राष्ट्रीय क्रेच योजना के लिए फंड में सरकार ने की कटौती, गरीब कामकाजी माताओं की मुश्किलें बढ़ीं
मुंबई: घरेलू सहायक के रूप में आरती जिस घर में काम करती है, उस घर के लोग व्यस्त और महत्वपूर्ण हैं, जो दक्षिण मुंबई की आर्ट गैलरी के पास अपने स्मार्ट कोलाबा अपार्टमेंट में घर से काम करते हैं। वे शांत वातावरण पसंद करते हैं और काम की जगह पर शोर मचाने वाले बच्चे उन्हें पसंद नहीं आते। इंडियास्पेंड से बात करते हुए, 37 वर्षीय घरेलू सहायक आरती भंसोर कहती हैं, “रविवार को जब क्रेच बंद रहता है तो मुझे काम पर बच्चे को साथ लाना पड़ता है। "यह निश्चित रूप से मेरे नियोक्ताओं के लिए एक मुद्दा है। अब मुझे खुशी है कि एक पड़ोसी ने मुझे पड़ोस में क्रेच के बारे में बताया।” काम पर जाने से पहले शहर के कफ परेड की एक झुग्गी शिव शक्ति नगर में अपने घर से प्रत्येक दिन गर्मी में एक घंटे से अधिक पैदल चल कर, आरती फोर्ट में युवा महिला क्रिश्चियन एसोसिएशन ( वाईडब्लूसीए ) द्वारा चलाए जा रहे एक क्रेच में अपने दो बच्चों को छोड़ देती है। अक्सर घर पर नाश्ते का समय नहीं होता है, लेकिन यहां बच्चों को पौष्टिक भोजन खिलाया जाता है, बुनियादी गणित और पढ़ना सिखाया जाता है और आमतौर पर शाम 5 बजे तक देखभाल की जाती है।
आरती की तरह, भारत का 81 फीसदी कार्यबल असंगठित क्षेत्र (सभी महिला श्रमिकों का 90 फीसदी) में कार्यरत है। इनमें खेत मजदूर, निर्माण श्रमिक, घरेलू सहायक ( कोई भी अपने नियोक्ता के साथ आकस्मिक, गैर-संविदात्मक संबंध रखता है ) शामिल हैं। किसी भी कानूनी सुरक्षा या सामाजिक सुरक्षा लाभ से रहित, अनौपचारिक रोजगार के तहत काम करने वाली माताएं मांग करने या मातृत्व लाभ अधिनियम, कारखानों अधिनियम और अन्य कानूनों के तहत डे-केयर सुविधाओं तक पहुंच रखने में असमर्थ हैं, संगठित क्षेत्र की उनकी समकक्ष जिनकी हकदार हैं। 2006 की राष्ट्रीय क्रेच योजना, जिसे पहले राजीव गांधी राष्ट्रीय क्रेच योजना के रूप में जाना जाता था, और इसके क्रेच का नेटवर्क आरती जैसे माता-पिता के लिए स्थापित किया गया था।
लेकिन यह कार्यक्रम जो कार्यबल में महिलाओं के अनुपात को बढ़ाने में मदद कर सकता है, और पहले से ही कार्यरत लोगों के लिए कामकाजी जीवन को आसान बना रहा है, राज्य सरकारों से विलंबित भुगतान या फिर भुगतान न देने की वजह से लड़खड़ा रहा है।
नवंबर 2017 में, कल्याणकारी कार्यक्रमों में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने के साथ-साथ इन कार्यक्रमों की योजना में उन्हें अधिक स्वायत्तता प्रदान करने के लिए समग्र सरकारी योजना के हिस्से के रूप में, केंद्र ने राष्ट्रीय क्रेच योजना के वित्तपोषण ढांचे में बदलाव की घोषणा की थी।
केंद्र और राज्य सरकार के योगदान के 90:10 के अनुपात के बजाय, केंद्र अब केवल 60 फीसदी धनराशि का योगदान देगा, जिसका अर्थ है कि राज्यों को 40 फीसदी की कमी का सामना करना होगा। एनजीओ (जो मुख्य क्रेच ऑपरेटर हैं) को अभी भी पहले की तरह चल रही लागत के 10 फीसदी के बराबर राशि का योगदान करने की उम्मीद है। तब से, क्रेच के भुगतान में देरी हुई है और देश भर में हजारों क्रेच अब अपने भविष्य को लेकर डर रहे हैं और साथ ही उन महिलाओं और बच्चों के जीवन के लिए भी डर है जिनको मदद मिलती है। यह केंद्र से राज्य में जिम्मेदारी का हस्तांतरण के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि तब से कई क्रेचों कोई अनुदान राशि नहीं प्राप्त होने के साथ वर्तमान में कई बाधाएं उत्पन्न हुई हैं। पुणे के रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट में यौनकर्मियों के बच्चों के लिए रात की क्रेच चलाने वाले एक एनजीओ, चैतन्य महिला मंडल की संस्थापक-निदेशक ज्योति पटानिया, ने इंडियास्पेंड से कहा, "योजना वास्तव में आश्चर्यजनक रूप से काम कर रही थी और हम निधियों का उपयोग काफी नए तरीके से करने में सफल रहे थे, इसलिए हम खुश थे।” पटानिया ने कहा, "फिर, 2017 की शुरुआत में, हमें एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि इस योजना को राज्य में स्थानांतरित कर दिया गया था और तब से हमें कोई धनराशि प्राप्त नहीं हुई है। हमने पिछले सवा साल में पूरा अनुदान नहीं मिला है।"
