लखनऊ: "जब बारिश की ज़रूरत थी, तब हुई नहीं। धान के पौधों से फूल गिर गये। पैदावार आधी हो गई जबकि फसल एकदम ठीक थी। कोई रोग भी नहीं था। समय पर पानी न मिलने से लागत भी बढ़ गई। फिर भी किसी तरह से कुछ फसल बची तो बारिश ने बर्बाद कर दिया। बारिश तब हुई जब ज़रूरत नहीं थी। नुकसान और बढ़ गया। पिछले सीजन की तुलना में इस बार प्रति एकड़ एक लाख रुपए का नुकसान हुआ। बस यही समझिये कि लागत भी नहीं निकल पाई।" उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 700 किलो मीटर दूर जिला सहारनपुर के किसान रजनीश कुमार अपना दुख साझा करते हुए कहते हैं।

सहारनपुर से लगभग 630 और लखनऊ से 150 किलोमीटर दूर जिला बलरामपुर के पचपेड़वा के किसान अमित तिवारी (33 वर्ष) की कहानी भी रजनीश कुमार की ही तरह है। उन्होंने लगभग 2.5 एकड़ में धान लगाया था। उनके अनुसार उनकी पूरी फसल चौपट हो चुकी है। "बहुत अच्छी फसल थी। हमारे यहां पानी की कमी नहीं होती। सिंचित क्षेत्र है। हम खुश थे कि इस बार भी पिछली बार की तरह अच्छी पैदावार होगी। लेकिन अक्टूबर के पहले सप्ताह में हुई मूसलाधार बारिश ने पूरी फसल ही चौपट कर दी। पूरा खेत ही पानी में डूबा है।"

धान उत्पादन के मामले में देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के किसानों पर इस वर्ष दोहरी मार पड़ी है। पहले जब ज़रूरत थी, तब बारिश हुई नहीं। और जब किसी तरह से फसल पककर खड़ी हुई तो बारिश इतनी हुई कि खड़ी फसल बर्बाद हो गई।

आपको बताते चलें कि इस वर्ष मानसून में देरी और बारिश में कमी के चलते उत्तर प्रदेश में धान की रोपाई पर असर पड़ा। कृष‍ि व‍िभाग के आंकड़ों के मुताब‍िक, प‍िछले साल के मुकाबले इस बार 14 जुलाई तक 8.3 लाख हेक्‍टेयर क्षेत्र में धान की रोपाई नहीं हो पाई। प‍िछले साल 14 जुलाई तक करीब 35.29 लाख हेक्‍टेयर क्षेत्र में धान की रोपाई हुई थी और इस बार 26.98 लाख हेक्‍टेयर में ही धान की रोपाई हो पाई।

खेती किसानी पर जलवायु परिवर्तन की मार

क्लाइमेट ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट 2022 के अनुसार भारत को 2021 में अत्यधिक गर्मी की वजह से विनिर्माण, कृषि और निर्माण क्षेत्रों में अपने सकल घरेलू उत्पाद का 5.4% यानी 159 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। अभी डॉलर का जो रेट है, उसके हिसाब से ये भारतीय रुपयों के हिसाब से 13.04 लाख करोड़ रुपए है। यदि वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है, तो भारत में श्रम उत्पादकता में 1986-2006 की संदर्भ अवधि से 5% की गिरावट का अनुमान है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 2016-2021 के बीच, चक्रवात, अचानक बाढ़ और भूस्खलन जैसी चरम घटनाओं ने 3.60 करोड़ हेक्टेयर में फसलों को नुकसान पहुंचाया, जिससे देश में किसानों को 3.75 बिलियन डॉलर (30,750 करोड़ रुपए) का नुकसान हुआ। देश में नदी की बाढ़ से वार्षिक क्षति 1.5 डिग्री सेल्सियस के गर्म होने पर लगभग 49% बढ़ने की आशंका है। चक्रवात से होने वाले नुकसान में 5.7 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में पिछले 30 वर्षों में बारिश का पैटर्न बदला है जिसकी वजह से कृषि, वानिकी और मत्स्य पालन जैसी कई आर्थिक गतिविधियां बुरी तरह प्रभावित हुई हैं।

जलवायु परिवर्तन पर कई सरकारों की समिति (आईपीसीसी) की पिछले दिनों आई रिपोर्ट में जो दावा किया गया, वह बेहद गंभीर है। रिपोर्ट में कृषि और खेती पर गंभीर असर पड़ने का खतरा बताया गया है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में फसलों की पैदावार कम होगी।

