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भूमि उपयोग पर दिसंबर, 2016 की राज्य नीति दस्तावेज के अनुसार, शहरीकरण के विस्तार और दोषपूर्ण भूमि उपयोग के कारण कश्मीर अपनी प्रमुख कृषि भूमि और जलमयभूमि क्षेत्र खो रहा है। अनियोजित निर्माण, जिसमें आवासीय कॉलोनियों, कारखानों, ईंट भट्टों, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और अन्य वाणिज्यिक आधारभूत संरचना शामिल हैं, ने राज्य के कृषि संसाधनों और पारिस्थितिकी को गंभीर रूप से क्षति पहुंचाई है, जैसा कि राज्य के राजस्व विभाग द्वारा तैयार एक रिपोर्ट में बताया गया है।

सरकारी आंकड़ों पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए विश्लेषण के अनुसार, कश्मीर सालाना औसत 1,375 हेक्टेयर कृषि भूमि खो रहा है, जो करीब 1,527 फुटबॉल मैदानों के आकार के बराबर है।

राज्य के रिकॉर्ड के अनुसार कश्मीर क्षेत्र में धान की खेती के तहत भूमि वर्ष1996 में 163,000 हेक्टेयर थी, जो घटकर वर्ष 2012 में 141,000 हेक्टेयर रह गई है। आंकड़ों में देखें तो 16 वर्षों में कश्मीर को 22,000 हेक्टेयर कृषि भूमि का नुकसान हुआ है।

कश्मीर में कृषि भूमि का नुकसान

Source: Department of Agriculture (Kashmir), Government of Jammu & Kashmir

पहाड़ों के राज्य में कृषि भूमि की हानि से अनाज की आपूर्ति और खाद्य पदार्थों के मूल्य पर विपरीत असर पड़ा है। मूल्य स्थिरता प्रभावित हुई है। जम्मू और कश्मीर ज्यादातर अन्य राज्यों से अनाज के आयात पर निर्भर हैं और यह निर्भरता प्रतिदिन बढ़ रही है, जैसा कि जम्मू और कश्मीर सरकार के वर्ष 2013-14 के आर्थिक सर्वेक्षण में पता चला है।

यही नहीं, वर्ष 1911 के बाद से श्रीनगर ने 50 फीसदी झीलों को खो दिया गया है, जैसा कि राज्य सरकार के एन्वाइरन्मन्ट, इकॉलजी और रिमोट सेंसिंग के हुमायूं रशीद और गोवर नसीम के एक अध्ययन से पता चलता है।

विशेषज्ञों ने कश्मीर में बड़े पैमाने पर विनाश लाने वाले 2014 के बाढ़ के लिए आवास और अवसंरचना परियोजनाओं के बेतरतीब विकास व्यापक रूप जिम्मेदार को ठहराया था।

September 2014 Floods

सितंबर, 2014 में आधे से अधिक श्रीनगर शहर बाढ़ से तबाह हो गए थे।

धान और मक्का के लिए कम हो गई भूमि

वर्ष 2003 में, कश्मीर में धान की खेती के क्षेत्र में 158,000 हेक्टेयर भूमि थी । यह 2012 में 141,740 हेक्टेयर हुआ है। इसी अवधि के दौरान मक्का की खेती के लिए क्षेत्र में 20 फीसदी की कमी हुई है।

राज्य की राजधानी श्रीनगर से 10 किमी उत्तर में, गंदरबल जिले के एक उपनगर पांडाच में, तीन बुजुर्ग किसान भूखंड पर चर्चा कर रहे थे। यह भूमि एक समय उत्पादक क्षेत्र था, लेकिन अब वहां जल्द ही एक इमारत बनाने की तैयारी हो रही है।

69 वर्षीय सुल्तान मीर एक समय को याद करते हुए बताते हैं कि उनका गांव विशाल धान के खेतों और झीलों से घिरा हुआ था। वह कहते हैं, “अब हर जगह सीमेंट है। हर तरफ घर बन गए हैं। और जो बची हुई भूमि है, वह भी बेची जा रही है।”

श्रीनगर शहर के आसपास के अधिकांश इलाके, जो एक समय में उत्पादक थे, वे अब निर्माण परियोजनाओं द्वारा निगले जा रहे हैं।

शहर के दक्षिणी और उत्तर-पश्चिमी हिस्सों की ओर, हैदरपोरा, रावलपोरा, पीरबाग, अहमद नगर, पांडच, बेहामा, खलमुला, गुलाब बाग, शोहामा और तुलमुल्ला जैसे विशाल आवासीय कॉलोनियों ने उपजाऊ क्षेत्रों की जगह ले ली है। बरामाल्लाह, अनंतनाग और सोपोर जैसे प्रमुख शहरों में भी यही स्थिति है।

घाटी में धान के खेत हैं मत्वपूर्ण

मार्च, 2016 में सरकार को लिखे एक पत्र में कश्मीर के कृषि निदेशक शौकत अहमद बेग ने बताया कि ने बताया कि " कश्मीर में अनौपचारिक भूमि रूपांतरण के कारण कृषि भूमि में काफी कमी आई है।" कृषि विभाग के क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए व्यापक के सर्वेक्षण में सामने आया है।

राज्य के वर्ष 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, जम्मू और कश्मीर में उपज के लिए शुद्ध क्षेत्र इसके भौगोलिक क्षेत्र का केवल 7 फीसदी है। लेकिन राजस्व अभिलेख के मुताबिक इस क्षेत्र का केवल 31 फीसदी कृषि योग्य है। ‘शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रिकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी’ (एसकेयूएएसटी) के कृषि अर्थशास्त्री, सज्जाद हसन बाबा भी यही बात कहते हैं।