देश भर के कई क्रेच से बात करने के बाद, इंडियास्पेंड ने पाया कि उनमें से कई अपने भविष्य के लिए चिंतित हैं, फंडिंग अतंर को भरने का संघर्ष कर रहें हैं और भुगतान में देरी के लिए स्पष्टीकरण की कमी से जूझ रहे हैं।
महिला और बाल विकास राज्य मंत्री, वीरेंद्र कुमार ने लोकसभा में जुलाई 2018 के सवाल के जवाब में कहा, “केंद्र सरकार का इस योजना को बंद करने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि योजना को विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा अनुमोदित फंड-शेयरिंग पैटर्न के अनुसार लागू किया जा रहा है।” यह समझने के लिए कि कई क्रेच को अनुदान क्यों नहीं दिया गया है, इंडियास्पेंड ने महिला और बाल विकास मंत्रालय में राष्ट्रीय क्रेच योजना की संयुक्त सचिव अनुराधा चगती को फोन और ईमेल द्वारा टिप्पणी के लिए बार-बार अनुरोध किया, लेकिन हमें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। हमने महिला और बाल विकास, महाराष्ट्र के एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) आयुक्त इंद्र मल्लो से भी संपर्क किया, लेकिन बताया गया कि वह चुनाव ड्यूटी में व्यस्त होने के कारण कोई जवाब नहीं देंगे। यदि मंत्रालय जवाब देता है तो हम इस आलेख को अपडेट करेंगे। महाराष्ट्र में, अप्रैल 2017 में एक स्वतंत्र रिपोर्ट में पाया गया कि राज्य भर में कई क्रेच चालू नहीं थे, और अगस्त 2017 से उनके भुगतान रोक दिए गए थे, जैसा कि एक सरकारी अधिकारी द्वारा इंडियास्पेंड के साथ साझा किए गए दस्तावेज से पता चलता है। जिन क्रेच में कोई ऑन-साइट मेडिकल और पीएसई किट या विजिटिंग मेडिकल ऑफिसर नहीं थे, उनके लिए भी इन सेवाओं को समाप्त कर दिया गया था।
लेकिन कार्यक्रम में अंतराल और भ्रष्टाचार की यह प्लगिंग यह नहीं बताती है कि चैतन्य महिला मंडल और वाईडब्ल्यूसीए द्वारा संचालित वैध, अच्छी तरह से काम करने वाले क्रेच को एक साल से अधिक समय से अनुदान क्यों नहीं मिला है।
बाल-देखभाल समर्थन कार्यबल में अधिक महिलाओं को लानेमें मदद कर सकता है...
सिर्फ 27 फीसदी पर, भारत में वर्तमान में दुनिया में सबसे कम महिला श्रम बल भागीदारी (एफएलएफपी) की दर है, जो G20 देशों ( 19 सरकारों और यूरोपीय संघ का एक मंच ) के बीच केवल सऊदी अरब से अधिक है और 1993 में 35 फीसदी से कम है। कार्यबल में महिलाओं के कम अनुपात के साथ, भारत 2025 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद में संभावित 18 फीसदी की वृद्धि को पीछे छोड़ रहा है। जबकि अनपढ़ महिलाएं, कॉलेज के स्नातकों के साथ, सबसे अधिक काम करने वाले समूहों में से एक हैं, वे ड्रॉपआउट की सबसे बड़ी संख्या का भी अनुभव करती हैं, जैसा कि विश्व बैंक की 2017 की रिपोर्ट से पता चलता है। इस रिपोर्ट में सात साल से 2012 तक सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। एक हिस्से के रुप में क्रेच योजना, गरीब, कामकाजी महिलाओं को जीवन रेखा प्रदान करके इस मुद्दे को संबोधित कर सकती है, जिनमें से कई बच्चे बाल देखभाल न होने के कारण स्कूल छोड़ देते हैं।
एक शोध संगठन, इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर इंडिया प्रोग्राम के प्रोग्राम डायरेक्टर प्रोनाब सेन ने इंडियास्पेंड को बताया, " आमतौर पर शहरी क्षेत्रों में मूल परिवार या न्यूक्लिअर फैमली वाले लोगों के लिए, चाइल्डकैअर और भी आवश्यक है। यह सरकार द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए।"
