नई दिल्ली: कोरोनावायरस और लॉकडाउन के दौरान युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर कई रिपोर्ट्स आईं। लगभग सभी रिपोर्ट्स में एक ही बात निकलकर सामने आई और वो यह कि युवाओं में डिप्रेशन के मामले तेज़ी से बढ़े हैं।

इंडियास्पेंड की टीम जब युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य का जायज़ा लेने के लिए निकली तो हमें नीतू कश्यप (19 साल) के बारे में पता चला। नीतू, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले के बिरौली गांव की रहने वाली है और दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ़ होटल मैनेजमेंट में पढ़ती है। नीतू, लॉकडाउन के दौरान अपने गांव वापस आ गई। कहने को तो नीतू का गांव देश की राजधानी दिल्ली से महज़ 134 किलोमीटर दूर है, मगर यह विकास से कोसों दूर है। नीतू को याद ही नहीं है कि उसके पिता कब से दिल्ली में दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं। घर में नीतू की मम्मी, छोटी बहन और भाभी रहती हैं। छोटा भाई भी पिता के साथ दिल्ली में मज़दूरी करता है। नीतू की मां ने ही नीतू और उसकी बहन को अकेले पाल-पोसकर बड़ा किया है। घर का ख़र्च भी खेतों में मज़दूरी करने वाली नीतू की मां की कमाई से ही चलता है।

“पापा पहले कभी-कभी शहर से 500 रुपए भेज दिया करते थे। मम्मी खेतों में मज़दूरी करती हैं और दिन के 100 से 150 रुपए ही कमा पाती हैं, उसी से घर चलता है” नीतू ने बताया।

नीतू की पढ़ाई-लिखाई एक ऐसे स्कूल में हुई जहां फ़ीस नहीं लगती थी और बच्चों को खाना भी दिया जाता था। नीतू का स्कूल घर से आठ किलोमीटर दूर था। स्कूल में कैरियर काउंसलिंग के लिए वालंटियर्स आते थे। ऐसे ही एक वालंटियर से नीतू को होटल मैनेजमेंट के बारे में पता चला।

“हमारे स्कूल से पढ़ी एक दीदी एक बार आईं और उन्होंने होटल मैनेजमेंट के बारे में बताया। मैंने स्कूल की मदद से मम्मी को मनाया और 1.35 लाख रुपए का लोन लेकर पिछले साल इंस्टीट्यूट ऑफ़ होटल मैनेजमेंट, दिल्ली में दाख़िला लिया,” नीतू ने बताया।

नीतू की दूसरे सेमेस्टर की पढ़ाई चल रही थी कि कोरोनावायरस संक्रमण के बाद हुए लॉकडाउन ने सबकुछ बदल कर रख दिया। कॉलेज बंद हो गया और एक महीने बाद धीरे- धीरे सभी लड़कियों के घर वाले उन्हें पीजी हॉस्टल से ले गए। नीतू को ले जाने वाला कोई नहीं था और हर महीने रहने-खाने का ख़र्च जारी था। 19 मई को वह अपने एक प्रोफ़ेसर की मदद से गांव वापस आई।

घर की माली हालात बेहद ख़राब थी, कॉलेज की पढ़ाई रुक गई थी और सर पर एक बड़ा लोन था। घर में पैसों की इतनी दिक्कत थी कि खाना बचाने के लिए दो दिन तक नीतू, उसकी बहन और भाभी को उपवास रखना पड़ा। घर के काम का बोझ था, पढ़ाई करने का न तो समय था और न ही साधन।

इंटरनेट के ज़रिए जुलाई में दूसरे सेमेस्टर के इम्तेहान हुए। ख़राब नेटवर्क और धीमे इंटरनेट के साथ नीतू ने बड़ी परेशानी के साथ ये इम्तेहान दिए। “एक अगस्त से तीसरी सेमेस्टर की पढ़ाई ऑनलाइन शुरू हो गई है। बीच-बीच में आवाज़ चली जाती है, कुछ भी समझ नहीं आता, पढ़ाई आगे बढ़ती जा रही है पर मैं काफ़ी पीछे हूं, अगर ऐसा ही रहा तो मैं कुछ नहीं सीख पाउंगी,” नीतू ने बताया।

