नई दिल्ली: देश में लाखों सफ़ाई कर्मचारी अपनी जान और अपनी सेहत ख़तरे में डालकर अपना काम करते हैं। इसी वजह से भारत में हर पांच दिन में तीन सफ़ाई कर्मचारियों की मौत हो जाती है। इसके बाद भी सरकार का ध्यान इन मौतों पर नहीं है। मेनुअल स्कैवेंजिंग यानी हाथ से मैला साफ़ करने के ख़िलाफ़ अदालतों के फ़ैसले आए, कई क़ानून बने और उनमें संशोधन हुए, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। ये आज भी वो काम कर रहे हैं जिसे क़ानूनी रूप से मानवता पर कलंक माना गया है।

ज़ोर-शोर से शुरु हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोेदी के महत्वाकांक्षी, स्वच्छ भारत अभियान के तहत बनाए जाने वाले शौचालय भी सिर्फ़ इन सफ़ाई कर्मचारियों की मुश्किलों को आने वाले समय में और बढ़ाने वाले हैं। ये अभियान भारत में मेनुअल स्कैवेंजिंग को बढ़ावा दे रहा है। इस बारे में हम आपको विस्तार से आगे बताएंगे।

कई सफ़ाई कर्मचारियों की काम के दौरान ही मौत हो जाती है, 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में निर्देश दिया था, जिसके अनुसार 1993 से अब तक, जितने भी सफ़ाई कर्मचारियों की मौत काम के दौरान हुई है, राज्य सरकारें उनकी पहचान करेंगी और उनके परिवारों को 10-10 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी कमीशन ने सभी राज्य सरकारों से आंकड़े मांगे। इनमें कर्मचारी का नाम, उसकी मौत की जगह और समय, दिए गए मुआवज़े की राशि और मुआवज़े का तरीक़ा पूछा गया। कमीशन के बार-बार याद दिलाने के बाद भी राज्य सरकारों ने पूरे आंकड़े अभी तक नहीं दिए हैं।

द वायर में 18 नवंबर, 2019 को छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सिर्फ़ 20 राज्यों ने ही कुछ आंकड़े साझा किए हैं, बाक़ी राज्यों ने वो भी नहीं किया है और जिन परिवारों को मुआवज़ा दिया गया उसकी राशि भी 10 लाख रुपये प्रति परिवार से कम है।

विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ), अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर संगठन (आईएलओ), वर्ल्ड बैंक और वाटर एड की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत में स्वास्थ कर्मचारी समाज के सबसे निचले और ग़रीब सदस्य होते हैं। इनके साथ भेदभाव किया जाता है और इन्हें अपना काम बिना औज़ारों और सुरक्षा उपकरणों के करना पड़ता है। इन्हें इनके क़ानूनी अधिकारों से वंचित रखा जाता है। इनकी गरिमा और इनके मनवाधिकरों का अक्सर उल्लंघन किया जाता है।

वाटर एड इंडिया के पॉलिसी हेड रमन वी आर कहते हैं, “कड़वी सच्चाई ये है कि आज भी सदियों पुरानी जाति प्रथा, सफ़ाई कर्मचारियों की क़िस्मत तय करती है। नतीजे के तौर पर, भारत की सबसे पिछड़ी जातियों के समुदायों पर ये काम करने का दबाव है, जो ना सिर्फ़ ख़तरनाक है और कलंकित है बल्कि इन्हें मेहनताना भी कम मिलता है।”

सफ़ाई कर्मचारी कई तरह के काम करते हैं जिनमे शौचालय और सार्वजनिक स्थलों की सफ़ाई, अलग-अलग तरह के कचरे को छांटना, शौचालय की सीट और और सेप्टिक टैंक (शौचालय के नीचे बने मल-मूत्र जमा करने वाले गड्ढे) को ख़ाली करना, सीवर और मैनहोल का रखरखाव और सफ़ाई और पम्पिंग स्टेशन और ट्रीटमेंट प्लांट चलाना आदि शामिल हैं।