उन्होंने कहा, “बाल-देखभाल उस समय को कम कर देता है जिसके लिए महिला कार्यबल से बाहर रहती हैं। अगर महिलाएं समय की विस्तारित अवधि के लिए कार्यबल से बाहर हैं, तो वे बाद की उम्र में कार्यबल में आ सकती हैं और इससे उनकी रोजगार क्षमता घट सकती है। " सेन कहते हैं, “बाल-देखभाल तक पहुंच और इसलिए काम करने की क्षमता, समाज में सबसे गरीब महिलाओं के लिए एक सशक्तिकरण मुद्दा है।” लेकिन 2013-14 और 2016-17 के बीच अनुमानित 8,143 क्रेच बंद हुए हैं और योजना से लाभान्वित होने वाली महिलाओं और बच्चों की संख्या में 39 फीसदी की कटौती (474, 775 से 290,925 तक) हुई है। महिला और बाल विकास मंत्रालय ने यह भी तय किया है कि वर्तमान में किसी भी नए क्रेच को योजना के तहत पंजीकरण की अनुमति नहीं है। इंडियास्पेंड को बंद के कारणों के बारे में मंत्रालय से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली - कुछ को शायद वित्तीय अनियमितताओं के कारण बंद किया कि क्रेच कैसे चलाया जाए, जैसा कि कुछ महाराष्ट्र में कुछ क्रेच के साथ हुआ था। अगर हमें प्रतिक्रिया मिलती है तो हम इस आलेख को अपडेट करेंगे।
क्रेच और लाभार्थी, 2012-13 से 2016-17
महिला विकास इकाई की सहायक समन्वयक नीता डाबरे ने कहा कि वाईडब्ल्यूसीए, जहां आरती के बच्चे जाते हैं, उसने 2017 या 2018 के लिए अपना अनुदान भुगतान प्राप्त नहीं किया है।
डाबरे ने कहा, "हमारा 2016 का भुगतान डेढ़ साल देरी से आया और यह आखिरी अनुदान भुगतान है। हमारी रिपोर्ट तैयार है, लेकिन किसी ने भी हमसे उनके लिए नहीं पूछा है और अगले साल के लिए प्रक्रिया शुरू नहीं की गई है। मुझे नहीं पता कि क्या हो रहा है, हमसे किसी ने बात नहीं की है।"
कुछ माता-पिता के लिए, घरों की तुलना में क्रेच अधिक सुरक्षित
87 फीसदी उत्तरदाताओं ( छह राज्यों में घरेलू काम, कृषि श्रम, चाय-बागान, ईंट-भट्टे, घर पर आधारित कारीगर और निर्माण श्रमिक) तक ने कहा कि समय-दबाव, काम में व्यवधान के कारण उनका काम करना और बच्चों की देखभाल करना मुश्किल हुआ है और उनके बच्चे अक्सर असुरक्षित और उपेक्षित रहते हैं, जैसा कि महिला और बाल विकास मंत्रालय की 2011 की एक रिपोर्ट में कहा गया है। खराब इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ संघर्ष, बुनियादी सुविधाओं की कमी और दैनिक कामों से निपटने के लिए कोई सहायता नहीं होने के साथ आरती के लिए उसके अस्थायी घर में जीवन कठिन हो सकता है। बच्चों को क्रेच में रखने का मतलब है कि उसके पास घर के कामों के लिए अधिक खाली समय है, शायद नौकरी के लिए भी और साथ में यह आश्वासन भी कि बच्चे सुरक्षित हैं।
उदाहरण के लिए, आरती की झुग्गी में शाम 4 से 6 बजे के बीच ही पानी उपलब्ध होता है। वह पहले घर के लिए पानी इकट्ठा करती है और फिर बच्चों को क्रेच से उठाती है।
वह कहती हैं, "वे वास्तव में मेरे भाई के बच्चे हैं। उनकी मां की मृत्यु हो गई, और उनके पिता बहुत मदद नहीं कर सकते है ... इसलिए मैं उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश कर रही हूं।"
यह बताते हुए कि उनके बच्चों के लिए क्रेच एक आशीर्वाद है, कई माता-पिता ने अपने घर के वातावरण को ‘बुरा’ और ‘खतरनाक स्थान’ के रूप में वर्णित किया है।
शिवशक्ति नगर की निवासी और वाईडब्ल्यूसीए क्रेच में अपने बेटे को रखने वाली 23 वर्षीय मां आशु राजा अंबाती ने इंडियास्पेंड को बताया, "मेरा बेटा यहां आने से पहले बहुत ही हाईपर था।"
उसने बताया कि, "अगर वह हमारे घर के पास भी खेलता है तो मैं उसके बारे में चिंतिंत रहती हूं, इसलिए मैं उसे यहां लाना पसंद करती हूं। हमारा इलाका सुरक्षित नहीं है।"
