वायुमंडल में सीओ2 के बढ़ जाने से आवश्यक पोषक तत्वों की कमी वाले खाद्य फसल का उत्पादन
भारत की आने वाली पीढ़ियों को दाना-पानी और हवा-पानी की बिगड़ती गुणवत्ता की एक बड़ी चिंता से सामना करना पड़ेगा। अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह साबित किया है कि वातावरण में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) वास्तव में मुख्य खाद्य पदार्थों से पोषक तत्वों का दोहन कर रहा है, जिसका असर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। धीरे-धीरे स्थिति और बद्तर होती चली जाएगी।
वर्ष 2015 में, भारत का वायुमंडलीय सीओ2 स्तर प्रति मिलियन 399 भाग (पीपीएम) पर दर्ज किया गया था, जो 350 पीपीएम की सीमा रेखा से 14 फीसदी ज्यादा है और इससे व्यापक जलवायु परिवर्तन को गति मिलने की आशंका है। वर्ष 2025 तक, दुनिया भर में वायुमंडलीय सीओ2 का मानक 550 पीपीएम का हो जाने की संभावना है।
अमरीका के ‘हार्वर्ड टी.एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ के वरिष्ठ अनुसंधान वैज्ञानिक सैमुअल मायर्स के नेतृत्व में किए गए अध्ययन के अनुसार पीपीएम के ऐसे उच्च स्तर गेहूं और चावल के प्रोटीन, आयरन और जस्ता सामग्री को खाली कर देता है। इससे सूक्ष्म पोषक कमियों के जोखिम वाले लोगों की संख्या में वृद्धि होने की संभावना होती है।
वर्ष 2050 तक गेहूं और चावल की प्रोटीन सामग्री में 5.3 फीसदी की कमी 53.4 मिलियन अतिरिक्त भारतीयों को प्रोटीन की कमी के जोखिम में डालेगा, जैसा कि ‘जर्नल इन्वाइरन्मेनल रिसर्च लेटर्स’ में अगस्त 2017 में मायर्स के एक नए अध्ययन में प्रकाशित किया गया है।
सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी
भारत में और विश्व स्तर पर, गरीब लोग जो अपने प्रोटीन के सेवन के लिए अनाजों पर निर्भर करते हैं, वे सबसे बड़े जोखिम का सामना करेंगे। औसत भारतीय आहार में लगभग 60 फीसदी प्रोटीन सामग्री अनाज से मिलती है।
प्रोटीन एक माइक्रोन्यूट्रेंट है, जिसमें विभिन्न एमिनो एसिड होते हैं। इसकी कमी से होने वाली बीमारियां पहले से ही भारत में आम हैं। इसकी कमी से बच्चों में स्टंटिंग से लेकर वयस्कों में हृदय रोग होने का खतरा बढ़ जाता है।
‘जिओ हेल्थ’ में मायर्स की ओर से प्रकाशित एक और पेपर कहता है कि भारत में उत्पादित होने वाले गेहूं और चावल में कम आयरन ( जो मॉडलिंग अध्ययन के अनुसार वर्ष 2050 तक 4.8 फीसदी तक कम हो जाएगा ) 01 से 5 वर्ष की आयु के भारतीय बच्चों और गर्भवती उम्र (15 से 49 वर्ष) की महिलाओं में आयरन की कमी को बढ़ाएगा।
अपर्याप्त आयरन, दुनिया में सबसे आम माइक्रोन्यूट्रियेंट की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, पहले से ही 10 भारतीयों में से लगभग 6 लोगों में खून की कमी है। सामान्य आबादी अपने आयरन के सेवन के लिए गेहूं और चावल पर निर्भर करती है।
2050 तक पोषक तत्व स्तर में कमी होने की उम्मीद | ||||
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Crop | Wheat | Rice | Modelled for | Number of Indians to be impacted |
Zinc | 9.10% | 3.10% | Globally | 48 million |
Protein | 5.30% | 5.30% | India | 53.4 million |
Iron | 4.80% | 4.80% | India | 6 in 10 Indians anaemic, to worsen |
Source: Studies of Samuel Myers, others
