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मुंबई और बेंगलुरु ( 410 बिलियन डॉलर के संयुक्त जीडीपी के साथ भारत के सबसे धनी दो शहर, नॉर्वे से भी बड़ा ) के छात्र, ग्रामीण इलाकों में अपने समकक्षों से भी बदतर स्कोर करते हुए गणित और भाषा जैसे मुख्य क्षेत्रों में पीछे हो रहे हैं, जैसा कि देशव्यापी स्तर पर कराए गए टेस्ट से पता चलता है।

भारत के तीन सबसे समृद्ध राज्य (महाराष्ट्र प्रथम, दिल्ली दूसरे स्थान पर और कर्नाटक तीसरे स्थान पर) छात्रों को बुनियादी साक्षरता से ज्यादा देने में नाकाम रहे हैं। नए आंकड़ों के हमारे विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि केंद्र की ओर से प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम को कम फंड देना जारी है।

देश में वित्त पोषण में कटौती, सीखने की कमी, बद्तर मूल्यांकन प्रथाओं और शिक्षकों की कमी के कारण शिक्षा परिणामों में गिरावट जारी है, जो भारत के सभी जनसांख्यिकीय लाभांश को कमजोर करते हैं. देश की आबादी में कामकाजी आयु (15 से 64 वर्ष) का हिस्सा बढ़ने से देश की क्षमता बढ़ती है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 30 जनवरी, 2018 की रिपोर्ट में बताया है।

27.9 साल की औसत उम्र के साथ, 15 से 64 वर्षों के कामकाजी आयु वर्ग के अपने 1.3 बिलियन लोगों में से 66 फीसदी के साथ भारत विश्व की सबसे युवा आबादी वाले देशों में से एक है। वैश्विक परामर्श संस्थान ‘बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप’ और ‘इंडस्ट्री बॉडी फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री’ द्वारा मार्च 2017 के अध्ययन के अनुसार, अगले पांच वर्षों में, हर वर्ष 12-15 मिलियन लोग श्रमशक्ति में शामिल हो जाएंगे।

वर्तमान स्तर पर, वैश्विक समुदाय द्वारा निर्धारित 2030 के लक्ष्य से परे (यहां और यहां) भारत 2050 तक सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा, 2060 तक सार्वभौमिक निचले स्तर की माध्यमिक शिक्षा और 2085 में सार्वभौमिक ऊपरी माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करेगा।

नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) द्वारा नवंबर 2017 में किए गए राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (एनएएस) में राष्ट्रीय स्तर पर सीखने के परिणामों और शिक्षा मानकों के माप के रूप में तीन, पांच और आठ कक्षाओं से गणित और भाषा के छात्रों का टेस्ट किया गया।

महाराष्ट्र के 36 जिलों और बेंगलुरु के 34 जिलों में टेस्ट स्कोर के विश्लेषण में हमने पाया कि प्रत्येक राज्य में ग्रामीण और गरीब क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों के छात्रों का प्रदर्शन कमजोर रहा है।

दोनों राज्यों में प्रत्येक कक्षा और विषय में उच्चतम औसत स्कोर बहुसंख्य ग्रामीण केंद्रों में पाए गए हैं, जैसे कि रत्नागिरी और महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग और कर्नाटक के बागलकोट, बेलागावी और चिककोड़ी। उदाहरण के लिए, बैंगलोर में कक्षा आठ में गणित के औसत स्कोर 35 फीसदी था, बेलागवी चिक्कोडी में छात्रों ने 67 फीसदी अंक प्राप्त किये हैं।

कर्नाटक का औसत गणित स्कोर बताता है कि शहरी केंद्र, ग्रामीण केंद्र से बद्तर प्रदर्शन कर रहे हैं

कर्नाटक का औसत भाषा स्कोर दिखाता है कि शहरी केंद्र, ग्रामीण केंद्र से बद्तर प्रदर्शन कर रहे हैं