बाल संरक्षण पर काम करने वाले एक एनजीओ, आंगन द्वारा मुंबई, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा के पांच स्थानों पर किए गए 504 उत्तरदाताओं के सर्वेक्षण के अनुसार माता-पिताओं के काम पर जाने से बच्चों के यौन दुर्व्यवहार, दुर्घटनाओं, ड्रग्स के संपर्क और यहां तक कि मृत्यु का जोखिम होना सामान्य है। आंगन ने इंडियास्पेंड को डेटा प्रदान किया है। 52 वर्षीय, वाईडब्लूसीए क्रेच की शिक्षक सुनीता सालुंके ने कहा, "बहुत से माता-पिता को तनाव है। वे चिंता करते हैं कि (बच्चे) मलिन बस्तियों में क्या कर रहे हैं, लेकिन कम से कम यहां वे सुरक्षित है, वे अधिक निश्चिन्त हो सकते हैं और अपने समय का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं।"
उन्होंने कहा कि "बच्चों को यहां सांस लेने के लिए जगह है। यह हल्का और हवादार है और उन्हें इधर-उधर दौड़ने और खेलने का मौक़ा मिलता है।"
एक छात्र के साथ फोर्ट में वाईडब्ल्यूसीए क्रेच में एक शिक्षिका 52 वर्षीय सुनीता सालुंके। सरकार द्वारा समर्थित क्रेच गरीब कामकाजी माता-पिता के लिए एक जीवन रेखा है, खासकर उनके लिए, जिनके पास काम के घंटों के दौरान कोई बाहर से मदद करने वाला नहीं है।
धन की कमी से लड़ रही है एक लोकप्रिय योजना
2017-18 में राज्य सरकारों तक 48 करोड़ रुपये पहुंचे, जो क्रेच स्कीम के फंडिंग स्ट्रक्चर में बदलाव के बाद 2016-17 में 125 करोड़ ने नीचे है।
संघ का बजट: नेशनल क्रेच योजना
कॉर्प इंडिया के निदेशक, निर्मल चंदप्पा ने इंडियास्पेंड को बताया,"प्रारंभिक 2017 एक कठिन समय था।" हमें अपनी निजी निधि के 100 फीसदी को कवर करने के लिए अचानक निजी दाताओं को ढूंढना पड़ा।" कॉर्प इंडिया ने मुंबई के कई सबसे गरीब क्षेत्रों में, 20 क्रेच का एक नेटवर्क चलाया, और यह राज्य के सबसे बड़े क्रेच ऑपरेटरों में से एक है।
उन्होंने कहा, " हालांकि, हम प्रबंधन करने में सक्षम हो गए हैं, लेकिन ये सिर्फ एक या दो साल के अनुदान हैं, जो हमने सुरक्षित किए हैं और फिर हमें नए दानदाताओं को ढूंढना होगा।यह वास्तव में चिंताजनक है।"
यहां तक कि अतीत में, अनुदान की किस्तें देर से (कभी-कभी कई महीने देरी से) पहुंचना आम बात थी, लेकिन कई क्रेच ने कभी भी इस बारे में चिंता नहीं की कि वे पहुंचने में विफल रहे हैं।
चंदप्पा ने कहा, "हमारे कुछ क्रेच 30 साल से अधिक समय से चल रहे हैं - हमारे पास आने वाले परिवारों की तीसरी पीढ़ी भी है।" "लेकिन कौन जानता है कि अब क्या होगा - जनसंख्या बढ़ रही है और देखभाल करने वाले बच्चों की संख्या भी अधिक है। इन लोगों के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है।"
चंदप्पा और उनकी स्थिति के अन्य लोगों ने जवाब के लिए मंत्रालय तक पहुंचने की कोशिश की है, लेकिन अभी तक चुप्पी के साथ मुलाकात की गई है। उन्होंने कहा, "हम महिला और बाल विकास मंत्रालय के साथ सीधे व्यवहार करते थे, लेकिन उन्होंने हमें जवाब देना बंद कर दिया।" "तब उन्होंने हमसे कहा कि हम राज्य के अधिकारियों के साथ सीधे व्यवहार करें और मंत्रालय (महाराष्ट्र सरकार के मुख्यालय) में जाएं, लेकिन इसमें से कुछ काम नहीं आया है।"
केंद्र ने 2016 में, प्रति केंद्र 42,384 रुपये से 1,37,470 रुपये की वृद्धि की घोषणा की, यानी 224 फीसदी की वृद्धि हुई जिसे इस योजना के रूप में कई लोगों ने गर्मजोशी से प्राप्त किया और इसके साथ बाल विकास के रूप में, सरकार द्वारा प्राथमिकता दी जा रही थी।
हालांकि, जैसा कि चंदप्पा और कई अन्य लोग पाएंगे, जबकि उनके अनुदान भुगतान में थोड़ी देर के लिए वृद्धि हुई, वे अंततः अस्तित्वहीन हो गए।
चंदप्पा ने कहा, "सरकार द्वारा अनुदान बढ़ाने के बाद हमारी सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए हमारे पास कई योजनाएं थीं - शायद प्रोजेक्टर खरीदना, या कंप्यूटर खरीदना और क्रेच का आधुनिकीकरण करना। लेकिन वह सब गिर गया है। यह हमारे भर्ती के निर्णय लेने की हमारी क्षमता को भी प्रभावित करता है।”