विश्व स्तर पर, एन्थ्रोपोजेनिक सीओ 2 उत्सर्जन से भी गेहूं और चावल की जिंक सामग्री की 9.1 फीसदी और 3.1 फीसदी की कमी हो जाने की आशंका है। यह भारत में, यह लगभग 48 मिलियन अधिक भारतीयों को जिंक की कमी के जोखिम में डाल देगा, जैसा कि मायर्स ने 2015 के अध्ययन में निष्कर्ष निकाला है।
भारतीय आबादी का एक तिहाई से अधिक जिंक-वंचित है। दस भारतीयों में से सात जिंक सेवन के लिए गेहूं और चावल पर निर्भर करते हैं।
इंडियास्पेंड से बात करते हुए मायर्स ने माइक्रोन्यूट्रेंट की कमी को "मूक भूख" के रुप में बताया है। मायर्स कहते हैं, “लोग तब समझते हैं जब उनके कैलोरी का सेवन कम हो जाता है, क्योंकि उन्हें भूख लगती है। लेकिन उन्हें पता नहीं है उनके भोजन में सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा कम हो गई है, क्योंकि वे अभी भी भोजन और कैलोरी की समान मात्रा खा रहे होते हैं।”
मायर्स आगे कहते हैं, “लाखों भारतीयों की रक्षा करने के लिए जो अपने सूक्ष्म पोषक तत्वों के लिए गेहूं और चावल पर निर्भर हैं, भारत को कम से कम, "उप-आबादी की पहचान करने के लिए आहार संबंधी निगरानी प्रयासों को आगे बढ़ाना चाहिए जो अपनी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा नहीं कर रहे हैं और पौष्टिक पर्याप्तता सुनिश्चित करने के लिए सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त हस्तक्षेप को संबोधित करना चाहिए।”
कठिन हैं विकल्प
गेहूं और चावल, सी 3 घास के रूप में वर्गीकृत है। यह पर्यावरण सीओ 2 के लिए सबसे अधिक संवेदनशील फसल में से हैं। सीओ 2 उत्सर्जन से जुड़ी उच्च गर्मी जलवायु वार्मिंग, गेंहू की परिपक्वन में तेजी लाता है, जिससे फसल की पैदावार 20 फीसदी तक कम हो सकती है, जैसा कि ‘स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी’ के वैज्ञानिक डेविड लॉबेल के नेतृत्व में ‘जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज ’ में प्राकाशित अध्ययन से पता चलता है।
मायर्स ने स्वीकार किया कि इस बात का पता नहीं लगा है कि क्यों पर्यावरण सीओ2 पौधों में प्रोटीन और अन्य पोषक तत्वों को कम कर देते हैं। "हम सभी निश्चित ही जानते हैं कि फसल पोषक तत्वों का एक सहजीवी संघ है, किसी भी एक पोषक तत्व में गिरावट एक दूसरे की जैवउपलब्धता को प्रभावित करती है। "
मायर्स का काम वर्ष 2050 तक 550 पीपीएम के वायुमंडलीय सीओ 2 स्तर का अनुसमर्थन करता है। 2015 में, 400 पीपीएम के वैश्विक औसत के मुकाबले भारत का स्तर 399 पीपीएम था।मायर्स ने कहा, "सीओ 2 के उत्सर्जन को कम करना हम सबसे महत्वपूर्ण बात है जो हम इस समस्या के समाधान के लिए कर सकते हैं। सीओ2 के हानिकारक प्रभावों के प्रति कम संवेदनशील होने वाली फसलों को पैदा करने में मदद मिलेगी, और पोषक तत्वों में समृद्ध होने वाले फसलों का उत्पादन करने के लिए बायोफोर्टिशन भी संभव है। "
मायर्स कहते हैं, भारतीय आहार का एक बड़ा हिस्सा पारंपरिक अनाज पोषक तत्वों में समृद्ध हो सकता है और फिर से पुनर्जीवित किया जा सकता है।
रागी , बाजरा और ज्वार भारत के मूल फसल हैं और अतीत में इसका व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था।
एक दशक में फैले हुए तीन स्थानों पर खुला क्षेत्र प्रयोगों में, मायर्स ने पाया कि सीओ 2 की उच्च सांद्रता के सामने सी3 घास, फलियां और मक्का में महत्वपूर्ण आयरन का नुकसान दिखा था, लेकिन ज्वार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