नीतू को ख़बरों से पता चलता रहता है कि पूरे देश में होटल बिज़नेस सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है। उसे डर लगने लगा है कि इन हालात में उसे शायद ही कोई नौकरी मिले। नौकरी नहीं मिली तो लोन कैसे चुकाया जाएगा, उसकी दिल्ली की आज़ाद ख़ुशनुमा ज़िंदगी छिन जाएगी, मां-बाप की मर्ज़ी से जल्दी ही शादी करनी पड़ जाएगी।

ये सब बातें रह-रहकर नीतू के दिमाग़ में आती हैं। घर के हालात ऐसे हैं कि किसी से कुछ कह भी नहीं सकती। “बस नौकरी की चिंता लगी रहती है, ऊपर से घर में पैसों की तंगी, खाने की दिक्कत, घर का काम, ये सब मुझे चिड़चिड़ा बना रहे हैं। एक दिन एक रिश्तेदार ने फ़ोन करके बताया कि होटलों में कोई नौकरी नहीं है, मैं ये जानती थी फिर भी उस दिन पूरे दिन कुछ नहीं खाया गया,” नीतू ने बताया।

आमतौर पर खुश रहने वाली नीतू, आजकल गुमसुम रहती है, किसी से बात करना पसंद नहीं करती। घर में कोई भी ऐसा नहीं है जिससे वो अपनी परेशानी साझा कर सके। “मम्मी वैसे भी परेशान हैं, मैं उनके सामने नहीं दिखाती कि मैं दुखी हूं, अगर उन्होंने मुझे रोते हुए देखा तो वो और परेशान होंगी,” नीतू ने कहा।

नीतू अकेली ऐसी युवा नहीं है जो इस समय चिंता, परेशानी और चिचिड़ापन महसूस कर रही हैं, देश भर में लाखों युवा इस दौरान मानसिक परेशानी के इस दौर से गुज़र रहे हैं।

देश के तीन बड़े राज्यों, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के 15 से 24 साल की उम्र के युवाओं पर हाल ही में हुए एक सर्वे के दौरान 22% युवाओं ने बताया कि वो डिप्रेशन से गुज़र रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान उत्तर प्रदेश में हर चार में से एक युवा डिप्रेशन का शिकार हुआ।

युवाओं की मानसिक परेशानी के सबसे बड़े कारण हैं नौकरी न मिलने की चिंता, नौकरी से निकाल दिए जाने का डर, तनख़्वाह में कटौती, आर्थिक तंगी और पढ़ाई से जुड़ी समस्याएं।

“ये उम्र बदलाव की होती है, हमारे स्कूलों में भी मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया जाता जिसकी वजह से युवाओं में मानसिक रेसीलियंस (कठिनाइयों से बाहर निकलने) की कमी है,” मनोरोग विशेषज्ञ और काउंसलिंग साइकोलोजिस्ट, नेहा यादव ने बताया। नेहा, यूनिसेफ़ के साथ कोविड सोल्जर के तौर पर काम कर रही हैं और उत्तर प्रदेश सरकार की राज्य काउंसलर हैं। उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के दौरान उनके पास मानसिक परेशानी, डिप्रेशन, एंग्ज़ाइटी आदि के युवा मरीज़ बढ़ गए हैं।

युवाओं में चिंता के कारण

“लॉकडाउन के दौरान युवाओं की चिंताएं बढ़ गईं और उनकी ऊर्जा को केंद्रित करने के साधन कम हो गए इस वजह बड़ी संख्या में युवाओं को मानसिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है,” नेहा ने बताया।

लॉकडाउन के दौरान देश के तीन बड़े राज्यों, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर कोरोनावायरस और लॉकडाउन का क्या असर पड़ा है, यह जानने के लिए पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (पीएफ़आई) ने 800 युवाओं पर एक सर्वेक्षण किया, जिसमें 15 से 24 साल की उम्र के 271 लड़के और 530 लड़कियां शामिल थे।