भारत में, सिर्फ़ शहरी इलाकों में ही 50 लाख सफ़ाई कर्मचारी काम करते हैं, इनमे से कुछ सीवर साफ़ करते हैं, कुछ शौचालय साफ़ करते हैं, कुछ मल निकालते हैं और उसका निपटान करते हैं, कुछ रेलवे स्टेशन, गाड़ियों और पटरियों की सफ़ाई करते हैं, कुछ नाले साफ़ करते हैं कुछ घरों में काम करते हैं आदि।

काम करने के लिए इन्हें अक्सर ना तो कोई औज़ार दिया जाता है और ना ही सुरक्षा के लिए कुछ पहनने को मिलता है। ग्रेटर मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (MCMG) के कर्मचारियों पर किए गए, टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइन्सेज़ (TISS) के एक शोध के अनुसार 69% कर्मचारियों को सुरक्षा उपकरण दिए गए, जिसमें मास्क और दस्ताने शामिल थे। पर इनके घटिया क्वालिटी के होने और इस्तेमाल करने में मुश्किल आने की वजह से ज़्यादातर कर्मचारियों ने इनका इस्तेमाल नहीं किया।

सेप्टिक टैंक और सीवर में ज़हरीली गैसें जैसे अमोनिया, कार्बन मोनोऑक्सायड और सल्फ़र डाईऑक्सायड होती है, जिनके साथ ये कर्मचारी सीधे सम्पर्क में होने से अक्सर बेहोश हो जाते हैं और इनकी मौत तक हो जाती है।

आंकड़ों के अनुसार भारत में हर पांच दिन में तीन सफ़ाई कर्मचारियों की मौत हो जाती है। बड़ी संख्या में इन्हें बार-बार इन्फ़ेक्शन या संक्रमण होते हैं और चोट लगती रहती है। इसके साथ ही इन्हें सांस की तकलीफ़, त्वचा, लेपटोस्पिरोसिस (leptospirosis) और दिल से जुड़ी बीमारियों की शिकायत होती है।

साल 2005 में दिल्ली के 200 सफ़ाई कर्मचारियों पर हुए, सेंटर फ़ॉर एजुकेशन एंड कम्युनिकेशन के शोध में ये पाया गया कि बहुत ही कम सफ़ाई कर्मचारी 60 की उम्र पार कर पाते हैं। 50 की उम्र के बाद सफ़ाई कर्मचारियों की संख्या घटने लगती है-- यानी इनका अनुमानित जीवनकाल कम हो जाता है।

सिर्फ़ सफ़ाई कर्मचारी ही नहीं, इनके परिवार भी दुर्दशा का शिकार होते हैं, इस काम से जुड़े कलंक और जान पर लगातार बने ख़तरे की वजह से।

58 साल की सफ़ाई कर्मचारी, मीना देवी, बिहार के रोहतास ज़िले के डेहरी में सूखा शौचालय साफ़ करती हैं, इनकी सास भी सूखे शौचालय साफ़ करती थी और उनकी मृत्यु भी शौचालय साफ़ करते हुए हुई। वो बताती हैं, ”पहले मुझे घुटन होती थी, मैं ये काम करने के लिए तैयार नहीं थी और मुझे शर्म भी आती थी। पर अब बदबू की आदत हो गयी है, ग़रीबी में कोई विकल्प भी तो नहीं होता।” मीना को अगर आज कोई भी दूसरा काम या नौकरी दे दी जाए तो वो तुरंत ये काम बंद कर देंगी।

स्वच्छ भारत मिशन

ऐसे में जब देश में मेनुअल स्कैवेंजिंग का काम पूरी तरह से बंद होना चाहिए, सरकार की महत्वाकांक्षी योजना, स्वच्छ भारत मिशन की वजह से इसके बढ़ने के आसार हो गए हैं। सरकार का दावा है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत, देश में 9.5 करोड़ शौचालय बनाए गए हैं और देश के 93.1% घरों के पास शौचालय उपलब्ध हैं। इन सभी शौचालयों से जुड़े गड्ढों और सेप्टिक टैंक को समय-समय पर ख़ाली करने की ज़रूरत पड़ती है और मल और संबंधित पदार्थों का ऑफ़साइट ट्रीटमेंट किया जाता है। सवाल ये है कि इन टैंक्स की सफ़ाई और उन्हें ख़ाली करने का काम कैसे होगा।

