अतिरिक्त आय हो जाती थी, लेकिन तूफान के साथ वह भी खत्म हो गया है। पनीरसेल्वम ने कहा, "नारियल के पेड़ फिर से उगने में चार साल लगेंगे।" चूंकि यह ‘खेत’ रजिस्टर्ड नहीं है, इसलिए उन्हें भूमि स्वामित्व वाले किसानों की तरह मुआवजा नहीं दिया जाएगा।
सायक्लोन से नष्ट हुए नारियल के पेड़। ओडिशा के पूरी जिले जैसी जगहों में पेड़ों को उबरने और फिर से उगने में 4-5 साल लगते हैं। ओडिशा और तमिलनाडु में सायक्लोन के कारण कृषि अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान से पता चलता है कि भूमिहीन दलित खेत मजदूरों को आपदा के बाद फिर से आजीविका के लिए स्रोत ढूंढ़ना मुश्किल होता है।
पुनर्वास प्रक्रिया में भूमिहीन दलितों के इस हाशिएकरण का उल्लेख पिछली आपदाओं की रिपोर्ट में बार-बार किया गया है, जैसे कि 2004 की हिंद महासागर की सुनामी और 1999 के सुपर साइक्लोन, जिसके कारण ओडिशा के जगतसिंहपुर जिले में भूस्खलन हुआ था।
आपदा के दौरान गरीबों और कमजोर वर्गो के लोगों के पीड़ित होने की आशंका तो अधिक होती ही है, बल्कि इससे उबरने में भी उन्हें लंबा समय लगता है। इसकी वजह यह है कि उनकी आमदनी में बढ़ोतरी भी धीमी गति से होती है। जलवायु में उतारचढ़ाव की चेतावनी देने वाले जलवायु परिवर्तन और गरीबी पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, ये कारण 20 लाख से 5 करोड़ भारतीयों को 2030 तक गरीबी में धकेल सकता है।
न काम, न घर, न मवेशी
ओडिशा में दलित किसानों ने इसी तरह की स्थिति का अनुभव किया जब मई 2019 में सायक्लोन फानी ने 5 लाख से ज़्यादा घरों को नष्ट कर दिया। पुरी जिले के रेबाना नुआगांव के एक खेत मजदूर, धरणीधर भोई को राहतकर्मियों ने समय पर बचा लिए लेकिन उनका बाकी सब कुछ तबाह हो गया।
भोई के पास 200 वर्ग फुट की एक कमरे की झोपड़ी थी, जिसमें उनका परिवार और 16 बकरियां रहती थी। सायक्लोन में यह झोपड़ी भी बर्बाद हो गई। उसके पास टीवी, कंप्यूटर या मोटरसाइकिल नहीं है। एक मोबाइल फोन जरूर था, जिसे पूरा परिवार इस्तेमाल करता था। तूफान में वह भी बर्बाद हो गया। चूल्हा और कुछ बर्तन बचे हैं और अब वे मलबे और गाय के गोबर के बीच एक टूटी झोपड़ी के बाहर रहते हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 43% से अधिक दलितों के घर अस्थाई या फिर आधे-अधूरे तौर पर स्थाई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ये आंकड़ा 50% से अधिक है। ग्रामीण भारत में, केवल 0.5% दलितों के पास टीवी, कंप्यूटर / लैपटॉप, फोन / मोबाइल और वाहन हैं। लगभग 22.6% दलित घरों में इनमें से एक भी चीज़ नहीं थी। लगभग 48% दलित, भोई और पनीरसेल्वम की तरह एक कमरे के घर में रहते हैं।
आपदाओं के दौरान कच्चे और आधे पक्के घर आसानी से प्रभावित होते हैं। सीवाईएडी के-फानी आंकलन के अनुसार ओडिशा में सबसे ज़्यादा 98% नुकसान जनजातियों और 95% दलितों के घरों को हुआ था।
भोई ने याद करते हुए बताया, "मैंने अपना सब कुछ खो दिया ... अपने बच्चों की किताबें, कपड़े, अनाज...सब कुछ। मेरे पास 31 बकरियां थीं, 15 बकरियां सायक्लोन में मर गई।"
अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों के लिए मवेशी बेहद महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि जब फ़सल नहीं होती है तो ये मवेशी ही उनकी आमदनी का ज़रिया होते हैं। भोई को उनके पशुओं की मृत्यु के लिए मुआवजा नहीं दिया जाएगा क्योंकि जटिलताओं के चलते वह पशुपालन विभाग के साथ अपने पशुधन का पंजीकरण नहीं करा पाए और सरकार द्वारा जारी किए गए मृत्यु प्रमाण पत्र प्राप्त करने में असमर्थ रहे, जो मुआवजे के लिए आवश्यक है।