इस सर्वेक्षण में युवाओं ने बताया कि वो पढ़ाई से जुड़ी अनिश्चितता का सामना कर रहे हैं, इनके घर से बाहर निकलने, लोगों से घुलने-मिलने और आज़ादी पर पाबंदियां हैं, घरेलू काम का बोझ बढ़ गया है, घर में झगड़े बढ़ गए हैं लेकिन सबसे बड़ी चिंता नौकरी और रोज़गार से जुड़ी है।

नेहा ने बताया कि डिप्रेशन दो तरह का हो सकता है, क्लीनिकल डिप्रेशन और स्थिति से जुड़ा डिप्रेशन। उन्होंने लॉकडाउन में दोनों तरह के मरीज़ों में इज़ाफा देखा, साथ ही एंग्ज़ाइटी (चिंता), पैनिक डिसऑर्डर (घबराहट) और ओसीडी (कुछ विशेष कामों को बार-बार करना) के मरीज़ों में भी बढ़ोत्तरी हुई। मानसिक तनाव की वजह से बेचैनी, माइग्रेन, मतली या चक्कर आने आदि के भी मरीज़ बढ़ गए हैं।

सर्वे के दौरान इन तीनों राज्यों के युवाओं में से 22% ने बताया कि वो डिप्रेशन से गुज़र रहे हैं। 42% युवाओं ने बताया कि उनका घरेलू काम का बोझ बढ़ गया है, 23% ने बताया कि उन्हें अपने घरों में झगड़े देखने पड़ रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के 26%, बिहार के 23% और राजस्थान के 20% युवाओं ने लॉकडाउन की वजह से डिप्रेशन महसूस करने की बात कही। उत्तर प्रदेश के सबसे ज़्यादा 63%, राजस्थान के 35% और बिहार के 26% युवाओं ने बताया कि उन पर घरेलू कम का बोझ बढ़ गया है। राजस्थान के 33%, बिहार के 23% और उत्तर प्रदेश के 10% युवाओं ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान उनके घरों में झगड़े बढ़ गए हैं।

“बड़ी समस्याओं के बीच युवाओं की बातों को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है, और उन्हें लगता है कि उनकी परेशानी को कोई ज़रूरी नहीं समझता। दुनिया भर की चिंता और अनिश्चितता भी व्यक्तिगत रूप से लोगों को परेशान करती है,” नेहा ने बताया।

युवाओं ने अपनी चिंता का सबसे बड़ा कारण कोविड-19 या लॉकडाउन की वजह से देश की आर्थिक स्थिति में आए बदलाव के कारण नौकरियों की कमी और नौकरी न मिलने की चिंता को बताया। 57% युवाओं ने बताया कि उनकी असली चिंता नौकरी से जुड़ी हैं। 35% ने बताया कि उनके पास नौकरी नहीं है, जबकि 22% ने बताया कि उन्हें डर है कि उन्हें भविष्य में नौकरी नहीं मिलेगी।

जो युवा अच्छी नौकरी मिलने के बारे में चिंतित हैं, उनमें से 63% ने बताया कि वो अभी पढ़ाई कर रहे हैं, 18% ने बताया कि वो कोई नौकरी कर रहे हैं, 16% ने अपने बेरोज़गार होने की बात कही और 4% न कहा कि वो घरेलू कामकाज करते हैं।

“आर्थिक तंगी की वजह से घरवाले भी युवाओं पर नौकरी करने का दबाव बना रहे हैं, ताकि घर में ज़्यादा पैसा आए। जिन युवाओं के प्लान में नौकरी करने के लिए अभी दो-तीन साल का समय था, वो भी अब जल्द-से-जल्द से नौकरी ढूंढने के दबाव में हैं,” उत्तर प्रदेश में किशोरों पर काम करने वाले एनजीओ, वात्सल्य से जुड़ी अंजनी सिंह ने बताया।

“अगर नौकरी है भी, तो उसे खो देने का डर या आस पास लोगों को नौकरियां खोते देख कर परेशान होना भी आम बात है, अक्सर मानसिक तनाव का कारण कोई असल वजह होने की बजाय भविष्य की किसी स्थिति का डर या संभावना भी हो सकता है,” नेहा ने कहा।