आईपीसी की रिपोर्ट (पेज नंबर 1,492, चैप्टर 10) में यह भी बताया गया है कि भारत में धान, गेहूं, दलहन और मोटे अनाज का उत्पादन 2050 तक करीब 9 प्रतिशत घट सकता है। अगर उत्सर्जन उच्च स्तर पर बना रहता है तो देश के दक्षिणी इलाकों में मक्के का उत्पादन 17 प्रतिशत तक गिर सकता है।

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय,हिसार के कृषि मौसम वैज्ञानिक योगेश कुमार कहते हैं कि जिस तरह मौसम की मार किसानों पर पड़ रही, उसका असर आने वाले समय में और ज्यादा दिखेगा। वे कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन खेती ही नहीं, खाद्य सुरक्षा को भी प्रभावित कर रही है। अगर उपज की पैदावार प्रभावित होगी तो उपलब्धता, पहुंच और खपत भी प्रभावित होगी। अभी जलवायु में जो परिवर्तन हो रहा, उसका सबसे असर खेती-किसानी पर ही दिख रहा। आने वाले समय में भारत में हर साल जलवायु परिवर्तन का कृषि पर लगभग 4 से 9 प्रतिशत तक असर दिखेगा। हमें बहुत जल्द इस ओर प्रभावी कदम उठाने होंगे।"

समझिये उत्तर भारत के किसानों पर जलवायु परिवर्तन का असर

मई और जून का महीना धान की बुवाई के लिए सबसे सही समय माना जाता है। बुवाई के तीसरे सप्ताह से ही पानी की जरूरत पड़ने लगती है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार 1 जून से 24 अगस्त के बीच पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 294 मिलीमीटर बारिश हुई जो सामान्य से 41% कम है। इसी दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश में 314.9 मिमी बारिश हुई जो सामान्य से 46% कम है।

उत्तर प्रदेश में मानसून सीजन 1 जून से 24 अगस्त के बीच हुई बारिश की रिपोर्ट। सोर्स- आईएमडी

भारतीय मौसम विभाग के अनुसार उत्तर प्रदेश के 64 जिलों में इस मानसून (1 जून से शुरू होता है और 30 सितंबर) में सामान्य से कम बारिश हुई है, जिनमें से कई में सूखे जैसी स्थिति रही और जब कटाई का समय आया तो 1 से 10 अक्टूबर के बीच 129 मिमी बारिश हुई। ये बारिश 683 प्रतिशत अधिक है। एक रिपोर्ट कहती है धान की पूरी फसल को लगभग 220 मिमी बारिश की जरूरत पड़ती है।


अगस्त महीने में धान के खेत की दो तस्वीरें। तस्वीर जिला बाराबंकी की है

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय एक रिपोर्ट के अनुसार खरीफ सीजन 2019-20 में पश्चिम बंगाल 155.70 लाख मीट्रिक टन के साथ धान उत्पादन के मामले में सबसे आगे रहा। इसके बाद 155.24 मीट्रिक टन के साथ उत्तर प्रदेश दूसरे और 117.82 मीट्रिक टन के साथ पंजाब तीसरे नंबर पर था। इससे पहले वर्ष 2018-19 में यूपी में धान का उत्पादन 155.45 मीट्रिक था। ऐसे में जब उत्तर प्रदेश धान उत्पादन के मामले देश का अग्रणी राज्य है तो अगर उत्पादन प्रभावित होगा तो इसका असर भी दूरगामी होगा।

मुनाफा छोड़िये, लागत ही निकलना मुश्किल

उत्तर प्रदेश में जिन किसानों पर मौसम की मार पड़ी है, वे सोच रहे हैं कि अगर लागत ही निकल जाये तो बड़ी बात होगी।

लखनऊ से सटे जिला बाराबंकी के ब्लॉक सूरतगंज के गांव टाड़पुर में रहने वाले युवा किसान शैलेश शुक्ला,32, के साथ भी वैसा ही हुआ जैसा रजनीश और अमित के साथ हुआ।

शैलेश बताते हैं, "35 बीघा (8.77 हेक्टेयर) में धान लगाया था। लगभग 70 फीसदी फसल ज्यादा बारिश की वजह से बर्बाद हो गई। शुरू में बारिश हुई नहीं तो डीजल मोटर से सिंचाई करनी पड़ी। तब डीजल कर रेट 90 रुपए प्रति लीटर था। किसी तरीके से धान खड़ी हुई तो ज्यादा बारिश की वजह से फसल ही गिर गई। जब धान की फसल पककर कटने के लिए तैयार होती जाती है तो उसके पौधे मुलायम हो जाते हैं। खेतों में पानी जमा होने की वजह से टूटकर खेतों में गिर गये हैं। अभी खेतों में फसल डूबी है। धान जाम (अंकुरित हो रहा) रहा।"