ओडिशा के पुरी जिले के रेबाना नुआगांव में अपने परिवार और पड़ोसियों के साथ अपनी झोपड़ी के सामने खड़े धरणीधर भोई (बाएं से दूसरे)। उनके पास कोई संपत्ति नहीं है और वे पूरी तरह से खेतों में मजदूरी पर निर्भर हैं, जो सायक्लोन से प्रभावित क्षेत्रों में कर पाना अब मुश्किल है। पुनर्वास योजनाओं में ऐसे समूहों की जरूरतों को देखने और उनकी मदद करने की आवश्यकता है।
राज्य सरकार द्वारा प्रकाशित एक आंकलन के अनुसार, फानी के बाद कृषि क्षेत्र को 55% का नुकसान पहुंचा है। 88.5 लाख से अधिक मवेशी (मवेशी, छोटे जानवर, मुर्गियां) खत्म हो गईं और 18.2 मिलियन हेक्टेयर की फसल प्रभावित हुई थी। गाजा से हुआ नुकसान इसके मुक़ाबले कम था । तब 88,000 हेक्टेयर की फसल, 60-80% नारियल के पेड़, बुर्बाद हो गए थे और 80,000 मवेशियों की मौत हो गई थी।
फ़ानी और गाजा से प्रभावित जिन क्षेत्रों का इंडियास्पेंड ने दौरा किया, वहां उजड़े हुए बाग, कीचड़ से भरे खेत, खोए हुए मवेशी और तूफान बढ़ने के कारण मिट्टी की लवणता का बढ़ जाना आम दृश्य हैं, । कई ग्रामीणों ने कहा कि सायक्लोन के स्थायी प्रभाव के कारण उनके लिए महीनों तक दिहाड़ी मजदूरी का काम मिलना भी मुश्किल हो जाता है।
निरंतर पुनर्वास की जरुरत
ओडिशा पर 20 साल से लगातार आपदाओं की मार पड़ रही है, और कुछ क्षेत्रों को दो-दो बार आपदाओं का सामना करना पड़ा है, जैसा कि आने वाली आईआईएचएस की रिपोर्ट में बताया गया है, जैन उसकी सह लेखिका हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि यहां सामाजिक-आर्थिक और प्राकृतिक जड़ें बहुत गहरी हैं और यह एक गरीब राज्य है, यह अभी भी अपने समाज, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण पर हुए कुछ नुकसानों से उबर रहा है।
प्रतिमा सागर दास को वर्ष 1999 का सुपर साइक्लोन अब तक याद है। तब वह 25 वर्ष की थीं, और अपने तीसरे बच्चे के साथ सात महीने की गर्भवती थीं। 7-10 मीटर की लहरें 20 किमी दूर तक ढिंकिया के तटीय गांव में पहुंच गई, जहां वह अपने माता-पिता के साथ रहती थीं। सायक्लोन की चपेट में आने से 10,000 लोग मारे गए थे, 2 करोड़ से अधिक बेघर हो गए, और 30 लाख घर नष्ट हो गए थे।
दास याद करते हुए बताती हैं, "मंदिर के अलावा कोई इमारत नहीं बची थी। इसके अलावा एक या दो पक्के (ठोस, स्थायी) घर थे।"
दास अब 45 वर्ष की हो चुकी हैं और ढिंकिया से 7 किलोमीटर दूर गोविंदपुर में रहती हैं। इस सायक्लोन के बाद अपने बेटे के जन्म होने पर उन्होंने उसका नाम ‘प्रलय’ रखा।
सुपर सायक्लोन के बाद, राहत और पुनर्वास के लिए 2000 में शुरु किए गए एक गैर-लाभकारी किसान आंदोलन,
नवनिर्माण कर्मकार संगठन (एनकेएस) के संस्थापक और किसान नेता अक्षय कुमार कहते हैं, "सुपर साइक्लोन के बाद, हमारा नारा था: हमारे सिर पर छत, जमीन के लिए पानी, हमारे हाथों के लिए काम, और सूचना का अधिकार।" समूह ने एनकेएस के सदस्य रहे प्रतिमा जैसे किसानों और मजदूरों की चौतरफा जरूरतों पर ध्यान केंद्रित करके सायक्लोन प्रभावित क्षेत्रों में किसानों को सदमे और तबाही से उबारने की दिशा में काम किया।कुमार कहते हैं, "बातचीत को राहत से आगे ले जाना होगा और इसमें आवास और आजीविका को शामिल करना चाहिए। नुकसान की भरपाई सरकार के एजेंडे का हिस्सा होना चाहिए। आपदा प्रबंधन में किए गए महत्वपूर्ण कदमों के बावजूद, सुपर चक्रवात के 20 साल बाद भी उचित पुनर्वास और रिकवरी नहीं हो पाए हैं।"
पुनर्वास के अलावा आपदा राहत का और क्या मतलब है?
