हर दूसरा भारतीय पुलिसवाला मानता है कि मुसलमान स्वभाविक रुप से अपराधी प्रवृति के होते हैं: अध्ययन
नई दिल्ली: हर दूसरे भारतीय पुलिसवाले का मानना है कि ‘मुसलमान स्वाभाविक रुप से अपराधिक प्रवृति’ के होते हैं, जबकि एक-तिहाई ऐसा ही दलितों और आदिवासियों के लिए सोचते हैं। यह जानकारी एक नए सर्वेक्षण में सामने आई है। इसके अलावा 53 फीसदी का मानना है कि अनुसूचित जाति-जनजाति (प्रीवेन्शन ऑफ अट्रासिटी) अधिनियम के तहत दर्ज कि गए मामले ‘गलत और प्रेरित’ होते हैं।
करीब 41 फीसदी पुलिस वालों (पुरुष और महिलाएं) का मानना है कि विभिन्न कारणों से पुलिस बल में महिलाएं पुरुषों के साथ काम नहीं कर सकती हैं।
नई दिल्ली स्थित, एक गैर-लाभकारी संस्था और थिंक-टैंक, कॉमन कॉज और लोकनीति-सेंटर फॉर द स्टडी डेवलपिंग सोसाइटीज, द्वारा आयोजित सर्वेक्षण, 27 अगस्त 2019 को जारी ‘स्टेटस ऑफ पॉल्यूशन इन इंडिया रिपोर्ट 2019’ का हिस्सा था। शोधकर्ताओं ने फरवरी और अप्रैल 2019 के बीच 21 राज्यों में 105 स्थानों पर 11,834 पुलिस कर्मियों का साक्षात्कार लिया।
सर्वेक्षण में पुलिस कर्मियों की राय शामिल की गई है जो पुलिस के बुनियादी ढांचे, कई प्रकार के अपराध और समाज के विभिन्न वर्गों के बारे में उनकी धारणा को सामने लाती है।
सर्वेक्षण में पुलिस कर्मियों से मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों के संबंध में प्रश्न पूछे गए थे: "आपकी राय में, निम्नलिखित समुदायों के लोग किस हद तक स्वाभाविक रूप से अपराध करने की ओर प्रवृत्त होते हैं?" सूचीबद्ध समुदायों में दलित (अनुसूचित जाति या अनुसूचित जातिं , आदिवासी / जनजाति (अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जनजाति) और मुसलमान शामिल थे।
उत्तरदाताओं को दिए गए विकल्प ‘बहुत’, ‘कुछ हद तक’, ‘शायद ही कभी’ और ‘बिल्कुल नहीं’ थे।
पुलिस बल में महिलाओं के सवाल पर, उत्तरदाताओं को तीन बयानों पर प्रतिक्रिया देने के लिए कहा गया था: "पुलिस में होने के लिए जिस शारीरिक शक्ति और आक्रामक व्यवहार की आवश्यकता होती है, क्या महिलाओं में उसकी कमी होती है"; "महिला पुलिस उच्च तीव्रता के अपराधों और मामलों को संभालने में असमर्थ हैं"; " इन्फ्लेक्सबल काम के घंटों के कारण, महिलाओं के लिए पुलिस बल में काम करना ठीक नहीं है क्योंकि वे घरेलू कर्तव्यों में शामिल नहीं हो सकती हैं।"
उत्तरदाताओं को दिए गए विकल्प ‘पूरी तरह से सहमत’, ‘कुछ हद तक सहमत’, ‘पूरी तरह से असहमत’ और ‘कुछ हद तक असहमत’ थे।
सर्वेक्षण के कुछ मुख्य अंश:
- 35 फीसदी पुलिस कर्मियों को लगता है कि "गोहत्या के मामले में अपराधी को दंडित करना भीड़ के लिए स्वाभाविक है", जैसा कि इंडियास्पेंड ने 28 अगस्त, 2019 की रिपोर्ट में बताया है। लगभग 40 फीसदी कर्मियों ने कहा कि इस तरह की हिंसा बच्चे के अपहरण, बलात्कार और एक ड्राइवर की लापरवाही के कारण सड़क दुर्घटनाएं के मामलों में ‘स्वाभाविक’ हैं।
- पांच पुलिस कर्मियों में से एक को लगता है कि खतरनाक अपराधियों को मारना कानूनी मुकदमे से बेहतर है।
- चार में से तीन कर्मियों को लगता है कि पुलिस का अपराधियों के प्रति हिंसक होना उचित है।
- पांच कर्मियों में से चार का मानना है कि पुलिस का अपराधियों से गलती स्वीकार कराने के लिए उन्हें मारना गलत नहीं है।
- 28 फीसदी पुलिस कर्मियों को लगता है कि ‘राजनेताओं का दबाव अपराध जांच में सबसे बड़ी बाधा है’। तीन में से एक ‘अपराध की जांच के दौरान अक्सर राजनीतिक दबाव का अनुभव करता है।’
