मानव मल सफाई संबंधित नौकरियां हैं अवैध। कैसे जारी है प्रथा अब तक?
"मैला ढोना" एक आपराधिक और गैर ज़मानती कार्य है लेकिन फिर भी यह प्रथा अबाधित जारी है, जैसा कि नीचे दिए गए वीडियो में देख सकते हैं कि तीन लोग – सभी दलित जाति के हैं जो हिंदू धर्म में सबसे नीचले स्तर के माने जाते हैं - गुजरात के एक शहर के एक सीवर में बिना किसी सुरक्षात्मक गियर के साथ काम कर रहे हैं।
वीडियो वालन्टीर, एक वैश्विक पहल जो वंचित समुदायों को कहानी एवं आंकड़े संग्रहण कौशल प्रदान करता है, से बात करते हुए चारु मोरी, सुरेंद्रनगर जिले में ध्रांगधरा शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी कहते हैं कि, “हमारे पास काम के गैरकानूनी तरीका नहीं है। मैला ढोना (नाली की सफाई और खुले गड्ढे से मानव मल साफ करना) एक निषिद्ध कार्य है।”
तो यह कर्मचारी क्या कर रहे हैं? मोरी का कहना है कि यह ठेकेदार द्वारा काम में लिए गए हैं और यह उनकी ही ज़िम्मेदारी हैं। ध्रांगधरा की स्थिति से पता चलता है कि क्यों पूरे भारत में करीब हर दलित आज भी मैला ढोते एवं अपने हाथों से मानव मल को साफ करते हुए ही ज़िंदगी गुज़ार देता है। यहां तक कि सीवर सफाई मशीनों के साथ वाले शहरों में भी दलितों की यही कहानी है।
मई 5, 2016 को राज्य सभा में सामाजिक न्याय राज्य मंत्री, विजय सांपला द्वारा दिए गए जवाब के अनुसार, पूरे भारत भर में कम से कम 12226 मैला ढोने वालों की पहचान की गई है। इनमें से 82 फीसदी उत्तर प्रदेश में रहते हैं। यह स्पष्ट रूप से कम करके बताया गया आधिकारिक आंकड़े हैं। उद्हारण के लिए, सरकारी आंकड़ों के अनुसार, गुजरात में दो से अधिक मैला ढोने वाले नहीं हैं।
मैला ढोने वालों का सतात्य 1.3 मिलियन दलितों (0.13 करोड़), जिनमें से अधिकतर महिलाएं हैं, के साथ हिंदू जाति व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है।
आदिम शौचालय मैला ढोने के मुख्य कारण हैं
सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना 2011 के आधार पर 25 फरवरी , 2016 को ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा लोकसभा में पहले दिए गए जवाब के अनुसार, कम से कम 167,487 परिवारों में एक सदस्य मैला ढोने का काम करता है।
जम्मू-कश्मीर को छोड़कर, रोजगार के निषेध के तहत, मैला ढोने वालों और उनके पुनर्वास अधिनियम, 2013 के रुप में मैला ढोने निषिद्ध किया गया है। यह कानून दिसंबर 6, 2013 से देश भर में लागू किया गया है।
सरकार के अनुसार, अब तक मैला ढोने का काम जारी होने का मुख्य कारण आदिम "अस्वच्छ शौचालय" का उपयोग करना है, मतलब कि बिना पानी के, जहां मलमूत्र को शारीरिक रूप हटाया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में हाउस लिस्टिंग और आवास जनगणना 2011 का हवाला देते हुए कहा गया है कि, आंध्र प्रदेश, असम, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 72 फीसदी से अधिक अस्वच्छ शौचालय हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 2.6 मिलियन (0.26 करोड़) शुष्क शौचालय हैं। इसके अलावा, 1314652 शौचालय ऐसे हैं जहां मलमूत्र खुली नालियों में प्लावित होता है एवं 794,390 शुष्क शौचालय है जहां मानव मल हाथों से साफ किए जाते हैं।