एम एस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) में खाद्य सुरक्षा के वरिष्ठ वैज्ञानिक आर गोपीनाथ कहते हैं, "आपदा राहत एक बार का काम है, यह शुरू होता है और इसका एक अंतिम बिंदु होता है। पुनर्वास निरंतर है, यह 2-3 साल तक रहता है और इसे चरणबद्ध किया जाना चाहिए। इसमें स्थायी आय स्रोतों और लचीले आवास का प्रावधान शामिल है।”
संयुक्त राष्ट्र के सेंडाई फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन 2015-2030 के अनुसार रिकवरी, पुनर्वास और पुनर्निर्माण के पोस्ट-डिजास्टर फेज को एक महत्वपूर्ण अवसर के रूप में पहचाना जाता है, जिसमें भारत की भूमिका अहम है। इसका तात्पर्य इन्फ़्रास्ट्रक्चर, सामाजिक व्यवस्थाओं की बहाली, आजीविका, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण के पुनरोद्धार के साथ-साथ आपदा के ख़तरों को कम करने के उपाय करना है।
गपीनाथ समझाते हुए कहते हैं कि,भारत ने आपदाओं से निपटने के लिए तैयारी की है, उससे इसके पास एक से ज़्यादा फ़सलों को एक ही जगह एक साथ उगाने, जलवायु के अनुकूल फसलों को उगाने जैसे कईं मौक़े हैं। उन्होंने कहा कि आपदा प्रभावित क्षेत्रों में लचीले घरों का निर्माण भी महत्वपूर्ण है।
वर्तमान में, भारत में आपदा राहत और पुनर्वास के दो घटक हैं:जीवन, संपत्ति, पशुधन और आजीविका के नुकसान के लिए तत्काल मुआवजा। इसके बाद पुनर्निर्माण और पुनर्वास कार्यक्रमों में लचीला आवास और स्थायी आजीविका पर ध्यान केंद्रित करना।
जर्जर हो चुके घरों का पुनर्निर्माण
आपदा प्रभावितों के लिए राष्ट्रीय स्तर के आवास कार्यक्रम की नामौजूदगी में, ओडिशा और तमिलनाडु ने आपदा पुनर्वास में, केंद्र और राज्य के कार्यक्रमों का सह-चयन किया - उदहारण के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई, पूर्व में इंदिरा आवास योजना) और ओडिशा की बीजू पक्का घर योजना।
फानी प्रभावित पीड़ितों के लिए ओडिशा पीएमएवाई के तहत लगभग 5 लाख घर बनाएगा, जबकि तमिलनाडु इसी योजना के तहत गाजा पीड़ितों के लिए एक लाख से अधिक घरों का निर्माण करेगा।
गोपीनाथ बताते हैं कि वर्तमान में आपदा पुनर्वास योजनाएं, मौजूदा ग्रामीण विकास कार्यक्रमों और योजनाओं के माध्यम से ही आ रही हैं। लेकिन ऐसे कुछ कार्यक्रम हैं जो आपदा प्रभावित दलितों की सीधे सहायता करते हैं, जो अक्सर भूमिहीन और संपत्तिविहीन होते हैं।
पनीरसेल्वम और भोई जैसे दलितों के घर ज्यादातर अपंजीकृत भूमि पर निर्मित अर्ध-स्थायी ढांचा होते हैं। तमिलनाडु के गाजा के बाद का अनुभव बताता है कि कैसे राहत के मामले में ये लोग पीछे रह जाते हैं।
जून 2019 में इंडियास्पेंड की एक
रिपोर्ट के अनुसार, दलितों को अपनी जमीन का पंजीकरण करने के प्रयासों में बहुत भेदभाव का सामना करना पड़ा है और "भूमि-पुनर्वितरण कार्यक्रमों में दलितों को दी गई ज़मीन के पट्टे काम के नहीं हैं, क्योंकि मूल रुप से जमीनों का स्वामित्व जिन उच्च जातियों के पास रहा, उन्होंने कभी नियंत्रण नहीं छोड़ा है।" लैंड कंफ्लिक्ट वॉच के अनुसार, देश के 13 राज्यों में, जमीन पर दावा करने वाले हुए 31 संघर्षों में 92,000 दलित शामिल थे।तमिलनाडु ने अब सार्वजनिक संपत्तियों, मंदिर और पट्टे पर दी गई ज़मीन, और नदी के किनारों को ‘अनुचित’ और ‘ अनापत्तिजनक’ श्रेणियों में विभाजित करने की योजना बनाई गई है।