"एक बीघा खेत में एक बार सिंचाई करने के लिए दो लीटर डीजल की खर्च हुआ। इस हिसाब से देखें तो 35 बीघा में लगभग 70 लीटर तेल लगा। ऐसी सिंचाई मैंने 7 बार किया।" शैलेश नफा-नुकसान का आकलन करते हुए चिंता के स्वर में बताते हैं।

"मतलब कुल 490 लीटर डीजल लगा जिसकी कुल लागत 44,000 रुपए से ज्यादा आई। कुल नफा-नुकसान का आंकलन हर साल करते थे। लेकिन इस साल नहीं किया। क्योंकि शुरू में ही इतनी लागत आ गई थी कि हम समझ चुके थे इस साल मुनाफा तो मुश्किल है।"

"हमारे क्षेत्र में 8 से 10 दिन के अंतराल पर पानी लगाना होता है।" शैलेश आगे कहते हैं। 120 से 140 (15 से 20 सप्ताह) दिनों में पकने वाली धान की फसल में औसतन 14 से 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी पड़ती है।

ज्यादा बारिश की वजह पर राज्य मौसम विभाग के निदेशक जेपी गुप्ता कहते हैं,"ओडिशा बंगाल की खाड़ी में कम दबाव बना हुआ था। इसकी वजह से पूरे देश में बारिश हुई और दबाव बना और भारत में भारी बारिश हुई है। धीरे-धीरे ये उत्तर-पश्चिमी दिशा में मध्य प्रदेश और बाद में पंजाब की ओर बढ़ गया। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में बारिश की वजह यही रही। इस बारिश के वजह किसानों को नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि तब उनकी खड़ी फसलें कटने वाली थीं।"

अक्टूबर में हुई बारिश के बाद धान का खेत। पूरी फसल डूबी है। तस्वीर शैलेश शुक्ला के खेत की है।

ऐसे में सवाल यह भी है कि किसानों के सामने विकल्प क्या हैं? इस बारे में फसल सुरक्षा वैज्ञानिक, कृषि विज्ञान केंद्र सीतापुर में कार्यरत डॉक्टर दया श्रीवास्तव कई पहलुओं पर बात करते हैं। वे कहते हैं, "इस सीजन में धान की फसलों पर जो प्रभाव पड़ा है, वह सीधे तौर पर पर्यावरण बदलाव का असर है। लेकिन अब किसानों को समझना होगा कि मौसम में उतार-चढ़ाव ऐसे ही रहेगा। हम उसे बदल नहीं सकते। ऐसे में अब जरूरी है कि किसान प्लान करके खेती करें और कम समय वाली फसल और बीज का चयन करें। अगर धान लगा रहे हैं तो ऐसे बीज का चयन करें जो कम समय में तैयार हो जाये। इसके अलावा कम या ज्यादा पानी को सहन कर सके।"

डॉक्टर श्रीवास्तव यह भी कहते हैं कि किसानों को पुरानी प‌द्धति की ओर लौटना पड़ेगा। "किसान अब खेती के पैटर्न को अपना ही नहीं रहे हैं। लगातार एक ही फसल लगा रहे। इसे बदलना होगा। किसानों को एक समय में अलग-अलग फसलों की खेती करनी पड़ेगी ताकि नुकसान कम किया जा सके। इसके अलावा हमें मोटे अनाज की खेती की ओर लौटना पड़ेगा। मोटे अनाट पर मौसम की मार कम पड़ती है।"

उत्तर प्रदेश सरकार में कृषि उत्पादन आयुक्त मनोज सिंह के साथ टेलीफोन पर हुई संक्षेप में बातचीत में उन्होंने कहा कि सरकार ने मौसम परिवर्तन से प्रभावित किसानों को हर प्रकार से मदद पहुंचाई है। "सरकार ने किसान भाइयों को उचित मुआवजा दिया है और इसका एलान तभी कर दिया गया था जब रोपाई के समय बहुत की काम बारिश हुई थी। सरकार जलवायु परिवर्तन की वजह से आ रही समस्याओं को लेकर बहुत ही चिंतित है और इसपर एक क्लाइमेट एक्शन प्लान बना कर कार्य भी कर रही है।"