- हर चौथे पुलिस वाले ने कहा, ‘वरिष्ठ पुलिस कर्मी अपने कनिष्ठों से अपने घर या व्यक्तिगत नौकरी करने के लिए कहते हैं, हालांकि वे ऐसा करने के लिए नहीं होते हैं।’ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के कार्मिक अन्य जाति समूहों की तुलना में इसकी रिपोर्ट करने की अधिक संभावना रखते थे।
- आधे से अधिक कर्मियों (दोनों पुरुषों और महिलाओं) ने कहा कि ‘पुलिस बल में पुरुषों और महिलाओं के साथ पूरी तरह से समान व्यवहार नहीं किया जाता है।’ पुलिस कर्मी औसतन 14 घंटे काम करते हैं, और लगभग 80 फीसदी पुलिस कर्मियों ने कहा कि उन्होंने दिन में 8 घंटे से अधिक काम किया।
14 फीसदी को लगता है कि मुसलमानों ‘अपराध के लिए स्वाभाविक रूप से प्रवण’ हैं
कुल मिलाकर, 14 फीसदी कर्मियों को लगता है कि मुसलमान ‘अपराध करने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रवण’ हैं, जबकि 36 फीसदी ने कहा मुसलमान ‘कुछ हद तक स्वाभाविक रूप से प्रवण’ हैं।
79 फीसदी के आंकड़ों के साथ, उत्तराखंड में पुलिस कर्मियों का प्रतिशत सबसे अधिक था, जो सोचते हैं कि मुसलमान ‘स्वाभाविक रूप से अपराध करने की ओर प्रवृत्त होते हैं।’ 19 फीसदी ने कहा ‘बहुत’, जबकि 60 फीसदी ने ‘कुछ’ कहा। इसके बाद छत्तीसगढ़ (67 फीसदी), झारखंड (66 फीसदी), महाराष्ट्र (65 फीसदी) और बिहार (64 फीसदी) का स्थान रहा है। पंजाब में सबसे कम प्रतिशत (23 फीसदी) था, उसके बाद आंध्र प्रदेश (33 फीसदी), केरल (34 फीसदी) और हिमाचल (37 फीसदी) है।
Source: Status of Policing in India Report 2019
एक-तिहाई का मानना है कि दलित, आदिवासी ‘स्वाभाविक रूप से’ अपराध के लिए प्रवण हैं
21 राज्यों में, 7 फीसदी कर्मियों को लगता है कि दलित ‘स्वाभाविक रूप से अपराध करने की ओर प्रवृत्त’ हैं, जबकि 28 फीसदी ने कहा कि दलित ‘कुछ हद तक प्रवण’ हैं, जैसा कि सर्वेक्षण में पाया गया है।
महाराष्ट्र में कर्मियों का उच्चतम प्रतिशत (60 फीसदी) था, जो सोचते हैं कि दलित ‘स्वाभाविक रूप से अपराध करने की ओर प्रवृत्त हैं। जबकि 10 फीसदी ने ‘बहुत’ कहा, 50 फीसदी का ‘कुछ हद तक’ विकल्प चुना। इसके बाद उत्तराखंड (57 फीसदी) और उत्तर प्रदेश (54 फीसदी) का स्थान रहा है। पश्चिम बंगाल में सबसे कम प्रतिशत (11 फीसदी) देखा गया है, इसके ऊपर केरल (16 फीसदी) और हिमाचल प्रदेश (19 फीसदी) का स्थान रहा है।
Source: Status of Policing in India Report 2019
इसके अलावा, 5 फीसदी कर्मियों को लगता है कि आदिवासी ‘अपराध करने की ओर स्वाभाविक रूप से प्रवण’ हैं, जबकि 26 फीसदी ने कहा कि अनुसूचित जनजाति ‘स्वाभाविक रूप से प्रवण’ हैं।
महाराष्ट्र में ऐसे कर्मियों की सबसे ज्यादा प्रतिशत (53 फीसदी) है जो सोचते हैं कि एसटी अपराध के प्रति "स्वाभाविक रूप से प्रवण" हैं। राजस्थान (49 फीसदी) और उत्तराखंड (42 फीसदी) ने पीछा किया। केरल में सबसे कम प्रतिशत (9 फीसदी), इससे ऊपर पश्चिम बंगाल (11 फीसदी) और हिमाचल प्रदेश (15 फीसदी) का स्थान रहा है।
इसके अलावा, जैसा कि हमने कहा, 53 फीसदी कर्मियों को लगता है कि एससी/एसटी (प्रीवेन्शन ऑफ अट्रासिटी) अधिनियम के तहत दर्ज मामले ‘झूठे और मोटिवेटेड’ हैं। पांच पुलिस कर्मियों में से एक ने कहा कि वे ‘बहुत झूठे और मोटिवेटेड हैं। अध्ययन में कहा गया है कि उच्च जाति के कर्मियों के इस मत के अधिक होने की संभावना है।
सवाल पूछा गया था: ‘एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत शिकायतें किस हद तक झूठे और मोटिवेटेड हैं?’