तमिलनाडु सरकार की विशेष परियोजना, गाजा चक्रवात पुनर्वास पुनर्निर्माण और कायाकल्प, के अतिरिक्त परियोजना निदेशक, एम.प्रदीप कुमार ने बताते हैं कि, "हम उन जमीनों को खरीदने की प्रक्रिया में हैं जो पहले से ही भूमिहीनों पास है। जो लोग मंदिर की भूमि जैसी "अनापत्तिजनक" संपत्तियों पर रहते हैं, उन्हें इस परियोजना के तहत अपने घरों के लिए जमीन का एक पंजीकृत टुकड़ा मिलेगा, लेकिन "आपत्तिजनक" भूमि पर रहने वालों को अन्य स्थानों पर जाना होगा। इस तरह के स्थानांतरण प्रयासों का विरोध किया जाना आम है।
आपत्तिजनक श्रेणी के बीच, वे घर आते हैं जो नदी या पानी के दूसरे किसी स्रोत के पास बने हैं, जैसे कि पनीरसेल्वम का घर, जो एक नहर और हरिश्चंद्र नदी के बीच है। इसलिए जब उन्हें अपने घर के नुकसान के लिए मुआवजा मिलेगा, तो उन्हें न तो सरकार की योजना के तहत एक रजिस्टर्ड घर मिलेगा और न ही नारियल के पेड़ों के नुकसान (लगभग 1,500 रुपये प्रति गिरे हुए पेड़) का मुआवजा दिया जाएगा, क्योंकि ये सार्वजनिक भूमि पर लगे थे।
तमिलनाडु ने कच्चे (गैर स्थायी) घरों के लिए 10,000 रुपये, आधे कच्चे घरों के लिए 4,500 रुपये और आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त, पुराने पक्के (स्थायी) घरों के लिए 3,000 रुपये देने की घोषणा की है। ओडिशा में आपदा प्रभावितों के लिए आवास सहायता अधिक है - पूरी तरह से क्षतिग्रस्त घरों के लिए 95,100 रुपये, आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त के लिए 5,200 रुपये और मामूली नुकसान के लिए 3,200 रुपये।
Source: A Road To Long-Term Recovery for Odisha, Indian Institute for Human Settlements.
Source: A Road To Long-Term Recovery for Odisha, Indian Institute for Human Settlements.
पुनर्वास कार्यक्रम में आजीविका भी शामिल हो
जैसा कि हमने पहले भी उल्लेख किया है, पुनर्वास में चिंता का एक अन्य विषय आजीविका है।
भूमिहीन मजदूरों के लिए विशिष्ट पुनर्वास नीतियों के अभाव में, भारत की गारंटीड ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) को अधिकांश राज्यों में आपदा प्रक्रिया में शामिल करने का फ़ैसला किया गया है, लेकिन यहां भी जरुरतमंदों तक काम पहुंचने की संभावना काफी कम है। ज्यादातर दलित आपदा के बाद मलबा हटाने और पुनर्निर्माण के कामों में लगे हुए हैं।
ओडिशा के सरकारी सूत्रों ने कहा कि आपदा प्रभावितों को मनरेगा से बहुत फायदा नहीं मिला, लेकिन तमिलनाडु में, जहां मनरेगा को तुरंत आपदा राहत उपायों के साथ मिला दिया गया था, वहां सायक्लोन के बाद आवेदनों में वृद्धि हुई थी।
हाल के वर्षों में देश में मनरेगा के तहत व्यक्ति के दिनों की संख्या में वृद्धि हुई है - 2016-17 में 23.3 लाख से 2017-18 में 25.5 लाख तक। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में काम के 50 अतिरिक्त दिन बढ़ाए गए हैं और विभिन्न आपदाओं से प्रभावित अन्य क्षेत्रों में मनरेगा के काम में तेजी दिखी है।
मनरेगा के काम के लिए पनीरसेल्वम ने कहा, "मैं उस के लिए भी पात्र नहीं हूं।" थलनयार का दर्जा एक नगर पंचायत शहर का है, जो उसके जैसे खेत मजदूरों को मनरेगा के लिए अयोग्य बनाता है। यहां दलित, शहर की आबादी का 35% हैं, और उनमें से कई दिहाड़ी मजदूर हैं।