पहले सूखे जैसे हालात, फिर बाढ़ ने बिगाड़ा खेल

देश में 1 जून से मानसून का सीजन शुरू हुआ जो 30 सितंबर को खत्म हुआ। मानसून की समाप्ति तक देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में सूखे जैसे हालात रहे। भारत मौसम विज्ञान विभाग के लखनऊ कार्यालय से मिली रिपोर्ट के अनुसार इस साल 1 जून से 30 सितंबर तक मानसून के मौसम में राज्य में सामान्य 745 मिमी के मुकाबले 533.8 मिमी बारिश ही हुई–28% कम रही। पिछले साल इसी अवधि में औसतन 758 मिमी बारिश हुई थी, जिस कारण बारिश की कमी 5% ही थी।

अक्टूबर में हुई बारिश से बर्बाद हुई फसलों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने मुआवजे का ऐलान किया है। किसानों को 30 दिन में और स्थानीय आपदा से क्षति होने पर 15 दिन में क्षतिपूर्ति का पैसा मिलेगा। आदेश के मुताबिक दैवीय आपदा (बारिश, अतिवृष्टि आदि) से फसल बर्बाद होने पर 30 दिन में किसान को पैसा दिया जायेगा। यदि क्षेत्रीय स्तर पर फसल को नुकसान हो रहा है तो 15 दिन में क्षतिपूर्ति का पैसा किसानों के खाते में भेजा जाएगा।

राहत आयुक्त उत्तर प्रदेश, प्रभु एन सिंह ने बताया कि प्रदेश के 36 जिलों के 2.55 लाख किसानों की फसल बर्बाद हुई है। वे बताते हैं, "भारी बारिश और बाढ़ की वजह से उत्तर प्रदेश के 36 जिलों में 98,098 हजार हेक्टेयर से ज्यादा फसल का नुकसान हुआ है। 2,55,919 किसानों की फसल खराब हुई है। जिलों से आई रिपोर्ट के अनुसार 76 हजार करोड़ रुपए मुआवजे की मांग की गई है।"

"किसानों को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई की जाएगी। जिलों से आई डिमांड का परीक्षण कर मुआवजा राशि भेजी जा रही है।" सिंह ने आगे बताया।

बारिश में भीगने के बाद धान की बाली

राज्य मौसम विभाग के निदेशक जेपी गुप्ता बताते हैं, "इस साल जून में शायद ही कहीं बारिश हुई। जुलाई के पहले पखवाड़े में भी बहुत कम बारिश हुई थी। तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि जून में शायद ही कोई बारिश हुई और जुलाई के पहले पखवाड़े में कम बारिश हुई। इस वजह से राज्य में मानसून सत्र में कम बारिश हुई।"

उन्होंने आगे जानकारी दी कि इस साल मानसून सत्र में सिर्फ पांच जिलों में अधिक बारिश हुई और 17 जिलों में सामान्य रही जबकि 53 अन्य जिलों में बारिश की कमी रही। जिन चार जिलों में अधिक बारिश दर्ज की गई, इनमें चित्रकूट (सामान्य से 59%), एटा (38%), देवरिया (29%) और औरैया (22%) शामिल हैं।

चित्रकूट में 1,248.4 मिमी, एटा में 698.2 मिमी, देवरिया में 1,000 मिमी और औरैया में 626.9 मिमी बारिश दर्ज की गई।

सामान्य मानसून देखने वाले यूपी के 17 जिलों में लखनऊ, बलरामपुर, बाराबंकी, खीरी, प्रतापगढ़, संत रविदास नगर, सोनभद्र, वाराणसी, आगरा, बदायूं, इटावा, हमीरपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर, हाथरस और मुजफ्फरनगर शामिल हैं।

इस बीच, फर्रुखाबाद, गौतम बौद्ध नगर, गाजियाबाद और कुशीनगर में क्रमश: 75 फीसदी, 73 फीसदी, 70 फीसदी और 63 फीसदी कम बारिश दर्ज की गई। फर्रुखाबाद में सामान्य 725.6 मिमी बारिश के मुकाबले केवल 182.3 मिमी बारिश हुई।

मानसून सीजन में जिन राज्यों में इस साल बारिश की कमी सबसे ज्यादा रही, उनमें उत्तर प्रदेश (28%), बिहार (31%), झारखंड (21%), मणिपुर (47%), मिजोरम (22%) और त्रिपुरा (24%) हैं।