अगर यूनिसेफ़ के आंकड़े देखें तो ये चिंताएं कोरी नहीं हैं। यूनिसेफ़ और पॉपुलेशन काउंसिल इंस्टीट्यूट ने 22 मई को बिहार में 794 युवाओं से बात कर ये आंकड़े जारी किए। इन आंकड़ों के अनुसार 80% युवाओं ने सर्वे के दौरान बताया कि उनकी या तो नौकरी जा चुकी है या फिर उनकी आमदनी में भारी कटौती हुई है।

इस सर्वे के दौरान, युवाओं ने बताया कि उनकी हताशा, चिड़चिड़ापन या कुंठा के सबसे बड़े कारण है दोस्तों से बात न कर पाना, इसके बाद है परिवार से आने वाला दबाव, ख़ालीपन, निजता की कमी, स्कूल या कॉलेज बंद होना, पढ़ाई न कर पाना, बाहर न जा पाना, घर में पैसे की कमी और काम का न मिलना।

“इतने बड़े वायरस के बीच ज़िंदा रहना भी परेशानी की एक वजह हो सकती है, दुनिया भर में इतनी मौतों की ख़बर किसी भी व्यक्ति को बिना किसी निजी कारण के भी परेशान कर सकती है,” नेहा ने बताया, उनका एक 17 साल का मरीज़ कोरोनावायरस से इतना डरा हुआ था की वो अपनी रोटियां भी धो कर खा रहा था।

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी शर्म

मानसिक स्वास्थ्य और इससे जुड़ी समस्याएं आज भी एक शर्मनाक बात मानी जाती हैं और लोग इस बारे में खुल कर बात नहीं करते। ख़ासकर, ग्रामीण इलाक़ों में इस पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता।

“शहरी इलाक़ों में भी लोग डॉक्टर के पास छुप कर जाते हैं, ग्रामीण इलाक़ों में जानकारी की कमी है, मानसिक बीमारी को लोग अक्सर कहते है कि हवा लग गई या भूत है, ऐसी कई भ्रांतियां फैली हुई है,” नेहा यादव ने कहा।

बात ना करने की वजह से युवाओं में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी का अभाव है, युवा अगर अपने मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना भी चाहें तो उन्हें क्या करना है, इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

पीएफ़आइ के सर्वेक्षण के दौरान, 55% युवाओं ने बताया कि उनके पास मानसिक स्वास्थ्य और भावनाओं का ख़्याल रखने के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं थी, ये आंकड़ा उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा, 71%, बिहार में 54% और राजस्थान में 45% था।

“सरकार और स्कूल दोनों को ये जानकारी युवाओं तक पहुंचानी चाहिए, आजकल 8-9 साल के बच्चे भी डिप्रेशन से जूझ रहे हैं, इन्हें जानकारी मिलनी ज़रूरी है ताकि इन्हें पता हो कि इसका समाधान हो सकता है, बिना जानकारी के आत्महत्या जैसी घटनाएं देखने को मिलती हैं,” नेहा ने बताया।

“सरकारी व्यवस्था में मानसिक स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं देता, अगर युवा बात करना भी चाहे तो वो कहां जाएगा,” अंजनी ने बताया।

जिन युवाओं को इस बारे में कोई भी जानकारी मिली उन्होंने उसका इस्तेमाल किया। इससे पता चलता है कि अगर स्रोत उपलब्ध हों तो युवा उनका इस्तेमाल भी करेंगे। उत्तर प्रदेश के 70%, राजस्थान के 44%, बिहार के 32% और तीनों राज्यों के 49%, युवाओं ने मानसिक स्वास्थ्य पर उपलब्ध जानकारी का इस्तेमाल करने की बात कही।

जिन्होंने बताया कि उन्होंने इस जानकारी का इस्तेमाल किया, उनमें से 64% ने कहा कि ये उनके लिए मददगार भी साबित हुईं, ये आंकड़ा राजस्थान में 85%, उत्तर प्रदेश में 54% और बिहार में 36% था।

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी के लिए सिर्फ़ 6% युवाओं ने बताया कि उन्होंने किसी शिक्षक से सम्पर्क किया, ये आंकड़ा उत्तर प्रदेश में 3%, बिहार में 0% और राजस्थान में 11% था। “ये दर्शाता है कि शैक्षिक व्यवस्था की भूमिका कितनी ख़राब रही है और स्कूल, अपने छात्रों तक पहुंचने में कितने असफ़ल रहे,” पॉपुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया की एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर, पूनम मुटरेजा ने बताया।