कावेरी डेल्टा के अंतिम छोर पर स्थित क्षेत्रों में सायक्लोन गाजा के बाद सूखे ने कहर बरपाया, जिससे किसानों की आमदनी और कम हो गई। पनीरसेल्वम को उम्मीद है कि अब, सायक्लोन के करीब 10 महीने बाद ही वह खेती के काम से जुड़ पाएगा।
जलवायु में हो रहे बदलावों पर योजना की ज़रुरत
गाजा के बाद ,आजीविका पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करने वाले रिपोर्ट के सह-लेखक, गोपीनाथ कहते हैं, "हमें क्षेत्र-विशिष्ट, जलवायु-अनुकूल समावेशी नीतियों की आवश्यकता है, जिसमें दलित, भूमिहीन लोग शामिल हों।"
वर्तमान में, कुल भारतीयों में से लगभग 17% (25 करोड़) तट से 50 किमी दूर रहते हैं। यह आंकड़े ब्राजील की आबादी से ज्यादा है। देश की 7,500 किलोमीटर की तटरेखा में 5,700 किमी पर सायक्लोन और सुनामी का खतरा बना रहता है। पश्चिम की तुलना पूर्वी तट अधिक असुरक्षित> हैं। विश्व स्तर पर, आपदा प्रभावित देशों को 1998 और 2017 के बीच 2.9 ट्रिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष आर्थिक नुकसान हुआ, जैसा कि यूएन डिजाजटर रिस्क रिडक्शन में बताया गया है। कुल नुकसान के 77%, यानी 2.25 ट्रिलियन डॉलर के लिए जलवायु संबंधी आपदाएं जिम्मेदार थीं। भारत का कुल नुकसान 79.5 बिलियन डॉलर था।
इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज के अनुसार,आशंका है कि आने वाले वर्षों में भारत में अधिक तीव्र सायक्लोन, तूफानी लहरें, ज्वार की लहरें, खारे पानी की बढ़त,, समुद्र के स्तर में बढ़ोत्तरी होगी और जलवायु परिवर्तन के अन्य प्रभावों का लोग सामना करेंगे।
1891 और 2006 के बीच, 308 सायक्लोन पूर्वी तट को पार कर गए, जिनमें से 103 ख़तरनाक थे ।140 किमी प्रति घंटे की रफ्तार वाला गाजा "बहुत गंभीर" था, और 260 किमी प्रति घंटे की रफ्तार वाला फानी ‘अत्त्यंत गंभीर’ था। पश्चिमी तट कमजोर चक्रवाती गतिविधियों का गवाह बना; 48 सायक्लोन आए, जिनमें से 24 गंभीर थे।
Source: Temperature Rise and Trend of Cyclones over the Eastern Coastal Region of India, Journal of Earth Science and Climatic Change, ©2014 Mishra A
Source: Temperature Rise and Trend of Cyclones over the Eastern Coastal Region of India, Journal of Earth Science and Climatic Change, ©2014 Mishra A
गोपीनाथ कहते हैं, "हम जानते हैं कि आपदा के बाद भूमि और पशुधन कितना प्रभावित होता है, लेकिन हम इस बात का तकनीकी रूप से कोई अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि समय के साथ इससे आजीविका का कितना नुकसान होता है।" कृषि क्षेत्रों में, इसकी गणना खेती के मौसम के अंत में या मध्य अवधि के दौरान की जा सकती है। वह एक सुझाव देते हैं, “अवसरों का आंकलन, आजीविका का नुकसान, वैकल्पिक रोजगार, कौशल अंतराल और भविष्य के लिए आवश्यक कौशल सेट का आकलन- ऐसे क्षेत्र हैं जहां गैर-सरकारी संगठन सरकार की प्रभावी पुनर्वास योजनाओं को डिजाइन करने में मदद कर सकते हैं।”
गोपीनाथ इस पर भी जोर देते हैं कि ऐसी नीतियों में भूमिहीन दलितों सहित कमजोर और हाशिए पर पड़े समूहों को शामिल किया जाना चाहिए।
मजबूरन पलायन और अधिक गरीबी