मानसून सत्र तक राज्य के ज्यादातर जिलों में सूखे जैसी स्थिति रही। लेकिन सितंबर के आखिरी दिनों और अक्टूबर के पहले सप्ताह में इतनी बारिश हुई कि उत्तर प्रदेश के 21 से अधिक जिलों के 1,600 से ज्यादा गाँवों में बाढ़ आ गई।

भारत मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार 1 से 10 अक्टूबर के बीच उत्तर प्रदेश में 683 प्रतिशत अधिक बारिश दर्ज की गई। इस दौरान बिजनौर में सामान्य से 2,491% अधिक बारिश हुई। बरेली, बदायूं और बाराबंकी जैसे जिलों में इस दौरान 2,308 फीसदी, 2,082 फीसदी और 1,154 फीसदी 'बहुत ज्यादा बारिश दर्ज की गई।

उत्तर प्रदेश में 1 से 10 अक्टूबर के बीच हुई बारिश। तस्वीर आईएमडी से साभार।

देश पर क्या होगा असर

उत्तर प्रदेश से केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर हर साल भारी मात्रा में धान की खरीद करती है। खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग, उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र ने केंद्रीय पूल के लिए उत्तर प्रदेश से वर्ष 2019-20 में 37.90 लाख टन धान खरीदा था। 2020-21 में 44.78 और 2021-22 में 43.91 लाख टन धान की खरीद गई। खरीफ सीजन 2022-23 की रिपोर्ट आनी बाकी है। केंद्रीय पूल को धान देने के मामले में यूपी टॉप 10 राज्यों में से एक है। ऐसे में जब उत्पादन प्रभावित होगा तो केंद्र की फ्री राशन योजना तो प्रभावित होगी ही, इसके अलावा आम लोगों पर महंगाई की मार भी पड़ सकती है।

फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के अनुसार केंद्रीय पूल में अक्टूबर 2022 में 204.67 लाख मीट्रिक टन चावल का स्टॉक है जबकि 2021 में इस समय यही स्टॉक 253.26 लाख मीट्रिक टन था। इससे एक महीने पहले तक सितंबर 2022 तक केंद्रीय पूल में 244.63 लाख मीट्रिक टन चावल का स्टॉक था और सितंबर 2021 में सही स्टॉक 268.32 लाख मीट्रिक टन था।

आम लोग झेलेंगे महंगे चावल की मार

सरकार भी अपने बयान में यह कह चुकी है कि आने वाले समय में चावल की कीमतों में और बढ़ोतरी हो सकती है।

उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट में दावा किया गया कि 19 सितंबर 2022 तक चावल की खुदरा कीमतों में सप्ताह के दौरान 0.24 प्रतिशत, महीने भर में 2.46 प्रतिशत और साल भर में 8.67 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। चावल की कीमतों में पिछले पांच साल में औसतन 15.14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। उपभोक्‍ता कार्य, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय यह भी कह चुका है कि 2002-23 के खरीफ सीजन में घरेलू चावल उत्पादन 6 प्रतिशत घट सकता है। इस तरह देखें तो कुल उत्पादन में 60 से 70 लाख मीट्रिक टन उत्पादन में कमी आ सकती है।

केंद्र सरकार ने सितंबर 2022 की शुरुआत में टूटे चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके अलावा गैर-बासमती चावल पर 20 प्रतिशत निर्यात शुल्क लगाया था। मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सितंबर में खुले बाजार में घरेलू टूटे चावल की कीमत 16 रुपये प्रति किलो थी, जो राज्यों में बढ़कर करीब 22 रुपये प्रति किलो हो गई। सरकार ने इसके पीछे तर्क दिया देश में चावल की कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिए ये फैसला लिया गया।

"खेती अब हमारे लिए मुश्किल काम हो गया है। पिछले एक दो वर्षों से हर बार हो रहा। धान, गेहूं हो या सब्जियां, सब पर मौसम की मार पड़ रही है। अब हम सोच रहे हैं कि आखिर ऐसा क्या किया जाये कि हमारी फसल बच जाये। अब सरकार को भी इस ओर पहल करनी चाहिए। मौसम का यही हाल रहा तो वह दूर नहीं जब खेती करना ही बंद कर देंगे। नुकसान उठाने से बेहतर होगा कि कुछ बोया ही ना जाये।" बड़ी हताश के साथ शैलेश अपनी बात खत्म करते हैं।