वर्ष 2013-14 के आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि राज्य में सभी चीजों का आयात तो बढ़ ही रहा है, उसमें अनाज की मात्रा लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2011-12 के दौरान यह क्रमशः 908.22 और 856.27 हजार मीट्रिक टन रहा है। इसका मतलब यह है कि हर साल आयात 15-20 फीसदी तक बढ़ रहा है।

शहरीकरण के लगातार विस्तार असर भी राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (एसजीडीपी) में कृषि के योगदान में गिरावट में दिखता है। यह वर्ष 2004-05 में 28 फीसदी से घटकर वर्तमान में 17 फीसदी पर आ गया है। कृषि में कार्यरत कर्मचारियों में भारी गिरावट भी आई है। सर्वेक्षण के अनुसार, यह वर्ष1961 के 85 फीसदी से घटकर वर्तमान में 28 फीसदी रह गया है।

श्रीनगर में शहरीकरण के विस्तार से पारिस्थितिकी को क्षति

श्रीनगर और कश्मीर के अन्य प्रमुख शहरों में बड़े पैमाने पर शहरी विस्तार ने पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। रशीद-नसीम के अध्ययन में कहा गया है कि श्रीनगर और इसके उपनगरीय इलाके में पिछली शताब्दी में आधे से ज्यादा जलाशय समाप्त हो गए।

श्रीनगर का आवासीय इलाके का क्षेत्रफल हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ा है। कश्मीर विश्वविद्यालय के भूगोल के विभाग के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक 1901 और 2011 के बीच शहर में आबादी के मामले में 12 गुना और क्षेत्र के मामले में 23 गुना वृद्धि हुई है। एक अंतरराष्ट्रीय विचार मंच ‘सिटी मेयर्स ने एक अन्य रिपोर्ट में श्रीनगर शहर को 2011 में विश्व के 100 सबसे तेजी से बढ़ते शहरी क्षेत्रों में से एक माना है।

शहरी विकास ने क्षेत्र के झीलों और जलाशयों पर भी विपरित असर डाला है। इनके आकार इतने कम हुए हैं कि समाप्त होने की कगार पर हैं। वर्ष1911 में श्रीनगर का जलाशय 13,425.90 हेक्टेयर में था। वर्ष 2004 तक, यह क्षेत्र 6,407.14 हेक्टेयर में सिकुड़ गया था, जैसा कि एक राज्य सर्वेक्षण में पता चला है। इसका मतलब है कि 95 वर्षों में 7,018 हेक्टेयर का नुकसान हुआ है।

झीलों और जलाशयों की स्थानिक सीमा, श्रीनगर 1911- 2014

Source: Study by Humayun Rashid and Gowhar Naseem (Department of Environment, Ecology and Remote Sensing, government of Jammu & Kashmir)

अब रशीद-नसीम के अध्ययन को देखें, "वर्ष 1911 और 2000 के आधार पर दो मानचित्रों के तुलनात्मक परिवर्तन विश्लेषण से पता चलता है कि दुधगंगा और नाला मार के अलवा बातमलू नांबल, रख-ए-गंधकशाह और राखी-ए-अरात और रख-आय-खानखान जैसे जलाशय पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं, जबकि अन्य झीलों और जलाशयों का काफी सिकुड़ने का अनुभव किया गया है। जनसंख्या का भारी दबाव भी पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचा रहा है।

महत्वपूर्ण जलाशयों के क्षेत्रों में हुए बदलाव, श्रीनगर शहर- 1971-2010

Source: SoI Toposheets (1971), LANDSAT-ETM (2010), Urban Sprawl of Srinagar City and its Impact on Wetlands

श्रीनगर के झीलों और जलमार्गों की अतिक्रमण ने बाढ़ के प्रति शहर को बेहद संवेदनशील बनाया है। कश्मीर यूनिवर्सिटी में भूगोल विभाग के प्रमुख मोहम्मद सुल्तान कहते हैं, " झीलों को विखंडित किया गया है और एक दूसरे को जोड़ने वाले वाटर चैनल भर गए हैं। "

श्रीनगर के श्री प्रताप कॉलेज में पर्यावरण विज्ञान के स्नातकोत्तर विभाग के प्रमुख, शाहिद अहमद वानी कहते हैं, " जलाशय सिर्फ बाढ़ के मैदान के रूप में कार्य नहीं करते हैं यह पृथ्वी के गुर्दे के रूप में भी काम करता है।”

इंडियास्पेंड से बात करते हुए वानी ने बताया कि, "गुर्दे के बिना या क्षतिग्रस्त गुर्दे के साथ इंसान की कल्पना कर के देखिए। हमने 2014 के बाढ़ के दौरान श्रीनगर के साथ कुछ ऐसा ही देखा था। तो, हमें अपने शेष झीलों के संरक्षण के लिए उपाय करना शुरू कर देना चाहिए।"

श्रीनगर के झील या तालाब से मछलियां मिलती हैं, चारा मिलता है और पर्यटन में लगे लोगों के जीवन को समर्थन मिलता है। इसके अलावा ये झील लाखों पक्षियों को भी आश्रय देते हैं।

(परवेज स्वतंत्र पत्रकार हैं और श्रीनगर में रहते हैं।)

यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 18 सितंबर 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।

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