रिपोर्ट के अनुसार सफ़ाई कर्मचारियों के लिए काम कर रहे संगठनों का ये मानना है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत इस तरह के शौचालयों का बड़ी संख्या में बनना सफ़ाई कर्मचारियों के लिए बुरी ख़बर है और ये देश में, ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में मेनुअल स्कैवेंजिंग को और बढ़ावा देगा। सफ़ाई की सही प्रणाली और टैंक को ख़ाली करने और साफ़ करने के लिए मशीनों की कमी की वजह से सफ़ाई कर्मचारियों का काम और बढ़ जाएगा।

मेनुअल स्कैवेंजिंग पर काम करने वाले डॉक्युमेंटरी फ़ोटॉग्रफ़र, पद्मश्री सुधारक ओलवे ने इंडियास्पेंड से कहा, “ये एक विडम्बना है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत कम समय में बहुत सारे शौचालय बनवा दिए गए, बिना ये सोचे कि ये अमानवीय मैन्यूअल स्कैवेंजिंग को कितना बढ़ावा देगा”, उन्होंने बताया कि देशभर में अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने देखा कि मेनुअल स्कैवेंजर्स स्वच्छ भारत मिशन के तहत बने शौचालयों की सफ़ाई कर रहे हैं”।

ओलवे ने कहा, समस्या सिर्फ़ ग्रामीण इलाक़ों तक ही सीमित नहीं रहेगी, “टीयर-2 शहरों में भी सही मशीनें उपलब्ध नहीं हैं, ज़्यादातर शौचालय नालों में ख़ाली होते हैं। हमने शौचालय तो बना दिए, पर नाले और टैंक हाथ से ही साफ़ किए जाते हैं।”

“स्वच्छ भारत मिशन के तहत बने शौचालयों को साफ़ करने के लिए हमें मेनुअल स्कैवेंजर्स की एक नई पीढ़ी तैयार करने की कोई ज़रूरत नहीं है।”

पेयजल और स्वच्छता विभाग के सचिव परमेश्वरन अय्यर ने 2018 में इंडियास्पेंड को दिए एक इंटरव्यू में दावा किया था कि केंद्र सरकार ‘ट्विन पिट’ टेकनॉलोजी को बढ़ावा दे रही है जिससे मल इत्यादि की सफ़ाई में इंसानों के ज़रिये पूरी तरह बंद हो जाएगी।

सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के संयोजक बेज़वाडा विल्सन ने 13 अक्टूबर 2019 को इंडियास्पेंड से बातचीत में कहा कि देश के 85% शौचालय ट्विन पिट नहीं हैं। लेकिन अगर जो ट्विन पिट हैं भी तब भी वो भारतीय हालात में ठीक तरह से काम नहीं करते हैं। उन्होंने कहा कि सीवेज सिस्टम के आधुनिकीकरण से ही इस समस्या का कुछ समाधान निकल सकता है।

सफ़ाई कर्मचारियों की अंतर्राष्ट्रीय तस्वीर

हर साल दुनिया भर में लोग क़रीब 350 मिलियन टन मल पैदा करते हैं, इस मल का सही और सुरक्षित निपटान ज़रूरी है, नहीं तो ये स्वास्थ के लिए एक बड़ा ख़तरा बन सकता है।

दुनिया की सिर्फ़ 45% आबादी के पास ही निजी शौचालय उपलब्ध है जहाँ अपशिष्ट (वेस्ट) के सुरक्षित निपटान की व्यवस्था है। दो बिलियन लोगों के पास आज भी बेसिक सेनिटेशन की सुविधा उपलब्ध नहीं है और ये लोग खुले में शौच करते हैं, गड्ढों का इस्तेमाल करते हैं जो नदियों में जा कर मिलते हैं या एक ही शौचालय पर कई सारे घर निर्भर होते हैं।