Source: National Achievement Survey 2017, NCERT

सरकारी या सरकारी सहायता स्कूलों में एनसीईआरटी शिक्षा ने दोनों राज्यों में औसत स्कोर को प्रभावित नहीं किया है। सरकार और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों के लिए प्रत्येक विषय में औसत स्कोर काफी हद तक समान बने रहे और कभी भी पांच प्रतिशत अंक से ज्यादा अंतर नहीं था।

शहरों में रहने से शहरी छात्रों को लाभ नहीं

विभिन्न कारक जैसे कि आर्थिक विकास और शिक्षा केंद्रों तक आसान पहुंच, शहरी छात्रों के लिए लाभप्रद साबित नहीं हुए हैं। शिक्षा अधिकार अधिनियम (आरटीई) के तहत निर्धारित छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर), प्राथमिक स्तर पर 30:1 और उच्च प्राथमिक स्तर पर 35:1, अक्सर शहरी केंद्रों में पार कर जाता है और शहरी छात्रों की बद्तर प्राप्ति के लिए एक कारण हो सकता है।

कक्षाओं में अत्यधिक भीड़ का मतलब है, प्रत्येक बच्चे की विशिष्ट आवश्यकताओं पर कम ध्यान देना, छात्रों की संख्या बढ़ने से विघटन बढ़ता है और सामाजिक गतिशीलता प्रभावित होती है। प्रेमजी फाउंडेशन के एक 2006 के अध्ययन में, जो पीटीआर और सीखने के परिणामों के बीच एक संबंध स्थापित करने का विचार रखता है, कर्नाटक में प्राथमिक विद्यालयों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इष्टतम पीटीआर 10: 1 और 20: 1 के बीच था। हालांकि, उपनगरीय मुंबई में पीटीआर 36:1 है, जैसा कि शिक्षा के लिए जिला सूचना प्रणाली (डीआईएसई) 2015-16 से डेटा उद्धृत करत हुए ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने अक्टूबर 2016 की रिपोर्ट में बताया है। मुंबई के उपनगरों के 18 स्कूलों में 100:1 का पीटीआर भी पाया गया है।

भारत ने माध्यमिक विद्यालयों में पहले से कहीं ज्यादा बच्चों ने दाखिला लिया है, लेकिन विद्यालय उन्हें सिखाने में नाकाम रहा है, जैसा कि यू के के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा वित्त पोषित एक सतत अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में बताया गया है। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने 20 सितंबर, 2017 की रिपोर्ट में बताया है।

प्राथमिक शिक्षा में अधिक कटौती का सामना करने से टेस्ट स्कोर में गिरावट

ऐसे समय में, जब प्राथमिक शिक्षा को धन की कटौती का सामना करना पड़ रहा है, छात्रों का प्राथमिक और उच्च प्राथमिक (कक्षा तीन और पांच) से प्रारंभिक शिक्षा (कक्षा आठ) में जाने से टेस्ट स्कोर में गिरावट होती है, जैसा कि हमारे विश्लेषण से पता चलता है।

महाराष्ट्र में कक्षा तीन के लिए औसत गणित और भाषा स्कोर 65 फीसदी और 71 फीसदी से गिरकर कक्षा आठ में 40 फीसदी और 62 फीसदी तक पहुंचा है। कर्नाटक में भी इसी तरह की तस्वीर है। यहां आंकड़े कक्षा तीन में गणित और भाषा में 74 फीसदी और 76 फीसदी के औसत से गिर कर कक्षा आठ में 50 फीसदी और 62 फीसदी के औसत तक पहुंचा है।

भारतीय सरकार की सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) आरटीई में निर्धारित प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लिए मुख्य वाहन के रूप में नामित किया गया था। फिर भी, इस कार्यक्रम को 2017-18 के केंद्रीय बजट में 23,500 करोड़ रुपये आवंटित किया गया था, जो पिछले साल की तुलना में 1,000 करोड़ रुपये ज्यादा है।