किशोरियों के मानसिक स्वास्थ्य पर ज़्यादा प्रभाव

“लॉकडाउन के दौरान लड़कियों को कहीं ज़्यादा समस्याएं झेलनी पड़ी,” अंजनी ने बताया। उन्होंने कहा कि लड़कियों को सेनेटरी पैड ना होने की वजह से माहवारी से जुड़ी शर्म का ज़्यादा सामना करना पड़ा। लड़कियों पर आम दिनों में भी घर से बाहर जाने पर रोक-टोक होती है, लॉकडाउन में ये और भी बढ़ गई। स्कूल में लड़कियां अपने दोस्तों से मिलती हैं, बातचीत करती हैं, फ़िलहाल ये भी बंद है।

लड़कियों में लड़कों के मुक़ाबले डिप्रेशन होने की संभावना ज़्यादा है, जबकि लड़कों में नशीले पदार्थों का सेवन करने की प्रवृत्ति ज़्यादा है, ऐसा उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रोजेक्ट उदय द्वारा इकट्ठे किए गए किशोर और किशोरियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों में सामने आया है। रिपोर्ट के अनुसार लड़कों और 10 से 14 साल तक की उम्र की लड़कियों में मध्यम और गंभीर डिप्रेशन के लक्षण 0 से 2% तक दिखाई दिए, जबकि बड़ी लड़कियों में 5 से 9% डिप्रेशन से जुड़ी मानसिक बीमारियों के लक्षण देखे गए। डिप्रेशन के सबसे ज़्यादा लक्षण शादीशुदा किशोरियों में देखे गए।

बड़ी उम्र के 20 से 22% लड़कों में तंबाकू खाने की आदत देखी गई, जबकि ये आदत छोटे लड़कों में 4 से 5% और बड़ी लड़कियों में 1 से 5% देखी गई। 7 से 8% बड़े लड़कों और 0 से 2% छोटे लड़कों और किशोरियों में शराब पीने की लत देखी गई। इन आंकड़ों में शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में अंतर, न के बराबर था।

13 साल की उम्र से ऊपर के किशोरों और किशोरियों से जब पूछा गया कि क्या उन्होंने पिछले 12 महीने में आत्महत्या के बारे में सोचा है, तो 15 से 19 साल की शादीशुदा लड़कियों में से 7% ने बिहार में और 9% ने उत्तर प्रदेश में इसका जवाब, हां में दिया।

“लड़कियों पर स्कूल छोड़ने या जल्दी शादी करने का दबाव भी काफ़ी ज़्यादा है, बारात का ख़र्च बचाने के लिए लोग जल्दबाज़ी में कोरनावायरस महामारी के दौरान अपनी लड़कियों की शादी कर रहे हैं,” अंजनी ने बताया। उन्होंने कहा कि जिन लड़कियों के साथ ऐसा उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हो रहा है वो मानसिक रूप से काफ़ी परेशान हैं, पर उनके पास बात करने के लिए कोई नहीं है।

पीएफ़आई के सर्वेक्षण के अनुसार भी लड़कियों ने कहा कि उन पर घरेलू काम का बोझ ज़्यादा है और उन्होंने घर में ज़्यादा झगड़ों का सामना भी किया। सिर्फ़ इन आंकड़ो में नहीं बल्कि इस से जुड़े आंकड़ो में भी लड़कियों की बदतर स्थिति सामने आई है, जैसे लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों के टीवी देखने और सोशल मीडिया के इस्तेमाल के समय में ज़्यादा कमी आई। रिपोर्ट के अनुसार इसका एक कारण घरेलू काम के बोझ की वजह से ख़ाली समय का कम हो जाना भी हो सकता है।

उत्तर प्रदेश में लड़कों से ज़्यादा लड़कियों ने मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं का इस्तेमाल किया। ये दर्शाता है कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं बढ़ाने की ज़रूरत तो है ही, पर इन्हें ख़ासकर महिलाओं तक भी पहुंचाना बहुत ज़रूरी है।