भारत में करीब 12.6 फीसदी शहरी परिवार एवं 55 फीसदी ग्रामीण परिवार खुले में शौच करते हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने पहले भी बताया है। शौचालय होने के बावजूद, भारत में 1.7 फीसदी परिवार ऐसे हैं जो खुले में शौच जाते हैं और देश में स्वच्छता एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
1.3 मिलियन दलित मैला ढो कर करते हैं जीवन निर्वाह, इनमें अधिकतर हैं महिलाएं
किसी भी प्रकार के मानव मल, शुष्क शौचालय से ले कर नाली, का हाथों से साफ करना, ले जाना या निपटान करना ही मैला ढोना कहलाता है। मैला ढोने का काम भारत के सबसे गरीब और सबसे वंचित समुदायों के लोग करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मैला ढोने की प्रथा, जाति व्यवस्था से जुड़ा हुआ है जहां तथाकथित निचली जातियों से यह काम करने की उम्मीद होती है।
भारत में एक अनुमान के अनुसार 1.3 मिलियन दलित, जिसमें ज्यादातर महिलाएं हैं, मैला ढो कर जीवन निर्वाह करते हैं।
उत्तर प्रदेश में जहां सबसे आधिकारिक तौर पर सबसे अधिक मैला ढोने वाले लोगों का होना स्वीकार किया गया है, ग्रामीण इलाकों में 7,612 एवं शहरी इलाकों में 2,404 लोगों की पहचान मैला ढोने वालों के रुप में की है।
पहचान किए गए मैला ढोने वाले
Source: LokSabha
उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले शुष्क शौचालयों की व्यापक मौजूदगी की वजह से 2009 में विभिन्न स्वास्थ्य और स्वच्छता के मुद्दों की सूचना मिली थी। ज़िले में, राज्य में सबसे अधिक शिशु मृत्यु दर (प्रति 1,000 शिशुओं के जन्म पर 110 मृत्यु) दर्ज की गई थी। साथ ही दस्त, पेचिश , पेट के कीड़े और टाइफाइड जैसे महामारी के नियमित रुप से फैलने की बात भी सामने आई थी। और भारत के किसी भी अन्य हिस्से की तुलना में पोलियो वायरस के अधिक मामले भी सामने आए थे।
2010 में, उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने डलिया जलाओ पहल आरंभ किया था, जिसके तहत गांव-गांव अभियान चला शुष्क शौचालय ध्वस्त किए गए थे।
एक साल के भीतर, कम से कम 2,750 मैला ढोने वालों को, 80,000 शुष्क शौचालयों को फ्लश शौचालयों में बदल कर ,मुक्त किया गया है। 2010 से कोई भी नया पोलियो का मामला दर्ज नहीं किया गया है। डायरिया के मामले में 30 फीसदी की गिरावट देखी गई है, 2009-10 में 18,216 से कम हो कर 2010-11 में 12,675 हुए हैं।
मैला ढोने वालों को 40,000 रुपए की एक बार नकद सहायता दी जाती है।
महाराष्ट्र में सबसे अधिक हाथ से मैला ढोने वाले परिवारों की संख्या - 68,016 - दर्ज की गई है, इन आंकड़ों की राष्ट्र स्तर पर 41 फीसदी की हिस्सेदारी है।
हाथों से मैला ढोने वाले परिवार – टॉप पांच राज्य
उत्तर प्रदेश (17,390) के बाद मध्य प्रदेश (23,105), कर्नाटक (15,375) और पंजाब (11,951) का स्थान है। भारत के हाथ से मैला ढोने वाले परिवारों में इन पांच राज्यों की हिस्सेदारी 81 फीसदी है।
सरकार का 2019 तक देश को सफाई मुक्त बनाने का लक्ष्य रखा है।
भारतीय रेल , मैला ढोने का सबसे बड़ा नियोक्ता हैं, इस संबंध में इंडियास्पेंड ने पहले भी बताया है।
(यह लेख वीडियो वालंटियर्स , एक वैश्विक पहल जो वंचित समुदायों को कहानी एवं आंकड़े संग्रहण कौशल प्रदान करता है, एवं इंडियास्पेंड के सहकार्य से प्रस्तुत की गई है। मल्लापुर इंडियास्पेंड के साथ विश्लेषक हैं)
यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 27 मई 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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