विकल्प थे: ‘बहुत ज्यादा’, ‘थोड़ा’, ‘थोड़ा कम’ और ‘बिल्कुल नहीं।’
पुलिस बल में विविधता
सर्वेक्षण में पाया गया कि लगभग 41 फीसदी पुलिस कर्मियों ( दोनों पुरुषों और महिलाओं ) में पुलिस में ‘महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह का उच्च स्तर’ था। यह उपरोक्त उल्लिखित तीन कथनों के लिए उनकी प्रतिक्रिया से प्राप्त एक समग्र सूचकांक पर आधारित था।
बिहार (60 फीसदी), कर्नाटक (44 फीसदी), पश्चिम बंगाल (39 फीसदी), तेलंगाना (38 फीसदी) और पंजाब (33 फीसदी) के पुलिस बलों में पुरुषों के उच्च अनुपात ने पुलिस में महिलाओं के खिलाफ ‘उच्च पूर्वाग्रह’ की सूचना दी है। सर्वेक्षण के अनुसार, देश में सबसे खराब लिंगानुपात के लिए बदनाम, हरियाणा ने पुलिस बल में महिलाओं के खिलाफ सबसे कम पक्षपात की सूचना दी है। हरियाणा में 9 फीसदी पुरुषों और 7 फीसदी महिलाओं ने उच्च पक्षपात की बात कही है।
जबकि 41 फीसदी को लगता है कि महिलाओं में नौकरी के लिए आवश्यक ‘शारीरिक शक्ति और आक्रामक व्यवहार’ की कमी है, 32 फीसदी को लगता है कि ‘महिला पुलिस उच्च तीव्रता के अपराधों और मामलों को संभालने में असमर्थ’ हैं, और 51 फीसदी लोग सोचते हैं, ‘काम करने वाले इन्फ्लेक्सबल घंटों के कारण, महिलाओं के लिए पुलिस बल में काम करना ठीक नहीं है, क्योंकि वे घरेलू कामों में शामिल नहीं हो सकती हैं।”
अध्ययन में कहा गया कि 50 फीसदी से अधिक कर्मियों (पुरुषों और महिलाओं दोनों) को लगता है कि पुलिस बल में पुरुषों और महिलाओं के साथ पूरी तरह से समान व्यवहार नहीं किया जाता है। अध्ययन में आगे कहा गया है कि, महिला पुलिसकर्मियों का इनडोर कार्यों में संलग्न होने की संभावना अधिक होती है जिसमें रजिस्टर और डेटा देखना शामिल है। जबकि पुरुष कर्मियों की जांच, गश्त, कानून और व्यवस्था कर्तव्यों सहित क्षेत्र-आधारित कार्यों में शामिल होने की अधिक संभावना होती है।
आधे से कम पुलिस कर्मियों को लगता है कि पुलिस के भीतर एससी और एसटी के साथ अन्य जाति समूहों की तुलना में पूरी तरह से समान व्यवहार किया जाता है। अध्ययन में कहा गया है कि एससी और एसटी कर्मियों में सामान्य धारणा है कि भेदभाव मौजूद है।
(त्रिपाठी प्रमुख संवाददाता हैं और इंडियास्पेंड के साथ जुड़े हैं।)
यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 29 अगस्त 2019 को IndiaSpend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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