“सरकार हर काम के लिए आशा वर्कर या आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का नाम लेती है, एक आशा सारे काम कैसे कर सकती है, वो डॉक्टर का भी काम करे, काउंसलर का भी काम करे, ऐसा नहीं हो सकता,” अंजनी ने बताया। उन्होंने कहा कि सिर्फ़ ज़िला अस्पताल में एक काउंसलर बैठता है, कोई भी किशोर इतनी दूर बिना किसी बीमारी के लिए क्यों जाएगा।

मानसिक स्वास्थ्य बेहतर करने के लिए सुझाव

अंजनी ने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 25 ज़िलों में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत हर सीएचसी में किशोर स्वास्थ्य क्लीनिक बनाकर एक काउंसलर बैठाना शुरू किया था जिन्होंने गावों में पीयर एजुकेटर भी बनाए थे। इसके अलावा यूपी के सभी 75 ज़िलों में दो काउंसलर तैनात किए गए थे, पर लॉकडाउन में ये सब भी बंद था, “ज़रूरत है कि इस कार्यक्रम पर ठीक से काम किया जाए और काउंसलर हर समय उपलब्ध हो, साथ ही इसे सिर्फ़ 25 ज़िलों तक सीमित ना रखते हुए पूरे राज्य में लागू किया जाए,” अंजनी ने कहा।

इन किशोर स्वास्थ्य क्लीनिकों का मक़सद ही किशोरों को ऐसा माहौल देने का है जहां ये खुल कर अपनी निजी समस्याओं के बारे में बात कर सके इंडियास्पेंड में 28 अगस्त को छपी हमारी रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर किशोरों/किशोरियों को इन क्लीनिकों का कोई अता-पता नहीं है।

इंडियास्पेंड की टीम ने 22 अगस्त को सुबह से लेकर दिन के 2 बजे तक, बाराबंकी के चार किशोर स्वास्थ्य क्लीनिकों का दौरा किया। जिसमें से दो बंद मिले, एक क्लीनिक ढूंढने से भी नहीं मिला और एक क्लीनिक को शिफ़्ट कर दिया गया था।

डॉक्टर नेहा यादव ने युवाओं में मानसिक समस्याओं से निपटने के लिए कई समाधान बताए। उन्होंने कहा कि स्कूल की पढ़ाई में मानसिक स्वास्थ्य को शामिल करना बेहद महत्वपूर्ण हैं साथ ही सरकार को भी इस पर काम करना होगा, ”स्वास्थ्य बजट का एक बहुत ही छोटा हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य पर ख़र्च होता है, जागरूकता फैलाने के लिए ख़र्च करना बहुत ज़रूरी है,” नेहा ने कहा, हिंदी और अन्य भाषाओं में सरल तरह से ये जानकारी उपलब्ध करानी होगी। आपात प्रबंधन और पुनर्वास के प्लान में मानसिक स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, राहत और बचाव टीमों में मनोरोग विशेषज्ञ का होना ज़रूरी है।

नेहा ने बताया कि अगर कोई तीन हफ़्ते तक व्यवहार में बदलाव, भूख में अंतर, अकेले रहना, नकारात्मक ख़्याल, नींद आने में तकलीफ़, पाचन संबंधी समस्याओं का सामना कर रहा है तो ये चिंता का विषय है और किसी मनोरोग विशेषज्ञ के पास जाना ज़रूरी है। इंटरनेट पर सरकारी वेबसाइट पर जानकारी ली जा सकती है, कई हेल्पलाइन नंबर भी उपलब्ध है, जैसे कोरोना एंग्ज़ाइयटी के लिए उत्तर प्रदेश में 1070 है।

“सबसे ज़रूरी है किसी से बात करना और अपने दिल का गुबार लिख कर या बात कर के निकालना। जैसे फ़र्स्ट एड के लिए डॉक्टर की ज़रूरत नहीं होती ऐसे ही साइकोलॉजिकल फ़र्स्ट एड भी हर व्यक्ति कर सकता है, जिससे किसी की जान बच सकती है,” नेहा ने कहा।

(साधिका, इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सिपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं।)

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दिल्ली राज्य कोरोनावायरस मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन : 1800 111 647

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