कॉर्प और वाईडब्लूसीए जैसे बड़े, स्थापित एनजीओ मौजूदा डोनर नेटवर्क को टैप करके या वैकल्पिक फंडिंग स्ट्रीम जैसे कि वाईडब्लूसीए के महिला हॉस्टल कारोबार के लिए पूंजी के अस्थायी स्रोतों के लिए सेवाएं प्रदान करके जारी रखने में सक्षम हैं। लेकिन ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में छोटे क्रेच, काफी प्रभावित हुए हैं।
नासिक और अहमदनगर के बीच मुंबई से 230 किलोमीटर दूर स्थित संगमनेर के पूर्व क्रेच मैनेजर 47 वर्षीय भावसार दीघे ने कहा, '' हमारा अनुदान डेढ़ साल से लंबित है।
उन्होंने कहा, "उस समय (राज्य समाज कल्याण बोर्ड) सिर्फ यह कहता रहा कि भुगतान आ रहा है ... और मैंने हमेशा माना कि वे ऐसा करेंगे। लेकिन हम कर्मचारियों के मानदेय का भुगतान करने या भोजन का खर्च वहन करने में पीछे नहीं रहे। वास्तव में क्रेच अभी बंद है।"
दीघे का क्रेच स्थानीय बीड़ी कारखाने में काम कर रहे गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के लिए एक सुविधाजनक समाधान था, जहां कोई भी बाल चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं है। अब बच्चे दूर की गलियों में स्थित स्थानीय आंगनवाड़ी में जाते हैं, जो केवल 11:00 बजे से 13:00 बजे तक खुला रहता है। बच्चे वहां मुख्य रूप से भोजन में दाल और चावल प्राप्त करने के लिए जाते हैं।
दीघे ने कहा कि मुझे नहीं पता कि सरकार क्या खेल रही है, वे वास्तव में इन बच्चों को पीड़ित कर रहे हैं। "मैं उनसे जल्द से जल्द भुगतान शुरू करने का आग्रह करता रहता हूं।"
वित्तीय विकेंद्रीकरण के अनपेक्षित प्रभाव दिखाते हैं बंद क्रेच
पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क (पीएचआरएन) की राष्ट्रीय संयोजक वंदना प्रसाद ने इंडियास्पेंड को बताया, "मेरा मानना है कि विकेंद्रीकरण आम तौर पर एक अच्छी बात है, क्योंकि विकेंद्रीकरण अधिक पारदर्शी और जवाबदेह सामाजिक कल्याण कार्यक्रम बना सकता है।" राज्य सरकार अपने गरीबों और हाशिए पर रहने वाले लोगों की मदद करने के लिए संरचना कार्यक्रमों में और अधिक लचीलापन लाएगी।
प्रसाद 25 साल से अधिक समय से बाल स्वास्थ्य और पोषण के स्तर को आगे बढ़ाने के लिए एक तंत्र के रूप में सरकारी चाइल्डकैअर के लिए एक वकील रही हैं और वर्तमान में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के सहयोग से ओडिशा सरकार के लिए 150 करोड़ का नेटवर्क विकसित कर रही हैं।
वह जिस विकेंद्रीकरण का उल्लेख करती है, वह 14 वें वित्त आयोग की सिफारिश का हिस्सा था, जिसने केंद्रीय करों का हिस्सा बढ़ा दिया जो राज्यों के साथ 32 फीसदी से 42 फीसदी तक साझा किया जाएगा।
नतीजतन, 2016-17 के बजट ने राज्यों पर सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के लिए संसाधनों का आवंटन करने के लिए अधिक से अधिक जवाबदेही रखी है, जैसे कि एकीकृत बाल विकास सेवा ( आईसीडीएस) - सरकार का प्रमुख बाल विकास कार्यक्रम।
प्रसाद ने कहा, "सरकार को इन परिवर्तनों का एहसास होना चाहिए कि महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए वास्तविक निहितार्थ हैं। अगर केंद्र इस तरह से राज्यों को जिम्मेदारी सौंपता है, तो उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए राज्यों के पास पर्याप्त धन होना चाहिए कि वे वास्तव में उन्हें और गुणवत्ता के साथ हस्तांतरित कार्यक्रमों को लागू कर रहे हैं।"
कुछ मामलों में, विकेंद्रीकरण राज्यों को गलत संदेश दे सकता है।
दिल्ली स्थित एक गैर-सरकारी संगठन,मोबाइल क्रेच में कार्यकारी निदेशक सुमित्रा मिश्रा ने इंडियास्पेंड से कहा, "जब केंद्र इस तरह से सामाजिक कल्याण योजनाओं का समर्थन करने से हाथ खींचता है, तो राज्यों को यह संदेश मिलता है कि यह काम कम प्राथमिकता का है कि हम यहां इतना आवंटन नहीं कर सकते हैं।”मिश्रा ने आगे कहा, "वे यह भी सोचते हैं कि हमें एक केंद्रीय योजना क्यों आवंटित करनी चाहिए? अगर हम इस तरह के एक कार्यक्रम के लिए आवंटित करना चाहते हैं, तो यह उस योजना के लिए होगा जिसे हमारी सरकार ने लान्च किया है। ये वो गतिकी हैं, जिसके तहत शासन तब ढह जाता है। “
