नया टोली, रांका ब्लॉकः झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 200 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में, गढ़वा जिले के नया टोली नाम का छोटा सा गांव। इस गांव के लोगों को एक सुबह अचानक पता चला कि उनकी 108 एकड़ की ज़मीन अब उनकी नहीं रही। एक ही रात में इस गांव के लोग भूमिहीन हो गए। नया टोली गांव के किसान मुकेश कुजुर और अन्य ग्रामीण तब से झारखंड सरकार के खिलाफ़ हैं, जब उन्हें ये पता चला कि राज्य के डिजिटल रिकॉर्ड में उनकी ज़मीन अब पिछले मालिक के नाम ट्रांसफ़र हो चुकी है। ये ज़मीन उन्होंने चार दशक पहले ख़रीदी थी। कुजुर ने कहा, “हर कोई इसी बारे में सोच रहा है कि हम इस समस्या से कैसे निकलें?”

ये तस्वीर सिर्फ़ नया टोली गांव की नहीं है। झारखंड के कई इलाक़ों में लोगों को पता चल रहा है कि उनकी ज़मीन पर अब उनका मालिकाना हक़ नहीं रहा या उनके मालिकाना हक़ वाली ज़मीन छोटी हो गई है। झारखंड के लैंड रिकॉर्ड डिपार्टमेंट के अधिकारियों का कहना है कि ये ग़लतियां एक महत्वपूर्ण सुधार कार्यक्रम के चलते हुई हैं।

मुख्यमंत्री रघुबर दास के कार्यकाल में ज़मीन से संबंधित मुद्दों के कारण कई आंदोलन और राजनीतिक अभियान चले हैं, अब वे अपने दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव मैदान में हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य में पिछले सप्ताह प्रचार के दौरान राज्य सरकार के ख़िलाफ़ पनप रहे माहौल को कुछ कम करने की कोशिश की थी। मोदी ने नया टोली से लगभग 50 किलोमीटर दूर डाल्टनगंज में एक रैली में कहा था, “भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) आपके जल, जंगल और ज़मीन के अधिकार के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है।”

ज़मीन से जुड़े मामलों को चुनावी मुद्दा बनाने वाली पार्टियों में बीजेपी अकेली नहीं है। विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कर रहे झारखंड मुक्ति मोर्चा ने कहा है कि वह एक “ज़मीन का अधिकार” क़ानून लाएगा जिससे भूमिहीनों को ज़मीन मिलना सुनिश्चित होगा। पार्टी ने ये भी वादा किया कि निजी कंपनियों के लिए खेती की ज़मीन का अधिग्रहण नहीं होने दिया जाएगा। कांग्रेस ने भी वादा किया है कि जो ज़मीन अधिग्रहित होने के बाद भी पांच साल से ज़्यादा वक़्त से खाली पड़ी है, उसे आदिवासियों को लौटा दिया जाएगा।

आदिवासियों के डर के पीछे राज्य सरकार का इतिहास है

नया टोली के ग्रामीणों के डर को समझने के लिए, झारखंड में ज़मीन से जुड़ी पेंचीदगियां समझने की ज़रूरत है। राज्य की 3.29 करोड़ की आबादी में 26.3% आदिवासी हैं। इनमें से आधे (50.4%) खेती पर निर्भर हैं। झारखंड स्टेट मिनरल कॉरपोरेशन की वेबसाइट के मुताबिक़, राज्य की ज़मीन खनिज संसाधनों से भरपूर है। कोयले से बॉक्साइट तक देश के खनिज भंडार का 40% इसी राज्य में है।

जनवरी 2016 में, राज्य सरकार ने ‘लैंड बैंक’ पोर्टल की शुरुआत की थी। इसमें ज़िलावार ऐसी ज़मीन की जानकारी दी गई जिसका इस्तेमाल उद्योग और गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। बहुत से आदिवासी समूहों ने इसका विरोध किया। उनका कहना है कि उनकी सामान्य और खेती वाली ज़मीन को भी इस लैंड बैंक में शामिल कर दिया गया है। खूंटी ज़िले में नागरिक अधिकार समूहों के अभियान में पता चला था कि आदिवासियों के धार्मिक और दफ़नाने के स्थानों को भी इस लैंड बैंक में शामिल किया गया है।