साल 2000 से 2017 के बीच 2.1 बिलियन लोगों को साफ़-सफ़ाई की एक मूलभूत व्यवस्था मिल पाई। इसके बाद दुनियाभर में खुले में शौच करने वाले लोगों संख्या आधी रह गयी। हालांकि ये आंकडे सुधर रहे हैं पर सुधार की ये दर काफ़ी नहीं है। इसी स्तर पर अगर काम चलता रहा तो साल 2403 तक भी उप-सहारा अफ़्रीका में सबके पास सुरक्षित सेनिटेशन नहीं होगा। सुधार की इस दर को तेज़ी से बढ़ाने की ज़रूरत है।

स्वच्छता के मामले में दुनिया के सबसे पिछड़े देशों के आंकड़ों को देखें तो भारत की हालत कई पैमानों पर ख़राब है। इन देशों में बांग्लादेश, बोलिविया, बुरकीना फ़ासो, हेती, केन्या, सेनेगॉल, साउथ अफ़्रीका, युगांडा और भारत शामिल हैं।

भारत में हाथ से manual sanitation के काम को सरकारी नीतियों में भी नहीं माना जाता है, जबकि बांग्लादेश और साउथ अफ़्रीका में ऐसा होता है।

भारत में ठेके के सफ़ाई कर्मचारियों को क़ानूनी सुरक्षा नहीं मिलती है, जबकि साउथ अफ़्रीका में ऐसा होता है।

भारत में सफ़ाई के काम से जुड़े निर्धारित के दिशा-निर्देश और कार्यप्रणाली के बारी में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है जबकि साउथ अफ़्रीका में ये मौजूद है और बांग्लादेश, बोलिविया, हेती और केन्या में ये सीमित रूप से मौजूद हैं।

हालांकि अन्य देशों के मुक़ाबले कई पैमानों पर भारत बेहतर है। भारत में सफ़ाई कर्मचारियों के काम से जुड़े स्वास्थ्य पर होने वाले दुष्प्रभावों के लिए क़ानूनी सुरक्षा का प्रावधान है, सफ़ाई कर्मचारियों की नौकरी में स्वास्थ्य के ख़तरों के बारे में ट्रेनिंग दी जाती है, सफ़ाई कर्मचारियों की यूनियन है, इनके अधिकारों और हक़ों के लिए अभियान चलते हैं और इनके स्वास्थ की रक्षा की जाती है (ये सिर्फ़ औपचारिक कर्मचारियों के लिए ही मान्य हैं, भारत में ज़्यादातर सफ़ाई कर्मचारी अनौपचारिक तौर पर काम करते हैं।)

Source: Health, Safety and Dignity of Sanitation Workers

सफ़ाई कर्मचारियों से जुड़े आंकड़ों की कमी

इस रिपोर्ट के अनुसार देश के सफ़ाई कर्मचारियों की सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वो ‘सरकार की गिनती में वो शामिल भी नहीं है’। सरकार के पास देश के सफ़ाई कर्मचारियों से जुड़े सही आंकड़े भी मौजूद नहीं हैं, इसके साथ ही इनकी मौत के आंकड़े भी ग़ायब हैं।

सफ़ाई कर्मचारियों के राष्ट्रीय आयोग (NCSK) ने जुलाई 2019 में मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से कहा था कि इस साल के पहले 6 महीने में ही सीवर साफ़ करते हुए 50 सफ़ाई कर्मचारियों की मौत हो चुकी है। NCSK के ही अनुसार साल 2017-18 में औसतन हर पांच दिन में एक सफ़ाई कर्मचारी की मौत हुई, जबकि अन्य सूत्रों के अनुसार ये आंकड़ा हर पांच दिन में तीन मौतों का है।

सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन जैसे कई संगठनों के अनुसार सरकार ने सफ़ाई कर्मचारियों की गिनती में कई लोगों को अस्थाई, ठेके पर काम करने वाले और प्रवासी होने की वजह से शामिल नहीं किया है।