मायर्स कहते हैं, "बाजरा सी 4 अनाज होते हैं, जो सी 3 घास की तुलना में अधिक कुशलता से सीओ 2 का उपयोग करते हैं, जिससे सीओ 2 बढ़ने से उन्हें कम खतरा पैदा हो जाता है। अधिक विविध आहार, प्रमुख पोषक तत्वों के लिए गेहूं और चावल पर कम निर्भर भारत की जनसंख्या के लिए सबसे अच्छी बात होगीष खासकर गरीबों के लिए। "
इसके लिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य और कृषि नीति बनाने का फ़ोकस बदलना चाहिए, जैसा कि किसान शिक्षा की आवश्यकता है।
आहार विविधीकरण को बढ़ावा देना
अनाज आधारित आहार और अनाज केंद्रित खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम कम गुणवत्ता वाली प्रोटीन प्रदान करते हैं, और गुणवत्ता वाले प्रोटीन की कमी के कारण भारतीयों में जोखिम का प्रतिशत अलग-अलग आयु समूहों में और शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों के बीच 4 फीसदी से 26 फीसदी के बीच भिन्न होने का अनुमान है।
बाजरा और अन्य प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों को शामिल करके, जैसे कि तीन मुख्य सार्वजनिक भोजन वितरण कार्यक्रमों में दाल - सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जिसके माध्यम से सरकार लाखों पात्र व्यक्तियों के लिए हर महीने 5 किलो अनाज पर सब्सिडी प्रदान करती है; सरकारी और सरकारी समर्थित स्कूलों में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक छात्रों के लिए मिड डे मील कार्यक्रम; और छह साल तक के बच्चों के बीच पोषण में सुधार के लिए समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम-सरकार गुणवत्ता वाले प्रोटीन का उपभोग करने के लिए अधिक लोगों को सक्षम कर सकती है।
स्थिर मांग बनाकर, यह बाजरा और दालों के प्रति विविधता लाने के लिए किसानों के प्रयासों को भी बढ़ावा दे सकती है।
हालांकि, ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन’ ने 2014 में पीडीएस में बाजरा शामिल करने का प्रयास किया था, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के अलावा, राज्य अभी तक अपने निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अगस्त 2016 की रिपोर्ट में बताया है।
नई दिल्ली की ‘लोक स्वास्थ्य पोषण’ और ‘विकास केंद्र’ की संस्थापक निदेशक और यूनिसेफ इंडिया के साथ एक पूर्व सलाहकार शीला वीर कहती हैं, "नीति निर्माताओं और समुदायों के एजेंडे पर बाजरा की खपत कम है। गेहूं अधिक लोकप्रिय हो गया है क्योंकि यह बनाना आसान है। तुलनात्मक रूप से इसे बनाने में कम समय और ऊर्जा की आवश्यकता होती है अब हमें फिर से बाजरा को लोकप्रिय बनाने के लिए अभियानों की ज़रूरत है।"
पीडीएस के माध्यम से दालों को वितरित करने से गरीब लोगों को बेहतर खाने में मदद मिलेगी। वीर कहती हैं, अभी तक, केवल हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु ही अनाज के वितरण से परे गए हैं। हिमाचल में, परिवारों को गेहूं और चावल के अलावा फलियां, खाद्य तेल और आयोडीन नमक प्राप्त होता है, जबकि तमिलनाडु दालें, खाद्य तेल और चीनी का अतिरिक्त वितरण करती है।
(बाहरी एक स्वतंत्र लेखक और संपादक हैं और राजस्थान के माउंट आबू में रहती हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 11 सितंबर 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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