करीब 50 वर्षों से, मोबाइल क्रेच निर्माण स्थलों पर अस्थायी बाल देखभाल केंद्र चला रहे हैं, साइटें बदलते ही क्रेच को स्थानांतरित किए जाते हैं। वर्तमान में, देशभर में 70 में से तीन क्रेच राष्ट्रीय क्रेच योजना के तहत चलाए जाते हैं, जिसके लिए उन्हें अपना 2018 का भुगतान नहीं मिला है।
सरकार ने पहले मिश्रा से कहा था कि क्रेच की कम मांग है, जो इसके वित्तपोषण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। मिश्रा ने कहा, "हम अपने नेटवर्क भागीदारों से लगातार कह रहे हैं कि वे राष्ट्रीय क्रेच योजना के लिए आवेदन करें और दिखाए कि इस कार्यक्रम के लिए गैर-सरकारी संगठनों और महिलाओं और बच्चों दोनों के हित हैं।"
लेकिन कुछ राज्यों में स्थिति विकट है। लखनऊ स्थित गैर सरकारी संगठन, विज्ञान फाउंडेशन के कोषाध्यक्ष और फोरम फॉर क्रेच एंड चाइल्ड केयर सर्विसेज़ (फ़ोरोर्स) नेटवर्क के के सदस्य रामायण यादव कहते हैं, “राष्ट्रीय क्रेच योजना उत्तर प्रदेश में लगभग गैर-कार्यात्मक है और राज्य सरकार इस मुद्दे के बारे में चिंतित नहीं दिखती है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि वर्तमान में राज्य में लगभग 20 लाख बच्चे कुपोषित हैं।”
बाल विकास पर बहुत कम खर्च करता है भारत
वर्तमान में बाल विकास सूचकांक 2018 में 180 देशों में से भारत 130वें स्थान पर है,जो राज्यों में उच्च स्तर की असमानता का सामना कर रहा है। जबकि कुछ राज्यों जैसे केरल और गोवा में शिशु मृत्यु दर और शिक्षा नामांकन अनुपात विकसित राष्ट्रों के समान हैं लेकिन अन्य बहुत पीछे हैं जो युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित देशों के समान है, जैसा कि जुलाई 2018 में इंडियास्पेंड ने रिपोर्ट किया है।
एक बच्चे के जीवन के प्रारंभिक वर्ष संज्ञानात्मक, भावनात्मक और शारीरिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण अवधि है, जिसमें स्वस्थ परिणाम निर्धारित करने में बड़ी भूमिका निभाई जाती है। व्यक्ति की आधी बुद्धिमत्ता की क्षमता चार साल की उम्र में विकसित होती है, और अपर्याप्त पोषण, मस्तिष्क की उत्तेजना और तनाव स्थायी रूप से मस्तिष्क के कामकाज को प्रभावित कर सकते हैं और सीखने के विकार पैदा कर सकते हैं।
बिना किसी सहारे के, गरीब संकटग्रस्त कामकाजी माता-पिता के लिए, क्रेच बहुत आवश्यक सुरक्षा जाल प्रदान करने में मदद कर सकता है।
अकुशल मैनुअल काम करने वाले ग्रामीण परिवारों को एक वर्ष में कम से कम 100 दिन के भुगतान का काम सुनिश्चित करने वाले महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत कार्यरत श्रमिकों पर इस 2009 की रिपोर्ट के अनुसार, अभी भी राजस्थान में सर्वेक्षण के उत्तरदाताओं में से केवल 0.7 फीसदी ने अपने कार्यस्थल में क्रेच की सुविधा होने की सूचना दी, जो कि उत्तर प्रदेश में 0 फीसदी तक गिर गया है।
यह इस तथ्य के बावजूद है कि मनरेगा के तहत, नियोक्ता मजदूरों के लिए क्रेच सुविधा प्रदान करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य हैं।
अध्ययन में कहा गया है कि, इसके अलावा अगर क्रेच की सुविधा उपलब्ध हो तो प्रत्येक राज्य में 90 फीसदी से अधिक महिलाओं ने काम करने में रुचि व्यक्त की है। आंगनवाड़ी कार्यक्रमों (स्थानीय मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य केंद्र) की तरह, राष्ट्रीय क्रेच योजना (आईसीडीएस की एक उप-योजना )को बाल पोषण और स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार के साथ काम सौंपा है। देश भर में कुपोषित बच्चों की व्यापकता (2015-16 में 36 फीसदी) को कम करना एक विशेष ध्यान है, और क्रेच नियमित रूप से वजन, टीकाकरण और वार्षिक चिकित्सा जांच प्रदान करते हैं।
महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा मसौदा 2016 में बच्चों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (एनपीएसी) की सिफारिश की गई, यदि भारत 2030 तक संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बाल स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा संकेतकों में सुधार करना चाहता है तो केंद्रीय बजट का कम से कम 5 फीसदी योजनाओं और कार्यक्रमों पर सीधे बच्चों के लिए खर्च किया जाना चाहिए। 2018-19 में, केंद्रीय बजट का 3.4 फीसदी बच्चों को आवंटित किया गया था, जो 2012-13 में 4.8 फीसदी से कम है। आईसीडीएस कार्यक्रम, जो राष्ट्र के 54 फीसदी बच्चों तक पहुंचता है, ने 2012-17 के बीच 45,377 करोड़ रुपये की कमी का अनुभव किया। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान प्रस्तावित 1,23,580 करोड़ की तुलना में, इस योजना के लिए 78,203 करोड़ रुपये से अधिक नहीं आवंटित किया गया था।
केंद्रीय बजट में बच्चों पर खर्च का हिस्सा, 2008-19
‘सेंटर फॉर वुमन डेवल्पमेंट स्टडीज’ ( सीडब्लूएस ) में सहायक प्रोफेसर सावित्री रे ने कहा, "हम इस मुद्दे को कई वर्षों से उठा रहे हैं - इस देश में बच्चों के लिए कोई बजट नहीं है।" रे ने आगे कहा, "महिलाओं और बच्चों को प्रभावित करने वाले दिन-प्रतिदिन के मामलों पर ग्राम पंचायतों को संवेदनशील बनाने की बहुत आवश्यकता है। चूंकि इन स्थानों में कोई महिला मौजूद नहीं है, [पुरुष] बस क्रेच जैसे मुद्दों पर चर्चा नहीं करते हैं।"
पंचायत राज संस्थान (पीआरआई) ( स्थानीय स्वशासी संस्थान ) सरकारी कार्यक्रमों के हाइपर-स्थानीय कार्यान्वयनकर्ता हैं, लेकिन उनकी भूमिका, अतीत में, अक्सर केवल कागज पर मौजूद होती है। प्रशिक्षण पीआरआई महिलाओं और बाल विकास योजनाओं के लिए वित्त पोषण बढ़ा सकते हैं।
रे कहती हैं, "पंचायतों को यह पता नहीं है कि, उदाहरण के लिए आंगनवाड़ियों के घंटों का विस्तार करना कामकाजी महिलाओं को उचित देखभाल के साथ प्रदान करने में मदद कर सकता है। उन्हें ये निर्णय लेने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है और इसलिए वे बस नहीं लेते हैं।"
मौजूदा आंगनवाड़ियों को आंगनवाड़ी-सह-क्रेच में बदलना,एक स्थापित आईसीडीएस संसाधन का लाभ उठाकर सरकारी चाइल्डकैअर सुविधाओं की पहुँच बढ़ाने के लिए 12 वीं पंचवर्षीय योजना में प्रस्तुत समाधान था। इसका उद्देश्य 2012-17 से पांच साल की अवधि में कुल आंगनवाड़ियों का 5 फीसदी परिवर्तित करना था।
लेकिन परिवर्तित किए गए संख्याओं पर कोई सार्वजनिक डेटा उपलब्ध नहीं होने के साथ यह निर्धारित करना कठिन है कि यह कितना सफल रहा है। रे कहती हैं, "वास्तव में हमने आंगनवाड़ियों की गुणवत्ता को बिगड़ते देखा है। कर्मचारी पहले से ही अधिक काम कर रहे हैं और अपनी क्षमता के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ हैं, और अब हम उनसे और भी अधिक काम कराना चाहते हैं?" प्रसाद का कहना है कि वह चिंतित हैं कि आंगनवाड़ी की तरह क्रेच किसी भी खाद्य सुरक्षा अधिनियम या सुप्रीम कोर्ट के नियम द्वारा कवर नहीं किए जाते हैं, जो उनके अस्तित्व को सुनिश्चित करता है, उन्हें बंद होने से बचाता है।
उन्होंने कहा, "मनरेगा जैसे श्रम कानूनों में एक संक्षिप्त उल्लेख के अलावा क्रेच का आंकड़ा यहां नहीं है। लेकिन हम जानते हैं कि वहाँ कोई निरीक्षण नहीं है और निर्माण, खनन या कृषि स्थलों पर क्रेच की सुविधाएं अभी नहीं हो रही हैं।"
बुनियादी सेवाएं प्रदान करने के लिए संघर्ष करने वाली सरकारें कभी-कभी दक्षता चालन और लागत-बचत के उपायों के लिए निजी क्षेत्र को देख सकती हैं। जबकि निजीकरण अधिक परिचालन क्रेच और सेवा विस्तार जैसे लाभ ला सकता है, कल्याणकारी कार्यक्रमों के प्रभार लेने के बजाय सार्वजनिक हित के बजाय लाभ से प्रेरित कंपनियों पर चिंताएं हैं।