भारत में सफ़ाई कर्मचारियों से जुड़े क़ानून

भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग पर सबसे पहले 1993 में पाबंदी लगाई गई जब मैनुअल स्कैवेंजर्स के रोज़गार और सूखे शौचालय निर्माण (निषेध) अधिनियम को लागू किया गया। इस क़ानून के तहत मैन्यूअल स्कैवेंजिंग के काम को ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया गया और हाथ से मैला साफ़ करने या ढोने पर प्रतिबंध लगाया गया। साथ ही सूखे शौचालयों के निर्माण पर भी रोक लगा दी गई।

इसके बाद 2013 में मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम (PEMSR) आया जिसने पुराने क़ानून की जगह ले ली। इस क़ानून ने मैन्यूअल स्कैवेंजर्स की परिभाषा को विस्तृत कर इसमें सफ़ाई के ज़्यादातर ख़तरनाक काम शामिल किए। इसके साथ ही राज्य सरकारों को मैन्यूअल स्कैवेंजर्स और उनके परिवारों के पुनर्स्थापन की ज़िम्मेदारी दी गई।

इसके बाद 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मैन्यूअल स्कैवेंजिंग अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के ख़िलाफ़ है और PEMSR 2013 को सही तरह से लागू करने पर और ज़ोर डाला।

महत्वपूर्ण आंकड़े

सफ़ाई कर्मचारियों के अधिकारों से जुड़े एक प्रोजेक्ट के तहत एसोसिएशन फ़ॉर रुरल एंड अर्बन नीडी, सेंटर फ़ॉर एक्वटी स्टडीज़, यूरोपीयन कमीशन और वाटर एड ने मिलकर एक शोध किया, जिसमें कई आंकड़े सामने निकल कर आए। ये शोध चार राज्यों के 12 ज़िलों के 36 इलाक़ों में किया गया।

चारों राज्यों की सरकारों ने मैन्यूअल स्कैवेंजर्स और सूखे शौचालयों के होने से इंकार किया, जबकि शोध में इन सभी इलाकों में दोनो ही पाए गए।

PESMR 2013 को किसी भी राज्य में ठीक तरह से लागू नहीं किया गया और इसके उल्लंघन के मामलों में भी सख़्त क़दम नहीं उठाए गए।

शोध किए गए इलाक़ों में 1,686 सफ़ाई कर्मचारी कार्यरत थे और अलग-अलग तरह का मैन्यूअल स्कैवेंजिंग का काम कर रहे थे। इनमें से 423 सेप्टिक टैंक साफ़ करने वाले, 286 खुले नाले साफ़ करने वाले और 956 सूखे शौचालय साफ़ करने वाले थे। इन 956 में 92.35% महिलाएं थी।

सिर्फ़ 26% सफ़ाई कर्मचारियों को 2013 के PEMSR की जानकारी थी और सिर्फ़ 20% ये जानते थे कि मैन्यूअल स्कैवेंजिंग पर क़ानूनी पाबंदी लगी है।

36% सफ़ाई कर्मचारियों को हिंसा का सामना करना पड़ा था और 50% छुआछूत का शिकार हुए। सफ़ाई कर्मचारियों की सरकारी योजनाओं तक सीमित पहुँच है और ये सरकारी फ़ायदों जैसे पुनर्स्थापन, वैकल्पिक रोज़गार और बच्चों की पढ़ाई के प्रावधानों से भी दूर हैं।

शोध ये भी कहता है कि साथ ही सफ़ाई कर्मचारियों के पुनर्स्थापन के बाद स्वरोज़गार की योजना के लिए सरकारी बजट 2013-14 से 2018-19 तक लगातार घटा है और इस बजट को भी न ही ठीक तरह से और न ही अच्छी तरह से ख़र्च किया जाता है।

(साधिका इंडियास्पेंड के साथ प्रिन्सीपल कॉरेस्पॉंडेंट हैं)

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