बाद में नवंबर 2016 में, राज्य सरकार ने दो क़ानून -- छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट, 1908 और संथाल परगना एक्ट, 1949 में संशोधन करने का प्रस्ताव किया था, जिन्हें आदिवासी कार्यकर्ता, राज्य के आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ़ एक सुरक्षा का उपाय मानते हैं। ये दोनों क़ानून अनुसूचित जनजातियों (एसटी), अनुसूचित जातियों (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित ज़मीन को दूसरे वर्गों के लोगों के नाम पर ट्रांसफ़र करने पर रोक लगाते हैं।

राज्य के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने कहा था कि संशोधन से सरकार, इन ज़मीनों का इस्तेमाल उद्योग लगाने और सार्वजनिक सुविधाओं के लिए कर पाएगी। इसका झारखंड विधानसभा और पूरे राज्य में विरोध हुआ था। आदिवासी समूहों ने संशोधनों को वापस लेने तक अपना आंदोलन जारी रखने की चेतावनी दी थी। राज्यपाल, द्रौपदी मुर्मु ने संशोधनों पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था और इन्हें वापस सरकार को लौटा दिया था। इसके बाद सरकार को अगस्त 2017 में मजबूरन दोनों विधेयक वापस लेने पड़े।

इस कारण से ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल करने की सरकार की कोशिश को बहुत से लोगों ने ज़मीन के मामलों पर सरकार की उन नीतियों को लागू करने के तौर पर देखा था, जिनमें आदिवासी और कमज़ोर तबके के लोगों के अधिकारों को लगभग अनदेखा किया गया था।

आदिवासी समुदाय के ज़्यादातर लोग, डिजिटल प्रक्रियाओं से अंजान हैं। आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले सुनील केरेकेटा ने इंडियास्पेंड को बताया, “आदिवासियों में इस बात का डर था कि ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल करने के बहाने से सरकार उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर उसका इस्तेमाल उद्योगों के लिए कर सकती है।”

सुनील, गुमला ज़िले के आदिवासियों को उनकी ज़मीन की स्थिति की जांच में सहायता कर रहे हैं। सुनील ने कहा, “डिजिटल रिकॉर्ड में बहुत गड़बड़ियां हैं। हमने सैंकड़ों मामले [सिर्फ़ गुमला में] देखें हैं जिनमें लोगों की ज़मीन को किसी दूसरे के नाम पर ट्रांसफ़र कर दिया गया था या ज़मीन का साइज़ ग़लत दर्ज था। आपको झारखंड के हर गांव में ऐसे मामले मिल जाएंगे।”

क्यों निराश है नया टोली गांव

झारखंड के नया टोली एक अलग तरह का गांव है। इसकी सीमा तीन राज्यों, बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश से लगती है। इसमें ओरांव जनजाति के 19 ईसाई परिवार रहते हैं। उत्तर और मध्य भारत में ओरांव सबसे बड़े जनजाति समूहों में से एक है। मुकेश कुजुर ने बताया कि ये आदिवासी सदियों से यहां बसे हैं। 1973 में इन्होंने मिलकर 108 एकड़ ज़मीन खरीदी थी। इसमें से 18.27 एकड़ पर घर, स्कूल और एक चर्च बनाया। बाकी ज़मीन परिवारों में बांट दी गई। मुकेश ने इंडियास्पेंड को बताया, “हमने ज़मीन को ऐसे तरीके से बांटा जिससे हर परिवार को रहने और आजीविका के लिए पर्याप्त ज़मीन मिल सके।”

नया टोली में जिस खेत में ये पेड़ खड़ा है, वो ज़मीन अब उसके पुराने मालिक को ट्रांसफ़र कर दी गई है जिससे गांववालों ने चार दशक पहले यह ज़मीन ख़रीदी थी।

19 में से, 17 परिवारों में से हर एक के पास 4.57 एकड़ खेती की ज़मीन है, जबकि दो परिवार 8.43 एकड़ और 3.61 एकड़ ज़मीन के मालिक हैं। ये सभी परिवार इस ज़मीन पर धान और मक्का की खेती कर बमुश्किल अपना गुज़ारा करते हैं। कुछ परिवार चावल के बदले स्थानीय दुकानदारों से तेल, नमक और मसाले जैसी चीज़ें लेते हैं। कुछ पड़ोस के गांवों में खेत मज़दूरों के तौर पर काम करते हैं।

