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रेलवे परियोजनाओं को पूरा करने में होने वाली देरी होने के कारण, इनकी लागत 1.07 लाख करोड़ रुपए (16.4 बिलियन डॉलर) हो गई है, जोकि इसके तीन मिलियन (या 30 लाख) कर्मचारियों के सालाना वेतन बिल के बराबर है। यह आंकड़े इंडियास्पेंड द्वारा दिसम्बर, 2015 लेखापरीक्षा पर की गई विश्लेषण में सामने आए हैं।

भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा पांच वर्षों (2009-14) के दौरान संचालित “स्टेटस ऑफ ऑनगोइंग प्रॉजेक्ट्स इन इंडियन रेलवें” रिपोर्ट कहती है कि, मार्च 2014 तक इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए रेलवे को 1.86 लाख करोड़ रुपए (28.6 बिलियन डॉलर) की आवश्यकता थी।

442 अधूरी परियोजनाओं में से - नई रेल लाइनों, आमान परिवर्तन और दोहरीकरण – केवल 156 (35 फीसदी) की ही समय सीमा निर्धारित की गई है, लेकिन लक्ष्य तय होने के बावजूद, 75 परियोजनाएं पिछले 15 वर्षों से अधिक से अधूरी ही हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, 150 करोड़ रुपए से अधिक के बजट के साथ परियजनाओं की संयुक्त लागत 1.01 लाख करोड़ (15.5 बिलियन डॉलर) थी; 150 करोड़ रुपए से कम बजट वाली परियोजनाओं (442 में से 123) की संयुक्त लागत 5,614 करोड़ रुपए या 0.89 बिलियन डॉलर थी।

परियोजनाओं की लागत

30 वर्षों बाद भी तीन परियोजनाएं अधूरी; 16 वर्ष पहले मंजूरी मिलने के बाद भी 22 परियोजनाएं अब तक शुरु नहीं

15 वर्षों से अधिक से अधूरी 75 परियोजनाओं में से तीन, 30 वर्ष बाद भी पूरी नहीं हुई है। इसके अलावा 16 वर्ष पहले मंजूरी मिलने के बाद भी 22 परियोजनाएं अब तक शुर नहीं हुई है।

यहां दो उद्हारण हैं:

1. पंजाब के रूपनगर जिले के नांगल बांध से होशियारपुर जिले के तलवाड़ा तक 83.74 किलोमीटर रेलवे लाइन : इस परियोजना के लिए 34 वर्ष पहले मंजूरी दी गई थी। 43.91 किलोमीटर लाइन का पहला चरण (नांगल बांध से हिमाचल प्रदेश के अंब अंदाउरा गांव तक) 1991 में, नौ वर्ष बाद पूरा किया था। 17 किलोमीटर का दूसरा चरण, हिमाचल प्रदेश के ऊना से ऊना ज़िले के चारुरु तकराला गांव तक, 1998 में शुरु किया गया एवं इसे सात वर्षों के बाद खोला गया था। कैग रिपोर्ट के अनुसार, उसके बाद से कोई निर्माण नहीं हुआ है, क्योंकि निर्माण के लिए कोई राशि नहीं बची है। मार्च 2014 तक, 46 किलोमीटर पर 383.89 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं और लाइन का 45 फीसदी अब भी पूरा नहीं हुआ है।

परियोजनाएं – प्रगति, समय एवं लागत

2. चंपादंगा, हुगली जिले में एक शहर में 32- किमी शाखा लाइन के साथ हावड़ा, पश्चिम बंगाल से पश्चिम बंगाल में ही अमता तक 42 किलोमीटर लंबी लाइन : परियोजना के निर्माण की मंजूरी 45 वर्ष पहले दी गई थी। हावरा से बरगाछिया तक के पहले चरण को पूरा होने में नौ वर्ष का समय लगा है; 18 किमी के दूसरे चरण को, बरगाछिया से अमता तक का निर्माण कुछ वर्षों तक रोक दिया गया था। 2000 और 2004 में निर्माण को पुन: दो चरणों में शुरु किया गया लेकिन निर्माण कार्य कभी पूरा नहीं हो पाया क्योंकि बरगाछिया और चंपादंगा के बीच की भूमि को हासिल नहीं किया जा सका। 2014 में, रेलवे इस परियोजना को रद्द करना चाहता था। लेकिन वर्तमान में,356 करोड़ रुपए की लागत की संभावना मानते हुए इस परियोजना को “चलता हुआ” माना जा रहा है।

यह चरम उद्हारण हैं लेकिन यह हमें बताते हैं कि किस प्रकार बिना स्पष्ट योजना एवं तैयारी के परियोजनाएं शुरु होती हैं; कई परियोजनाएं रेलवे के अपने वित्तीय मानकों को पूरा नहीं करती हैं।

केवल 30 फीसदी परियोजनाएं वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, बाकि अलाभकारी हैं।

भारतीय रेल वित्त कोड का एक प्रावधान में कहा गया है : "किसी भी ताजा निवेश प्रस्ताव को आर्थिक रूप से उचित नहीं माना जाएगा जब तक कि शुद्ध लाभ (वापसी की दर) की उम्मीद प्रस्तावित परिव्यय के परिणाम के रूप में महसूस किया जाए, संचालन व्यय या सेवा की औसत वार्षिक लागत को पूरा करने के बाद , 14 फीसदी या उससे अधिक है।"

वापसी की दर प्रत्याशित यातायात से होने वाली आय पर आधारित है। अधूरी परियोजनाओं में से केवल 30 फीसदी, शुद्ध लाभ या 14 फीसदी की वापसी की दर थी जबकि 126 परियोजनाओं वापसी की नकारात्मक दर थी। इसका मतलब यह है 70 फीसदी परियोजनाएं आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं थे।

परियोजना व्यवहार्यता (रिटर्न की दर)

कैग की रिपोर्ट में भविष्य की परियोजनाओं के लिए सिफारिशें भी शामिल की गई हैं। इनमें से कुछ है:

  • भारतीय रेल की सभी परियोजनाएं जो 15 वर्ष से अधिक से अधूरे हैं उनका फिर से आकलन करने की जरूरत है। साथ ही इनकी और उनके वित्तीय व्यवहार्यता के आकलन की भी आवश्यकता है।
  • भारतीय रेल को परियोजनाओं को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है और यह भी सुनिश्चित करने की ज़रुरत है कि इनके पास पर्याप्त वित्त पोषण है, ताकि वह समय सीमा पर पूरे किए जा सकें।
  • रेलवे बोर्ड और जोनल कार्यालयों बेहतर तरीके से परियोजनाओं पर नजर रखने की जरूरत है, ताकि और अधिक पैसा बर्बाद न किया जाए।

(साहा दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में 18 अप्रैल 2016 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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