2020 में समाप्त होने वाले एसएसए प्रोग्राम की स्थिति खराब होनी तय है, क्योंकि केंद्र ने एसएसए कार्यक्रम को आवंटन कम कर दिया है। एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार ने इस साल की शुरुआत में न्यूज 18 को एक साक्षात्कार में कहा था कि ऐसा लगता है कि राज्य वित्त संकट को दूर करने में मदद करेगा।

महाराष्ट्र और कर्नाटक वर्तमान में जितना प्राथमिक शिक्षा पर खर्च होना चाहिए, उसका केवल 79 फीसदी और 68 फीसदी खर्च करते हैं। अगर केंद्र एसएसए से ध्यान दूर करती है तो इस बात का अनुमान कठिन है कि किस प्रकार राज्य सरकार केंद्र द्वारा छोड़े गए अंतर को भरती हैं, जबकि उनके पास पहले ही आवश्यकताओं से कम है।

कर्नाटक क्यों बेहतर कर रहा है?

प्रत्येक कक्षा में, महाराष्ट्र के छात्रों के मुकाबले कर्नाटक के छात्रों ने गणित और भाषा में उच्च औसत स्कोर हासिल किया है, जैसा कि हालिया आंकड़े बताते हैं। कर्नाटक में गणित के लिए कक्षा आठ का राज्य औसत 50 फीसदी था, जबकि महाराष्ट्र के लिए यह 40 फीसदी था।

आखिर क्या कारण है कि कर्नाटक के छात्र उच्च स्कोर कर पा रहे हैं?

अगर हम शिक्षा के स्तर और कार्यान्वयन में सफलता के लिए राज्य सरकार की प्रतिबद्धता का प्रतिनिधित्व करने के लिए शिक्षा पर खर्च को देखते हैं, तो ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र राज्य के बजट में शिक्षा का हिस्सा कर्नाटक की तुलना में कम है।

हालांकि, पिछले पांच सालों के आंकड़ों को देखते हुए महाराष्ट्र सरकार शिक्षा पर राज्य के बजट का 17-19 फीसदी के बीच खर्च कर रही है। कर्नाटक का शिक्षा खर्च 2013-14 बजट का 15 फीसदी था जो कम हो कर 2017-18 बजट का 11 फीसदी हो गया है। इसका अर्थ है कि बजट में शिक्षा व्यय के उच्च अनुपात से जरूरी नहीं कि सुधार परिणाम भी बेहतर हो।

राज्य बजट के अनुपात में शिक्षा व्यय

Sources: Detailed Demand for Grants, Maharashtra State Budgets 2012-2018 and Karnataka State Budgets 2012-18

प्रमुख शिक्षा बुनियादी ढांचे के चिन्हक और संसाधनों के अंतराल के खिलाफ राज्यों की तुलना करते समय महाराष्ट्र का कर्नाटक से काफी खराब प्रदर्शन करने का कोई स्पष्ट कारण नहीं है।

दोनों राज्यों में शिक्षकों की तुलनीय कमी है। 2017 के पेपर के अनुसार, कर्नाटक में आवश्यकता की तुलना में 70 फीसदी शिक्षक हैं जबकि महाराष्ट्र में 75 फीसदी शिक्षक हैं। दोनों राज्यों में शिक्षक प्रशिक्षण और शिक्षक वेतन पर उनके शिक्षण बजट का तुलनीय प्रतिशत खर्च होता है। महाराष्ट्र में वेतन पर 72 फीसदी खर्च होता है, और कर्नाटक में 79 फीसदी खर्च होता है, राजस्थान में सबसे ज्यादा 86 फीसदी खर्च होता है। महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों नो, शिक्षक प्रशिक्षण पर शिक्षा बजट का 0.4 फीसदी और 0.5 फीसदी खर्च किया है।

दोनों राज्यों और समान व्यय के आवंटन और समान प्रशिक्षित शिक्षकों (95 फीसदी कर्नाटक में और 99 फीसदी महाराष्ट्र में) के साथ गणित और भाषा में अंतर को कम करने के लिए महाराष्ट्र को अपनी शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

(संघेरा इंटर्न हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़ी हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 14 मार्च 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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