धान की खेती करने वाले दिलीप मिंज (32) ने

इंडियास्पेंड को बताया, “हर परिवार उस ज़मीन का मालिक है जिस पर वो रहता और खेती करता है। हमने आपस में पैसे इकट्ठे किए थे जिससे हम आत्मनिर्भर बन सकें।”

नया टोली गांव के लोग अपनी आजीविका के लिए ज़मीन पर निर्भर हैं। जिसकी वजह से यहां डर का माहौल है। साल 2017 में जब एक दिन नया टोली गांव के लोग लोकल कॉमन सर्विस सेंटर (प्रज्ञा केंद्र) पर अपना सालाना भूमि कर जमा करने पहुंचे तो उन्हें ज़मीन का ऑनलाइन रिकॉर्ड दिखाया गया जिसमें उनकी 108 एकड़ ज़मीन का मालिकाना हक़ उस व्यक्ति के नाम पर था जिससे उन्होंने 1973 में ये ज़मीन खरीदी थी। मुकेश ने कहा, “एक ही रात में, हम ज़मीन के मालिक से अतिक्रमण करने वाले हो गए।”

सीएससी अधिकारियों ने उनका टैक्स जमा करने से मना कर दिया। पिछले तीन साल से लगातार कोशिशों के बावजूद उनका टैक्स जमा नहीं हुआ है।

मुकेश ने कहा, “हमें डर है कि अगर हम टैक्स जमा नहीं करेंगे तो सरकार ये कह सकती है कि हमारा इस ज़मीन पर दावा नहीं है क्योंकि हमने टैक्स नहीं चुकाया है। इस वजह से सरकार पुराने मालिक को ज़मीन सौंप सकती है।”

मुकेश ने बताया, “हमने स्थानीय प्रशासन को कई बार अपने दस्तावेज़ दिखाए, जो हमारे मालिकाना हक़ को साबित करते हैं। मगर उन्होंने कहा कि वे कुछ नहीं कर सकते क्योंकि पूरा सिस्टम ऑनलाइन है।”

केंद्र की योजना को पूरा करने का दबाव

ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल करने का काम केंद्र सरकार के डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड्स मॉडर्नाइज़ेशन प्रोग्राम (डीआईएलआरएमपी) के तहत किया गया है। ये ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल बनाने की देश भर में चलाई जा रही योजना है। राज्य के अधिकारियों के अनुसार, इससे सभी ज़मीन के रिकॉर्ड का एक डेटाबेस बनेगा और उसका केंद्रीय प्रबंधन हो सकेगा।

डीआईएलआरएमपी, पिछली यूपीए सरकार की ओर से 2008 में शुरू किए गए नेशनल लैंड रिकॉर्ड्स मॉडर्नाइज़ेशन प्रोग्राम (एनएलआरएमपी) का एक नया रूप है। एनएलआरएमपी के लक्ष्य भी यही थे। आधिकारिक दस्तावेज़ों से पता चलता है कि डीआईएलआरएमपी के तीन मुख्य क्षेत्र हैं: ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल बनाना, ज़मीन के टुकड़ों का सर्वे करना, और ज़मीन के मालिकाना हक़ और ट्रांजेक्शंस की पूरी प्रक्रिया को डिजिटल करना।

डीआईएलएमआरपी डैशबोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक़, 2019 तक ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल करने के मामले में झारखंड की छठी सबसे ज़्यादा दर थी। साल 2008 से लेकर अब तक राज्य में 99% से अधिक ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल कर दिया गया है और 0.83% को डिजिटल किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के तहत, देश भर में 90.13% ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल कर दिया गया है।

झारखंड सरकार ने अधिकार के सभी रिकॉर्ड को ऑनलाइन कर दिया है, जिसमें ज़मीन मालिकाना हक़, वारिसों के बारे में जानकारी, कर्ज़ की देनदारी जैसी बातें मौजूद हैं। इसकी वजह से ज़मीन के रजिस्ट्रेशन की सभी प्रक्रिया 100% डिजिटल हो गई हैं।

लेकिन ज़मीन के वास्तविक सर्वे के मामले में झारखंड सबसे ख़राब प्रदर्शन वाले राज्यों में भी है। ज़मीन के 2.33% का सर्वे किया गया है और नए नक़्शे वास्तविक जांच के आधार पर बनाए गए हैं। डीआईएलआरएमपी के आंकड़ों के मुताबिक़, देशभर में सभी ज़मीन के 5.85% का सर्वेक्षण किया गया है।