आपदा प्रभावित क्षेत्रों में आजीविका के विकल्पों की कमी, पलायन का एक संकेत है और भारत की घटती विकास दर ( वित्त वर्ष 2019-20 की जून तिमाही में जीडीपी की वृद्धि 5% थी ) गांवों से निकलकर शहरों में पहली बार पलायन करने वालों की संख्या और बढ़ा सकता है।
वह इन तथ्यों को समझाते हुए बताते हैं, "सरकार को पलायन को रोकने के लिए प्रभावित क्षेत्रों के भीतर रोजगार के अवसर प्रदान करने चाहिए।"
हालांकि, आपदा के बाद ग्रामीण-शहरी पलायन होना एक आम बात है।
कई स्थानीय लोगों ने इंडियास्पेंड...... को बताया कि नागापट्टिनम, पुरी और जगतसिंहपुर जिलों में सायक्लोन की चपेट में आने के कुछ ही समय बाद शहरों के ठेकेदारों ने उनके गांवों का दौरा किया था।
यहां तक कि जब दलित मजदूर शहरी क्षेत्रों में जाते हैं, तब भी उनके साथ होने वाला भेदभाव कम नहीं होता है। हाल ही केएक अध्ययन से पता चलता है कि दलित झुग्गियों में रहते हैं, बुनियादी सुविधाओं तक उनकी पहुंच कम होती है, और शहरों में भी वे हाशिये पर रहते हैं। आईआईएचएस के अनुसार,ओडिशा में इस तरह की शहरी झुग्गियां सायक्लोन से सबसे ज्यादा प्रभावित और सबसे कम तैयार थीं।
अपने बच्चों प्रलय, लिपिका और कुबेर के साथ प्रतिमा दास (दूसरे, बाएं)। 1999 में सुपर साइक्लोन ने ढिंकिया में प्रतिमा के घर को नष्ट कर दिया था। तब उनकी उम्र 25 साल थीं। उनका बड़ा बेटा कुबेर पुडुचेरी में एक कारखाने में काम करता है, जो 2018 के चक्रवात गाजा से प्रभावित था। छह महीने बाद, प्रतिमा और उसके दो अन्य बच्चे एक बार फिर एक फानी सायक्लोन का सामना कर रहे थे।
प्रतिमा दास के सबसे बड़े बेटे, 22 वर्षीय कुबेर एक प्रवासी हैं। जबकि परिवार के पास अब एक पक्का घर है। उनका खेत बाढ़ की आशंका वाले निचले इलाके में है। यह एक कॉर्पोरेट अधिग्रहण की आशंका का भी सामना कर रहा है। आमदनी के कोई स्थानीय स्रोत नहीं होने के कारण, कुबेरको नौकरी की तलाश में पूर्वी तट की ओर (1,400 किमी दक्षिण), पुड्डुचेरी तक ले गई, जो बंगाल की खाड़ी की तरह ही अतिसंवेदनशील है।
जब गाजा पुडुचेरी से गुज़रा, तो वह अपने साथियों के साथ प्लास्टिक की चादरों के सहारे एक झोंपड़ी में जिंदगी की सलामती की दुआ कर रहे थे। वे किसी राहत शिविर में नहीं गए और न ही उन्हें जानकारी थी कि इस तरह का शिविर शहर में कहां है। फानी के बाद आईआईएचएस ने ओडिशा में इसी तरह के मामलों का उल्लेख किया है।
जब वे जून में गोविंदपुर लौटे, तो फानी ने कुबेर के परिवार के खेत तबाह कर दिया था। वह अभी भी यानी सितंबर में, खराब स्वास्थ्य के कारण पुडुचेरी के कारखाने में वापस नहीं जा सका। दास की ठोस आय का एकमात्र स्रोत समाप्त हो गया है। वे अब उन लाखों भारतीयों में शामिल हो गए हैं जो आपदाओं, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक अनिश्चितताओं से भरे जीवन में एक अस्थाई नौकरी के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान जाते रहते हैं।
इस रिपोर्टिंग के लिए इंटर्रन्यूज अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क की ओर से सहयोग मिला था।
(
जैन स्वतंत्र लेखक और संपादक हैं, बैंगलुरु में रहते हैं,उनका ट्वीटर अकाउंट-@theplainjain)यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 12 अक्टूबर 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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