प्रसाद ने सुझाव दिया कि केंद्र द्वारा राष्ट्रीय क्रेच योजना पर वर्तमान में किए गए असंतोष का तात्पर्य निजीकरण से है जो सरकार के ध्यान में है। हालांकि उन्हें लगता है कि कार्यक्रम एनजीओ को क्रेच चलाने में मदद करने के अपने वर्तमान रूप में सफल रहा है, लेकिन उनका मानना है कि पूर्ण निजीकरण कार्यक्रम को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा, क्रेच की गुणवत्ता को कम करेगा और बाल विकास पर प्राथमिक फोकस को कमजोर करेगा।
प्रसाद ने कहा कि “क्रेच एक आवश्यक सार्वजनिक सेवा है, जिसे सरकार को आउटसोर्स नहीं किया जाना चाहिए।”
मोबाइल क्रेच के कार्यकारी निदेशक, मिश्रा ने कहा, "क्या केंद्र निजी सेवा प्रदाताओं को जिम्मेदारी सौंपने की योजना बना रहा है, या स्वयं सहायता और सामुदायिक समूह उपलब्ध कराने की सोच रहा है, यह स्पष्ट है कि सरकार निश्चित रूप से इसमें प्रवेश नहीं करना चाहती।" उन्होंने कहा, “सप्ताह में छह दिन, दिन में आठ घंटे क्रेच चलाने का मतलब क्रेच कार्यकर्ताओं को योग्य फ्रंटलाइन स्टाफ के कैडर के रूप में मान्यता देना, न्यूनतम वेतन और सभी प्रकार के सामाजिक सुरक्षा प्रावधान प्रदान करना है।”
"यह एक जिम्मेदारी है, जिसे सरकार अभी लेने के लिए तैयार नहीं है और सबसे बड़ा कारण है कि हम मानते हैं कि सरकार की दिलचस्पी नहीं है।"
वह आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए स्थिति की तुलना करती है। आंगनवाड़ी कर्मचारियों को, क्रेच कर्मचारियों की तरह, वर्तमान में वेतन के बजाय मानदेय (नाममात्र और अक्सर अनियमित भुगतान) का भुगतान किया जाता है और स्थायी नौकरी की स्थिति, छुट्टी की छुट्टी, न्यूनतम वेतन, चिकित्सा और सेवानिवृत्ति के लाभों से रहित हैं। एक श्रमिक के लिए प्रति माह 4,500 रुपये से अधिक नहीं, और एक सहायक के लिए 2,250 रुपये प्रति माह। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अधिक वेतन की मांग पर नियमित रूप से हड़ताल पर रहती हैं (सरकारी कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन 7 वें वेतन आयोग द्वारा 18,000 रुपये निर्धारित किया गया था) और दुनिया के सबसे बड़े एकीकृत बचपन विकास कार्यक्रम को लागू करने में अपनी भूमिका के लिए वे प्रशंसा की उम्मीद रखती हैं।
भारत में प्री-स्कूल शिक्षा क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है, जहां निजी संगठनों ने सरकारी निरीक्षण के अभाव में पूंजीकरण किया है। एक बड़े पैमाने पर यह अनियमित उद्योग मानकों, स्थापित मानदंडों या निगरानी के अधीन नहीं है।
मिश्रा ने कहा, "हाल के वर्षों में, आपने देश भर में सैकड़ों निजी किफायती प्री-प्राइमरी, प्रीस्कूल और डे-केयर सेंटर देखे हैं। वे शिक्षा के अधिकार अधिनियम के दायरे से बाहर हैं और कोई न्यूनतम आवश्यकताएं नहीं हैं जो उन्हें पूरा करना है। ये वही चिंताएं हैं जो क्रेच के निजीकरण के साथ जुड़ी हैं।"
हालांकि योजना के संचालन के लिए निजी संगठनों द्वारा बोली लगाने के लिए अभी तक कोई निविदा नहीं निकली है, लेकिन इस क्षेत्र में काम करने वालों को डर है कि यह ज्यादा दूर नहीं है। मोबाइल क्रेच और अन्य समान संगठन वर्तमान में एक व्यापक समीक्षा की वकालत कर रहे हैं और मूल्यांकन की जरूरत है, जो देश भर के क्रेच की मांग को दर्शाता है। इससे पहले कि केंद्र इस योजना को समाप्त करने या निजी उद्योग या तंत्र को अपने स्थान पर लाने पर विचार करे।
मिश्रा ने कहा, "एक बाजार संचालित मॉडल में, यह सुनिश्चित करने का कोई तरीका नहीं है कि सबसे जरूरतमंद मां अपने तीन बच्चों को एक निजी क्रेच में ले जा सकेंगी, ऐसे में तो आप इस वर्ग की आबादी पर ध्यान नहीं देंगे।"
( संघेरा लेखक और शोधकर्ता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं। )
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 12 जनवरी, 2019 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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