नया टोली के लोगों का मानना है कि उनकी मुश्किलों के पीछे यही कारण है। दिलीप मिंज ने कहा, “अगर वे [सर्वेक्षण करने वाले] यहां आए होते, तो वे देखते कि इस गांव में परिवार बसे हैं और दशकों से इस ज़मीन पर खेती कर रहे हैं, और हमारे पास मालिकाना हक़ के दस्तावेज़ हैं। हमारे पास यहां एक स्कूल भी है। क्या अतिक्रमण की हुई ज़मीन पर कभी एक स्कूल बन सकता है?”

नया टोली से 45 किलोमीटर दूर, मोहम्मद कलामुद्दीन और उनके परिवार के पास तिसारतेतुका गांव में 23 एकड़ ज़मीन है। 38 साल के कलामुद्दीन और उनके परिवार के चार सदस्य इस ज़मीन के वारिस हैं। दो साल पहले, जब वे सीएससी गए तो ऑनलाइन रिकॉर्ड में उनके परिवार को ज़मीन के मालिक के तौर पर दिखाया जा रहा था। कलामुद्दीन ने बताया, “लेकिन मैंने देखा कि लिस्ट में हमारे परिवार के पांच सदस्यों के साथ एक छठा व्यक्ति ज़मीन के दावेदार के तौर पर था।”

गढ़वा में तिसारतेतुका गांव के यह निवासी जब कॉमन सर्विस सेंटर गए तो उन्हें पता चला कि ज़मीन के डिजिटल रिकॉर्ड में उनके परिवार की 23 एकड़ ज़मीन का एक और दावेदार हो गया है। उन्होंने पाया कि वह व्यक्ति उनके या पड़ोस के गांवों से नहीं था।

कलामुद्दीन ने इस व्यक्ति के बारे में कभी नहीं सुना था। उन्होंने बताया, “यह व्यक्ति मेरे गांव या पड़ोस के किसी गांव से नहीं है।”

कलामुद्दीन ने इसके बाद तुरंत स्थानीय राजस्व अधिकारी से संपर्क कर रिकॉर्ड को ठीक करने के लिए कहा। तब से दो साल बीत गए हैं और ग़लती सुधारी नहीं गई है। उन्होंने कहा, “हमें नहीं पता कि यह व्यक्ति कौन है और उसका इरादा क्या हो सकता है। अगर वो भविष्य में इस रिकॉर्ड का इस्तेमाल कर ज़मीन में अपना हिस्सा मांगता है तो क्या होगा?”

गड़बड़ियों का पता लगाना

झारखंड के राजस्व और सूचना प्रौद्योगिकी सचिव के के सोअन और ज़मीन रिकॉर्ड्स के निदेशक विप्रा भाल दोनों ने इंडियास्पेंड से बात करने से मना कर दिया और इस संवाददाता को भाल के विभाग के अधिकारियों के पास भेज दिया।

ज़मीन रिकॉर्ड्स के विभाग के एक अधिकारी ने अपना नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर कहा कि हो सकता है ऑनलाइन रिकॉर्ड में ग़लतियां और गड़बड़ियां प्राइवेट डेटा एंट्री एजेंसियों से हुई हों। साल 2008 से 2016 के बीच इन एजेंसियों को हर ज़िले में एक डिजिटल सॉफ़्टवेयर में ज़मीन के दस्तावेज़ी रिकॉर्ड को मैनुअल तौर पर दर्ज करने के लिए नियुक्त किया गया था। उन्होंने बताया कि उन्हें एजेंसियों के नाम की जानकारी नहीं है क्योंकि उन्हें ज़िला प्रशासन के स्तर पर नियुक्त किया था।

इस अधिकारी ने दावा किया कि ऐसी ग़लतियों को सुधारने के लिए पिछले साल ज़िलावार कैम्प लगाए गए थे। उन्होंने इस तरह की शिकायतों के समाधान की संख्या के बारे में कोई जानकारी या आंकड़े उपलब्ध नहीं कराए।

ज़मीन के ऑनलाइन रिकॉर्ड में गड़बड़ियां केवल झारखंड में नहीं हैं। नवंबर 2017 में, नेशनल काउंसिल ऑफ़ अपलाइड इकनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर), नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फ़ाइनेंस एंड पॉलिसी और इंदिरा गांधी इस्टीट्यूट ऑफ डवेलेपमेंट रिसर्च ने राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में डीआईएलआरएमपी लागू करने के बाद का ब्यौरा लिया।

हिमाचल प्रदेश में डिजिटल किए गए ज़मीन के रिकॉर्ड में 34% में सही मालिकाना हक़ का ब्यौरा नहीं दिखा, जबकि 78% रिकॉर्ड में वास्तविक स्थिति की तुलना में ग़लत ज़मीन बताई जा रही थी। आंकलन में पाया गया कि महाराष्ट्र और राजस्थान में भी मालिकाना हक़ के मामलों में बहुत कम ग़लतियां थी, लेकिन झारखंड की तरह महाराष्ट्र में 79% और राजस्थान में 68% रिकॉर्ड ग़लत थे।

एनसीएईआर की प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर, प्रेरणा प्रभाकर ने इंडियास्पेंड को बताया, “इन गड़बड़ियों की अधिक दर का कारण बिक्री या वारिस के कारण मालिकाना हक़ में बदलाव को दर्ज करने में असफ़लता थी। ज़मीन के विवादों के बढ़ने के लिए ये गड़बड़ियां एक प्रमुख कारण हैं और इस वजह से इस स्थिति को सुधारना ज़रूरी है।”

झारखंड के ज़मीन रिकॉर्ड विभाग के अधिकारी ने बताया कि ज़मीन के सर्वे से ग़लतियां और गड़बडियां ठीक हो जाएंगी। उनका कहना था कि राज्य ने 2017 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), रुड़की को तीन ज़िलों के 857 गांवों में सर्वे करने की ज़िम्मेदारी दी थी। सर्वे रांची, खूंटी और सिमडेगा ज़िलों में किया गया। इसमें सैटेलाइट इमेज के इस्तेमाल से सभी ज़मीन की जियोरेफ्रेंसिंग की गई। इसके साथ ही ज़मीन पर सर्वे के ज़रिये इन नक़्शों की पुष्टि की गई थी।

आईआईटी, रुड़की की सर्वे टीम के प्रमुख, दीपक सिंह ने बताया कि सर्वे का पहला चरण पूरा हो गया था लेकिन इसका महत्वपूर्ण दूसरा चरण शुरू होना बाकी है। दीपक सिंह ने कहा, “सभी गांवों की जियोरेफ्रेंसिंग पूरी करने के बाद, हमें ज़मीन पर काम करने के लिए अधिक कर्मचारियों की ज़रूरत है जो वास्तविक जांच के ज़रिये इन रिकॉर्ड्स की पुष्टि करेंगे।” उन्होंने बताया कि वो झारखंड सरकार के जवाब का इंतेज़ार कर रहे हैं।

हालांकि, उन्होंने प्रोटोकॉल का हवाला देकर ज़्यादा जानकारी देने से इंकार कर दिया। लेकिन आईआईटी, रुड़की के एक अन्य अधिकारी ने बताया कि ज़मीन पर जाकर पुष्टि करने के काम में कमी और ज़मीन के सर्वे में देरी से ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल करने में ग़लतियां हो रही हैं। उनका कहना था, “जब तक कर्मचारी 1932 में बनाए गए नक़्शों की ज़मीन पर जाकर पुष्टि नहीं करते, तब तक ऐसी ग़लतियां होती रहेंगी क्योंकि नक़्शे अपडेट नहीं किए गए हैं।”

इस देरी का मतलब है कि झारखंड में ज़मीन के रिकॉर्ड को डिजिटल करने से जुड़ी परेशानियां जल्दी दूर नहीं होंगी। राज्य के ज़मीन रिकॉर्ड विभाग के अधिकारी ने कहा कि रिकॉर्ड को डिजिटल करने के झारखंड के तरीक़े में सुधार, इस परीक्षण परियोजना के पूरा होने पर ही हो सकेंगे।

(कुणाल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, वह राजनीति, जेंडर, विकास, माइग्रेशन और उनके बीच के संबंधों पर लिखते हैं। वह स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़ के छात्र रहे हैं।)

यह रिपोर्ट 16 दिसंबर को IndiaSpend पर प्रकाशित हुई थी।

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